दीदी की छांव में
खाना बन रहा है। अब्दाली ने फिर पूछा क्या इन सबका खाना एक
साथ नहीं बनता ? जवाब था, नहीं। ये एक-दूसरे के हाथ का खाना नहीं खाते ।क्योंकि इनमें कोई ब्राह्मण, कोई शूद्र और कोई क्षत्रिय है।
अब्दाली इसे सुनकर खुशी से नाचने लगा और बोला, हम जीत गए क्योंकि जो एक साथ खाना नहीं खा सकते, वे एक साथ लड़ भी नहीं सकते। दीदी पानीपत की इस वारदात को भारतीय समाज में ऊंच-नीच तथा उसके परिणामों को समझाने में अक्सर प्रयोग करती थीं। इसी सम्मेलन में दीदी के साथ अहमद नगर (महाराष्ट्र) से डा.सुभाष अगाषे भी आए, पर पानीपत आते ही वे ऐसे बीमार पड़े कि उन्हें सम्मेलन को छोड़कर वापस दिल्ली जाना पड़ा और दिल्ली
जाते ही वे ठीक भी हो गये। इस पर दीदी का कहना था कि मराठों
को पानीपत रास नहीं आता।
एक बार ऐसा ही अनुभव दीदी के साथ पुणे जाने पर हुआ।
दीदी अपनी बहन कल्पना के घर ठहरी और मेरी ठहरने की व्यवस्था एक जाने-माने चिंतक और लेखक के घर पर की गई। उनका संपूर्ण परिवार अत्यंत सुसंस्कृत और मेहमान नवाज था। वे स्वयं भी का0. श्रीपाद अमृत डांगे के प्रिय साथियों में और भारतीय कम्यनिस्ट
पार्टी में रहे थे। उन्हें यह जानकार बेहद प्रसन्नता हुई कि मैं भी
सीपीआई में रहा हूं। वे भी मेरी तरह सीपीआई के अपने संस्थापक सदस्य कामरेड डांगे के प्रति व्यवहार से दुखी थे। देर शाम हम दोनों इन सभी विषयों पर चर्चा करते रहे। उनकी पत्नी ने रात्रि को मुझे बेहद स्वादिष्ट भोजन परोसा तथा बाद में रात को दूध पीने को दिया।
बातों ही बातों में उन्होंने मुझसे पूछा, बेटा तुम कहां के रहने वाले
हो? मैंने सरलता से जवाब दिया 'पानीपत का'। इतना सुनते ही
उनकी पत्नी बिना कुछ कहे घर के भीतर चली गई। इसके थोडी देर बार वे आए तथा मुझसे उनकी पत्नी के साथ क्या बातचीत हुई, के बारे में पूछा। मैंने कहा माता जी तो इतना पता चलते ही चली गई
कि मैं पानीपत का हूं। वे सारी स्थिति को भांप गए तथा बोले मराठी
दीदी की छांव में
निर्मला दीदी ने आखिरकार एक मई 2008 को अपनी जीवन की यात्रा पूरी कर ही ली।उन्हें स्वर्ग सिधारे 4 माह बीतने को है ।यह समय बड़ी मुश्किल से कटा ।वह एक ऐसी शख्सियत थीं जिनकी ने केवल रचनात्मक, सामाजिक, राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र में भूमिका थी, वही कार्यकर्ताओं के निजी तथा पारिवारिक दायरों में भी सार्थक दखलअंदाजी रहती थी ।सन 1975 में उनसे मेरी पहली मुलाकात हुई ।पूरे देश में आपातकाल का दौर था तथा वह अपने गांधी सेवक कार्यकर्ताओं को जुटाने के लिए घूम रही थीं ।उसी दौरान चौधरी निरंजन सिंह के साथ वह हमारे घर आई। छोटे कद की सफेद खादी सिल्क की साड़ी पहने एक मोहक सुंदर महिला जिनका आकर्षक तेजपूर्ण व्यक्तित्व सहज ही किसी को अपनी ओर खींच लेता था। मैं उस समय भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की छात्र इकाई ऑल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन में काम करता था ।दीदी से मिलकर कम्युनिस्टों में जो गांधी- विनोबा के प्रति गुस्सा होता था, वह मुझ में भी फूट पड़ा। गांधी को ब्रिटिश साम्राज्य का एजेंट तथा विनोबा को सरकारी संत कहने से भी मैं नहीं चूका ।उन्होंने गरीब के हित के लिए शांतिपूर्ण अहिंसक संघर्ष की बात कही। पर उस समय मेरा मानना था कि संघर्ष में शांति व अहिंसा की बात बेमानी है। अंत में दीदी ने कहा कि हम दोनों का संघर्ष तो एक ही है, पर रास्ते अलग-अलग हैं। इस सारी गर्मा- गर्मा बहस में मेरे पिता बीच में आ गए ।वह दीदी से क्षमा याचना करते हुए बोले,' यह बच्चा है, गर्म खून है, समझ जाएगा ,पर हां इसे अपनी छांव में रखिएगा। बात खत्म हुई और मुलाकात का पहला दौर भी। आपातकाल समाप्त हुआ। देश में परिवर्तन की लहर ने अंगड़ाई ली व लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में लड़ी जाने वाली जनतांत्रिक लड़ाई की जीत हुई तथा प्रसिद्ध गांधीवादी मोरारजी भाई प्रधानमंत्री बने ।'संपूर्ण क्रांति का नारा है ,भावी भविष्य हमारा है' का शंखनाद पूरे देश में गूंज गया ।जेपी ने इस जीत में कई प्रयोगों को भी सुझाया प्रतिनिधियों को वापिस बुलाने की बात भी की गई।
संपूर्ण देश में ऐसा वातावरण बना लगता था कि मानो एक नए युग की शुरुआत हो गई है ।भय और आतंक का वातावरण समाप्त हो गया है तथा निरकुंशशाही अब इतिहास की बात हो गई हो, पर यह क्या? सत्ता परिवर्तन के हामियों ने निहित स्वार्थों में अपनी ही सत्ता का परिवर्तन कर दिया। इस पर संपूर्ण क्रांति के प्रबल पक्षधर बाबा नागार्जुन ने अपने ही अंदाज में इसके झूठे चरित्र को झूम झूम कर गाया ।
1980 में इंदिरा जी दोबारा सिंहासनरूढ़ हुई और उसी दौर में पंजाब में अलगाववादी शक्तियां भी सरगर्म हुई। आतंक की पराकाष्ठा यह थी कि कोई भी ऐसा दिन नहीं जाता था ,जब निर्दोष नागरिकों को गोली का शिकार नहीं होना पड़ता था। पूरा पंजाब जल रहा था। प्रतिक्रिया के परिणामस्वरूप हरियाणा, दिल्ली तथा अन्य राज्यों में भी बदले की आग को बढ़ावा दिया जाने लगा। पानीपत में सिख विरोधी भावनाओं को भड़काये जाने के परिणामस्वरूप कई गुरुद्वारों तथा उनमें विराजमान पवित्र श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी की बीडो को जलाया गया। अनेक सिखों का कत्ल कर दिया गया। बेशक वे स्वयं को सरकार समर्थक कहते थे, पर वे हिंदुओं में स्वयं रक्षा के नाम पर त्रिशूल बांटने का काम करने लगे ।उनका नारा था,' शिव शंभू का जाप करेंगे-अपनी रक्षा आप करेंगे ।'ऐसा लगता था कि पंजाब का अलगाव ही देश की परिणिति है। मैं व हमारे साथियों ने भी ऐसे समय में अपनी जिम्मेदारियों को समझा और इस अलगाव तथा सांप्रदायिकता का मुकाबला करने के लिए एक छोटा प्रयास 'भगत सिंह सभा' बनाकर किया। हम इस नारे के पोषक थे ,न हिंदू राज न खालिस्तान, जुग जुग जिए हिंदुस्तान।' इस दौर में पूर्व प्रधानमंत्री गुलजारी लाल नंदा और प्रख्यात सामाजिक कार्यकर्ता श्रीमती अरूणा आसफ अली पानीपत आए तथा हमें उनके साथ काम करने का अवसर मिला ।उनके आगमन ने आग पर पानी फेंकने का काम किया। शांति हमारे यहां तो हुई, परंतु पंजाब आतंक के दावानल में फफक रहा था। ऐसे समय में एक दिन खबर आई कि निर्मला दीदी अपने कार्यकर्ताओं के साथ एक शांति यात्रा लेकर पंजाब जा रही हैं तथा अपनी यात्रा के दौरान पानीपत में भी अल्पावास करेंगी। मुझे दीदी के वे वाक्य याद आने लगे कि 'हमारा संघर्ष तो एक ही है, परंतु रास्ते अलग अलग है।' मुझे लगा कि उन्होंने सही ही कहा था। आज भी वह उसी संघर्ष को लड़ रही है, जिसकी आपदा को हम झेल रहे हैं ।भगत सिंह सभा के साथियों ने निश्चय किया कि इस यात्रा का स्वागत किया जाए और हम सब साथी, यात्री दल के पास पहुंचे जिसका नेतृत्व दीदी कर रही थी। मैंने जब अपना परिचय दिया तो वह मुस्कुरा कर बोली, 'कॉमरेड, काम कैसा चल रहा है?" शाम को एक प्रार्थना सभा आयोजित की गई ।जिसमें नगर की विभिन्न संस्थाओं तथा संगठन के सैकड़ों लोग इकट्ठे हुए ।दीदी ने अपनी यात्रा का उद्देश्य बताया तथा शांतिपूर्वक अहिंसक संघर्ष की व्याख्या की ।अपने व्याख्यान के अंत में उन्होंने भगत सिंह सभा के बारे में विशेष रूप से कहा और इसे अपने साथ जुड़ने का आह्वान किया । यह ऐसा मंजर था, मानो एक संक्रमण काल हो और छोटी नदी को भी समुद्र में मिलने का न केवल निमंत्रण मिला हो ,बल्कि रास्ता भी मिल गया हो।
9 सितंबर 2008
राम मोहन राय
: लडाई में लगभग 70 हजार मराठा सैनिक मारे गए तथा
तथा उनके खून से धरती लाल हो गई। किवदंती यह भी है कि लहू से धरतीको
सींचने पर उस समय की आम का फसल भी काले रंग की हुई ।
आज भी वह युद्ध स्थल 'काला आंब' के नाम प्रसिद्ध है। पुणे और
इसके आसपास के मरठावाड़ा क्षेत्र में शायद ही कोई ऐसा परिवार होगा, जिसका कोई सदस्य पानीपत की लड़ाई में काम न आया हो।
पानीपत उन लोगों के लिए एक ऐसा शोक स्थान था, जहां उनके
पूर्वजों ने अपने जीवन का बलिदान किया।
सन् 1986 में अखिल भारत रचनात्मक समाज के प्रांतीय सम्मेलन में भाग लेने के लिए निर्मला दीदी पानीपत आईं। उनके साथ थे,श्री वसंत साठे, पूर्व केंद्रीय मंत्री की पत्नी श्रीमती जयश्री साठे.
कांग्रेस महासचिव श्री वी एन गाडगिल की पत्नी श्रीमती सुनीता
गाडगिल तथा पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री सरदार दरबारा सिंह तथा सांसद श्री केयूर भूषण। ठसाठस भरे सम्मेलन में बोलते हुए दीदी ने सबसे पहले पानीपत को लेकर ही अपने अंदाज में बोलना शुरू किया कि जानते हो, पानीपत में मराठे क्यों हारे? उन्होंने कहा कि
पानीपत के मैदान में मराठा तथा अफगान सेनाएं आमने-सामने
खड़ी थीं। मराठों की फौज, अब्दाली के मुकाबले हर तरह से बेहतर और मजबूत थी। मराठे अपनी जीत के प्रति आश्वस्त ही नहीं थे, अपितु अहंकार में भी चूर थे। दोनों सेनाएं युद्ध के दिन के इंतजार में थीं। युद्ध से पूर्व दिवस शाम को अहमद शाह अब्दाली ने अपने सिपहसलार को कहा कि वह उस सेना को देखना चाहता हूं, जिससे अगले दिन उसकी सेना का मुकाबला होना है। सिपहसलार उन्हें एक ऊंचे स्थान पर ले गया तथा उसने वहां से विशाल मराठा सेना के
शिविरों को दिखाया। अब्दाली, इस तमाम शक्ति से भयभीत था,
पर उसने शिविरों में अलग-अलग धुआं उठते देखा तो वह अपनी जिज्ञासा न रोक सका और बोला कि यह अलग-अलग धुआ
क्यों उठ रहा है? सिपहसलार ने जवाब दिया हजूर सिपाहियों का
*मेरी मां*
मेरी मां सीता रानी जी का जन्म हरियाणा के हिसार नगर में एक
अंग्रेज परस्त परिवार में 5 जनवरी 1921 को हुआ था। उनके पिता
डिस्ट्रिक्ट इंजीनियर थे और मां एक अनपढ़, धार्मिक व घरेलू महिला। पिता एक सनातन धर्मी हिंदू तथा मां एक सिक्खनी। मेरी मां अक्सर मेरी नानी के बारे में बताती थी कि वह पहले गुरुद्वारे जाकर मत्था टेककर आती तथा बाद में मंदिर में पूजा करती। नाना को खाने-पीने की कोई पाबंदी न थी और इसी शौक के कारण वे जल्दी ही स्वर्ग सिधार गए। यद्यपि मेरी मां कोई ज्यादा पढ़ी-लिखी महिला नहीं थीं, परंतु वे विचारों से जागरूक थीं। देश में महात्मा गांधी के नेतृत्व में स्वतंत्रता का आंदोलन चल रहा था तथा संयुक्त पंजाब में हिसार उस आंदोलन का गढ़ था। इसी दौरान महात्मा गांधी, नेता जी सुभाष
चंद्र बोस जैसे लोग हिसार आए तथा मां भी उनके विचारों को सुनने जलसों में गईं और उन्होंने सन् 1938 में ही खादी पहनने का व्रत लिया। मां बताती थी कि किस तरह विदेशी वस्तुओं की होली में उसने अपना बेहतरीन सूट चुपचाप आग में फेंक दिया था । माँ उस दस्ते की भी सेनानी
थी, जो स्वतंत्रता सेनानियों के पत्रों को पहुंचाने का काम करता था। सन् 1938 में मेरी मां का विवाह पानीपत के एक अध्यापक सीता राम सैनी के साथ हो गया। मास्टर जी के नाम
। तुका राम, नाम देव और अन्य संतों की कहानियां
दीदी ने सारे रास्ते सुनाई और 36 घंटे का सफर कैसे तय हो गया
पता ही नहीं चला। वापसी में, दीदी के साथ पुणे में उनकी बहन डॉ कल्पना परांजपे के घर जाने का मौका मिला और फिर वहीं आगा खां पैलेस व अन्य स्थान देखकर वापस ट्रेन से आयें।
वैसे तो मैं आर्य समाजी परिवार में जन्मा तथा कम्युनिस्ट विचारधारा में पला-बड़ा था। मूर्ति पूजा और नमस्कार तो इन दोनों
अवस्थाओं में निषेद्ध था, परंतु दीदी के साथ रहकर मैं दोबारा
परमात्मा को मानने लगा तथा प्रत्येक धर्मस्थल में उसकी आस्था के अनुसार आदर करने में हिचक नहीं करता था। ईश्वर स्तुति के नाम पर मेरे लिए एक रटी-रटाई प्रार्थना थी, 'हे प्रभु ! यश दे, बल दे,धन दे, गुण दे, प्रेम दे, शक्ति दे, ज्ञान दे'। पर जब दीदी के साथ
पंढरपुर में विट्ठल बा के मंदिर में दर्शन के लिए गया तो रटी हुई
प्रार्थना की जगह एक ही बात निकली. 'हे प्रभु! मेरी मां को अपने चरणों में स्थान दें'। मंदिर से बाहर निकलकर मैंने दीदी से कहा कि यह क्या मैंने भगवान से मांग लिया, क्या अपनी मां के लिए मृत्यु? दीदी ने सांत्वना देते हुए कहा कि परमात्मा. सर्वदर्शी है तथा वह प्रार्थना भी उसी रूप में करवाता है। मंदिर के बाहर ही दीदी ने मेरी माता जी के सुख के लिए प्रार्थना की।
28 जून को देर रात मैं पानीपत पहुंचा। मुझे लगा कि मेरी माँ टकटकी बांध कर दरवाजे की तरफ देख रही हैं। मुझे देखकर, मेरे पिता ने उन्हें कहा, 'देख तेरा बेटा आ गया। मैं माँ से लिपट गया और सुबह उठकर अपनी यात्रा के दौरान दीदी द्वारा सुनाई गई, सभी कथा-कहानियों को उन्हें सुनाता रहा और वह उन्हें शांत भाव से सुनती रहीं, अंत में मेरे पिता जी बोले, 'देख तेरा बेटा विद्वान हो
गया है, कैसी-कैसे कहानियां सुना रहा है | उसी शाम को मेरी मां की पक्की सहेली विद्यावती सिंगला जो दिल्ली गयी हुई थी, अचानक ही हमारे घर आई और बोली बहन जी (मेरी माँ)
की याद आ रही थी, इसलिए चली आई। बीमारी के कारण, मां की याददाश्त कमजोर थी पर वह दो नाम नहीं भूली थी। विद्यावती
शिंगला का तथा मेरे बचपन का नाम 'कुक्कू'। विद्यावती शिंगला
को देखते ही मेरी मां ने इशारों में कुछ कहना चाहा, पर वे समझ
नहीं सकी। मुझे लगा कि वे कहना चाहती हैं कि उनके बाद उनके बच्चों का ख्याल रखना। मैंने जो ही मां को बताया तो मां ने हाथ हिलाकर अपनी सहमति दी। तत्पश्चात मेरी मां को मैंने पंढरपुर से लाया, तुलसी दल और नारियल जल का प्रसाद दिया और प्रसाद लेते ही, मेरी मां ओ३म ओ३म कहती प्राण छोड़ गईं। मैंने इसकी सूचना तुरंत दीदी को दी तो उन्होंने कहा, 'बेशक तुम्हारी जन्म देने वाली मां चली गई हैं, परंतु आज से मैं तुम्हारी मां हूं'।
___मेरी मां के साथ मेरी सदा आत्मीयता रही है। मुझे याद है कि जब मैं ताशकंद (तत्कालीन सोवियत संघ) 8 महीने को गया था तब मुझे हमेशा मेरी मां का ही अभाव खटकता था, यदि किसी चीज की कमी महसूस होती थी तो सिर्फ मां की। मैं अक्सर सोचता कि यदि मेरी मां भी मेरे साथ होती तो मुझे यहां कोई परेशानी नहीं थी।
हमारे संस्थान में ही एक रूसी भाषा की अध्यापिका थीं। अध्यापिका को रूसी में 'प्रिपदावात्सिल' कहते हैं। हम उन्हें 'प्रिपदावात्सिल
रईसा करीमोवना' कहकर संबोधित करते थे। एक दिन वे मुझसे रूसी में बोली 'राम मोहन, ती तोय मामा फोटो दा' (क्या तुम्हारे पास तुम्हारी मां की फोटो है) मैंने जवाब दिया 'दा' (हां)। मैंने एक छोटा दर्पण उठाया और उसमें उन्हें उनका ही प्रतिबिंब दिखाकर बोला, आना मिया मामा (यह मेरी मां है) । मेरी अध्यापिका मेरी यह बात सुनकर आह्लादित होकर बोली. 'आय मिया सिन' (वाह मेरे बेटे) । उन्हीं रूसी अध्यापिका ने हमें एक रूसी गीत सिखाया. जिसे मैं व मेरे साथी स्टेज पर गाया करते थे, जिसके बोल थे
'सोनचनी करू, नीयबा वक रूह,
ऐता रिसूनख मालचिस्की,
नारी स्वल अनालिस्तिकिया,
ई पत पिसल वुगलकीया।
पू सिगदा बू दू नेयबा
पू सिगदा बू दू सोनश
पू सिगदा बूदू मामा
पू सिगदा बू दू या।'
अर्थात्
आकाश में बहुत दिन के बाद,
खुली धूप खिली है तथा
इंद्रधनुष भी है। एक बच्चा
पतंग उड़ा रहा है और
अपनी खुशी का इजहार
