भारत-नेपाल सम्बन्ध

*Inner Voice*

(Nityanootan Broadcast Service)

*भारत -नेपाल के बीच बेहतर सम्बन्धों के लिये संवाद जरूरी



हमारे पड़ोसी देश नेपाल की संसद द्वारा कल अपने नक्शा सम्बन्धी पारित प्रस्ताव से दोनों देशों के बीच टकराहट की गूंज सुनाई देने लगी है । हर नेपाली नागरिक अपनी संसद ,संविधान व सम्प्रभुता का उसी तरह सम्मान करता है जैसे कि हर भारतीय करता है । उसमें संशोधनों व नया कानून कई बार इतना लोकप्रिय अथवा आलोचनात्मक होता है जिसे बहुमत तो पसंद करता है , परन्तु अल्पमत उससे स्वयं को भयभीत महसूस करता है जो कि स्वभाविक भी है ।
    नेपाल हमारा पड़ोसी देश ही नही अपितु अनेक मामलों में हमारे जैसा ही है। हमारे सांस्कृतिक , सामाजिक व पारिवारिक सम्बन्ध तो है ही, इसके अतिरिक्त भावनात्मक सम्बन्ध भी है । पर ऐसा नहीं है कि ऐसे सम्बन्ध हमारे इसी पड़ोसी देश से है। पाकिस्तान ,बांग्लादेश तथा बर्मा तो एक समय मे  एक ही देश थे । इसके विपरीत नेपाल न तो कभी भी हमारा हिस्सा रहा ,न ही ईस्ट इंडिया कंपनी व ब्रिटिश साम्राज्य का ग़ुलाम। सन 1816 में तत्कालीन कम्पनी सरकार और नेपाल शाही के कुछ समझौते हुए जिनकी बुनियाद ही दोनों देशों में सीमा हदबंदी का आधार बनी । इस बात में भी दो राय नही कि भारत एक हिन्दू समाज बाहुल्य राष्ट्र होने की वजह से दोनों देशों में यह बात भी प्रगाढ़ रिश्तों की कारक बनी ।
      नेपाल की जनता ने विगत अनेक वर्षों में राजशाही के विरुद्ध एक लंबा संघर्ष लड़कर अपने देश मे प्रजातंत्र की स्थापना की है तथा पंचायती शासन व्यवस्था से संसदीय प्रणाली की तरफ मुड़े है । उनके लिये न तो यह परिवर्तन आसान रहा और न ही उसके बाद एक नई संविधानिक सत्ता का निर्माण करना । अनेक महत्वपूर्ण बातों के अतिरिक्त नेपाल में सेना का पुनर्गठन कर उनमें उन युवाओं को शामिल करना जो राजशाही के विरुद्ध  अपने हथियारों से गुरिल्ला अथवा खुली लड़ाई लड़ रहे थे तथा वहाँ एक धर्मनिरपेक्ष राज्य की घोषणा करना है । आज के नेपाल के नवनिर्माण में मित्र देश भारत की एक अति महत्वपूर्ण भूमिका रही, जो वांछित भी थी । परन्तु यह भूमिका व सहयोग एक मित्र पड़ोसी देश को रहा न कि किसी कथित हिन्दू राष्ट्र को।  वह हिन्दू राष्ट्र रहे अथवा हिन्दू समाज रहे ,यह उनका आंतरिक मामला है । पर यह तो अत्यंत दुखदायी था कि वहाँ एक धर्मराष्ट्र व राजशाही के चलते अपने देश के सामान्य जन की समस्याओं को सुलझाने में वे सर्वथा असमर्थ थे । ऐसा भारत के लिये भी सबक था कि धर्म के नाम पर चलने वाले देश चाहे वह इस्लामिक पाकिस्तान हो या हिन्दू नेपाल , वे मूल समस्याएं हल नही कर पाएंगे ।
                 नेपाल की भौगोलिक ,प्राकृतिक व राजनीतिक सीमाएं भी अन्य राष्ट्रों से अलग सी ही है । उसके एक तरफ चीन ,दूसरी तरफ भारत है । किसी भी तरफ समुद्र नही है और यह जल संसाधन व्यापार के लिये बहुत ही आवश्यक है । अतः वह पूर्ण रूप से भारत की बंदरगाहों का ही इस्तेमाल करता रहा । सड़क मार्ग भी उसका हमारे देश से ही सरल रहा । वहाँ के लोग काम की तलाश में भी भारत मे ऐसे ही आते है। क्योंकि दोनों देशों के बीच वीजा बाध्यता न होने की वजह से यहां आना सुगमता है । यहां तक कि वहाँ के साहसी व वीर नौजवानों ने भी भारतीय रक्षा सेनाओं में गोरखा रेजिमेंट में शामिल होना सहज महसूस किया । इसकी यह समझ भी रही कि दोनों देशों में इतने भातृ सम्बन्ध है कि इनके बीच कभी भी युद्ध की स्थिति तो बनेगी ही नही । पर अब स्थितियां बदलने लगी है । बलशाली चीन अपना वर्चस्व बढ़ाना चाहता है । भारत अब अमेरिका के नजदीक आ रहा है । इससे चीन नाखुश है तथा वह भी नेपाल के करीब आकर हमे कुछ कहना चाहता है ।
