दयानन्द और आर्य समाज
*दयानंद व आर्य समाज*
(Inner Voice- Nityanootan Broadcast Service)
आर्य समाज के प्रवर्तक महर्षि दयानंद सरस्वती के जन्म दिवस पर हम एक -दूसरे को मुबारक कह सकते है क्योंकि उन्होंने न तो किसी परिवार का पोषण किया ,न कोई मठ या आश्रम बनाया , न स्वयं को किसी गुरु गद्दी पर आरूढ़ किया और न ही किसी गुरु-शिष्य परम्परा की शुरुआत की । उन्होंने एक ऐसा संगठन बनाया जिसके 10 नियम सरभौमिक थे और जो भी इन नियमों को मानता हो वह इसका सदस्य बन सकता है और जब भी इन नियमो से कोई मतभेद हो तो अलग हो सकता है । उनका मत था कि यह संगठन पूर्णतः लोकतांत्रिक रहेगा जिसकी वैधानिक सदस्यता ,नवीनीकरण, चंदा , एवम निर्वाचन होगा । उन्होंने वेदों का भाष्य भी करना चाहा पर वे इसे पूरा न कर सके परन्तु उन्होंने ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका ,स्वमन्तव्य प्रकाश आदि ग्रन्थ लिख कर वेदों को ही सत्य विद्याओं की पुस्तक सिद्ध करने का प्रयास किया । उनके द्वारा लिखी पुस्तक *सत्यार्थ प्रकाश* के 14 सम्मुलास में अपने विचारों को लिखा और इसकी भूमिका में लिखा कि भविष्य में यदि उनके विचार में कोई त्रुटि हो तो विद्वान लोग बैठ कर उसमें परिवर्तन कर सकते है ।
वे स्थान-2 पर घूमे । हर धर्म के आचार्य व विद्वानों से मिले । उनसे संवाद किया तथा समय रहते शाषरातर्थ भी किया पर अपने मार्ग पर डटे रहे । मुस्लिम विद्वान सर सैयद अहमद खान तथा ईसाई पादरी उनके मित्र रहे जिनसे उनकी राष्ट्र निर्माण तथा साम्प्रदायिक सद्भाव की चर्चा हमेशा रहती थी ।
दयानंद जहाँ अपने सिद्धांतों के प्रति कठोर थे वहीं अपने विचार तथा मेल- मिलाप में उदार थे । पौराणिकता के गढ़ काशी में वे सनातन धर्मी पंडितो ,मठाधीशों एवम विद्वानों से भिड़ गए । अपमान व हिंसा के भी शिकार हुए परन्तु घबराए नही । चांद पुर में जब उन्हें कहा गया कि * *यहां का तहसीलदार उनका अनुयायी है और यदि उन्हें कह कर मस्जिद की दीवार जो गली में बाधा उत्पन्न करती है को तुड़वा कर सीधी करवा दी जाए तो हिन्दू धर्म पर उपकार होगा* तो उन्होंने स्पष्ट कहा कि वे किन्ही मंदिर -मस्जिद के झमेले में पड़ने वाले नही है। उदयपुर के महाराणा ने तो उन्हें प्रलोभन देते हुए कहा था कि यदि वे मूर्तिपूजा का खंडन करना छोड़ दे तो उन्हें एकलिंग जी मंदिर का महंत बना दिया जाएगा तो इस प्रस्ताव को ठुकराते हुए वे बोले कि वे ईश्वर के साम्राज्य के अधीन है और मेवाड़ के राज्य को तो एक दौड़ में पार कर सकते है । हरिद्वार में महाकुंभ के अवसर पर उन्होंने पाखण्ड खंडिनी पताका लहरा कर उन्होंने धर्म की कुरीतियों ,उसमे फैले अंधविश्वास तथा आडम्बर का विरोध किया ।
उन्होंने आर्य समाज को किसी मंदिर में कैद नही किया और न ही उसे किसी कर्मकांड के आधीन कैद किया । उन्होंने आर्य समाज के भवन को अवश्य स्वीकृति दी जो संवाद के स्थान होंगे ।
स्वामी जी के विचार आज भी प्रासंगिक है अथवा नही ,इस पर चर्चा हो सकती है परन्तु यह सत्य है कि दयानन्द तो दयानन्द ही थे जिनका कोई सानी नही । उनका बनाया आर्य समाज अब मन्दिरो में सिमट गया है जहां ज्ञान-विज्ञान की कोई चर्चा न होकर समाज की संपत्ति व उन्हें संजोने की नीतिगत चर्चा रहती है । जिस समाज पर संसार के उपकार की जिम्मेवारी थी वह एक कोरा संकीर्ण धार्मिक संगठन बना दिया गया है । अब वह किसी भी पाखण्ड, आडम्बर व कर्म कांड को देख कर भी चुप है तथा अपने को उसी गिनती में शामिल करना चाहता है जिसकी जहरीली बयार बड़ी तेजी से बह रही है ।
ऐसे समय मे कौन रास्ता दिखायेगा यह एक प्रश्न है ?