यह कहकर कर रहा है कि
ऐसा यह आकाश हमेशा बना रहे,
उसमें ऐसे ही सूरज खिला रहे,
मेरी मां भी हमेशा बनी रही।
और उसके साथ मैं भी।
मेरी माँ के जाने के बाद निर्मला दीदी. मेरी मनोदशा को भांप रहा
थी, इसलिए उन्होंने मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र और तमिलनाडू के अपने कार्यक्रम में मुझे साथ चलने को कहा। हमारा सबसे पहला पड़ाव
जबलपुर था, जहा हम सड़क मार्ग से रायपुर पहुंचे और उसके बाद पंचमढ़ी होते हुए बस्तर जाना था। बस्तर भारत का सबसे बड़ा जिला है तथा इसकी खासियत यह भी है कि इसका कोई भी हिस्सा रेलवे
मार्ग से जुड़ा हुआ नहीं है। आदिवासी बाहुल्य इस क्षेत्र में प्राकृतिक सौंदर्य देखते ही बनता है। इस क्षेत्र में एक गांव में दीदी के अनन्य सहयोगी पद्म विभूषण श्री धर्मपाल सैनी, आदिवासी बालिकाओं के लिए एक आवासीय आश्रम स्कूल चला रहे हैं। धर्मपाल भाई नेअपना संपूर्ण जीवन ही इसी सेवा में लगा दिया। धर्मपाल भाई के बारे में दीदी ने बताया कि बाबा विनोबा तीन भाई थे और थे वे सभी
जन्मजात ब्रह्मचारी। एक दिन बाबा ने सायंकालीन सभा में कहा,'हम तीनों भाई ब्रह्मचारी हैं, हमें खेद रहेगा कि हमारी मृत्यु के बाद हमारे माता-पिता की स्मृति नहीं रह पाएगी'। इस पर वहीं बैठे
धर्मपाल भाई ने तुरंत इसकी जिम्मेदारी लेते हुए कहा कि वे इस कार्य को करेंगे। वहीं उन्होंने आजीवन ब्रह्मचर्यत्व का संकल्प लेकर,बस्तर क्षेत्र में आदिवासी बालिकाओं के लिये, विनोबा जी की मां'माता रूकमणी देवी सेवा संस्थान' के नाम से काम शुरू किया।आज वही माता रूकमणी देवी सेवा संस्थान अनेक अद्भुत कार्य कर रहा है, जिससे न केवल संत विनोबा की मां की स्मृति चिरस्थायी है, वहीं संस्थान के कार्यों के जरिए मां भी अमर हो गई हैं। दीदी ने मेरी ओर घूमकर देखा और बोली, राम मोहन जी, तुम भी अपनी मां को हमेशा अपने पास जिंदा रख सकते हो। दीदी का आशय मैं समझ चुका था । दीदी ने उनके कामों को सेवामय में बनाने के लिए एक संस्था बनाने की सुझाव दिया और स्वयं इसका नामकरण किया 'माता सीता रानी सेवा संस्था' । दीदी जीवन पर्यंत इस संस्था की संरक्षिका रही और उनके नेतृत्व तथा मार्गदर्शन में यह संस्था अपनी स्थापना के वर्ष 1992 से महिलाओं के सशक्तिकरण विकास तथा कल्याण के लिए निरंतर कार्य कर रही है ।अपने हस्तलिखित आशीर्वचनों को दीदी ने इस रूप में भेजा
*मेरे पिता*
मेरे पिता मास्टर सीताराम सैनी एक बहुत ही सीधे-साधे तथा सात्विक प्रवृति के व्यक्ति थे। जिला सोनीपत के गांव बली कुतुबपुर में एक गरीब किसान परिवार में उनका जन्म हुआ। मेरे दादा श्री बख्तावर सिंह
का, मेरे पिता जी के बचपन में ही देहांत हो गया था। मेरी दादी श्रीमती मेवा देवी ने, मेरे पिता, चाचा हरफूल सिंह, ताऊ रणजीत सिंह तथा बुआ मनभो देवी को बड़ी मुश्किल से मेहनत-मजदूरी करके, पानीपत में आकर पाला था। बुआ मनभो देवी का उनके बचपन में ही देहांत हो गया। मेरे पिता जी बताते थे कि उन्हें उनकी सात पुश्तों के नाम
याद हैं, परंतु इन सबमें कोई बुआ नहीं हैं, यानी लड़कियां पैदा तो
होती थीं, परंतु बीमारी अथवा किसी अन्य कारण से मर जाती थीं।
पिता जी के पानीपत आने पर, उन्होंने प्राइमरी से दसवीं तक जैन हाई स्कूल में शिक्षा प्राप्त की। उनके गुरु, हेडमास्टर श्री केशव चंद्र सैन जी, पिता जी पर बड़े ही दयालु थे। उन्होंने न केवल मेरे पिता जी को ज्ञान का अमृत पिलाया, वहीं हस्तरेखा ज्ञान, जिसमें उन्हें महारत हासिल थी, वह भी सिखाया। श्री केशव चंद्र सैन, बेशक एक पिछड़ी
जाति (दर्जी) से संबंधित थे. परंतु वे पानीपत के पहले पोस्ट ग्रेजुएट
थे, बाद में उन्होंने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से हस्तरेखा एवं
मनोविज्ञान विषय पर शोध कर डाक्टरेट की उपाधि प्राप्त की थी।
बौर आया हुआ था आमों पर, थी गुलिस्तां में भी बहार आई
'पी कहां की सदा सुनी फिर से, कहीं कोयल की कूक दर आई
जब सजी महफिले दयारे-सखन1 मिल ओ माह हो गए तमाशाई
उर्दू-ए-वतन का जिक्र हुआ, हाली-ए-खुश बयां की याद आई
सिलसिला दावतों का ऐसा चला, निर्मलाजी की बात बन आई
शुक्रिया राममोहन राय का जिनके बाइस यह शुभ घड़ी आई
ख्वाजा 'रिफअत' के दिल में हसरत थी पानीपत का है जो शैदाई
वफ़द' के साथ वह भी जाता वहां यह तमन्ना न उसकी बरआई'3
है अलालत4 की उसकी मजबूरी होती उसकी भी हिम्मत अफजाई
वफ़द तुम भी बना के आओ अगर वह करे आपकी पंजीराई5
बख्शे रौनक गरीब के घर को, हो रिफ़अत की इज्जत अफजाई
कतआ
शहरे-मरहूम की जो याद आई
हम ने सोचा कि अब चलो भाई
पानीपतियों ने हम को याद किया
उनसे अपनी भी है शनाशाई
1'काव्य गोष्टी, ' 2प्रतिनिधि मंडल, 3इच्छा पूरी न हुई, '4बीमारी, ' 5प्रोत्साहन ।
रहे। मेरे पिता जी बताते थे कि हम चार भाई-बहनों के नाम उन्होंने जन्म से पहले ही रख दिए थे। मन मोहन, मदन मोहन, राम मोहन और मन मोहिनी। पर यह वह दौर था, जब भारतीय राजनीति पर श्रीमती अरुणा आसफ अली का नाम छाया हुआ था। अत: बहन का नाम मनमोहिनी से बदलकर अरुणा कर दिया गया। स्कूल में भाइयों
के नाम कुछ इस तरह लिखवाए गए। मन मोहन बहादुर, मदन मोहन राना तथा राजा राम मोहन राय।
___सन् 1948 में पिता जी ने अध्यापन छोड़कर नगर पालिका
पानीपत में, चुंगी अधीक्षक की नौकरी ज्वाइन कर ली। जहां सन्
1962 तक वे कार्यरत रहे। पिता जी एक क्रियाशील व्यक्ति थे, तथा ईमानदारी उनकी रग-रग में थी। जिस दिन वे नगर पालिका से
सेवानिवृत्त हुए, उसी शाम उनके एक प्रिय शिष्य श्री लाल चंद गर्ग
उन्हें अपनी फैक्ट्री में ले गए, जहां उन्होंने सन् 1994 तक यानी
अपनी आयु के 94 वर्ष तक काम किया। इस दौरान पिता जी, श्री
गर्ग की फैक्ट्री तक रोजाना लगभग 4 किमी तक पैदल आते-जाते। वास्तव में उनकी सेहत का राज भी पैदल चलना ही था। वे 24 घंटे में एक समय ही भोजन करते तथा वह भी दिन छिपने से पहले। यदि
उनके खाने में कभी खीर, रायता, सब्जी, हलुवा अथवा कढ़ी आदि
होती तो वे सभी को एक कटोरी में डालकर अपनी अंगुली से मिला
लेते व फिर बड़े मजे से खाते। जब कोई पूछता यह क्या किया तो उनका जवाब होता, 'खाना-पेट भरने के लिए है न की स्वाद केलिए'। उनका कहना होता कम खाओ, गम खाओ।
__ मुझे अपने बचपन की घटनाएं, अपनी आयु के 4 वर्ष से याद हैं। वे हमें अपने कंधे पर उठाकर पूरे घर में महात्मा गांधी की जय के नारे लगा-लगाकर घुमाते तथा हमें भी नारे लगाने को कहते। यह कंधे चढ़कर नारे लगाने का खेल, हमारा सबसे पसंदीदा था। घर में खाने-पीने की चीजें खासकर मिठाई गिनती की ही आती। मां का
रवैया सख्त रहता कि सब अपने-अपने हिस्से की चीजें खाएं। वे
मेरे पिता जी अपने गुरु के सामने ही आए लोगों के हाथ देखते व भविष्य बताते। डा. केशव चंद्र सैन भी अपने इस योग्य शिष्य की सेवा से बेहद प्रसन्न थे। पिता जी के कहे अनुसार उनका जन्म 1901 में हुआ था ।
परिवार में सभी अनपढ़ होने की वजह से किसी को भी जन्मतिथि का पता न था पर गुरु जी ने ही
पिता जी के गुण, कर्म, स्वभाव को देख व समझ कर जन्मतिथि एक जनवरी ,सन् 1901 तय की थी । वे पढ़ाई के लिये सदा समर्पित रहे । घर मे अभाव के बावजूद वे देवी मंदिर में जलाए गए दीपों की रोशनी में पढ़ते थे ।
1928 में अलीगढ़, मुस्लिम यूनिवर्सिटी से उन्होंने एफ ए पास कर अदीबे आलिम व माहिर की परीक्षा पास की। पानीपत के जिस जैन हाई स्कूल में वे पढ़ते थे, उसी स्कूल में वे सन् 1928 से 1948 तक उर्दू, अरबी, फारसी तथा भूगोल पढ़ाते रहे । उस दौरान पानीपत में दो ही स्कूल होते थे, हाली मुस्लिम हाई स्कूल, जिसमें मुस्लिम विद्यार्थी
थे तथा जैन हाई स्कूल, जिसमें अधिकांश हिंदू विद्यार्थी थे। पिता जी शायरी भी करते थे, इसलिए उन्हें मुशायरों में भी कलाम पढ़ने को बुलाया जाता था। वे सन् 1934 में हाली मुस्लिम हाई स्कूल में, ख्वाजा
अल्ताफ हुसैन हाली पानीपती के जन्म शताब्दी समारोह के अवसर
पर आयोजित मुशायरे को नहीं भूलते थे। इसमें उन्होंने अपना कलाम,राष्ट्र कवि अल्लमा इकबाल की मौजूदगी में पढ़ा था। उनके शिष्यों में हिंदू तथा मुस्लिम, दोनों समान रूप से थे। सन् 1938 में, उनका
विवाह मेरी माता, जिनका नाम इत्तफाकन सीता रानी ही था, से हुआ।
पानीपत में उस समय आर्य समाज के क्षितिज पर लाला देशबंधु गुप्ता तथा लाला छज्जू राम छाए हुए थे। उन्हीं से प्रभावित होकर उन्होंने
भी आर्य समाज में जाना शुरू किया। वे बेशक आर्य समाज के सभासद,पदाधिकारी और कार्यकर्ता रहे. परंत आर्य समाजियों वाली कट्टरता
उनम कतई नहीं थी। वे कुरान शरीफ की आयतों का इस तरह पाठ करते थे जैसे कोई हाफिज करता हो ।जैन धर्म के अहिंसा, शाकाहार तथा अस्वाद के सिद्धांतों का उन्होंने सदैव पालन किया और कांग्रेस पार्टी के कार्यकर्ता के नाते धर्म निरपेक्षता के मूल्यों के सदा हामी बने
[5/11, 1:44 PM] Ram Mohan Rai: अली शाह कलंदर के सज्जादानशीं श्री आबिद आरिफ नौमानी के घर ठहरने का मौका मिला। वैसे तो आबिद साहब व
ज़ुबैदा दोनों पानीपत के थे और नगरीय रिश्ते में मेरे बराबर के
रिश्तेदार थे, परंतु जुबैदा मुझ पर अपना ज्यादा हक मानती थी
क्योंकि आबिद का घर मेरे घर से तकरीबन एक किलोमीटर
तथा उसका मायका मेरे घर के बिल्कुल पीछे वाली गली में था।
इस तरह से मैं उनका मुहल्ला जात भाई हुआ। आबिद के साथ ही मझे उनके साथ लाहौर के पास ही उनके फार्म हाऊस पर जाने का मौका मिला। गांव में घूमने की भी मेरी इच्छा हुई। मैं और दीदी गांव में घूमने लगे। गांव में घुसते ही एक वृद्धा ने हमें देखा और मुझसे पूछा,बेटा तुम कहां से आए हो? मैंने मुस्कराकर दीदी को देखा और उनका इशारा पाकर जवाब दिया, 'पानीपत से'। इतना सुनते ही वृद्धा भावविह्वल हो गई और बोली, बेटा क्या तुमने कभी कलंदर शाह की हाजिरी दी है ? मैंने तुरंत कहा, हम तो अक्सर वहां जाते
रहते हैं। इस पर वृद्धा की आंखों में आंसू आ गए तथा वह झुककर,मेरी कदमबोशी करने लगी और बोली मैं ऐसे पैरों की धल को अपने
माथे पर लगाना चाहती हैं, जिन्होंने चलकर कलंदर शाह की हाजिरी दी हो। मुझे सचमुच उस दिन, पानीपती होने पर गर्व महसूस हुआ।
सदस्य जब बस में बैठे तो सैयद आसिफ अली जाफरी एडवोकेट
बाहर खड़े रहे। मैंने उनसे कहा कि आप भी बैठिये। वे बोले कि
उनकी बेटी ने विशेष रूप से आग्रह करके एक तोहफा मंगवाया था। वे उस तोहफे को चाहकर भी नहीं ले सके। अब वे अपनी बेटी को क्या जवाब देंगे? मैंने उनसे कहा कि वे बतायें अभी बाजार से मंगवा लेते हैं। उन्होंने कहा कि वह तोहफा बाजार से नहीं मिलता। मेरे बहुत आग्रह करने पर उन्होंने बताया कि बेटी ने पानीपत से एक
मुठ्ठी मिट्टी मंगवाई थी, पर वे बहुत चाहकर भी इस मिट्टी को
नहीं उठा पा रहे हैं। मैंने सहज में ही कहा कि इसमें क्या बात है।
मैंने एक मुट्ठी मिट्टी जमीन से तुरंत उठाई व एक पुड़िया में बांधकर उन्हें दे दी। उसे लेकर वे फफक-फफक कर रो पड़े।
शायद मैं इस मिट्टी से जुड़ी भावना का इतना अहसास नहीं कर पा रहा था, जितना उन्होंने मुझे करवाया। अगले साल जब दीदी के साथ मैं कराची उनके घर गया तो पाया कि उस मिट्टी को शीशे के एक जार में बड़ा ही सहेज कर रखा गया था, फिर हो भी क्यों नहीं। यह नायाब तोहफा एक बेटी को उसके बाप ने बड़ी ही आत्मीयता से दिया था। उनके घर पर भोजन के बाद सैयद साहब ने कहा कि
उनकी वृद्धा मां काफी दिन से ज्यादा बीमार हैं, क्यों न उनसे मिल लिया जाये। मैं और दीदी उनके कमरे में गये तो पाया कि एक बड़े पलंग पर जीर्ण-शीर्ण अवस्था में एक महिला गठड़ी बनी पड़ी हैं। सैयद साहब ने उनके कान के पास जाकर ऊंची आवाज में कहा,अम्मी, देखो, पानीपत से कौन आया है ? पानीपत के नाम ने वृद्धा मां
में जैसे जान-फूंक दी हो, वे उठ बैठी और मुझसे पानीपत की खैर-खबर पूछने लगीं। अम्मी 45 वर्ष की थी, जब पानीपत छोड़कर आई थीं। अम्मी अब बचपन और फिर जवानी में आ गईं। उन्हें अब सब पानीपत की गलियां, बाजार और बाग याद थे, जिनमें उन्होंने 45 वर्ष बिताए थे। सैयद साहब मेरे बार-बार शुक्रगुजार थे कि मेरी आमद ने उनकी बीमार मां को चेतन कर दिया । बाद में ,लाहौर में हज़रत बू
: रिहाइश तथा व्यापारिक स्थल है। हजरत बू अली शाह की दरगाह
एक ऐसा श्रद्धा स्थल है, जहां दुनिया के दूर-दराज से हजारों श्रद्धालु हर साल यहां
आते हैं। यहां यह बात भी गौरतलब है कि सन् 1947 से पहले पानीपत की जनसंख्या में मुस्लिम, हिंदू अनुपात 70 : 30 का था। विभाजन के समय सभी मुस्लिम तो पानीपत छोड़कर पाकिस्तान तथा अन्य स्थानों पर चले गए, पर मात्र एक कांग्रेसी नेता मौलवी लकाउल्ला तथा उनके मुंशी मोहम्मद उमरकारी और उनका परिवार
ही पानीपत में रहे, जबकि मौलवी लकाउल्ला का पूरा परिवार
पाकिस्तान चला गया। ऐसे समय में हजरत बू अली शाह कलंदर
तथा दरगाहों की परंपराओं की पूरी व्यवस्था स्थानीय हिंदुओं ने ही की। आज भी कलंदर साहब और अन्य दरगाहों में जाने वाले
श्रद्धालुओं में हिंदुओं की संख्या, मुसलमान श्रद्धालुओं से कहीं अधिक है। हर वर्ष लगने वाले उर्स में जहां देश-विदेश से हजारों श्रद्धालु जियारत करते हैं, वहीं पानीपत निवासी हिंदू श्रद्धालु उनकी पूरी तरह से मेहमान नवाजी करते हैं।
दिल्ली में सन् 1752 से मराठों तथा दिल्ली के बादशाह के बीच
'अहमदिया करार' होने के कारण दिल्ली राज्य की प्रतिरक्षा का
अधिकार मराठों पर आ गया। मराठा सरदार अन्ता जी माणकेश्वर ने
सन् 1757 के आसपास, पानीपत नगर के उत्तर में अपनी कुलदेवी
की मूर्ति स्थापित कर एक मंदिर निर्माण करवाया, जिसे आज भी
'देवी तालाब और मंदिर' के नाम से जाना जाता है। इसमें देवी
प्रतिमा के आसन के नीचे लिखा है, 'ओम वंदे मातरम् देवी' । मराठों ने पानीपत में नगर के मध्य में ही हनुमान मंदिर का निर्माण करवाया,
जो आज पूरबियान घाटी में स्थित है। सन् 1761 में पानीपत के
मैदान में मराठा सेनापति युवा राजकुमार भाऊ राव तथा अफगान सेनापति अहमद शाह अब्दाली की सेनाएं शहर के अंदर खन्दक बना कर और दूसरी और खन्दक के बाहर काफी समय तक डटी रही और आखिरकार 14 जनवरी ,1761 को चंद घण्टों की जंग में अंततः अब्दाली जीता। प्रसिद्ध इतिहासकार श्री विश्वास राव पाटिल
ने अपनी पानीपत' पुस्तक में इसका बेहतरीन चित्रण किया है ।इस
: *आरजुए पानीपत*
1947 में भारत-विभाजन के बाद पानीपत से कराची में बसे ख्वाजा
रिफअत अली 'रिफअत 'पानीपती का एक पत्र मेरे पास 1999 में
आया। ख्वाजा जी का पूरा परिवार विशेष तौर से उनके बेटे फरहत अली, पुत्रवधु हूमा तथा बेटी तलत (मुन्नी) पानीपत नाम पर फिदा हैं। फरहत ने अपनी बेटी का नाम वैसे मशल (मशाल) रखा है, जिसके बारे में वें कहती है कि यह भारत-पाकिस्तान की जनता के बीच दोस्ती की मशाल बनेगी। मार्च, 1999 में अपनी पाकिस्तान यात्रा के
दौरान मैं ख्वाजा जी के यहां ठहरा था और वहां मशल का नया
नामकरण मैंने 'पानीपत' किया और वह 8 माह की 'पानीपत' भी
इस नाम से हंकारे भरती थी। उनका पानीपत से प्यार महसस करने के लिये उनके द्वारा लिखा पत्र ही काफी है।
प्यारे मोहन,
सलाम!