    नेपाल उतना ही गरीब व अमीर देश है जितने कि हम। उनके युवा भी वैसे ही अपने देश से बाहर बेहतर काम की तलाश में जा रहे हैं  जैसे कि हमारे देश के । पर अब उनके पास भारत जाने के अतिरिक्त अन्य देशों में  जाने के अनेक ऑप्शन है और वे उसका भरपूर लाभ ले रहे हैं । वैश्वीकरण ने उनकी सीमाओं को भी तोड़ दिया है । नेपाल अब पर्यटन व्यापार के लिये एक आकर्षण केंद्र बन रहा है । वहां बढ़ते उद्योग ,पर्यटन और खनिज उत्पाद ने रोजगार के अवसर भी बढ़ाये है, जो श्रम व प्रतिभा निकासी को रोकने का काम करेगा ।
    सन 2005 में राजशाही समाप्त होने के बाद अब नेपाल  एक सम्प्रभु ,लोकतांत्रिक व धर्मनिरपेक्ष राज्य बन गया है । अब वहां एक संसदीय प्रणाली है । वह अपना परिचय इसी रूप में चाहता भी है । वह नही चाहता कि कोई अब उसे एक कमजोर देश के रूप में देखे । अब भगवान विष्णु के कथित प्रतिनिधि राजा का अधिनायकत्व समाप्त है तथा अब वह यह भी नही चाहता कि भारत सहित किसी भी देश के लोग स्वयं को वरपक्ष भगवान राम के गांव-देश के कहे और नेपाल को वधु सीता का देश और फिर ऐसा ही समधाना व्यवहार करें व उनसे भी ऐसा ही चाहे ।
      प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने सन 2014 में पदभार सम्भालते ही जिस विदेश नीति "पड़ोसी पहले" के सन्देश के साथ नेपाल सहित सभी पड़ोसी देशों का दौरा करके एक अच्छी पहल की । श्री मोदी की उस यात्रा का नेपाल में जिस तरह से भरपूर स्वागत हुआ ,उससे अनेक आशाएं बंधी। पर जब अगले ही वर्ष उन्होंने नेपाल दौरे के नाम पर माता सीता की जन्मभूमि यानी मिथलापुरी की तीर्थयात्रा की तो नेपालियों ने इसे अच्छा नही माना और काठमांडू सहित पूरे देश में तालाबंदी की ।  नेपाली जनता अब भावनात्मक सम्बन्धो से हट कर पूर्ण राजनयिक व राजनीतिक सम्बन्धो को मजबूत करना चाहती थी। जो कि किन्हीं सम्प्रभु दो राष्ट्रों में होने चाहिए ।
    हमारे दोनों देशों में कड़वाहट जब ज्यादा मुखर हुई ,जब वहां के आंतरिक राजनीतिक आंदोलन में हमारे सामान की आवाजाही पर रोक लगी । यह कड़वाहट तब भी बढ़ी, जब वहां भेजी जाने भूकम्प पीड़ितों की सहायतार्थ  राहत सामग्री को किन्हीं धार्मिक राजनीतिक संगठनों की मोहर लगा कर भेजा गया और उन्होंने इस पर आपत्ति की ।
     नेपाली संसद में गत दिवस वहां के नक्शे के स्वीकृति प्रस्ताव को सर्वसम्मति से पारित करने के बाद आपसी रिश्ते और अधिक कटुतापूर्ण हुए है । एक अच्छे दोस्त पड़ोसी देशों के बीच ऐसा तनाव दुर्भाग्यपूर्ण है । सम्भवत: नक्शा विवाद  नेपाल का यह दर्शाना भी हो कि अब वह कोई छोटे भाई अथवा पिछलग्गू देश न होकर एक प्रभुता सम्पन्न देश है ।फिर भी इस विवाद को दोनों तरफ की बातचीत के जरिये टाला जाना चाहिए था ।