स्वामी दयानंद के जन्मदिन पर उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि ।
राम मोहन राय
बेंगलुरु/ 18.02.2020
(Inner Voice- Nityanootan Broadcast Service)
आर्य समाज के प्रवर्तक महर्षि दयानंद सरस्वती के जन्म दिवस पर हम एक -दूसरे को मुबारक कह सकते है क्योंकि उन्होंने न तो किसी परिवार का पोषण किया ,न कोई मठ या आश्रम बनाया , न स्वयं को किसी गुरु गद्दी पर आरूढ़ किया और न ही किसी गुरु-शिष्य परम्परा की शुरुआत की । उन्होंने एक ऐसा संगठन बनाया जिसके 10 नियम सरभौमिक थे और जो भी इन नियमों को मानता हो वह इसका सदस्य बन सकता है और जब भी इन नियमो से कोई मतभेद हो तो अलग हो सकता है । उनका मत था कि यह संगठन पूर्णतः लोकतांत्रिक रहेगा जिसकी वैधानिक सदस्यता ,नवीनीकरण, चंदा , एवम निर्वाचन होगा । उन्होंने वेदों का भाष्य भी करना चाहा पर वे इसे पूरा न कर सके परन्तु उन्होंने ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका ,स्वमन्तव्य प्रकाश आदि ग्रन्थ लिख कर वेदों को ही सत्य विद्याओं की पुस्तक सिद्ध करने का प्रयास किया । उनके द्वारा लिखी पुस्तक *सत्यार्थ प्रकाश* के 14 सम्मुलास में अपने विचारों को लिखा और इसकी भूमिका में लिखा कि भविष्य में यदि उनके विचार में कोई त्रुटि हो तो विद्वान लोग बैठ कर उसमें परिवर्तन कर सकते है ।
वे स्थान-2 पर घूमे । हर धर्म के आचार्य व विद्वानों से मिले । उनसे संवाद किया तथा समय रहते शाषरातर्थ भी किया पर अपने मार्ग पर डटे रहे । मुस्लिम विद्वान सर सैयद अहमद खान तथा ईसाई पादरी उनके मित्र रहे जिनसे उनकी राष्ट्र निर्माण तथा साम्प्रदायिक सद्भाव की चर्चा हमेशा रहती थी ।
दयानंद जहाँ अपने सिद्धांतों के प्रति कठोर थे वहीं अपने विचार तथा मेल- मिलाप में उदार थे । पौराणिकता के गढ़ काशी में वे सनातन धर्मी पंडितो ,मठाधीशों एवम विद्वानों से भिड़ गए । अपमान व हिंसा के भी शिकार हुए परन्तु घबराए नही । चांद पुर में जब उन्हें कहा गया कि * *यहां का तहसीलदार उनका अनुयायी है और यदि उन्हें कह कर मस्जिद की दीवार जो गली में बाधा उत्पन्न करती है को तुड़वा कर सीधी करवा दी जाए तो हिन्दू धर्म पर उपकार होगा* तो उन्होंने स्पष्ट कहा कि वे किन्ही मंदिर -मस्जिद के झमेले में पड़ने वाले नही है। उदयपुर के महाराणा ने तो उन्हें प्रलोभन देते हुए कहा था कि यदि वे मूर्तिपूजा का खंडन करना छोड़ दे तो उन्हें एकलिंग जी मंदिर का महंत बना दिया जाएगा तो इस प्रस्ताव को ठुकराते हुए वे बोले कि वे ईश्वर के साम्राज्य के अधीन है और मेवाड़ के राज्य को तो एक दौड़ में पार कर सकते है । हरिद्वार में महाकुंभ के अवसर पर उन्होंने पाखण्ड खंडिनी पताका लहरा कर उन्होंने धर्म की कुरीतियों ,उसमे फैले अंधविश्वास तथा आडम्बर का विरोध किया ।
उन्होंने आर्य समाज को किसी मंदिर में कैद नही किया और न ही उसे किसी कर्मकांड के आधीन कैद किया । उन्होंने आर्य समाज के भवन को अवश्य स्वीकृति दी जो संवाद के स्थान होंगे ।
स्वामी जी के विचार आज भी प्रासंगिक है अथवा नही ,इस पर चर्चा हो सकती है परन्तु यह सत्य है कि दयानन्द तो दयानन्द ही थे जिनका कोई सानी नही । उनका बनाया आर्य समाज अब मन्दिरो में सिमट गया है जहां ज्ञान-विज्ञान की कोई चर्चा न होकर समाज की संपत्ति व उन्हें संजोने की नीतिगत चर्चा रहती है । जिस समाज पर संसार के उपकार की जिम्मेवारी थी वह एक कोरा संकीर्ण धार्मिक संगठन बना दिया गया है । अब वह किसी भी पाखण्ड, आडम्बर व कर्म कांड को देख कर भी चुप है तथा अपने को उसी गिनती में शामिल करना चाहता है जिसकी जहरीली बयार बड़ी तेजी से बह रही है ।
ऐसे समय मे कौन रास्ता दिखायेगा यह एक प्रश्न है ?
स्वामी दयानंद के जन्मदिन पर उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि ।
राम मोहन राय
बेंगलुरु/ 18.02.2020
Comments
Post a Comment