यहां सब खैरियत से है, आपकी खैरियत फोन से मालूम हुई
थी। आपको नज़म भेज रहा हूं। इसकी एक कापी गौहर साहब को जरूर दे देना बाकी जिस को देना।
उमर की ज्यादती की वजह से कमजोरी हो जाती है। अल्लाह
की कि पानीपत में हर से प्रख्यात मेरे पिता जी, स्वभाव से विनम्र तथा सीधे थे। मेरे पिता ने मेरी मां को शिक्षित तथा विकसित होने का हर अवसर मुहैया करवाया। उसी हौसले की वजह से विवाह के पहले प्राइमरी पास मेरी मां ने विवाह के बाद रतन, भूषण और प्रभाकर की परीक्षा पास की। वह बड़े-
बड़े जलसों में भाषण देती थीं तथा दलित एवं पिछड़ी जाति की
महिलाओं में शिक्षा का प्रकाश फैलाने का काम करती थी। मेरी मां ने, महात्मा ज्योति बा फूले की जाति में जन्म लेकर वह सभी काम किये, जो सावित्री फूले ने किये थे।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद, मां का पूरा जीवन सामाजिक सेवा को
समर्पित हो गया। सन् 1954 में संत विनोबा भावे की भूदान यात्रा
हरियाणा पहुंची, जिसमें निर्मला दीदी भी शामिल थीं और यहीं मां
की पहली भेंट, निर्मला दीदी के साथ हुई। इस यात्रा में, मां भी दीदी के साथ रहीं तथा उनके इस दौरान का मिलन एक अंतरंग मैत्री के रूप में विकसित हुआ। सन् 1957 में यद्यपि मां को हिसार विधानसभा क्षेत्र से ही कांग्रेस का टिकट मिला, परंतु उस समय मैं जन्म की प्रतीक्षा में था इसलिए टिकट लौटाना पड़ा। मां ने इसके बाद सदा-सदा के लिए
राजनीति को विदा कर दिया। अब वे एक विशुद्ध रचनात्मक कार्यकर्ता थीं तथा निर्मला दीदी के कार्यों के साथ सदा जुटी रहीं।
सन् 1990 में मां को पक्षाघात हुआ तो भी दीदी उनके पास आई
तथा कुशलक्षेम पूछी। 23 जून 1992 में मां बेहद अस्वस्थ थीं, परंतु तभी दीदी का संदेश पहुंचा कि पंढरपुर में रचनात्मक सम्मेलन है
तथा वहां चलना है। मां मरनासन्न अवस्था में थीं, मैंने उनसे कहा,
दीदी ने पंढरपुर चलने के लिए बुलाया है, मैं जाऊं या आपने जाना है? मां इस अवस्था में भी मुस्कराईं और बोली 'जा चला जा, तेरे आने के बाद ही मैं जाऊंगी'। दीदी, मसरर्त बहन, वीणा बहन और मैं ट्रेन से पंढरपुर के लिए रवाना हुये। दीदी अपनी आदत के अनुसार
पूरे रास्ते कथा-कहानियां और दृष्टांत सुनाती गईं। मुक्ता बाई का संत ज्ञानेश्वर के बारे में एक कुम्हार सन्त से पूछना " क्या भांडा पक गयाहै" आदि आदि
परिवारों में पानीपत को अच्छा नही माना जाता और जिसका सर्वनाश हो गया हो उसे कहते हैं कि इसका'पानीपत' हो गया।
और फिर देर रात को ही मेरे ठहरने का इंतजाम कहीं और कर दिया गया। उस रात सोचते-विचारते काफी देर से नींद आई और सुबह देरी से उठा। मैंने पाया कि उस घर से पकवान बनने की महक आ रही है । गृह स्वामी ने मुझे भी तैयार होकर नाश्ता टेबल पर आने को कहा ।
मैं जब नाश्ते के लिए पहुंचा तो पाया कि पूरा परिवार एकादशी की कथा तैयारी में है तथा उन्होंने प्रसाद के रूप में साबूदाने की खीर, खिचड़ीऔर कई तरह की पंजीरी बनाई हैं। उनके माता-पिता भी खाने की
मेज पर विराजमान थे। उनके चरण स्पर्श कर मैंने उनका अभिवादन किया तथा चुपचाप कुर्सी पर बैठ गया। बातचीत में वृद्ध दंपत्ति ने मेरा परिचय प्राप्त करते हुए फिर वही सवाल दागा, जिसका जवाब
सुनकर मेरे पूर्व मेजबान की पत्नी उठकर चली गई थीं, "बेटा तुम कहां के हो"?
मैं अजीब स्थिति में फंस गया, यदि पुराने वाला जवाब दूं तो पुराना हश्र याद आता था। अब मैंने एक गोलमोल जवाब दिया कि कुरुक्षेत्र के पास एक गांव का। कुरुक्षेत्र का नाम सुनते ही वह दंपत्ति, भावविह्वल
हो गये और बोले कि आज तम्हारे यहां आने पर उनका एकादशी
व्रत पूरा हो गया। वे बार-बार कुरुक्षेत्र तीर्थ की महिमा बताने लगे।उन्होंने मेरे पैर छूने के अतिरिक्त उन सभी आदर भावों को मेरे प्रति समर्पित किया, जिसे वे कर सकते थे। लौटते हुए, मैंने दोनों घटनाएं,दीदी को बताई तो वे खूब हंसी और बोली देखा स्थान-स्थान का
क्या महत्व होता है। अब मैं अपना शहर का नाम स्थितियां देखकर ही बताता हूं।
पानीपत नाम का अनुभव, एक बार फिर सिद्ध हुआ जब, पाकिस्तानी
पानीपतियों का एक 22 सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल 1997 में पानीपत आया । मण्डल के वापिस लौटने के वक्त ,एक ऐसा नज़ारा पेश हुआ, जिसे याद कर आज भी दिल भावुक हो जाता है । सभी
आया। मंडल के वापस पाकिस्तान लौटने क
मेरा शहर
मेरे पैतृक शहर पानीपत की सामाजिक, ऐतिहासिक और धार्मिक दृष्टि से महत्ता है। कोई इसे पांडवों द्वारा बसाया हुआ नगर बताता है तो कोई राजा दंडपाणी द्वारा पहली शताब्दी में बसाया हुआ शहर।
किवदंती यह भी है कि महाभारत युद्ध से पहले कौरवों के पास,
भगवान श्री कृष्ण पांडवों के शांतिदूत बनकर गये तथा उन्होंने उनसे युद्ध को रोकने के लिए पांच गांवों की मांग की थी, जिसमें एक गांव पानीपत भी था। इतना जरूर है कि पानीपत युद्ध स्थल रहा है, जहां जग प्रसिद्ध तीन ऐतिहासिक लड़ाइयां लड़ी गईं, जो पानीपत की तीन
लड़ाइयों के नाम से प्रसिद्ध हैं। पानीपत की पहली लड़ाई (1526)बाबर और इब्राहिम लोदी के बीच, पानीपत की दूसरी लड़ाई (1556) अकबर और हेमू के बीच तथा पानीपत की तीसरी लड़ाई (1761)अहमद शाह अब्दाली और मराठों के बीच लडी गई। हम पानीपत के लोग इस बात को पसंद नहीं करते, जब कोई इन्हें पानीपत की
लड़ाइयां कहता है क्योंकि पानीपत निवासियों ने न तो कभी इन लड़ाइयों में भाग लिया तथा न ही उनका कोई स्वार्थ इन लड़ाइयों से हल होता था। ये लड़ाइयां थीं, विदेशी आक्रान्ताओं की दिल्ली के तत्कालीन शासकों के विरुद्ध सत्ता प्राप्ति के लिए। वैसे भी पानीपत
तो शांति और शिक्षा का केंद्र रहा है। एक समय था जब सैंकड़ो
[5/11, 1:44 PM] Ram Mohan Rai: किसी से मिलो पर शरफुद्दीन नौमानी (हजरत बू अली शाह कलंदर का असली नाम) से न मिलो। ख्वाजा ने कारण पता किया तो कहा
अरे वो ही तो खुदा का असली बंदा है, जो इंसानियत और भाईचारे का मीठा संदेश पूरी दुनिया को दे रहा है। ख्वाजा जी ने मिलने की इच्छा से कलंदर साहब को संदेश भिजवाया तथा कहते हैं कि जेठ
की गर्मियों की ठेठ दोपहर को कलंदर साहब ने ख्वाजा जी का
दरवाजा खटखटाया। दरवाजा खोलने पर पाया कि एक अर्द्धनग्न
मस्त बंदा बाहर खड़ा है। परिचय मांगने पर उसने अपना नाम
शरफुद्दीन बताया। ख्वाजा जी उन्हें अपनी रिहाइश के अंदर ले गये तथा पूछा कि खाने-पीने में क्या लोंगे। बाबा ने भी बिलातकल्लुफ
कहा, रोटी, गोश्त और दही। शाकाहारी होने की वजह से मैं तो
खान-पान के इस मेल से वाकिफ नहीं हूं, परंतु मांसाहारी लोग
बताते हैं कि दही व गोश्त का मेल नहीं होता, पर वे तो कलंदर थे
यानी मस्तमौला। आज उसी परम्परा का पालन करते हुए कलंदर साहब के उर्स में दही और गोश्त का चढ़ावा ही चढ़ता है। ख्वाजा साहब से मिलकर हजरत कलंदर बेहद प्रसन्न हुए तथा उन्होंने वहीं हाथ उठाकर तीन बार दुआ की, तुम यहीं बस जाओ और ऐसा कहा
जाता है कि ख्वाजा जी जब दिल्ली के तत्कालीन बादशाह से मिले तो बादशाह ने उन्हें पानीपत की बड़ी जागीर अलाट कर दी तथा ख्वाजा मलिक अंसारी पानीपत में ही बस गए। कलंदर साहब के प्रयासों से
ही ख्वाजा मलिक अंसारी के दो पुत्रों का विवाह, हजरत मखदूम
साहब की दो पुत्रियों के साथ हुआ और यह निकाह, हजरत बू अली शाह कलंदर ने ही पढ़वाया। इस प्रकार मलिक अंसारी पानीपत में ही बस गए। इन्हीं मलिक अंसारी की बाद की पीढ़ी में विश्वविख्यात शायर ख्वाजा अल्ताफ हुसैन हाली पानीपती हुए। पानीपत
राजस्व के हिसाब से चार भागों, पट्टी अंसार, पट्टी मखदूम जादगान, पट्टी अफगान तथा पट्टी राजपूतान के नाम से बंटा है। पानीपत में जहां पट्टी अंसार है ,वहीं अंसार मोहल्ला तथा अंसार बाजार के नाम से
: सूफी संत, दरवेश तथा शिक्षाविद् इस शहर में रहते थे। इस्लाम की
घोषणा के बाद दूसरी हिजरी अर्थात् सन् 728 में ही इमाम बदरुद्दीन धर्म प्रचार के लिये पानीपत आयें तथा यहीं उन्होंने अपना डेराबनाया। पानीपत के मोहल्ला इमाम साहब में उनकी दरगाह है।
सूफी संत बाबा फरीद के पौत्र हजरत शमशुद्दीन तुर्क पानीपती ने भी भाईचारे और अमन का संदेश पानीपत से ही दिया। सूफी संत हजरत गौस अली का तो कहना ही क्या? कहा जाता है कि उनके बचपन में ही माता-पिता के देहांत के बाद, उनकी परवरिश एक हिंदू महिला ने की थी। उस महिला के एक पुत्र था तथा वह अपने एक स्तन से अपने पुत्र को तथा दूसरे स्तन से गौस अली को दूध पिलाती थीं। हजरत ने भी उस महिला को पूरा सम्मान दिया तथा जीवनपर्यंत उनके साथ रहे। उनकी मृत्यु पर हजरत ने ही मुस्लिम कट्टरपंथियों के विरोध के बावजूद तमाम हिंदू रीति-रिवाजों तथा परंपराओं के अनुसार उस मां का अंतिम संस्कार तथा श्राद्ध क्रिया की। उन्हीं हजरत गौस अली साहब की दरगाह पानीपत में गौस अली मोहल्ले में हैं।
हजरत बू अली शाह कलंदर तो एक ऐसे विचित्र संत थे, जो
अपने कलंदरीपन से कट्टरपंथियों की आंखों में सदा खटकते थे।
तत्कालीन 80 मौलवियों ने तो हजरत कलंदर के खिलाफ फतवा
जारी कर दिया था क्योंकि वे नमाज, रोजा तथा अन्य धार्मिक क्रियाओं से बेखबर थे। वे होली, दिवाली तथा ईद, समान श्रद्धा और विश्वास से मनाते थे। उन्हीं कलंदर साहब के जमाने में ईराक से ख्वाजा मलिक अंसारी भारत आये। पानीपत को सदैव से दिल्ली का दरवाजा
माना जाता रहा है। वास्तव में यह एक चौंकी भी थी, जहां कोई भी
दिल्ली के बादशाह से मिलने का इच्छुक विदेशी सम्भ्रांत रुकता था
तथा दिल्ली दरबार से इजाजत मिलने पर ही, दिल्ली की तरफ कूच करता था। उसी सिलसिले में ख्वाजा मलिक अंसारी भी पानीपत में रुके। उन्हें, तत्कालीन मौलवियों ने ताकीद दी
इस पुस्तक के बारे में
रामचरितमानस के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने मानस के बालकांड में 'अपनी दीनता और रामभक्तिमय कविता की महिमा' का बखान अपनी अनेक चौपाइयों में किया है ।इसमें एक स्थान पर वह कहते हैं ,कबित विवेक एक नहीं मोरे, सत्य कहूँऊ लिखी कागद कोरे।' इनमें से काव्य संबंधी एक भी बात का ज्ञान मुझ में नहीं है, यह मैं कोरे कागज पर शपथ पूर्वक सत्य- सत्य कहता हूं।
भनिति मोरी सब गुन रहित विस्व बिदित गुन एक। 'मेरी रचना सब गुणों से रहित है, इसमें बस जग प्रसिद्ध एक गुण है।'
' दीदी की छांव में' इस पुस्तक में भी एक ही जग प्रसिद्ध गुण है ।वह है दीदी निर्मला देशपांडे का नाम व उनके कार्यो का बखान। इस पुस्तक को को मैं छोटे रूप में लिखना चाहता था, परंतु मन ऐसे हिलोरे खाने लगा कि इसने लेख संग्रह का रूप ले लिया। मैं न तो कोई लेखक हूं और न ही भाषाविद । मैं भली- भांति जानता हूं कि यह असंख्य त्रुटियों से भरी हुई है। मेरा दायरा छोटा है, परंतु इच्छा बहुत बड़ी है। यह पुस्तक मात्र मेरे स्वान्त: सुख के लिए है ।इसके अतिरिक्त मेरा कुछ भी प्रयोजन नहीं है ।दूसरे अर्थों में स्व: दीदी निर्मला जी के शब्दों में 'नित्य की तरह में केवल निमित्त मात्र बनी रही। लेखन में नहीं करती हूं, मुझसे करवाया जाता है। जब तक वह उतरता नहीं, एक भी लाइन लिखी नहीं जा सकती ।फिर से संत तुकाराम याद आते हैं- कायम्या पामरे बोलवी उतरे ....बोलविले बोल पांडुरंगे।
मैं अति साधारण व्यक्ति क्या बोल पाता?पांडूरंग भगवान ही मुझसे बुलवाते हैं। मेरे लिए यह बात अक्षरशः सही है। न मैं बोल पाती हूं, न लिख पाती हूं, कोई बुलवाता है, लिखवाता है ।
इस पुस्तक को लिखने में मेरा मात्र डेढ़ माह से कम समय लगा, परंतु प्रकाशन का अनुभव न होने के कारण से कई बार टाइप करवाया और अंत में अजय मित्र ने इसे अंतिम रूप दिया। मैं अपने अग्रज मित्र श्री आर के दीक्षित तथा उनकी विदुषी पत्नी डॉक्टर मधु दीक्षित ,दीपक व उसकी पत्नी आरती कथूरिया, आनंद किशोर टक्कर ,सहयोगी रिंकी, सुनीता आनंद, कुसुम रावत व नीरज ग्रोवर का भी आभारी हूं, जिन्होंने यदा-कदा इस पुस्तक के कई भागों को पढ़ा अथवा सुना और मेरा उत्साहवर्धन किया ।अंत में पुस्तक के प्रकाशक श्री सुधीर वत्स का भी हार्दिक आभार व्यक्त करता हूं, जिन्होंने इसे प्रकाशन योग्य जानकर प्रकाशित किया।
राममोहन राय के फ़ज़ल से अब बेहतर है। अल्लाह का मजूर हुआ तो जरूर
मुलाकात होगी। दुल्हन (कांता) को दुआ, सलाम। बच्चों को प्यार ।
निर्मला जी को बहुत सलाम।
सब बहुत याद करते हैं। माता जी की तरफ से दुआ, प्यार,
शफकत, फरहत, अजमत, तलत, अन्जुम, हूमा, औज सईम और
मशल जेहरा (पानीपत) की तरफ से सलाम, प्यार। सब मिलने
वालों को सलाम।
खुदा हाफिज।
-ख्वाजा रिफअत अली
पानीपत में अहले-दानिश' 1 की हुई बरशा जो महफिल आराई 2
निस्फ' 3सदी के बाद ताजा हुई राहो चस्म में पंजीराई'4
बन के महेमान अपने घर आए, अपनी धरती के आज शैदाई5
दोस्त बढ़-बढ़ के दोस्तों से मिले, भाई से जिस तरह मिले भाई
शहर है कलंदरों का पानीपत, शहर है आलिमों का पानीपत
सारी दुनिया में इसका है चर्चा, बात तारीख में है यह आई
काबिले-कद्र और बुज़ुर्ग शायर, वो तो रुख्सत हुए वतन असली
हो गए सब हैं संजीदा, जब बुजुर्गों से यह खबर आई
गिले-शिकवे सभी के दूर हुए, दिल ने फिर दिल में थी जगह पाई
उज-ख्वाही को भी गए उनकी जिनके मरने की थी खबर आई
जिक्र किस तरह करूं उनका दिल जो रोया तो आंख भर आई।
जो जवां थे वो हो गये बूढ़े, कुछ नई पौध भी नजर आई
जो थे बगो वो हमको क्या जाने उनसे मुश्किल हुई शनासाई
1'बुद्धिमान, 2सभा जुही,' 3आधी, 4'सम्मान किया जाना 5प्रेमी, 6विद्वानों, 7जान-पहचान।
[5/15, 12:58 PM] Sunita Anand: वह पिताजी पर खास निगरानी रखती कि कहीं वे अपनी चीजें न खाएं और बच्चों में न बांट दे। मां की तमाम हिदायतों और निगरानी को नजरअंदाज करके वे छुपा कर अपनी मिठाई हमें बांट देते ।मां को इस बात का पता चलता तो उनसे खूब लड़ती। पिताजी मां के बहुत सहयोगी रहते तथा उन्हें पढ़ने तथा सामाजिक गतिविधियों में सक्रिय रहने के लिए प्रेरित करते रहते। इसलिए सुबह अंगीठी जलाकर दूध लाने, उसे गर्म करने तथा पानी भरने के काम में वे मां का सहयोग करते। हमने अपने पिताजी को कभी हमारे किसी के भी प्रति गुस्सा होते नहीं देखा, पिटाई तो दूर की ही बात थी। घर में क्योंकि बहन अरुणा कई पुश्तों के बाद के बाद जिंदा थी। इसलिए भी उसे बहुत प्यार करते थे।बचपन में बीमार होने पर उन्हें उसका नाम मरी रख दिया था। वह सदा उसे देखकर दुलारते हुए गाते ,
मेरी सानी बेटी रे,
मेरी पारी बेटी रे,
मेरी लाडो बेटी रे,
मेरी मुन्नी बेटी रे । मुझे यह भी याद है कि हम भाइयों की फरमाइश को तो परिवार में नकार दिया जाता, परंतु मेरी बहन की फरमाइश सदा पूरी होती। हम जब भी इसका कारण पूछते तो उनका जवाब होता, बेटा मुन्नी (अरुणा) पता नहीं किस घर जाएगी , उसे कहीं मौका मिले ना मिले। पिताजी के एक मोहब्बत के अंदाज़ को हम कभी नहीं भूल सकते।
ठेठ सर्दी के दिनों में वह हमारे बिस्तरों में पहले खुद घुस कर हमारी रजाई गरम करते ,फिर हमें उस गरम रजाई में घुसाते। अब हम सोचते हैं कि वे यह कैसे कर पाते होंगे, एक ठंडी रजाई को गर्म करके दूसरी ठंडी को गर्म करना, परंतु वे अद्भुत पिता थे