      क्या ऐसा हो सकता है कि हम दोनों देशों के सम्बंध  सौहार्दपूर्ण न हो और चीन सहित दूसरे देश इसका लाभ न उठाएं ?
      ऐसी स्थिति होने पर न केवल दोनों देशों की सरकारों अपितु जनता और विशेषकर मीडिया को भी जिम्मेदारी निभानी होगी । क्या अंधराष्ट्रवाद किसी भी लोकतंत्र के लिये उपयुक्त है? न केवल भारत अपितु नेपाल में भी इसकी यकायक बढ़ोतरी हुई है । हम अपनी राष्ट्रभक्ति को सर्वोच्च माने तथा दूसरों को इससे बचने की सलाह दे तो यह कहां तक यथोचित होगा । सरकारे चाहे भारत में  हिन्दू राष्ट्रवाद की हामी हो या नेपाल में कम्युनिस्ट ,दोनों ही जनता की मूल समस्याओं को सुलझाने में विफल रही है । अब इन सरकारों के पास एक ही विकल्प है कि जनता को उनकी समस्याओं के प्रति हटाने का क्रम जो अंधराष्ट्रवाद से अच्छा कोई नही दे सकता ।
      मीडिया का भड़काऊ व्यवहार भी आग में घी डालने का काम कर रहा है और दूसरी और अंधराष्ट्रवाद के नशे में डूबे अहंकारी देशभक्त कहते नही थकते कि इन नेपालियों की यह हिम्मत अथवा उनके भाषा उच्चारण की फूहड़ नकल निकालना , आपसी रिश्तों को बिगाड़ कर विवाद को ही बढ़ाएगा । ऐसे ही उच्चारण नेपाल में भी चल रहे है ।
      न केवल नेपाल अपितु हमारे सभी पड़ोसी देशों के साथ सम्बन्ध बेहतर नही है।  बेशक इसमें हमारी गलती न हो ,परन्तु ये सब बातें हमारे खिलाफ दुष्प्रचार के लिये काफी है कि हम अपने पड़ोसी देशों को हेय दृष्टि से देखते हुए उनसे समानता का व्यवहार नही करते ।
      बीजेपी की श्री नरेन्द्र मोदी की दूसरी पारी की सरकार ने अनेक उग्र  आंतरिक फैसले लिए है। जिनका हमारे देश मे चाहे भारतीय जनता ने  जितना भी स्वागत किया हो, पर उनका एक गलत संदेश पड़ोसी देशों में गया है । जम्मू- कश्मीर में अनुच्छेद 370 का हटना व जम्मू , कश्मीर व लदाख को तीन अलग -२ स्वायत्तशासी प्रदेश बनाना व लदाख के भूभाग को विस्तार करके दिखाना भी ,इस विवाद का एक कारण है ।
       ऐसे समय मे दोनों देशों में बढ़ता तनाव दूसरे देशों को ही उनके हस्तक्षेप का मौका देगा । हमे यह भी समझना होगा कि आज खुद चीन में माओ व उनकी विचारधारा ,वहाँ की कम्युनिस्ट पार्टी तो नही मानती फिर नेपाल में माओवादियों की बढ़त, चीनी प्रभाव व उसकी  विचारधारा की बढ़त नही है। । चीन तो खुद अब के नेपाली नक्शे में दिखाए विवादित स्थल को शुरू से ही भारत का हिस्सा मानता है ।
     हम यह बखूबी जानते है कि भारत- पाकिस्तान की सीमा पर हमारे सख्त फौजी प्रहरियों के कारण सीमा में अवैध प्रवेश दुर्लभ है । हमारी यह शिकायत रहती है कि अब ऐसा प्रवेश नेपाल की सीमा से हो रहा है । हम दोनों देशों में विवाद होने की स्थिति में यह मानव तस्करी बढ़ेगी ही ।
    ऐसे कोई कारण नही कि भारत और नेपाल के बीच उठे विवाद सुलझाए नही जा सकते । इसके लिये बस जरूरत है मिल बैठ कर संवाद स्थापित करने की । दोनों देश एक -दूसरे की स्वायत्तता व सम्प्रभुता का आदर करें , नागरिक गरिमा व अस्तित्व को सम्मान दे । दोनों देशों में न तो किसी बिचौलिए की जरूरत है और न ही महाशक्ति के दखल की। बस चाहिए आपसी विश्वास और संवाद स्थापित करने की शक्ति ।
राम मोहन राय
पानीपत
15.06.2020

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