सोनिया गांधीः इच्छा के विपरित अनिवार्य जिम्मेदारी से भरा जीवन

क्या वे फिर उद्धारक बनेंगी?
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पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की पत्नी सोनिया गांधी, कांग्रेस में विरोध के बीच प्रभावी हुईं और उनका प्रभाव अंतरराष्ट्रीय होता गया।13 दलों वाले यूपीए में चेयरपर्सन के तौर पर राजनीतिक समन्वयक का पद संभालते हुए वे देश का एक बड़ा सियासी चेहरा बन गईं।

इंदिरा गांधी की छोटी बहू की तुलना में शांत और सौम्य स्वभाव वाली सोनिया राजनीतिक कभी नहीं रहीं।

अलबत्ता उनका पूरा राजनीतिक जीवन ही उन थोपा हुआ रहा। पति के अचानक चले जाने के बाद भारत की इस बहू के पास राजनीति एक विरासत के रूप में हाथ आई और राजनीतिक जीवन अनिवार्य जिम्मेदारी बन गया।

इच्छा के विपरित परिवार, बच्चों व सामान्य दांपत्य में लौटने की चाह से भरा जीवन।

इटली के आरबैस्सेनो से कई बार फोन घनघनाते रहे और परिवार देश लौट आने की गुहार लगाता रहा। लेकिन सोनिया इच्छाओं के खिलाफ गईं।

उस समय अपनी मां पाओलो माइनो से सोनिया ने कहा था- ‘अब भारत ही उनका घर है। जबकि बहन से कहा था- यह मेरा जीवन है। मैं अब इस देश को छोड़कर विदेश में नहीं बस सकती, क्योंकि वहां पर मैं सदा ही विदेशी ही रहूंगी।

इस तरह सोनिया कभी इटली नहीं लौटी और ना ही सामान्य जीवन में।

लेकिन इस समय वे दोबारा कांग्रेस की बागडोर संभाल रही हैं।

ये एक तरह से उनके लिए विद्रोह से भरी इच्छा को उठाने का बोझ है। ये वही बोझ है जिसे उनका बेटा राहुल उसी अनिच्छा के वशीभूत हारकर छोड़ आया जिसमें पिता के जाने के बाद बार-बार अपने ननिहाल लौट जाने की मनुहारें कैद रहीं।

बार-बार मखौल का शिकार होने वाले और कभी अपनी अपरिपक्वता से विरोधियों का आसान निशाना बन जाने वाले राहुल के लिए राजनीतिक जीवन इच्छा के खिलाफ चुना हुआ हिस्सा था।

राहुल के पास विरासत के विशाल कंटीले पथ पर चलने की वैसी जीवटता और संघर्ष की जिजीविषा दिखाई नहीं दी जो उनकी मां के पास थी।

वे मां की तरह बिल्कुल नहीं थे कि विरासत का बोझ भीतर के विद्रोह से उठाए रखते और अपने लिए रास्ता तैयार करते।

इस समय कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर एक लंबी पारी खेल चुकीं सोनिया गांधी अपने राजनीतिक जीवन के अवसान से दोबारा उसी पद पर हैं।

बतौर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया दूसरी पारी में मुझे एक महिला के तौर पर फिर आकर्षित कर रही हैं, जैसे बतौर महिला एक दूसरे देश में उतार-चढ़ाव और संघर्ष से भरा उनका जीवन आकर्षित करता रहा है।

इस कोलाहल में, उठापटक में और शोर के बीच जब मुख्यधारा की एक बड़ी, पुरानी पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी लगातार असफल रहे हों और विरोध की बजाय पार्टी सहित हंसी के पात्र बन रहे हों ऐसे में सोनिया गांधी एक थमी और ठहरी हुई ताकत के रूप में दिख रही हैं।

उनका नाम देश की मुख्य विपक्षी पार्टी के चेहरे के तौर पर दिखाई देता है। वैसा ही चेहरा जैसा एक समय निष्ठावान, ईमानदार और भरोसेमंद सिपहसालारों के अभाव में था।

सोनिया कांग्रेस की अध्यक्ष से ज्यादा उसकी उद्धारक बनी रहीं। उसे बनाए और बचाए रखने के बीच। वे कुछ भी नहीं थी, फिर भी सबकुछ थीं।

महाराष्ट्र के ताजा घटनाक्रम के बीच आज भी वे कुछ दिखाई दे रही हैं। भले ही तस्वीर धुंधली हो।

यकीनन, कांग्रेस इस समय हाशिए पर है। लेकिन उतनी अकेली नहीं जितनी 2014 के बाद रही थी। आज हालात दूसरे हैं। नक्शे बदल गए हैं और भारत कांग्रेस मुक्त नहीं हो पाया है।

छत्तीसगढ़, मप्र, राजस्थान, पुड्डुचेरी, पंजाब और अब महाराष्ट्र में शामिल होना उसकी स्थिति और उपस्थिति दोनों को दर्शाता है।

चित्र क्या निर्मित होगा नहीं पता। लेकिन सोनिया गांधी उतनी ही ताकतवर बनकर उभरी हैं जितनी कमजोर होने पर निशाने पर थीं। उतनी ही बड़ी हुईं हैं जितनी 1999 में शरद पवार की एनसीपी बनने पर झटका खाईं थीं और स्वर्गीय श्रीमती सुषमा स्वराज के बाल सुलभ और स्त्रीहठ के निशाने पर थीं।

फिलहाल इस पोस्ट का कोई मंतव्य नहीं है। ना मैं कांग्रेसी हूं और ना ही सोनिया गांधी का समर्थक। बात बस इतनी है कि यह नवंबर का महीना है और दिसंबर आने वाला है। और सोनिया गांधी के जीवन में दिसंबर एक महीना नहीं है, बल्कि इतिहास है।

कभी 28 दिसंबर 1997 को सोनिया ने राजनीति में प्रवेश का ऐलान किया था और 16 दिसंबर 2017 को उन्होंने एक विरासत छोड़ दी थी, लेकिन वही विरासत दोबारा उनके पास लौट आई है और दिसंबर दस्तक दे रहा है और सोनिया ना होते हुए भी कांग्रेस में फिर से दिखाई दे रही हैं।

तो क्या वे दोबारा उद्धारक बनेंगी?

सारंग उपाध्याय

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