मेरे विवाह के बाद भी, पिताजी घरेलू कामकाज में मेरी पत्नी की हमेशा मदद करते।मैने कभी उन्हें उदास नहीं देखा।परंतु वह दो बार खूब रोए। एक मेरी बहन अरुणा के विवाह में विदाई पर और दूसरे मेरी पत्नी की बीमारी पर ।मेरे पिता, सतमाहे थे यानी मेरी दादी की सात माह की गर्भावस्था में ही उनका जन्म हो गया था। इसलिए शारीरिक रूप से बेहद संवेदनशील थे। वे शुरू से ही चाहे सर्दी हो या गर्मी गर्म पानी से स्नान करते थे ।सर्दी में तो सप्ताह में एक समय स्नान तथा 14- 15 कपड़े पहनते थे। जवानी में तो पति पत्नी का प्यार होना स्वभाविक होता ही है। परंतु बुढ़ापे में यह प्यार एक जरूरत का रूप ले लेता है। मेरे माता-पिता देर रात तक घंटों बतियाते रहते । मां अपने जीवन के अंतिम तीन वर्षों में पक्षाघात से पीड़ित रही। इस दौरान उन्हें एक वहम हो गया, वे हर आधे घंटे के बाद बाथरूम जाने की जिद करती । वहां दांत साफ करती तथा हाथों को धोती। दिन में तो हम सभी परिवार के चार पांच लोग इस काम को करवाते, रात भर भी यही क्रम चलता।जिसे पिताजी अकेले ही सहर्ष करते । हमारे सहयोग की पेशकश पर वे कहते, तुम्हारी मां ने मेरी हमेशा सेवा की है , मैं उसकी सेवा करके उसके हिस्से का कर्ज चुकाना चाहता हूं। हमारी परवरिश मे हमारे माता-पिता ने जो कष्ट सहे, वे अकथनीय है । गांधी जी का यह वाक्य,' आदर्श परिवार जैसी कोई पाठशाला नहीं तथा चरित्रवान माता-पिता जैसा कोई शिक्षक नहीं' जो मेरे माता पिता और परिवार पर हूबहू लागू होता था। मेरे पिता दीदी को पहले से ही जानते थे। जब वे विनोबा जी के साथ पंजाब दौरे पर थीं ।बेशक वे उनके साथ पदयात्रा में नहीं थे। परंतु मां के रूप में वह साथ थे। सन 1975 में दीदी जब पानीपत में हमारे घर आई तो मेरी उनसे खूब बहस हुई। इसे खत्म करते हुए उन्होंने दीदी से कहा था, यह बच्चा है ,गर्म खून है ,समझ जाएगा ।पर हां, इसे अपनी छांव में रखना ।शायद यही वह मार्मिक बात थी जिसे दीदी हमेशा याद रखती थीं तथा इसी वजह से उन्होंने मुझे इतना स्नेह किया। दीदी अक्सर कहती राम मोहन जी,तुम्हारे पिताजी की यह बात हमेशा मुझे याद रहती है कि इस पर सदा अपना प्यार बनाए रखना ।मेरे पिताजी, हमसे बहुत प्यार करते थे। जब कभी रात को, हमें आने में देर हो जाया करती तो वह घर के बाहर टहलते हुए, हमारा इंतजार करते । पर जब उन्हें यह पता होता कि मैं दीदी से मिलने दिल्ली जा रहा हूं तो वह सदा मेरी तारीफ ही करते। कभी देर रात शौच को जाना पड़ता तो भी उठ कर बैठते। वे पूछते कोई दिक्कत तो नहीं हुई। वे एक अच्छे घरेलू हकीम भी थे। उल्टी में प्याज का रस, पुदीने का पानी, पेट दर्द में मेथी और अजवाइन की फ्क्की, आंख की रोशनी के लिए प्रातः उठने के बाद थूक को काजल की तरह लगाना तथा दीपावली की रात को सरसों के तेल में काजल बनाने जैसे टोटके वे खूब जानते थे। शायद यही कारण था कि 98 वर्ष की आयु तक वे पूर्ण स्वस्थ रहें और बिना चश्मे के अखबार पढ़ते थे। अपनी 85 वर्ष की आयु में उन्होंने हिंदी सीखनी शुरू की तथा वे हिंदी सीख भी गए। यदि कोई उनसे पूछता
कि इस उम्र में हिंदी पढ़ कर क्या करोगे, तो वे हंस कर जवाब देते, 'पढ़ने की भी कोई उम्र होती है' और नहीं तो अगले जन्म में हिंदी सीखने में परेशानी नहीं होगी। हिंदी उन्होंने इसलिये भी सीखी कि वे दीदी के विचारों से बेहद प्रभावित थे तथा दीदी द्वारा संपादित नित्य नूतन पत्रिका के लेखों तथा इस में छपे संपादकीय को वह किसी अन्य से न सुनकर स्वयं पढ़ना चाहते थे। हिंदी सीखने पर इसकी पहली सूचना भी उन्होंने दीदी को ही दी तथा कहा कि अब वह बेबस नहीं रहे है, अब खुद ही उनके लेखों को पढ़ेंगे । दीदी भी उनकी इस उपलब्धि को जगह-जगह सभाओं में बताती।पानीपत आने पर मेरे पिताजी से इस्लाम, जैन मत और आर्य समाज पर चर्चा करती तथा वे मेरे पिता की विद्वता की कायल थी, खासतौर से उनकी कुरान शरीफ की आयतें पढ़ने के शुद्ध ढंग से ।
सन 1993 में, पानीपत में हरिजन सेवक संघ तथा अखिल भारत रचनात्मक समाज के प्रांतीय सम्मेलन में दीदी दोबारा आई। सम्मेलन में मुख्य अतिथि, हरियाणा के तत्कालीन राज्यपाल श्री धनिक लाल मंडल थे। राज्यपाल ने एक संदर्भ में कहा कि अब वह बूढ़े हो गए हैं तो दीदी ने उन्हें भाषण के दौरान ही टोकते हुए कहा कि राम मोहन जी के पिता को देखिए, वे 93 वर्ष की उम्र में भी कितने फुर्तीले हैं तथा अब भी खुद को जवान मानते हैं।
सन 1994 में दीदी की अध्यक्षता में अखिल भारत रचनात्मक समाज का सम्मेलन तिरुपति में संपन्न हुआ। हरियाणा से हम कुल 73 प्रतिनिधि सम्मेलन में भाग लेने के लिए पहुंचे ।इस प्रतिनिधिमंडल में मेरे पिताजी भी थे। वे पूरे सम्मेलन में भाग ले रहे दस हजार प्रतिनिधियों में सबसे वृद्ध थे। सम्मेलन में 94 वर्ष की उम्र के एक हृष्ट- पृष्ठ व्यक्ति को देखकर सभी विस्मित थे। सम्मेलन के समापन सत्र में दीदी ने घोषणा की कि इस सम्मेलन में भाग लेने के लिए हर आयु वर्ग के लोग आए हैं और उन सब का स्वागत, हम सबसे वृद्ध प्रतिनिधि हरियाणा के मास्टर सीताराम सैनी को पुष्प माला पहनाकर करेंगे।इस
घोषणा से उनकी और मेरी खुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा। हम पिता-पुत्र मंच पर पहुंचे। सत्र की अध्यक्षता कर रहे, हरियाणा के तत्कालीन राज्यपाल धनिक लाल मंडल ने उन्हें फूलमाला पहनाई तथा दीदी ने उन्हें एक श्रीफल भेंट किया। इस माला और श्रीफल को उन्होने देर तक नहीं उतारा व इस फिर इसी मुद्रा में फोटो खिंचवाई और कहा कि उनके मरने के पश्चात उनकी शोक सभा में इसी तस्वीर को लगाना।
सन 1996 में, दीदी ,तत्कालीन कृषि मंत्री श्री चतुरानन मिश्र को लेकर पानीपत आई। अवसर था भगत सिंह स्मारक में शहीद भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की प्रतिमा के अनावरण का। शहीद भगत सिंह के भाई सरदार कुलतार सिंह भी इस अवसर पर उपस्थित थे ।मेरे पिताजी के इन शब्दों को उन्होंने खूब सराहा कि तीनों धारा के क्रांतिकारी आज यहां इकट्ठा है,
यह एक शानदार मंजर है।
श्री वाई एम कातोन, सोवियत राज दूतावास में सांस्कृतिक विभाग के निदेशक थे। उनके समय में, भारत में दोनों देशों के सांस्कृतिक संबंधों में न केवल बढ़ोतरी का दौर चला, वही व्यक्तिगत रूप से उन्होंने भारतीय नेताओं और जनता में ऐसी पैठ बना ली थी, जो किसी भी ह्रदय को छू ले । दिल्ली में लगभग 8 वर्ष रहकर वे अपने देश जा रहे थे। दीदी का विचार था कि उनका स्थान- स्थान पर विदाई समारोह होना चाहिए। उन्होने सबसे पहले पानीपत को ही चुना और मुझे इसे आयोजित करने को कहा। पानीपत के सीमा थियेटर में यह समारोह आयोजित किया गया । हरियाणा के तत्कालीन सहकारिता मंत्री और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता चौ. बीरेन्द्र सिंह, इंटक नेता प्रो. रतिराम चौधरी, शिक्षाविद डॉ विनोद भाटिया तथा उनकी पत्नी डॉ नसीम भाटिया (पुत्री प्रख्यात कम्युनिस्ट नेता स्व. श्री सज्जाद जहीर) सहित अनेक गणमान्य नेता इसमें शामिल हुए। हमारे कार्यक्रमों की खासियत सदा यह रही कि इसमें सभी पार्टियों, विचारधाराओं तथा संगठनों के लोग शामिल होते थे ।भारतीय जनता पार्टी के नेता और पानीपत से कई बार विधायक रह चुके श्री फतेह चंद विज तो अपने तमाम पार्टी बैरियर तोड़कर इसमें शामिल होते थे। दीदी को उम्मीद नहीं थी कि इतनी बड़ी संख्या में लोग शामिल होंगे। वे तथा सभी मेहमान समारोह की सफलता से गदगद थे। समाप्ति पर उन्होने जहां खूब शाबाशी दी, वहीं अतिथियों को मेरे माता-पिता दोनों से मिलवाया। दीदी ने मेरे माता- पिता का परिचय देते हुए कहा कि राम मोहन इनका पुत्र है ।इस पर श्री वाईएम कातोन ने तुरंत कहा ,'सुपुत्र'। दीदी भी खिलखिला उठी और बोली बिल्कुल ठीक 'सुपुत्र'।
सन 1996 में दीदी की पहल पर भारत -पाकिस्तान की जनता के स्तर पर मित्रता का माहौल बनाने के लिए दो दिवसीय सम्मेलन दिल्ली में आयोजित कियाb गया था। दोनों तरफ के सौ लोग इसमें शामिल हुए थे। दीदी के कहने पर मैं भी इसमें शामिल हुआ। पहले दिन सभी प्रतिनिधियों ने अपना परिचय दिया
मेरा नंबर आने पर मैंने अपने पिताजी के बारे में बताते हुए कहा कि वे अविभाजित भारत के पानीपत शहर में उर्दू ,फारसी और अरबी के टीचर थे तथा मैं भी यहां वकालत के साथ दीदी के कार्य में सहयोग करता हूं। सम्मेलन के बीच में ही पाकिस्तानी प्रतिनिधिमंडल के नेता डॉ जकी हुसैन (वाइस चांसलर, बकाई मेडिकल यूनिवर्सिटी, कराची) अपनी सीट से उठे तथा मेरे पास एक कागज पर अपने परिवार का सिजरा नसब( वंशावली) लिखकर लाये तथा मुझे दिखा कर कहने लगे कि उनका भी बाबा- ए -वतन पानीपत है तथा उन्होंने कहा कि हमारा पर्चा अपने वालिद को दिखाएं। मैं उसी रात पानीपत आ गया और मैंने यह लिखतम अपने पिताजी को दिखाई ।उसे देखते ही मेरे पिताजी ने कहा अरे ,'यह तो हकीम वालों के खानदान के बारे में है।' पिताजी ने डॉक्टर जकी हसन के परिवार तथा उनके बुजुर्गों के बारे में पूरी तरह जानकारी दी।अगले दिन मै दोबारा दिल्ली गया । मैंने अपने पिता की कही सारी बातें डॉ हसन को बताई तो वह बड़े खुश हुए। दीदी को जब इन सारी बातों का पता चला तो वह बोली,' मकसद की अच्छी शुरुआत हुई है।'
इसी सम्मेलन के कुछ दिन बाद दीदी के नेतृत्व में पाकिस्तान एक प्रतिनिधिमंडल जाने की योजना बनी। डॉ आरवीएस यादव, प्रोफेसर एमएच करैशी, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर डॉ एमएस खुसरो तथा फादर बेन्टो जैसे प्रतिष्ठित लोग इस प्रतिनिधिमंडल में शामिल हुए। पर दीदी का कहना था कि मुझे भी इसमें चलना है। क्योंकि पाकिस्तानी पानीपतियों का इसके लिए विशेष आग्रह है। मैंने अपने यह बात अपने पिताजी को बताई तो वह बेहद खुश हुए और इसके बाद पाकिस्तान जाने के लिए मेरी तैयारी में मदद करने लग गए।तैयारी इस तरह की कि किस किस तरह किस किस से मिलना है ।पानीपत से गए बुजुर्गों तथा उनके बच्चों के नाम, जितने भी जहन में थे , वे सभी उन्होंने बताये। मैं दीदी के साथ कराची गया और वहां डॉक्टर जकी हसन के माध्यम से पानीपत वालों से मिला। मुझे वहां 60 वर्ष से अधिक उम्र के बहुत से व्यक्ति मिले जो मेरे पिताजी से पानीपत में पढ़ चुके थे। उनके लिए मैं उनके उस्ताद का बेटा यानी भाई था। मैंने अपने पिताजी की इमदाद से एक पत्र भी तैयार करवाया ,जिस पर पानीपत के अनेक सम्मानित व्यक्तियों के हस्ताक्षर थे। इसमें लिखा गया था कि पाकिस्तान के पानीपतियों का एक प्रतिनिधि मंडल पानीपत आए। इस पत्र को जब पाकिस्तानी पानीपतियों ने पढ़ा
तो वे भावुक हो गए। इस तरह से डॉक्टर हसन तथा पाकिस्तान के पूर्व वित्त मंत्री डॉ मुवस्सर हसन के नेतृत्व में पाकिस्तानी पानीपतियों की 50 वर्षों के बाद अपने बाबा- ए-वतन आने की तैयारी होने लगी । कराची में ही मेरी मुलाकात हाली पानीपती के वंशज तथा प्रसिद्ध फिल्म कहानी लेखक ख्वाजा अहमद अब्बास के भांजे डॉ अनवर अब्बास से हुई जो कराची के प्रसिद्ध 'हबीब पब्लिक स्कूल' के डायरेक्टर हैं। दोनों देशों की आजादी की 50वीं वर्षगांठ के अवसर पर उन्होंने पाकिस्तानी पानीपतियों के बच्चों की एक हॉकी टीम पानीपत लाने की पेशकश की, जिसे दीदी के सामने रखा गया। उन्होंने इस टीम की संपूर्ण व्यवस्था का जिम्मा उठाते हुए इसे अपनी सहर्ष मंजूरी दी और इस तरह से जनता के स्तर पर दोनों ओर से अपने संबंध सुधारने का सिलसिला शुरू हुआ।
दीदी प्राय: कहा करती थी भारत विभाजन के बाद महात्मा गांधी पाकिस्तान जाना चाहते थे। उनका मानना था कि देश बेशक बंट गए ,परंतु दिल नहीं बंटने चाहिए ।वह इस बात की कायल थी कि दोस्त बदले जा सकते हैं, पड़ोसी नहीं ।पाकिस्तान हमारा पड़ोसी है तथा इसके साथ हमारा खून का रिश्ता है ।यह रिश्ता मजबूत होना चाहिए न कि इनके बीच में खून बहे तथा इसके लिए ही वे हमेशा प्रयासरत रहीं। पाकिस्तान से आकर अपनी पाकिस्तान यात्रा की पार्टी की रिपोर्टिंग प्रत्येक पार्टी नेता को की। इस रिपोर्टिंग मैं दीदी के साथ हर नेता के पास गया। दीदी की हमेशा यह खासियत है कि वह अपने साथी का परिचय भी करवाती थी। दीदी ने अपनी इन पूरी भेंटवार्ताओ में मुझे भी महत्वपूर्ण बनाए रखा।
पाकिस्तान से लौटने के कुछ महीनो बाद ही डॉ अनवर अब्बास,हबीब पब्लिक स्कूल के विद्यार्थियों की हॉकी टीम लेकर पानीपत आए। सबसे बड़ी खासियत यह भी रही दीदी भी इस टीम के साथ आईं। उस समय पानीपत के उपायुक्त के पद पर श्रीमती जयवन्ती श्योकंद ,आर्य स्कूल के प्रधानाचार्य के पद पर श्री दीपचन्द्र निर्मोही, स्कूल प्रधान श्री महेंद्र सिंह तथा प्रबंधक पद पर मैं स्वयं कार्यरत था। हम चारों की टीम सृजनात्मक विचारों को हमेशा प्रोत्साहित करती थी। अतः यह निश्चय हुआ कि हबीब पब्लिक स्कूल व आर्य स्कूल( पूर्व हाली मुस्लिम स्कूल) का मैच होगा। दोनों और से स्कूल ग्राउंड में रिहर्सल होने लगी। पूरे शहर में शोर था कि भारत -पाकिस्तान की छात्र टीम में मैच होगा और शुरू हो गया वही अड़ंगा कि भारत जीतेगा या पाकिस्तान। एक समय तो ऐसा आया कि लगने लगा दोनों देशों की सेनाओं के बीच युद्ध पानीपत के मैदान में होगा और विजेता राज सिंहासन पर बैठेगा। पर इस बीच श्रीमती श्योकंद, श्री महेंद्र सिंह, श्री निर्मोही जी तथा मैंने स्थिति को संभालते हुए कहा कि विजेता टीम अपनी ट्रॉफी हारने वाली टीम को प्रदान करेगी ।लायंस क्लब पानीपत के प्रधान श्री सुधीर सिंगला के सुझाव ने तो कमाल ही कर दिया कि हबीब पब्लिक स्कूल के सभी 17 बच्चे पानीपत के 17 परिवारों में ठहरेगें तथा उन्होंने इस व्यवस्था का पूरा जिम्मा खुद उठाया। सभी बच्चे अलग-अलग परिवारों में चले गए तथा अगले दिन मैच खेलने के लिये मैदान पर आये । पर यह क्या सभी पाकिस्तानी बच्चों के माथे पर तिलक और हाथ में विजय सूत्र बंधा था। वही आर्य स्कूल के बच्चे की टीम के बच्चे सामान्य थे। पता करने पर मालूम हुआ कि जिन- जिन परिवारों में वे ठहरे थे उन -उन परिवारों की मुख्य महिलाओं ने उनके माथे पर तिलक व हाथ पर विजय सूत्र बांधकर भगवान से प्रार्थना की थी कि वे मैच में जीतकर आयें। मैच हुआ और निश्चय के अनुसार ट्रॉफी ,हबीब पब्लिक स्कूल की टीम को दे दी गई। मैच के बाद पूरी टीम के सभी सदस्य अपने अध्यापकों के साथ मेरे पिताजी के पास आए मेरे पिताजी ने एक दादा की तरह बच्चों को अनेक नसीहतें दी तथा उनके बुजुर्गों की बातें बताई । सभी बच्चे बेहद प्रसन्न थे। इस पर दीदी का कहना था कि यही माहौल तो वे बनाना चाहती हैं। जहां एक दूसरे के बिना रोक- टोक आएं और ऐसे रहे जैसे एक मकान के दो हिस्सों में भाई कि यदि एक के खीर बने तो दूसरे को दे आए और दूसरे के यहां हलवा बने तो पहले के घर जाए। विद्यार्थियों की इस हॉकी टीम को लेकर, दीदी के साथ मै भी तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री इंद्र कुमार गुजराल से मिलने उनके आवास पर गया।श्री गुजराल ने पूरी टीम की हौसला अफजाई की। इस मौके पर उन्होंने छात्रों के आग्रह पर खूब फोटो खिंचवाये ,पर छोटा कद होने की वजह से मेरा तथा दीदी का चेहरा हर बात छुप जाता। इस पर मैंने कहा कि एक फोटो छोटे कद वालों के लिए भी होना चाहिए तो वह मेरा हाथ पकड़ कर आगे ले आये व वह इस तरह दीदी, मैं ,गुजराल साहब और एसपी वर्मा का फोटो एक स्मृति बन गया।
जनवरी 1997 के शुरू में ही पता चला कि पाकिस्तान से पानीपतियों का एक प्रतिनिधिमंडल पानीपत आने वाला है। जिसमें लगभग 17 लोग पाकिस्तान के विभिन्न नगरों से आएंगे। मेरे पिताजी को जब इस बात का पता चला तो वे बेहद खुश हुए तथा उन्होंने आने वाले लोगों के नाम व वलदीयत की जानकारी चाही। उन्होंने सारी लिस्ट को पढ़ा तथा फिर अपने एक प्रिय शिष्य श्री मांगेराम सैनी तथा मित्र लाला सीताराम को बुलाया और उन्हें बताने लगे कि कौन मेहमान किस मोहल्ले का है तथा उनका पानीपत में घर कहां पर है। वह सभी बातें विस्तार से बता रहे थे ताकि किसी भी प्रकार का कोई संशय नहीं रहे। हम इस विस्तार को समझ नहीं रहे थे।
मेरे पिताजी ने 98 वर्ष तक जीवन जीया। इस उम्र में भी वे बिना चश्मे के अखबार पढ़ते थे व अपना सारा काम खुद करते थे । जनवरी 1997 में हरिजन सेवक संघ की कार्यकारिणी तथा बोर्ड की बैठक अमरावती में आयोजित की गई। मेरी पत्नी अपने मायके उदयपुर गई हुई थी ।पिताजी और मैं घर पर अकेले थे। उन्हीं दिनों दीदी का फोन आया कि मीटिंग में अमरावती चलना है। मैंने उन्हें अपनी असमर्थता जताई। जिस पर वे सहमत थीं। पिताजी ने मेरे द्वारा असमर्थता जताने की बात को सुन लिया था। वह बोले कि, तुम्हें मीटिंग में जरूर जाना चाहिए तथा उनकी चिंता न करें, वे अकेले ही रह लेंगे। मैंने दीदी को अपने चलने की सूचना से अवगत कराया तो वे बेहद खुश हुईं। पानीपत से चलने से पहले मैंने अपने पिताजी को 50 रुपये का नोट जबरदस्ती यह कहकर पकड़ा दिया कि जरूरत पड़ ही जाती है। एक सप्ताह बाद मै सुबह-सुबह पानीपत पहुंचा। दरवाजे पर पिताजी से मिलन हुआ और मैंने उनके चरण छुए। पर वह बिना कुछ कहे ही अंदर चले गए और मेरे द्वारा दिया गया 50 का नोट वापस करते हुए बोले,' ले संभाल अपने पैसे, मैं तो इसकी रखवाली ही करते रह गया। मैंने यह घटना दीदी को बताई तो वे बेहद खुश हुई और बोली तुम्हारे पिताजी सचमुच संत बन गए हैं। मेरे पिताजी ने अपने जीवन में सरकारी व गैर सरकारी दोनों तरह के पदों पर काम किया था , पर यह एक आश्चर्य था कि उन्होंने कभी भी बचत खाता किसी बैंक में नहीं खुलवाया।
14 जनवरी 1997 को मकर सक्रांति के अवसर पर पिताजी सुबह ही नाई की दुकान पर जाकर मुंडन करवा आये।घर आने पर हमने पूछा कि यह क्या करवाया ?तो वह बोले ' दिन अच्छा था ,अब काम समेटना चाहिए, इसलिए बाल दान कर आया। हमने उनकी बात को मजाक में लिया। इस बीच वे अपने काम समेटते रहे। जिसे किसी ने भी अन्यथा नहीं लिया। तीन दिन बाद यानी 17 जनवरी को रात लगभग 11 बजे बजे उन्होंने मुझे और मेरी पत्नी को बुलाया और कहा कि अब उन्हें चलना है। बड़े भाई मदन मोहन तथा उनकी पत्नी को भी बुला लो। हमने ऐसा ही किया।वे फिर बोले कि राम- राम करो। आर्य समाजी स्वभाव, राम- राम जल्दी नहीं कहता। मैंने मजाक में कहा, आपका तो नाम ही सीताराम है। इस पर वे फिर बोले तो सीता-राम, सीता-राम करो। अब मुझे लगने लगा कि मामला गंभीर है। मैंने पड़ोस से ही अपने एक मित्र श्री आनन्द टक्कर को बुला लिया और हमारे देखते ही देखते मास्टर सीताराम, सीता-राम, सीता-राम का जाप करते हुए ही शांत हो गए । मैंने रात को ही इसकी सूचना दीदी को दी तथा बताया कि किस तरह पिताजी का अंत समय बीता। दीदी की टिप्पणी थी कि वे कहती न थी कि तुम्हारे पिता संत हैं। उनके ही दिशा निर्देश पर उनकी श्रद्धांजलि सभा को हमने सर्वधर्म सम्मेलन का नाम दिया ,जिसमें दीदी अपने साथ जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर व अपने सहयोगी श्री एमएच कुरैशी तथा जम्मू-कश्मीर रचनात्मक समाज के अध्यक्ष श्री एसपी वर्मा को साथ लेकर आईं ।पानीपत से चलने से पूर्व गाड़ी में बैठेते हुए उन्होंने मेरा हाथ अपने हाथ में लेकर कहा , 'राम मोहन जी, तुम्हारी माता के गुजरने के बाद मैं तुम्हारी मां थी ,अब पिता के जाने के बाद, मां और बाप दोनों हूँ । एक अनाथ को यदि दीदी जैसे माता-पिता मिल जाए तो उससे बड़ा भाग्यशाली कौन होगा।
[5/16, 11:59 AM] Sunita Anand: मेरे गुरु जी
मेरे गुरु श्री दीपचंद्र निर्मोही जी, कोई मंत्र फूंक गुरु नहीं रहे। जिस स्कूल में मैं पढ़ता था, उसमें वे हिंदी के शिक्षक थे, परंतु मैं उनकी
सादगी, विचारों तथा सिद्धांतों से बेहद प्रभावित रहा। कारण यह भी
रहा कि उनकी कथनी व करनी एक थी। दसवीं की परीक्षा पास करके वे आर्य हायर सेकंडरी स्कूल में सहायक प्राथमिक अध्यापक लगे तथा पढ़ाते हुए ही उन्होंने जेबीटी, बीए प्रभाकर,ओटी व एमए
हिंदी किया और बाद में इसी स्कूल के प्रधानाचार्य पद से सेवानिवृत्ति
हुए। वे एक कवि हृदय ही नहीं, अपितु हिंदी व हरियाणवी के बेहतरीन कवि हैं। उन्होंने अपने एक कवि मित्र सुदर्शन पानीपती के साथ मिलकर, हरियाणा साहित्यकार संघ की स्थापना की और बाद
में यह संघ ही प्रगतिशील लेखक संघ की हरियाणा इकाई के रूप में विकसित हुआ। निर्मोही जी मूल रूप से आर्य समाजी हैं क्योंकि मेरा परिवार भी आर्य समाजी था, इसलिए मेल-मिलाप के गूढ़ होने की
संभावनायें अधिक रहीं। आठवीं कक्षा में मैं आर्य स्कूल में दाखिल हुआ, वहीं पहली बार, निर्मोही जी से मेरी मुलाकात हुई। भाषण
प्रतियोगिताओं में मैं स्कूल की ओर से एक प्रतियोगी के रूप में भाग लेता था। भाषण की तैयारी, निर्मोही जी करवाते थे। शुरू में तो
एक-दो बार उन्होंने मुझे भाषण लिखकर दिया, जिसे मैंने रटकर प्रतियोगिता में सुनाया,
[: परंतु बाद में मेरे न चाहने पर भी भाषण के केवल बिंदु देने लगे। मैं समझा कि ये लिखने का समय नहीं जुटा पा रहे, परंतु उनकी कोशिश थी कि मुझे स्वत: स्फूर्त बोलने के लिए तैयार किया जाए। वे मुझे पत्र लिखने के लिए भी प्रेरित करते और उन्हीं की प्रेरणा लेकर मैंने सन 1970 में तत्कालीन राष्ट्रपति श्री वी. वी. गिरी को पत्र लिखा तथा उनसे मिलने का समय मांगा और यह क्या हमें राष्ट्रपति जी से मिलने के लिए दिल्ली से बुलावा आ गया। बुलावा आते ही हमने भी तैयारी शुरू कर दी। हम कुल 5 विद्यार्थी तैयार हुए ।आठवीं कक्षा के विद्यार्थियों को कौन लेकर जाएगा, यह एक प्रश्न था? प्रश्न यह भी था कि राष्ट्रपति जी से मिलने जा रहे हैं कुछ तो भेंट चाहिए ? हमने स्कूल के लगभग सभी वरिष्ठ अध्यापकों से निवेदन किया कि वे हमारे साथ चलें, परंतु सभी संकोचवश मना कर गए। आखिर में स्कूल के सेवक श्री रामलाल तैयार हुए। उनसे तय हुआ कि हम सब मिलकर उनका किराया देंगे तथा नकद इनाम भी देंगे। भेंट की समस्या, निर्मोही जी ने हल कर दी।उन्होंने राष्ट्रपति जी की प्रशंसा में एक कविता लिखी तथा हमने उसे चार्ट पर लिखवाया और शीशे के फ्रेम में लगवाकर राष्ट्रपति जी से मिलने दिल्ली गए राष्ट्रपति भवन में झूम- झूम कर मैंने उस कविता को गाया। जिसके बोल थे -
हे गिरी! गिरी से उँचा तेरा मस्तक,
सागर-सी गहराई मन की,
सत्य, अहिंसा, शील, शांति ही,
सुंदरता है तेरे मन की। लेकिन जब इस पावन भू की,
अन्याय से ठन जाती है।
तभी वीरवर शिला सरीखी,
तेरी छाती तन जाती है। भारत मां का अमर पूत तू, जीवन सुरभित ज्यों चंदन वन
हम बच्चे करते अभिनंदन,
अभिनंदन शत-शत अभिनंदन।
[ राष्ट्रपति वी.वी. गिरि जी इस कविता को सुनकर बहुत प्रसन्न हुए तथा उन्होंने कवि निर्मोही जी की बहुत प्रशंसा की । निर्मोही जी की कविताएं आकाशवाणी, रोहतक से भी प्रसारित होती थीं। उनका मेरे जीवन तथा विचारों पर इतना प्रभाव रहा कि उनके अनुसार ही मेरे विचारों को गति मिलती। सन 1974 में, मैंने कॉलेज में बीए में प्रवेश लिया। पूरे देश में जयप्रकाश नारायण का युवा शक्ति को जागृत करने का आंदोलन चल रहा था। जेपी के विचारों को जाने बिना, मैंने भी मन बनाया कि इस आंदोलन में शामिल हुआ जाए । मैंने यह बात निर्मोही जी के सामने रखी और बातचीत शुरू हुई। संपूर्ण क्रांति पर उनका कहना था कि क्रांति तो लगातार चलने वाली प्रक्रिया है, यह संपूर्ण कैसे हो सकती है और जब तक अन्याय पर आधारित व्यवस्था है तथा शोषित व शोषक के रूप में, समाज में दो वर्ग हैं, तब तक दल विहीन लोकतंत्र कैसे संभव है? यह दोनों बातें मेरे लिए बिल्कुल नई थी, क्योंकि आर्य समाज, सत्यार्थ प्रकाश तथा स्वामी दयानंद तो ऐसी विवेचना नहीं करते और धीरे-धीरे मै भी निर्मोही जी के विचारों के अनुसार इन्हीं व्याख्याओं को कहने लगा। अब धीरे-धीरे आर्य समाज के साप्ताहिक सत्संगों में जाना कम हो गया और रास्ता घूम गया भगत सिंह स्मारक की तरफ, जोकि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का कार्यालय था । वहां भगत सिंह और उनके साथियों की विचारधारा के बारे में चर्चा होती। पता ही नहीं चला कि कब अखिल भारतीय स्टूडेंट फेडरेशन से चलते हुए सीपीआई के सदस्य बन गए। इसी दौरान सीपीआई के दिल्ली स्थित कार्यालय अजय भवन में एक माह पार्टी स्कूल में भाग लेने का अवसर मिला। बीए करने के बाद अपनी बहन अरुणा और बहनोई श्री विजयपाल सैनी के प्रोत्साहन पर एलएलबी में दाखिला लिया। बहन- बहनोई ऐसे कि अपने बच्चों की बात तो मना भी कर दें पर उन्होंने मुझे, मेरे काम को कभी मना नहीं किया। सहारनपुर में भी स्टूडेंट फेडरेशन का गठन किया तथा संजय गर्ग जैसा अटूट मित्र पाया। समाजवादी देशों तथा विशेषतौर पर सोवियत संघ जाकर, वहां की व्यवस्था देखने की सदैव प्रबल इच्छा रही। इसी इच्छा के कारण भारत- सोवियत सांस्कृतिक मैत्री संघ में काम करने की सोची, परंतु संघ के स्थानीय नेतृत्व को यह गवारा नहीं था और फिर मैंने और संजय गर्ग ने भारत- सोवियत युवा मैत्री संघ का गठन कर लिया । इस गठन ने तो केंद्रीय नेतृत्व में भी हलचल पैदा कर दी। उसने इसे अनुशासनहीनता की हद पार करना बताया। खैर!
इस पूरे घटनाक्रम में निर्मोही जी, सदैव हमारे साथ खड़े रहे। मैंने एलएलबी की तथा वकालत का लाइसेंस लेकर, पानीपत कोर्ट में वकालत शुरू की। निर्मोही जी के ही प्रयासों से मुझे आठ महीने सोवियत संघ जाकर, कोम्सोमोल (युवा कम्युनिस्ट लीग) के स्कूल में जाने का मौका मिला। फिर मार्च 1981 में तपे -तपाए कम्युनिस्ट के रूप में वापस भारत आया। मेरे मन में विचार था कि कॉ. भूपेश गुप्त की तरह अविवाहित रहकर पार्टी में कार्य करुँ । सन 1982 के विधानसभा चुनावों में पानीपत क्षेत्र से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार के रूप में चुनाव में उतरा, परंतु आयु के तकनीकी कारण से नामांकन रद्द हो गया। बाद में पता चला कि पार्टी में किसी सूत्र ने विरोधियों को यह सूचना दी थी कि मेरी नगरपालिका तथा मैट्रिक की जन्म तिथि में अंतर है। एक अनुशासित पार्टी के किसी भी सदस्य से यह अपेक्षा तो कतई नहीं थी। इस आघात ने मेरे मन को बेहद पीड़ा पहुंचाई।
[5/18, 11:20 AM] Sunita Anand: निर्मोही जी से निरंतर विचार-विमर्श चलता रहता था। सन 1977 में श्रीमती इंदिरा जी के प्रति मोहभंग हो चुका था, परंतु निर्मोही जी अभी भी इंदिरा जी के प्रति अपने आकर्षण को समाप्त नहीं कर पाए थे। उन्होंने इन्हीं तमाम परिस्थितियों में श्रीमती इंदिरा गांधी पर अपनी पुस्तक लिखनी शुरू कर दी, जिसे बाद में 'विश्व की सर्वाधिक संघर्षशील महिला' के नाम से प्रकाशित किया। इसका विमोचन किसके द्वारा करवाया जाए, ऐसा प्रश्न आने पर निर्मला दीदी का नाम उभरा। मैं और निर्मोही जी दीदी से मिलने दिल्ली चल पड़े । दीदी उस समय हरिजन सेवक संघ, किंग्सवे कैंप में रहती थीं। हम एक ऐसी शख्सियत से मिलने जा रहे हैं, जिसका नाम पूरे देश में एक गांधीवादी कार्यकर्ता के रूप में सम्मान से लिया जाता था तथा जिसने संत विनोबा भावे की भूदान यात्रा के दौरान, उनके कदम से कदम मिलाकर 40000 किलोमीटर पैदल चलकर संघर्ष किया था। जो भारतीय दर्शन,शास्त्र और इतिहास की एक महान विदुषी थी तथा जिन्हें पूरे विश्व में संत विनोबा की मानस पुत्री के रूप में जाना जाता था। हमें अनुमान था कि वहाँ लम्बी लाईन मिलने वालों की लगी होगी और पता नहीं उन्हें मिलने का समय मिलेगा या नहीं, परंतु हरिजन सेवक संघ में, दीदी के आवास पर जाकर, हमारी सभी शंकाएं निर्मूल साबित हुई। दीदी एक बड़े कमरे में बैठी थीं ।वहाँ लोग भी काफी थी। कमरे में अंदर जाने की कोई रोक-टोक नहीं थी। बाहर जूते उतारकर हम भी उस कमरे में दाखिल हुए, जहां दीदी बैठी थीं और यह क्या दीदी ने हमारी ओर देखा और बोली, राम मोहन कैसे आना हुआ? निर्मोही जी को भी उनका नाम लेकर बुलाया, परिवार की कुशल क्षेम पूछी। सभी कुछ पूछने पर जब हमने अपने आने का कारण बताया तो झट बोली, कार्यक्रम कब करना चाहते हो, मैं उस में जरूर आना चाहूंगी । यह सब कैसे हो गया, एक सपना सा लगता था, परंतु यह तो दीदी का सरल और वात्सल्यपूर्ण स्वभाव ही था, जो सभी औपचारिकताओं को गौण बना देता था। हमारे निमंत्रण पर दीदी, पानीपत आईं और 'कृति और कृतिकार' सम्मेलन संपन्न हुआ। दीदी से संभवतः यह तीसरी मुलाकात थी।
: मेरी बहन
वैसे कहने को तो वह मेरी बड़ी बहन थी, उम्र भी कुल तीन साल ज्यादा, पर वह न केवल मेरे मित्र थी, अपितु बड़ा भाई और मां भी। मेरी मां बचपन में मुझे बताया करती थी कि जब वह लगभग तीन साल की थी तो मुझ 2-3 महीने के बच्चे को गोद में उठा कर ऊपर के कमरे से नीचे सीढ़ियों से इस तरह लाती मानो बंदरिया अपने बच्चों को चिपका कर ला रही हो। पर जब मां को पता चलता तो वह उसे खूब डांटती और शुक्र भी मनाती कि मैं सही सलामत तो रहा। मैं धीरे-धीरे बड़ा हुआ तो वह घंटों मेरे बालों को कंघी से संवारती रहती और घुंघराले बनाने के लिए लच्छे बनाती। बचपन में मेरे घुंघराले बाल थे तथा मेरी मां का कहना था कि यह घुंघराले बाल बहन की वजह से ही थे।
परिवार में आर्य समाज का प्रभाव होने की वजह से लड़के- लड़की के जन्म में कोई भी भेद नहीं किया जाता था। लड़की के जन्म पर भी उतनी ही खुशियां मनाई जाती थीं, जितनी कि लड़के के जन्म पर। बहन का भी नामकरण संस्कार हुआ और दसूठन (जन्मोत्सव) भी ।संस्कार के ब्रह्मा के रूप में स्वामी रामेश्वरानंद जी आए। पूरे देश में, स्वतंत्रता सेनानी श्रीमती अरूणा आसफ अली के नाम की धूम थी, बहन का नाम उनके नाम पर अरुणा रखा गया। वैसे घर में प्यार से उसे मुन्नी कहा जाता था। मुझे तैयार करने से स्कूल भेजने का सारा काम मेरी बहन करती थी। मैं व मेरी बहन दोनों साथ-साथ स्कूल जाते और जब मैं जब घर के दरवाजे पर अटक जाता तो मेरी मां मेरी पसंदीदा कविता सुनाती-
लिखोगे, पढ़ोगे, राजा बनोगे,
सितारों से उँचा, तुम्हारा होगा नाम,
जो बच्चे पढ़ते नहीं, इज्जत किसी की वे करते नहीं।
हम दोनों भाई- बहन की खूब पटती थी । जब बहन एक साल की थी, तभी निर्मला दीदी, संत विनोबा के साथ पदयात्रा करते हुए पानीपत दौरे के दौरान घर पर आई थीं। दीदी प्राय: मेरी बहन को देखकर कहती थी, 'तुम इतनी सी थी, जब मैं तुम्हारे घर आई थी।'
सन 1962 में पिताजी नगरपालिका पानीपत में अधीक्षक के पद से सेवानिवृत्त हुए तब भी मैं और मेरी बहन, दोनों उनके विदाई समारोह में सम्मिलित हुए । मेरी मां जब भी सामाजिक कार्यक्रमों में भाग लेने के लिए पानीपत से बाहर जाती तो हम दोनों भाई- बहन भी साथ जाते । स्कूल टाइम में बहन सांस्कृतिक गतिविधियों में बढ़-चढ़कर भाग लेती थी तथा वह स्कूल की बेस्ट डांसर थी।मझे याद है कि जब वह दसवीं में थी तो उसने स्कूल की स्टेज पर 'मोहिनी नृत्य' किया था। स्टेज परफारमेंस
के बाद स्कूल की प्राचार्य ने उसकी तारीफो की झड़ी लगा दी थी।
सन 1974 में , सहारनपुर के बारुराम सर्राफ के माध्यम से भगवानपुर कस्बे के हबीबपुर नवादा गांव के श्री चौहल सिंह के वकील पुत्र श्री विजयपाल सैनी का रिश्ता उनके लिए आया ।यह रिश्ता तय हो गया। मेरी आयु उस समय16-17 वर्ष की थी। इसी अवस्था में ही उसकी सगाई, विवाह और विदाई की संपूर्ण व्यवस्था मैंने की थी। सगाई पर, एक दिन पहले सहारनपुर गया तथा वहां सारी खरीदारी की, अगले दिन मेरे माता-पिता व बाकी परिवार पहुंचा। उसकी शादी में, घर पर नौ दिन पूर्व ही गीत- संगीत का कार्यक्रम शुरु हो गया था। इस पूरे कार्यक्रम में घाघरा पहन कर, घूंघट निकाल कर मैं खूब डांस करता था । शादी से दो दिन पहले, उसकी और मेरी किसी बात पर खूब लड़ाई हुई। हम दोनों ने एक- दूसरे को मारने के लिए बड़ी-बड़ी लाठियां ले ली और ऐसे लड़े ,मानो आज ही खात्मा होना है। इसके दो दिन बाद उसकी विदाई के समय वह और मैं दोनों गले मिलकर खूब रोये तथा अलग ही न हुए तो उसके श्वसुर ने कहा कि इसे भी बहन के साथ ही भेज दो। कुछ दिन बाद उसके साथ ही वापस आ जाएगा और इस तरह मैं भी अपनी बहन के साथ विदा हुआ। अक्सर मेरे बहनोई कहा करते थे कि तुम भी उनकी शादी के दहेज में आए हुए हो।
विद्यार्थी काल में, विद्यार्थी राजनीति में सक्रिय रहा । सन 1977 में भारत में राज पलटी हुआ और कांग्रेस पार्टी की हार के साथ ही श्री मोरारजी भाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की जीत हुई। छात्र राजनीति में सक्रियता के कारण ही, मेरा कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में एलएलबी में प्रवेश न हो सका । आखिरी लिस्ट में भी अपना नाम न देख कर मैं कुरुक्षेत्र से ही सीधे सहारनपुर में बहन के घर पहुंचा। मैं बहुत उदास था। सहारनपुर में दाखिले समाप्त हो चुके थे, पर बहनोई के प्रयासों की वजह से जे .वी. जैन कॉलेज में एलएलबी में मेरा दाखिला हो गया । हॉस्टल के बजाय मैंने बहन के घर पर ही रहना मुनासिब समझा और इस तरह जो कमी मैं उसकी विदाई के बाद से ही महसूस करता था, वह दूर हो गई। छात्र राजनीति की ललक, यहां आकर भी समाप्त नहीं हुई। इसी दौरान मेरी दोस्ती मेरे साथ एलएलबी में पढ़ने वाले संजय गर्ग के साथ हुई। संजय और मेरी इतनी प्रगाढ़ मैत्री थी कि 24 घंटे में से 18 घंटे हम साथ साथ ही रहते। इधर मेरी बहन थी तो उधर उसकी माता श्रीमती शुभलता गर्ग। बहन, संजय को मुझसे ज्यादा मानती थी, वहीं संजय की माताजी व पिताजी श्री मन मोहननाथ गर्ग जी मुझे अपने बच्चों से भी ज्यादा प्यार देते थे। ये बहन और मां दोनों खाना बनाने में माहिर थीं और हम दोनों खाना खाने में । कितना- कितना हम दोनों ही खा गए , इसका पूरे परिवार के लिए गूथे हुए आटे के निपटने पर ही पता चलता था। संजय मेरा दोस्त भी रहा व प्रिय शिष्य भी। यद्यपि उसके ताऊ श्री प्रेमनाथ गर्ग एक स्वतंत्रता सेनानी थे व कांग्रेस के नेता भी। पर संजय मेरी बातों को जिस ध्यान से सुनता ,उसका कहना ही क्या। मैं भी एक अच्छे कथावाचक की तरह उसे राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्थितियों पर वामपंथी लेक्चर पिलाता। मुझे उस दिन बेहद खुशी हुई, जब वह कॉलेज में हड़ताल के दौरान स्टूडेंट फेडरेशन के नेता के रूप में बोला। वह उसका पहला भाषण था। इसके बाद तो अब सहारनपुर में उसके विरोधियों का भी मानना है कि उससे अच्छा कोई वक्ता कोई नहीं है। तीन साल कॉलेज में कैसे बीत गए ,यह अरुणा व संजय की वजह से पता ही नहीं चला। इस दौरान स्टूडेंट फेडरेशन का गठन, लॉ फैकेल्टी का चुनाव ,सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश श्री वीआर कृष्णा अय्यर का कॉलेज में आना, भारत- सोवियत युवा मैत्री संघ की स्थापना ,रुड़की इंजीनियरिंग यूनिवर्सिटी तथा गुरुकुल कांगड़ी में हड़ताल, लुधियाना में ऑल इंडिया स्टूडेंट फेडरेशन के राष्ट्रीय सम्मेलन में जाना व वहां राष्ट्रीय परिषद के लिए निर्वाचन , ये सभी ऐसी घटनाएं थी, जिसमें संजय और मैं साथ थे। अपने शहर से बाहर रहकर मैं इन्हें कर पाया तो इसमें मेरी बहन और बहनोई का बहुत बड़ा योगदान रहा। इस दौरान मेरे अन्य मित्र अशोक शर्मा, राजीव अग्रवाल, किरणजीत सन्धु ,
राशिद जमीद, अनिल गर्ग व रंजन सैनी भी हमारे साथ हरदम बने रहे। मेरी बहन का घर हमारा दफ्तर रहता और वह सब की ऐसी सेवा करती मानो ये सभी उसके सगे भाई हों। एलएलबी पास करके , मैं पानीपत आ गया। लगभग 8 माह सोवियत संघ रहा तथा वापिस आकर पानीपत में सामाजिक गतिविधियों के साथ वकालत करने लगा। संजय सक्रिय राजनीति में उतरा तथा सहारनपुर से विधायक बनकर उत्तर प्रदेश में राज्य मंत्री के पद पर रहा। पर इस पूरे क्रम में निर्मला दीदी के प्रति हमारी श्रद्धा यथावत बनी रही। दिल्ली में जब भी संजय आता तो दीदी से मिलता तथा दीदी भी तीन बार उस के निमंत्रण पर सहारनपुर पहुंचीं। हर बार का आनंद यह भी रहा कि वे अपने व्यस्ततम कार्यक्रमों में से समय निकालकर बहन अरुणा के घर पर भी गईं तथा वही स्नेह दिया जो मेरी मां देती। अरुणा स्वयं भी एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में अपनी पहचान बनाने में सफल रही तथा वह भी दीदी की टीम में हर समय सहयोगी रही।अखिल भारतीय रचनात्मक समाज के दिल्ली , तिरुपति व जालंधर सम्मेलन की तैयारी के लिए कई दिन पहले पहुंची। दीदी के आदेश का पालन करना वह अपना परम कर्तव्य समझती थी और समझे भी क्यों न, दीदी उसके लिए वही हैसियत रखती थी ,जैसे एक मां रखती है। अरुणा के बच्चे शिखा व अनुज भी अब दिल्ली रहने लगे थे। वे अपनी नानी-मां दीदी से मिलने यदा-कदा आते थे।
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सन 1993 में आर्य समाज के उठा-पटक के दौर में मैं, उत्तर भारत की सबसे पुरानी कन्या पाठशाला, आर्य कन्या हाई स्कूल का प्रबंधक बन गया। स्कूल की स्थापना सन 1918 में स्वामी श्रद्धानंद जी की प्रेरणा से स्थानीय आर्य समाजियों ने कराई थी। मेरे पिताजी भी इस स्कूल के उप प्रबंधक के पद पर कई वर्ष तक रहे तथा मेरी माता जी ने भी इस विद्यालय में सन् 1938 से 40 तक शिक्षिका के रूप में कार्य किया। समाज में जो स्थिति लड़कियों की होती है, वैसी ही दीन- हीन स्थिति इस स्कूल की थी। स्कूल में न संख्या थी, न भवन की व्यवस्था और ऐसी ही अध्यापिकाओं की स्थिति थी, जिनका नियमित रूप से वेतन देने में प्रबंधन असमर्थ था । मेरे से पूर्व प्रबंधक,इस स्कूल को बराय नाम चला रहे थे। मकसद यह था कि स्कूल का नाम भी चलता रहे और पद प्रतिष्ठा भी बनी रहे। आर्य समाज में श्री रामानंद सिंगला, उस समय ऐसा नाम था, जो चलती- फिरती संस्था थे। हाथ में छतरी उठाकर किसी भी सेवक की साइकिल के पीछे बैठकर वे एक संस्था से संस्था घूमते- फिरते रहते थे। उन्हें स्कूल का प्रधान बनाया गया तथा मुझे प्रबंधक । जब मैंने पदभार संभाला तो मेरी आयु केवल 35 वर्ष की थी, कुछ कर गुजरने का नया जोश था। सबसे पहले हमने भवन की व्यवस्था ठीक करने की सोची। अन्य भ्रातृ संस्थाओं से लोन लेकर चार कमरे बनवाने का निश्चय किया गया। प्राचार्य कार्यालय जो कि एक कोठरी में था, उसे बड़े कमरे में स्थानांतरित करने की योजना बनाई। बड़े कमरे को प्रिंसिपल के कार्यालय के लायक बनाकर उसमें यज्ञ करवाया तथा फिर कमरे के दरवाजे पर फीता काटकर उसका विधिवत उद्घाटन करवाया गया। स्कूल की एक अध्यापिका किरण कोचर ने अतिथिगण को तिलक किया। मैंने भारतीय परंपरा अनुसार बहन की थाली में 21 रुपए शगुन के डाल दिए। संस्थाओं में हर तरह के लोग होते हैं , कुछ ने इसे अन्यथा लिया तथा इसका मजाक बनाया। पर मैंने किरण के सिर पर हाथ रखकर कहा कि आज से तू मेरी बहन है। उस दिन से आज तक मैंने उसी व्रत का पालन किया है। किरण तथा हमारा परिवार कई बार मथुरा- वृंदावन की यात्रा पर गए। हर बार यात्रा का पहला पड़ाव दीदी के घर होता। हम दीदी के यहां रुकते तथा उनके घर भोजन करते। दीदी भी किरण को ,मेरी सगी बहन जैसा ही स्नेह देती। किरण तथा उसका परिवार, रचनात्मक समाज के तिरुपति सम्मेलन में भी गया। वहां पर उसे देखकर दीदी बेहद खुश हुईं।
वाराणसी में, तिब्बती संस्थान में आयोजित चिंतन शिविर की तर्ज पर पानीपत में आर्य कन्या स्कूल में भी शिविर का आयोजन किया गया। इसमें दीदी के साथ प्रो. सामदोंग रिनपोछे (तिब्बत की निर्वासित सरकार के प्रधानमंत्री) भी आए। इस शिविर में दीदी तथा प्रो. रिनपोछे की आवभगत की पूरी व्यवस्था का कार्य किरण तथा एक अन्य सहयोगी अध्यापिका नरेश कुमारी ने किया। दो दिवसीय शिविर में, श्रीमती नरेश तो इतनी उत्साहित हो गई कि वे अंतिम दिन प्रो. रिनपोछे के लिए घर से खीर बनाकर ले आई । दीदी ने इसे भगवान बुद्ध को सुजाता की खीर की संज्ञा दी ।
दिसंबर, 2007 में दीदी, हरियाणा पुलिस अकादमी के निदेशक श्री वीएन राय के निमंत्रण पर पानीपत थर्मल प्रोजेक्ट में '1857 की क्रांति' के प्रकाश व ध्वनि कार्यक्रम में मुख्य अतिथि बनकर आईं। दीदी ने मुझे दिन में ही फोन किया और कहा कि किरण भी तो थर्मल में रहती है, उन्हें कहे कि उनके लिए बिना मिर्ची का घिया और रोटी बना कर लाए । मैंने किरण को बताया तो वह गदगद हो गई और दीदी की पसंद का खाना बना कर लाई, जिसे खाकर दीदी ने अपनी आदत के अनुसार उसकी खूब प्रशंसा की।
[ 3
सन 1994 में पारिवारिक घटनाक्रम ऐसा घूमा कि इस वर्ष कई दुर्घटनाएं हुईं। मन पर भारी बोझ था व जिस कारण सामाजिक निष्क्रियता बढ़ती जा रही थी। ऐसे समय में दीदी की प्रेरणा से सामवेद पारायण यज्ञ का आयोजन मेरे निवास पर हुआ। दीदी स्वयं इसमें अग्नयाधान करने के लिए इंडोनेशिया निवासी श्रीमती ओका को लेकर पानीपत आईं तथा मुझे तथा मेरे पूरे परिवार को इस निराशा के दौर से निकालने के लिए प्रेरित किया। इन सभी घटनाक्रमों के बीच दो वर्ष बीत गए। सन 1996 में हरियाणा में चौ. बंसीलाल जी के नेतृत्व में हरियाणा विकास पार्टी की सरकार बनी तथा उन्होंने अपने घोषणापत्र को पूरा करते हुए हरियाणा में शराबबंदी को लागू किया । उस समय में जिला पानीपत के उपायुक्त पद पर श्रीमती जयवंती श्योकंद की नियुक्ति हुई। वे बेहद कुशल, ईमानदार तथा कर्मठ प्रशासक रहीं। पानीपत में पहले सन् 1976 के आसपास वे अपनी सर्विस के शुरुआती दौर में एसडीएम के पद पर भी रहीं। पानीपत उस समय जिला करनाल का सब डिविजन ही था। एसडीएम ही अपने कार्यों के अतिरिक्त रेडक्रॉस सोसाइटी का अध्यक्ष होता था तथा उसका सचिव होता था नगर का कोई समाजसेवक। श्रीमती जयवंती रेडक्रॉस सोसायटी की अध्यक्ष बनीं तथा मेरी मां श्रीमती सीता रानी , सोसायटी की सचिव। दोनों ने मिलकर सोसाइटी के विकास तथा जनता की सेवा का प्रशंसनीय कार्य किया। श्रीमती जयवंती की ट्रांसफर पर मेरी मां ने अपनी शुभकामनाएं देते हुए कहा कि वे शीघ्र पानीपत में डिप्टी कमिश्नर (डीसी) बन कर आएं। माताजी की इस बात को सब ने मजाक में लिया, क्योंकि पानीपत जिला नहीं है तो डीसी कैसे बना जा सकता है। पानीपत ठहरा, कलंदरी शहर ,जहां दुआओं का असर होता है। कुछ वर्षों बाद पानीपत जिला बना तथा श्रीमती जयवंती डीसी बनकर पानीपत आईं । श्रीमती श्योकंद से मेरी पहली मुलाकात आर्य कन्या स्कूल में शराबबंदी के कार्यक्रम में हुई। मेरे वक्तव्य से वे बेहद प्रभावित हुई तथा फिर शराबबंदी के प्रत्येक कार्यक्रम में बुलाकर भाषण करवाने का सिलसिला जारी रखा । जहां मेरी पारिवारिक निराशा समाप्त हुई ,वहीं जनसंपर्क बनाने का सिलसिला पुनः शुरू हो गया। इसी दौरान मुझे दीदी के साथ पाकिस्तान जाने का अवसर मिला और कराची में हाली पानीपत के वंशज तथा प्रसिद्ध फिल्म कहानीकार ख्वाजा अहमद अब्बास के भांजे ख्वाजा अनवर अब्बास से मिलने का मौका मिला। अनवर अब्बास ने ही अपनी बातचीत के दौरान श्रीमती श्योकंद का जिक्र किया। जब मैंने उन्हें बताया कि वे आजकल पानीपत में ही डीसी हैं तो वे बेहद खुश हुए तथा उन्हें एक पत्र हिंदी में लिखा। मैंने यह पत्र पानीपत आकर श्रीमती श्योकंद को दिया। जिला पानीपत में श्रीमती श्योकंद की यह शोहरत थी कि वे बहुत सख्त प्रशासक हैं, परंतु एक सांस्कृतिक कर्मी भी है, इसका आभास तो उस पत्र के बाद ही हुआ। एक कठोर प्रशासक और दूसरी और कोमल हृदय हिलोरे ले रहा हो, यह एक अद्भुत संयोग उनमें था।
पाकिस्तान से मेरे पानीपत आने के कुछ दिन बाद ही ख्वाजा अनवर अब्बास पानीपत आए ।हमने स्थानीय आईबी कॉलेज में एसोसिएशन ऑफ एशिया की ओर से एक सभा आयोजित की, जिसमें भाई अनवर, निर्मला दीदी की अनन्य सहयोगी वीणा बहन तथा बहन जयवंती एक साथ आए। पानीपत के सभी क्षेत्रों से लोग इस बैठक में शामिल हुए। अनवर ने इस बैठक में मेरे नाम को परिवर्तित करते हुए 'राम रहीम राय' कहा और कहा कि भारत से निर्मला दीदी तथा राम भाई जैसे मिसाइल पाकिस्तान में छोड़े जाएं तो दोनों देशों में तनाव समाप्त होकर भाईचारे का माहौल बने। अनवर भाई के इसी दौरे में हबीब पब्लिक स्कूल की हॉकी टीम का पानीपत कार्यक्रम बना। इसी दौरान निर्मला दीदी अपनी साथी रंजना बोबड़े के साथ के साथ पानीपत आईं। इस मैच के कार्यक्रम में ही एक अविस्मरणीय घटना घटी।दीदी ने हमें बताया था कि कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी के राज्यसभा सदस्य श्री बर्तिन सेनगुप्ता, जो स्टूडेंट फेडरेशन ऑफ इंडिया के अध्यक्ष भी हैं, इस मैच को देखने के लिए पानीपत आएंगे। मैच शुरू हो चुका था, लेकिन वे नहीं आए और हमने भी इंतजार करना छोड़ दिया। तभी स्कूल में प्रिंसिपल के दफ्तर में लंबे कद व दुबले शरीर वाला एक व्यक्ति हाथ में बैग लिए आया। किसी ने भी उसकी ओर ध्यान नहीं दिया और वह चुपचाप खड़ा रहा। तभी मेरा ध्यान उस अजनबी युवक की तरह बढ़ा और मैंने हिम्मत करके पूछ ही लिया , क्या आप कॉमरेड बर्तिन सेनगुप्ता है? उन्होंने झट हाँ की तो मैं उन्हें चुपचाप स्कूल के मेन गेट के बाहर ले गया वे स्कूल से सटी एक दुकान में बैठा दिया। मैंने स्कूल के प्रिंसिपल श्री दीपचंद निर्मोही तथा अन्य व्यवस्थापकों को सूचना दी कि मुझे अभी-अभी पता चला है कि राज्यसभा सांसद सेनगुप्ता पहुंचने वाले हैं, चलो, मुख्य द्वार पर पहुंचकर उनका स्वागत करें। हम सभी हाथों में फूल मालाएं लेकर मुख्य द्वार पर पहुंचे। द्वार पर स्कूली बच्चों ने बैंड पर स्वागत धुन बजानी शुरू कर दी। इतने में मैं सांसद सेनगुप्ता को सब की नजर से बचाकर गेट पर ले आया और वहां पर उनका औपचारिक स्वागत हुआ। सांसद सेनगुप्ता मुझे और मैं उन्हें देखकर मंद मंद मुस्कुरा रहे थे। जब मैंने दीदी को एक किस्सा सुनाया तो मैं हंस हंस कर लोट-पोट हो गईं। मेरा भी ऐसा किसी सांसद के साथ इस तरह का पहला अनुभव था। हमें तो यह पता था कि हमारे यहां का तो एक अदना सा नेता भी भारी- भरकम स्वागत की इच्छा रखता है और अपने साथ चेले चपटों और सुरक्षाकर्मियों की फौज लेकर चलता है, लेकिन यह कैसा सांसद है? इसी मैच के समापन पर दीदी श्रीमती जयवंती, तत्कालीन शिक्षा राज्य मंत्री श्री ओमप्रकाश जैन तथा सांसद श्री बर्तिन सेनगुप्ता ने प्रतिभागी छात्राओं को पारितोषिक वितरण किया। मेरा पुत्र उत्कर्ष समय मात्र 6 वर्ष का था और वह भी इसमें शामिल था। जब भी कोई अतिथि छात्रों को पुरस्कार देता वह भी पुरस्कार के तले पर अपनी ऐडियाँ उठाकर अंगुली में लगाता,मानो वह भी पुरस्कार वितरकों में शामिल हो।
: इस मैच के कुछ दिन बाद ही पाकिस्तान से 22 सदस्यीय एक प्रतिनिधिमंडल डॉ. जकी हुसैन ,डॉ. हसन तथा अब्दूर रब अब्बासी के नेतृत्व में पानीपत आया। इस मंडल की खासियत यह थी कि इसमें हर आयु वर्ग के स्त्री पुरुष शामिल थे। स्वागत की तैयारी में एक एक समिति पत्रकार श्री राजकुमार शर्मा के नेतृत्व में बनाई गई , जिसमें पानीपत के सभी बुजुर्गों और उनके परिवारों के सदस्यों को रखा गया । इसी दौरान एसोसिएशन ऑफ पीपुल्स ऑफ एशिया हरियाणा चैप्टर का भी गठन कर दिया । जिसका मुझे संयोजक बनाया गया । पूरे देश में शायद यह पहला अवसर था, जब ट्रैक 2 के अंतर्गत पाकिस्तान से इस तरह का पहला प्रतिनिधिमंडल भारत आया था और वह भी एक छोटे से शहर पानीपत में। हम सब के हाथ पांव फूले हुए थे कि कैसे होगा? कहीं कोई दिक्कत हो गई तो आखिरकार दुश्मन माने जाने वाले देश पाकिस्तान से लोग आ रहे हैं। पर यह जयवंती बहन का ही हौसला था कि जिसके बलबूते हम प्रतिनिधिमंडल की मेहमाननवाजी कर पाएं। मंडल ने मात्र तीन दिन ही पानीपत में ठहरना था और इन दिनों में ही संपूर्ण व्यवस्था होनी थी। ठहरने की पूरी व्यवस्था वैस्ट होटल में की गई तथा नाश्ते और खाने की व्यवस्था कहां-कहां नहीं थी। एक दिन में सात जगह नाश्ते, पांच-पांच जगह पर लंच और फिर कई जगह जलपान और रात्रिभोज ।हम लोगों ने विचार रखा कि मंडल को पांच-पांच के समूह में बांट दिया जाए, ताकि सभी जगह की मेहमाननवाजी कबूल की जा सके, पर सभी मेजबानों का आग्रह था कि मंडल के सभी सदस्य उनके घर पर आने चाहियें। दिन में दोपहर डेढ़ बजे तक तो नाश्ते ही खत्म नहीं होते थे और फिर इसके बाद दोपहर का भोजन 4 बजे तक व शाम 7 बजे तक चाय रात व रात 11 बजे तक खाने के दौर चलते थे। ये पानीपत के लोगों की मोहब्बत तो थी ही, इसके साथ-साथ जिला प्रशासन का सहयोग भी था, जो जयवंती बहन के जरिए मिला था। एक्सपोर्टर सुखमल चंद्र जैन ने भी सभी प्रतिनिधियों को एक-एक कालीन भेंट किया। वहीं जयवंती बहन की ओर से पानीपत में बनी बेहतरीन चादरें व कंबल दिए गए। मेरा मानना है कि ऐसा स्वागत का मंजर अपने जीवन के पड़ाव में अब तक मैंने नहीं देखा।
खादी आश्रम पानीपत में स्वतंत्रता सेनानी तथा गांधी कार्यकर्ता श्री सोम भाई के निवास पर आयोजित नाश्ते के प्रोग्राम में , लाहौर से आई दो युवतियां नबीया व असमारा जाने से चूक गईं।
इस आयोजन में भाई जी की ओर से सभी मेहमानों को खादी के वस्त्र भेंट किए गए थे । इसके बाद उसी शाम को कॉमरेड रामदित्ता के घर पर आयोजित नाश्ते में सोम भाई भी मौजूद थे। दोनों लड़कियां भाई जी के पास गईं और बोली,' नाना जी हम आपके घर पर न आ सकीं, हमें अफसोस है, पर नाना के घर का गिफ्ट तो मिलना ही चाहिए।' लड़कियों की बात से पूरा वातावरण भावुक हो गया। इस पर भाई जी ने भी कहा,' क्यों नहीं, कल मिल जाएगा । ऐसा प्यार, रिश्तों का एहसास,जगह -जगह देखने को मिले। इसका मतलब यह नहीं है कि सब कुछ ठीक-ठाक था। सीआईडी हमारे पीछे थी कि हमेशा पूछताछ में मशगूल रहती । कभी इसका स्पष्टीकरण हो कि दिल्ली से पानीपत में 24 लोग आए थे, अब 22 हैं, जबकि वे दो लोग मैं और मेरा दोस्त नंदकिशोर टक्कर ही थे । अब पुलिस रिपोर्टिंग करवाओं तथा सभी थाने चलो।इन सभी झंझटों
से मुक्ति की हमारे पास एक ही चाबी थी और वह थी बहन जयवंती।
इस पूरी यात्रा की समाप्ति पर प्रतिनिधिमंडल के नेता डॉ.जकी हुसैन ने, जयवंती बहन का शुक्रिया अदा किया , जिनकी वजह से यह यात्रा सफल हो सकी। स्वयं दीदी भी जयवंती बहन से काफी प्रभावित थीं। यह बात सहर्ष कही जा सकती है कि पानीपत में इस प्रतिनिधिमंडल का आना, बेशक एक सहज घटना लगती हो ,परंतु यह आधार था, जिस पर एसोसिएशन ऑफ पीपुल्स ऑफ एशिया की नींव रखी गई। उस समय बेशक जयवंती बहन की भूमिका को हम गौण व सामान्य माने, परंतु भविष्य बताएगा कि उन्होंने दीदी के निर्देशन में कितना बड़ा ऐतिहासिक कार्य किया है।
निर्मला दीदी भी जयवंती बहन की इस समर्थित समर्पित भावना से बेहद प्रसन्न थीं। वे दो बार चंडीगढ़ किन्हीं कार्यक्रमों
में गई , परंतु बनी जयवंती बहन की मेहमान ही । अपनी सेवानिवृत्ति के बाद जयवंती बहन दीदी के पास दिल्ली गई, जिस पर दीदी ने उनसे कहा कि वे अब उनके काम में लग जाएं तथा उन्होंने जयवंती बहन को हरिजन सेवक संघ की हरियाणा इकाई का अध्यक्ष बना दिया। बेशक अब निर्मला दीदी हमारे बीच में नहीं है , परंतु जयवंती बहन को जब भी मिलते हैं, उनमें दीदी की साक्षात छवि दिखाई देती है।
[: मेरी पत्नी
मेरी पत्नी कृष्णा कांता जब नौवीं कक्षा में पढ़ती थी, तब मेरी उनसे मुलाकात हुई। वे पानीपत में राजकीय स्कूल में आयोजित एक राष्ट्रीय एकता शिविर में भाग लेने के लिए आई थी। उसी दौरान रेवाड़ी से मेरे मुंह बोले मामा श्री ज्ञानेंद्र सिंह जी, जोकि कृष्णा कांता के पिता श्री गणेशलाल माली, संसद सदस्य के मित्र थे, का फोन आया कि हम पानीपत आई उनकी पुत्री से मिलें और उन्हें घर आने का न्योता दें। हमारे पड़ोस की एक लड़की उमा, जो स्वयं भी उस शिविर में भाग ले रही थी कि मार्फत संदेश पाकर वह हमारे घर आई तथा परिवार से मिली। घर से निकलते वक्त, मैं भी उनसे घर की दहलीज में मिला। मुझे मेरी मां ने कहा कि मैं, कृष्णा कांता के साथ जाकर एक शाल खरीदवा दूं। मैं उनके साथ गया और शॉल मार्केट से उनकी पसंद की शाल खरीदवा दी। वह पहली बार था कि किसी लड़की के साथ मैं रिक्शा पर बैठकर घुमाने ले गया हूं और फिर मैं भी इतना बड़ा नहीं था। मैं 17 साल का बी ए प्रथम वर्ष में पढ़ने वाला छात्र ही तो था। खरीदारी करवाकर मैं उन्हें शिविर स्कूल में छोड़ आया और पहली बार मैंने उनकी मुखाकृति को देखा। गोरा चेहरा, भूरी- नीली आंखें और सुनहरे बाल, मुझे तो दुनिया का सारा सौंदर्य उसी में उतरता दिखा और यह चेहरा मेरे रोम रोम में बस गया। उसके बाद बी ए पास कर एलएलबी करने के लिए अपनी बहन अरुणा के पास सहारनपुर चला गया। अब मैं जवान होने लगा था, कई लोग मुझे इसलिए भी मिलने आते थे ताकि उनकी लड़की के लिए पसंद किया जा सकूं। वे मेरी बहन और परिवार को तरह-तरह का लालच देकर रिश्ते की पेशकश भी करते। मेरे मित्र भी अक्सर, मुझसे शादी के बारे में पूछते तो , मेरा जवाब होता कि मेरा रिश्ता तो उदयपुर में गणेशलाल माली की सुपुत्री से हो गया है । ज्यो ही मैं वकालत शुरू करूंगा, मेरी उससे शादी हो जाएगी। पर यह चाह तो एकतरफा थी, जबकि असलियत तो यह थी कि न तो कृष्णकांता को मेरे बारे में पता था और न ही उनके माता-पिता को इसके बारे में कोई जानकारी थी। हां, याद ताजा रखने के लिए मैं अपने पिताजी की तरफ से उनके पिता को पत्र लिखता और अंत में लिखता,' बेटी कृष्णा कांता बड़ी हो गई, उसे हमारा आशीर्वाद देना। धीरे-धीरे समय बीतता जा रहा था। एक रोज श्री ज्ञानेंद्र सिंह जी, चंडीगढ़ जाते हुए पानीपत रुके। मैंने चुपके से उन्हें कहा कि वह मेरे रिश्ते की बात उदयपुर चलाएं। श्री ज्ञानेंद्र जी की यह समझ थी कि यह रिश्ता चलेगा नहीं क्योंकि पानीपत से उदयपुर की दूरी बहुत ज्यादा है। ऐसा न होता देखकर मैंने ही अपने पिता की तरफ से एक पत्र उदयपुर, रिश्ते की पेशकश करते हुए लिख दिया। बहुत दिन बाद जवाब आया कि जन्मपत्री भेजी जाए। मैं सचमुच डर रहा था कि यदि जन्मपत्री न मिली तो क्या होगा। पर पता नहीं क्या सद्बुद्धि आई जवाब में मैंने अपनी पिता की ओर से कृष्णा कांता की जन्मपत्री की मांग करते हुए अपनी जन्मपत्री भी भेजी। मेरा डर सच निकला और जवाब आया कि दोनों की जन्मपत्री नहीं मिली है, इसलिये रिश्ता नहीं हो सकता। मुझे ऐसे समय में संत कबीर की पंक्तियां याद आने लगी-
कर्म गति टारे नहीं टरे, मुनि वशिष्ठ से पंडित ज्ञानी,
शोध के लग्न धरे ,
सीता हरण, मरन दसरथ का ,
बन में विपति चरे,
कर्म गति टारे नहीं टरे।
भगवान राम तथा जनक पुत्री सीता जी का विवाह भी तो जन्मपत्री और लगन वगैरह देख कर ही हुआ था, फिर भी वे संकट में रहे, इसलिए मैंने समझ लिया था कि इन जन्मपत्री के मिलान का कोई मतलब नहीं है। मैंने अपने एक मुवक्किल पंडित अमरनाथ शर्मा से अपने इस परेशानी को बताया तथा इसका निदान बताने की बात की। शर्मा जी को मैंने, उदयपुर से आई जन्मपत्री को भी दिखाया। पंडित जी ने कहा समस्या का हल हो गया। उन्होंने पुरानी बही के दो पन्ने फाड़े, उन्हें गोंद से जोड़ा तथा एक नई जन्मपत्री बना दी, जिससे कृष्णा कांता की जन्मपत्री पूरी तरह से मेल खाती थी। अपने पिता की तरफ से, मैंने पत्र लिख, अपने यह नई जन्मपत्री उदयपुर भेज दी और जैसा कि होना ही था, दोनों जन्मपत्रियाँ मिलान खा गई ।अब लड़का- लड़की देखने का भी ड्रामा होना था। मुझे तो कृष्णकांता की शक्ल हूबहू याद थी व पसंद भी थी, पर अब डर यह था कि वह भी मुझे पसंद करेगी क्या ? इसी बात की ऊहापोह में,मैं ,मेरी माता और बहन तीनों जयपुर में लड़की देखने के लिए चले। हम दोनों को आमने-सामने अकेले में बिठाया गया । हम दोनों, मुंह नीचे करके बैठे रहे और फिर बाहर निकलकर मैंने अपने परिवार को तथा उन्होंने अपने परिवार को अपनी अपनी हां बता दी। कृष्णा कांता के पिता ने कहा कि रिश्ता अभी नहीं किया जा सकता क्योंकि आज देव सो गए हैं और दो माह बाद देव उठने पर ही रिश्ता होने की रस्म अदायगी होगी। मैं फिर डर गया कि यदि दो माह बाद भी ये रिश्ते को जन्मपत्री की असलियत जान कर मना कर देंगे तो क्या होगा? अगली तारीख तय करने के लिए एक पुरोहित को बुलाया गया। उसने भी कहा कि आज ही देव सोए हैं वरना रिश्ते का आज ही शुभ लग्न था। मैंने भी चालाकी से काम किया, चुपचाप पुरोहित जी के हाथ में बीस रुपये का लाल नोट खिसकाया। रुपये पाते ही पंडित जी का स्वर बदला , वे बोले पर अभी ती शाम के 6 बजकर 20 मिनट हुए हैं, देव शयन का समय 7 बजकर पांच मिनट का है, यानी अभी 45 मिनट का समय देवों के सोने में शेष है। रिश्ता अभी किया जा सकता है। इस पर ज्ञानेंद्र मामाजी और मेरी मां ने रिश्ते की रस्म तुरंत करने की बात की और तभी कृष्णा कांता के भाई हरि कांत ने मुझे तिलक कर चांदी का एक सिक्का शगुन में दिया। रिश्ता होते ही मुझे लगा जन्म-जन्म की अभिलाषा पूरी हो गई। इसके बाद, मैं रशिया पढ़ने के लिए चला गया तथा मेरी व कृष्णा कांता की सगाई लगभग डेढ़ वर्ष तक चली। अंततः 19 मई 1983 को हमारा विवाह जयपुर में हुआ। शादी के बाद अक्सर मैं अपनी पत्नी से पूछता कि क्या उसने भी मेरे बारे में कभी सोचा था? इस पर उसका जवाब होता कि जब- जब मैं अपनी भावी पति के बारे में सोचती तो आपका ही धुंधला चेहरा दिखाई देता था। अपने विवाह के पूरे प्रकरण में , मैंने यह भी पाया कि दादा बड़ा ना भैया, सबसे बड़ा रुपया। ये पंडे, पुजारी, पुरोहित किस तरह सच का झूठ और झूठ का सच बनाने में देरी नहीं करते।
[: मेरी पत्नी कृष्णा कांता शक्ल -सूरत से जितनी सुंदर थी, वैसे ही मन और आत्मा से भी थी, एक पूर्ण वैष्णव संस्कारों से परिपूर्ण। मेरी ससुराल का पूरा परिवार मूलतः उदयपुर जिला में तिलकायत संप्रदाय के मुख्य केंद्र श्री नाथद्वारा का रहने वाला है। नित्य ठाकुर पूजा और सेवा उनके जीवन जीने का ढंग था और मेरा परिवार पूर्णतः आर्य समाजी। मेरे पिताजी की अपेक्षा,मेरी माँ आर्य समाज के सिद्धांतों और नियमों का कठोरता से पालन करती थी। मूर्ति पूजा और किसी भी देवी- देवता के चित्र की माताजी घोर विरोधी थीं। मेरी पत्नी ने हमारे शयनकक्ष में दरवाजे के पीछे श्रीनाथ जी का एक चित्र लगाया, परंतु मेरी मां को ज्योहिं इसकी खबर लगी, उन्होंने तुरंत उसे हटवा दिया। मुझे बेशक यह बात बुरी लगी , पर मेरी पत्नी ने इसे कभी भी महसूस नहीं किया। वह धीरे-धीरे स्वयं को आर्य समाजी माहौल में ढालने लगी। अब वह मां के साथ हवन में बैठती और आर्य समाज मन्दिर में जाती। अपने जीवन के 24 वर्षों के वैष्णव संस्कारों पर कैसे एकदम आर्य समाजी मुलम्मा चढ़ा दिया, मैं आज तक नहीं समझ पाया ।
मैं अपने घर में सबसे छोटा था,यानी दो भाईयों तथा एक बहन से छोटा। मेरी हर जिद्द घर में पूरी होती थी, इसलिए मेरी बात के न माने जाने पर मैं अक्सर गुस्से में आ जाता और बाद में गुस्सा मेरा स्वभाव बन गया। शादी के बाद, अब मेरा गुस्सा मेरी पत्नी पर उतरने लगा पर वह भी कमाल की महिला साबित हुई। मेरे गुस्से को हर समय नजरअंदाज करती। उनका मानना था कि बिच्छू अपना काटने का स्वभाव नहीं छोड़ता तो साधु बचाने का स्वभाव क्यों छोड़ें। कोर्ट में जून-जुलाई में एक माह का ग्रीष्मावकाश तथा दिसंबर में एक सप्ताह की छुट्टी होती, इन दिनों छुट्टियों में मैं उनके साथ उदयपुर जाता और छुट्टी पूरे होने पर वापस आता। यह सब मैं इसलिए करता कि मेरी पत्नी कृष्णा कान्ता अपने मायके में कुछ वक्त , अपने माता- पिता, भाई- भाभी के साथ गुजार सकें, क्योंकि वह तो एक दिन भी मुझे छोड़ना नहीं चाहती थी। उसे उसे हर समय यही चिंता रहती कि उसकी गैरमौजूदगी में मेरा ख्याल कौन रखेगा? मात्र मुझे रिझाने के लिए, वह अब पंजाबी व्यंजन भी सीखने लगी थी। राजस्थानी,पंजाबी और दक्षिण के भोजन बनाने में तो उसने महारत हासिल कर ली थी। शायद उसका मानना था कि जो पेट पर राज करता है वह दिल पर भी राज करता है। उसमें सेवा भावना अनूठी थी। वह अपने इस गुण का इस्तेमाल सिर्फ मेरे लिए ही नहीं करती थी अपितु उसने मेरे माता-पिता की सेवा में भी कोई कसर नहीं छोड़ी। मेरे माता-पिता उससे इस कदर प्रसन्न रहते कि हर समय आशीर्वाद देते। विनम्रता और सादगी के इन्हीं गुणों से उन्होंने पूरे परिवार को जीत लिया था और इसी दौरान सन 1986 में निर्मला दीदी का हमारे घर पर आगमन हुआ।
[: शिमला में फ्रेंडस ऑफ सोवियत यूनियन का राष्ट्रीय सम्मेलन था। दीदी और हम सब लोग शिमला जाने के लिये पानीपत से चलने वाले थे। मेरी पत्नी ने उस दिन बड़े मन से दोपहर का भोजन बनाया और हम दोपहर डेढ़ बजे से इंतजार करने लगे, पर दीदी शाम साढ़ 6 बजे घर पहुंची और आते ही कहने लगी बहुत भूख लगी है, खाना तैयार है न। मेरी पत्नी की तो खुशी का ठिकाना नहीं रहा, क्योंकि उन्हें लग रहा था कि खाना बनाने की उनकी मेहनत बेकार जाएगी। दीदी ने भी खाना खाकर जो तारीफ की , उससे तो उनकी हिम्मत बढ़ गई। खैर उस दिन खाना बेहद स्वादिष्ट बना था। इस पर मेरी मां ने कहा कि एक गृहिणी के खाना बनाने तथा बावर्ची के खाना बनाने में अंतर होता है। उन्होंने अपना उदाहरण देते हुए कहा कि जब वे गाय का दूध निकालती हैं, तो गायत्री मंत्र का पाठ करती रहती है तथा प्रार्थना करती है कि इस दूध को पीने वाले को सेहत मिले, पर क्या किसी दूध बेचने वाली की भी इस तरह के कामना रहती है। ऐसा नहीं है कि दीदी स्वादिष्ट भोजन को ही सराहती हो। वे हर भोजन खिलाने वाले को प्रोत्साहित करती थीं। उनकी इस बात का एक और उदाहरण देखिए। दीदी, मैं और मेरे एक मित्र आनंद टक्कर, दीदी के साथ भोपाल गए तथा सब काम निपटा कर दोपहर बाद मसर्रत बहन के घर पहुंचे। मसर्रत शाहीद ने दीदी से मौसमी का जूस पीने को कहा। दीदी के हां कहने पर उन्हें तुरंत एक जूसर में मौसमी का जूस निकाला, पर गलती से उसमें बीज भी पिस गए, अब जूस बन गया जहर जैसा कड़वा। मैंने और आनन्द टक्कर ने एक घूंट भरते ही मुंह बनाया व दीदी की ओर देखा और पाया कि वे बड़े मन से घूंट भर- भरकर जूस पी रही हैं। जूस पीकर उन्होंने मसर्रत की तारीफ करनी शुरू कर दी कि क्या जूस बनाया है। बाद में मेने दीदी से कहा कि जूस तो बेहद कड़वा था। इस पर दीदी का कहना था कि वे तो मात्र जूस पिलाने वाली की नीयत को देख रही थीं। दीदी को खाने-पीने का बड़ा शौक था। यदि उन्होंने कहीं एक बार भोजन कर लिया और थोड़ी देर बाद दोबारा उन्हें भोजन को कहा तो भी मना नहीं करती थीं। वे कहती वह ब्राह्मण ही क्या, जो भोजन को मना करें और वह भी महाराष्ट्रीयन ब्राह्मण , जो भोजन के चक्कर में 1857 की क्रांति के दौरान ग्वालियर में ब्रह्मभोज करते रहे और उसी देरी में दिल्ली हाथ से चली गई।
मेरी पत्नी कृष्णा कांता, उनकी मनमाफिक पाचक थी। दीदी का जब भी कुछ मन करता तो वे कहती, कृष्णा जी, अमुक चीज बना कर भेजो। दीदी को सरसों का साग, मक्की की रोटी और खीर बेहद पसंद थी। राजस्थानी दाल- बाटी और चूरमा भी वे रुचि से खाती थी और ऐसे हालात में कृष्णा कांता ही एक ऐसी महिला थी जो हरियाणवी, पंजाबी, गुजराती, राजस्थानी और दक्षिण भारतीय व्यंजनों को बनाना जानती थी। नवरात्र के अंतिम दिन, दीदी के घर सभी का भोजन होता। इस भोज की खासियत यह होती कि सभी कुछ न कुछ बनाकर लाते। कृष्णकांता का जिम्मा होता कि वे खीर बना कर लाए और जब वे खीर बनाकर पहुंचती तो दीदी सभी को बताती कि यह खीर कृष्णा जी, पानीपत से बनाकर लाई है। श्री नाथद्वारा के मंदिर में ठाकुर जी के सर्दी के प्रसाद में एक विशेष लड्डू बनता है, जिसमें काफी गर्म चीजें डाली जाती है। कृष्णा कांता का यह प्रयास रहता कि इस लड्डू को जरूर श्री नाथद्वारा से लाकर दिया जाए और दीदी भी इसे खाकर बहुत खुशी महसूस करती। श्री नाथद्वारा में हरिजन मंदिर प्रवेश को लेकर, दीदी उदयपुर पहुंची और ठहरी मेरी ससुराल में ही। वहां भी मेरी पत्नी कृष्णा कान्ता और उनकी भाभी पुष्पा ने दीदी को उनका मन भाता मेवाड़ी भोजन करवाया तथा लौटते हुए उन्हें वह ही सत्कार दिया गया, जैसा कि राजस्थान के परिवारों में कुंवर साहब (दामाद) की माता को दिया जाता है। दीदी मेरी पत्नी कृष्णा कांता को भी अपनी बहू की तरह ही प्यार करती थीं। जब-जब वे पानीपत आईं , वे सदा उसके लिए गिफ्ट में कोई न कोई साड़ी लाईं। जब भी मेरी पत्नी उसे पहनती तो उसे देखकर उन्हें बेहद प्रसन्नता होती। कृष्णा कांता, भी मेरी मां के गुजरने के बाद करवाचौथ अथवा अहोई पर जो भी कोई वस्त्रादि अपनी सास/ बड़ी के लिए निकालती , वह दीदी को देकर आती। इस प्रकार द्रोणाचार्य, एकलव्य संबंध दीदी व कृष्णकांता में, सास-बहू का अंत तक बना रहा। दीदी की मृत्यु के समाचार ने भी कृष्णा कांता को काफी विचलित किया। वे फूट-फूटकर रोने लगी कि कौन कहता है कि दीदी को कोई रोने वाला नहीं था, हम हैं न।
[: मेरे बच्चे मेरी बड़ी बेटी सुलभा का जब जन्म हुआ तो मैं कम्युनिस्ट पार्टी में था। परिवार में बच्चे का जन्म एक महत्वपूर्ण घटना होती ही है। बकायदा उसका नामकरण संस्कार करवाया गया ।सुलभा सेहत से कुछ कमजोर थी और हर माता-पिता की तरह हम भी चाहते थे कि वह सेहतमंद यानी मोटी दिखे। हमने उसे डॉक्टर को दिखाया तो वह बोले इसे थोड़ा फलों का जूस दिया करें। बस फिर क्या था ,हमने सोचा इसे एक दिन में तगड़ा बनाएंगे। छह माह की बच्ची को एक दूध की पूरी बोतल में मौसमी जूस भर कर दिया। बच्ची उसे हजम नहीं कर सकी और उसी दिन शाम से उसे उल्टी, दस्त और बुखार शुरू हो गया। मेरी मां ने पूछा ,क्या कुछ पीने को दिया था, परंतु डर के मारे हम चुप रहे ।डॉक्टर की दवाई चलती रही ,परंतु आराम न आया और एक रात ऐसे हालात हो गए कि बच्ची की आंखें पथरा गई। तब हमने अपनी मां को जूस पिलाने वाली बात बताई। मां ने हमें बहुत डांटा वह फिर उसका इलाज शुरू हुआ और तब जाकर वह ठीक हुई।
सुलभा जब 2 वर्ष की हुई थी तो उस समय हम उसे लेकर अपने मित्र के घर गए ।वहां बराबर में ही भवन निर्माण चल रहा था। उनका 2 वर्ष का बेटा व सुलभा खेलते -खेलते निर्माणाधीन मकान में चले गए तथा पानी से भरे गड्ढे में सुलभा गिर गई। हमने कुछ देर बच्चों को नहीं पाया तो चिंता हुई। इधर उधर देखा तो बेटी की किलकारी सुनी तो पाया कि सुलभा पानी में हिचकोले खा रही है तथा मित्र का बेटा इसे तमाशा समझ कर तालियां बजा रहा है। सुलभा को निकाला गया और डॉक्टर के पास ले जाया गया तो उन्होंने बताया कि यदि क्षण भर और पानी में रह जाती तो बचना मुश्किल था।
जब वह तीन वर्ष की हुई तो उसे पीलिया हो गया तथा ठीक होने पर इसका प्रभाव उसकी आंखों पर पड़ा। पानीपत के नेत्र रोग विशेषज्ञ ने मशवरा दिया कि इसे दिल्ली एम्स में दिखाया जाए। मैंने उसे एम्स में दिखाया तथा डॉ ने हर सप्ताह चेकअप की बात कही।मै पानीपत से दिल्ली बस से उसे ले जाया करता।दीदी उस समय सांसद श्री केयूर भूषण जी के निवास स्थान 2 ,साउथ एवेन्यू में रहा करती थी ।लौटते हुए हम बाप -बेटी वहीं रुकते तो तथा दीदी व केयूर जी का पूरा परिवार सुलभा की खूब देखभाल करता ।यह सिलसिला लगातार तीन वर्षों तक चलता रहा।
सुलभा के स्कूल में एडमिशन का समय आया तो यह दीदी के प्रयासों का ही परिणाम था कि उसे मोतीलाल नेहरू स्कूल ऑफ़ स्पोर्ट्स राई में प्रवेश मिल गया। कक्षा चार में प्रवेश लेकर वह कक्षा बारहवीं तक इसी स्कूल में पढ़ी। दीदी अब हरिजन सेवक संघ, किंग्सवे कैंप, दिल्ली में रहने लगी थी। स्कूल व सेवक संघ दोनों दिल्ली बॉर्डर के पास ही थे। इसलिए हर माह पेरेंट्स मीटिंग में जब भी राई जाते तो दीदी के पास भी जाते और हर बार दीदी उसके बारे में पूछती ।जब उसने बारहवीं पास कर ली तो हम सब परिवार सहित सुलभा को लेकर दीदी के पास गए और उसके भविष्य के लिए दीदी का मार्गदर्शन चाहा। उनके ही मशवरे पर उसे कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में बी ए एलएलबी (ऑनर्स)में प्रवेश दिलाया गया। ये पांच साल कैसे बीत गए और वकालत पास करके घर पर आ गई, इसका पता ही नहीं चला।
सुलभा एल एल एम करने के लिए इंग्लैंड जाना चाहती थी और मेरी ऐसी आर्थिक स्थिति नहीं थी कि मैं उसे भेज पाऊँ। फिर भी सुलभा ने हिम्मत करके इंग्लैंड के 15 बेहतरीन कॉलेज में प्रवेश के लिए आवेदन किया ।उसके प्रयासों का ही फल था कि सभी जगह से उसे एडमिशन की ऑफर आई। बेटी वहां जाना चाहती थी। पर पारिवारिक परिस्थितियों उसे रोक रही थी और इस विवशता को उसने स्वीकार किया तथा पानीपत में ही मेरे साथ कोर्ट में जाने लगी। इसके बाद 22 सितंबर 2007 को दीदी का संदेश मिला कि परसों यानि 24 सितंबर को हरिजन सेवक संघ परिसर में 'सेवक संघ' का स्थापना दिवस मनाया जाएगा और मैं भी अपने साथियों के साथ इसमें पहुंचू। श्री शमशेर सिंह गोगी तथा मेरे अनन्य सहयोगी दीपक के साथ हम गांधी आश्रम पहुंचे। कार्यक्रम के बाद श्री रमेश भाई के घर पर दीदी से भेंट हुई। मिलते ही दीदी ने पूरे परिवार की कुशल क्षेम पूछी तथा बाद में एक-एक के बारे में पूछना शुरू किया। सुलभा का नाम आते ही अटक गई और बोली एलएलबी पास करके वह क्या कर रही है? मेरा जवाब था कि वह एल एल एम करने के लिए इंग्लैंड जाना चाहती थी, एडमिशन भी हो गया था, परंतु घर के माली हालत की वजह से न जा पाई । इस पर दीदी गुस्से में बोली,' राम मोहन जी, क्या बेटा होता तो भी उसे न भेजते ,इसे जरूर भेजो। मैंने दीदी को तुरंत आश्वस्त किया कि इसे जरूर भेजूंगा। यद्यपि इंग्लैंड में एल एल एम की कक्षाएं शुरू हुए एक माह होने को था। फिर भी मैंने पानीपत आकर,सुलभा को इंग्लैंड भेजने की तैयारी शुरू कर दी। तैयारी में तो पैसे का बंदोबस्त करना था। मैंने सुलभा और उसकी छोटी बहन संघमित्रा के जन्म पर 25 हजार के 2 किसान विकास पत्र खरीदे थे।
सितंबर में मैच्योर होते होते वे कुल चार लाख रुपए हो गए थे ।इन्हें जोड़कर कुल 18 लाख रुपए चाहिए थे। मैंने पानीपत के अनेक बैंकों से एजुकेशन लोन लेने की कोशिश की, परंतु असफल रहा। मेरे पारिवारिक मित्र श्री आरके दीक्षित तथा उनकी विदुषी पत्नी डॉ मधु दीक्षित मेरे इस प्रयास में साथ रहे और उन्होंने अपनी सर्विस की रिटायरमेंट के बाद मिली पूंजी जो उन्होने एफडीआर करवाई हुई थी, उसे तुड़वाकर मुझे तुरंत दे दी, पर अभी भी 11 लाख रुपये की कसर थी। अंत में पानीपत अर्बन को- आपरेटिव बैंक के मैनेजिंग डायरेक्टर श्री ओ पी शर्मा , जो स्वयं भी दीदी के प्रशंसक थे, उन्हें दीदी की सुलभा के बारे में व्यक्त इच्छा से अवगत करवाया। यह तो चमत्कार ही हो गया। वे तुरंत बैंक से 11लाख का लोन देने को तैयार हो गए । ऋण का स्वीकृति पत्र लेकर हम चोपड़ा एसोसिएट्स दिल्ली पहुंचे। इसी फर्म के माध्यम से ही प्रवेश तथा वीजा संबंधी समस्त कार्यवाही चल रही थी। हमारे सभी कागज, रिटर्न, सेलडीड और बैंक खाते देखकर फर्म के संबंधित अधिकारी ने पूंजी कम होने की बात कहते हुए वीजा दिलवाने में असमर्थता व्यक्त की। अंत में निश्चय हुआ कि फर्म के डायरेक्टर से मिला जाए जो एक महिला ही थी। जिन्होंने मुझसे कहा कि यह पूंजी तो आपने नंबर एक ही दर्शाई है। आप नंबर दो की पूंजी बेझिझक दिखाइए, इसे किसी भी इनकम टैक्स दफ्तर में नहीं दिखाया जाएगा। परंतु वह यह जानकर बेहद आश्चर्यचकित हुई कि जो कागजों में नंबर एक की पूंजी दिखाई गई है, वही असली है । उसने फिर सवाल किया कि आपने अपनी तमाम चल- अचल सम्पत्ति को अपनी बेटी की शिक्षा के लिये गिरवी रख दिया। अब घर का गुजारा, अन्य बच्चों की शिक्षा और लड़कियों के विवाह कैसे करोगे? इस पर मेरा जवाब था कि मैं एक अध्यापक का पुत्र हूं। छोटे शहर पानीपत में रहता हूं। कम खर्च में गुजारा करना जानता हूं। मुझे किसी तरह की कोई गलत आदतें नहीं है। इस वजह से कोई परेशानी नहीं रहेगी । रही लड़कियों की शादी की बात मैंने खुद 25 वर्ष पूर्व अपने विवाह में कोई दहेज नहीं लिया। इसलिए अपने बच्चों को जितना वे पढ़ना चाहेंगे, पढ़ाऊंगा। उनकी पढ़ाई पर हिम्मत से ज्यादा खर्च करूंगा, लेकिन दहेज के नाम पर एक पैसा भी नहीं दूंगा ।मेरी इस बात ने उन्हें भरोसा दिया तो उन्होने झटपट एक पत्र वीजा अफसर को लिखने को कहा। मैंने उपरोक्त सभी बातों को लिखते हुए लिखा कि लड़कियों को अच्छी शिक्षा देकर उन्हें स्वावलंबी बनाना ही दहेज है। मैंने इस बारे में दीदी को बताया तो वह झट बोली, राम मोहन जी, देखना सुलभा का वीजा लग जाएगा और सचमुच ऐसा ही हुआ। 10 अक्टूबर 2007 की शाम को उसका वीजा लगने की खबर आई। इसके बाद तुरंत टिकट का इंतजाम किया गया तथा 12 अक्टूबर 2007 को दीदी का आशीर्वाद लेकर सुलभा इंग्लैंड चली गई ।वहां जाने के बाद दीदी को उसकी चिंता रही।वह वहां भी उससे फोन पर बात करती तथा उसे भरोसा दिलाती कि उनके रहते किसी भी बात की चिंता न करो, उसका भविष्य उज्जवल रहेगा ।
उन्हीं दिनों दिल्ली के अपोलो अस्पताल में प्रसिद्ध चिकित्सक और पद्म विभूषण स्वर्गीय डॉ राजवीर सिंह यादव की स्मृति में एक व्याख्यान आयोजित किया गया। दीदी का फोन आया कि मुझे भी पहुंचना है। वहां पहुंचने पर दीदी ने डॉ यादव के इंग्लैंड में वकालत कर रहे सुपुत्र से मेरा परिचय करवाया। लक्ष्य ने मुझे अपना कार्ड दिया और कहा कि सुलभा को मुझसे बात करने को कहें। इंग्लैंड में रहते हुए सुलभा का मानना था कि न केवल
एक साथी बल्कि एक सहयोगी और मार्गदर्शक के रुप में भी लक्ष्य का साथ मिलता रहा और उसे वह सहयोग मात्र दीदी की वजह से था। दीदी की मृत्यु की खबर ने उसे बेहद दुख पहुंचाया। अब पढ़कर वह वापस भारत आ चुकी है। पर उसे मलाल है कि यदि आज दीदी होती तो उसे देखकर कितनी खुश होती।
मेरी दूसरी बेटी के जन्म की पहली सूचना मैंने दीदी को ही दी। उन्होंने जन्म की बधाई दी तथा कहा इस बेटी का नाम संघमित्रा होगा। दीदी का कहना ही मेरे लिए आदेश था और हो गया उसका नामकरण। मैंने बेटी के जन्म की सूचना अपने तमाम मित्रों तथा रिश्तेदारों को दी। परंतु सभी ने दूसरी बेटी होने का एहसास कराया ।सभी का कहना था कोई बात नहीं, सब्र करो। जिस नर्सिंग होम में बिटिया का जन्म हुआ था , वहां से मैं अपने घर लौट रहा था। रास्ते में एक नर्स मिली जो महिला एवं बाल विकास विभाग में' बालिका समृद्धि विंग' में नौकरी करती थी। मैंने सोचा इसे बताऊंगा तो कम से कम यह तो बधाई देगी। मेरे बताने पर उसे लंबी सांस ली और बोली, अच्छा।
मेरे ससुर का पत्र इस जन्म पर आया, जो इस प्रकार था,' कृष्णा खुश रहो, पता चला कि तुम्हारे यहां दूसरी बेटी का जन्म हुआ है। चिंता ना करना, परमात्मा को जो भी मंजूर था ।'मुझे बेहद दुख हुआ कि ऐसा क्या हो गया जिसका लोग इतना मातम मना रहे हैं। मैं सीधा दीदी के पास दिल्ली पहुंचा और उनको मिलकर फफक- फफक कर रोने लगा।दीदी ने मझे हौंसला बंधवाया और कहा कि लड़के- लड़की में कोई भेद नहीं है। देखना तुम्हारी बेटी सम्राट अशोक की बेटी की तरह पूरी दुनिया में तुम्हारा नाम करेगी। दीदी ने मेरी व्यथा, सामाजिक दृष्टिकोण तथा एहसास को एक दूसरे लेख 'दूसरी बेटी 'के नाम से अपनी पत्रिका नित्यनूतन में भी छापा। इसके बाद जब जब संघमित्रा दिल्ली जाती थी ,दीदी उसे मिलने पर कोई न कोई गिफ्ट देती। दीदी देश-विदेश में जहां भी जाती ,संघमित्रा के लिए कुछ लाती।दीदी जब
पहली बार राज्यसभा के लिए मनोनीत हुई तो संघमित्रा और मैं उनसे मिलने गए। दीदी ने कहा कि बेटियों को भी वही अधिकार है ,जो बेटों को। बेटियों को माता- पिता की अंत्येष्टि संस्कार का भी हक है ।संघमित्रा को देखकर उन्होंने कहा कि वह चाहती हैं कि उनके उनका अंत्येष्टि संस्कार संघमित्रा करें ।दीदी की मृत्यु का समाचार सुनकर मै संघमित्रा को लेकर दिल्ली गया। पर मैं अंत्येष्टि वाली बात को लेकर चुप रहा। मैं देखना चाहता था की दीदी ने अपनी इच्छा जिन व्यक्तियों के सामने व्यक्त की थी, वे क्या कहते हैं, परंतु जब वे चुप रहे तो मैंने भी कोई मुद्दा बनाने की कोशिश नहीं की ।उत्तराधिकारी तो वे होते हैं , जो उनके कार्यों को पूरा करने के प्रयास जारी रखें।
मेरे पुत्र उत्कर्ष पर भी दीदी का समस्त आशीर्वाद हमेशा बना रहा। उत्कर्ष की एक दिलचस्प बात, अखिल भारत रचनात्मक समाज के दिल्ली सम्मेलन के दौरान की है। इंद्रप्रस्थ स्टेडियम में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री पी वी नरसिम्हा राव ऊंचे मंच से भाषण दे रहे थे। मात्र 8 वर्ष का उत्कर्ष कब अपनी मां की गोदी से उतरकर गुडलियों चलता हुआ स्टेज पर चढ़ने लगा, इस बात का पता ही नहीं चला ।आफत तो सिक्योरिटी वालों की थी कि यदि बच्चा सीढ़ियों से गिर पड़ा या फिर रोने लगा तो फिर क्या होगा ?हमने जब इसको देखा तो हमारी भी जान सांसत में आ गई। किसी तरह एक महिला सुरक्षाकर्मी ने उसे फुर्ती से उठाया और तब तक उठाए रखा ,जब तक प्रधानमंत्री जी चले नहीं गए। दीदी को पता चला तो खूब हंसी और बोली,' होनहार बिरवान के होत चिकने पात।'
मझे वह क्षण हमेशा स्थायी ही बने रहते हैं,जब हरिजन सेवक संघ गांधी आश्रम दिल्ली में तिब्बती साधना शिविर लगा हुआ था। मैं अपने परिवार के साथ वहां पहुंचा ।दीदी और प्रोफेसर रिनपोछे भी वहाँ मौजूद थीं। शिविर के बीच में ही सभी को चाय परोसी गई। मेरे तीन वर्षीय बेटे ने चाय ली ,परंतु उस सन्नाटे में उसने चाय की ऐसी चुस्की भरी, जिसकी आवाज से सभी हंस पड़े ।दीदी ने कहा पूरा हरियाणवी बनेगा। उत्कर्ष अब लंबा हो गया था और समझदार भी ।जब-जब जब वह दीदी से मिलता दीदी उसे खूब बातें करती ।उसका बातचीत का स्तर भी अच्छा है तथा दीदी के कथनानुसार वह मानवीय संवेदनाओं से परिपूर्ण भी है।
: मेरे सहयोगी
मेरे मित्रों में तुलसी सिंगला, इंद्र मोहन राय ,ई.व्ही राव और अशोक शर्मा सभी के ऐसे व्यक्तिगत संस्मरण जरूर है, जो दीदी के साथ सांझे हुए हैं । तुलसी दीदी का अनन्य भक्त रहा । उसकी राइस मिल के उद्घाटन से लेकर हर आमंत्रण पर वह उपस्थित रहीं। उस के एक्सीडेंट के समाचार ने भी उन्हें विचलित किया तथा उन्हें मिलने अस्पताल तक पहुंचीं। ।अजीजुल्लापुर में उनके घर दो बार आईं। ई. व्ही राव के घर पहुंचना तो एक स्मरणीय क्षण ही समझना चाहिए। पर्यटक स्थल काला अम्ब में एक पार्टी थी। वहां से जब लौटे तो गाड़ियों की कमी हो गई। मेरे स्कूटर पर ही दीदी पीछे बैठकर अगले मीटिंग स्थल के लिए चल दीं । मीटिंग शुरू होने में कुछ देरी थी तथा रास्ते में ई.व्ही राव का मकान पड़ता था। मैंने दीदी को कुछ समय तक वहां आराम करने के लिए रुकवाना मुनासिब समझा। राव परिवार के लिए यह अद्भुत क्षण थे कि एक महान विभूति अचानक ही उनके घर आ गईं। दीदी ने उनके घर क्षण कुछ आराम किया तथा दक्षिण भारतीय कॉफी का आनंद लिया और फिर चल पड़ी ।राव साहब के लिए सचमुच ही ये अद्भूत क्षण थे। दिल्ली से सहारनपुर जाते हुए, मैं और सुप्रीम कोर्ट के एडवोकेट अशोक शर्मा उनके साथ थे ।दीदी शामली में उनकी बहन तथा रामपुर मनिहारन में उनके घर रुकीं तथा परिवार से मिलीं । जालंधर सम्मेलन की अनेक उपलब्धियों में एक लॉ कॉलेज में मेरे सहपाठी पवन शर्मा से 25 वर्षों बाद मुलाकात थी। सम्मेलन में उन्होंने और उनके परिवार ने पूरी सक्रियता दिखाई। सम्मेलन के बाद पवन शर्मा के घर दीदी आईं तथा उन्हें अपना स्नेहाशीष दिया।
दीपक कथूरिया मेरे पुत्र, मित्र और सहयोगी के रूप में पिछले कई वर्षों से साथ हैं । जालंधर सम्मेलन में ,दिन-रात लगाकर जितना उन्होंने काम किया उसकी मुझ पर अमिट छाप है। दीदी के साथ मुलाकात का ऐसा कोई ही लम्हा ऐसा रहा होगा , जिसमें वह नहीं रहे । मैं नहीं कह सकता कि मेरी खुद की संतान मेरी बात को या मेरे आदर्शों को कितना अंगीकृत करते हैं, परंतु दीपक ने मेरी बात को एक आदेश मानकर काम किया है। उसके विवाह के अवसर पर हमने तय किया कि दहेज के नाम पर एक भी चीज़ नहीं लेंगे और बारात में कुल सात लोग जाएंगे और यदि आठवां गया तो मैं नहीं जाऊंगा और अगर कोई बढ़ोतरी हुई तो वह नहीं जाएगा। यह एक निश्चय था, जिद नहीं। हम उस निश्चय पर पूरा उतरे और वह अब पूरी शिद्दत के साथ दीदी के काम में लगा हुआ है।
[: मेरा जन्मदिन
आज 17 अक्टूबर 2008, यह दीदी का पहला जन्मदिन है , जिस दिन वह स्वयं भौतिक रूप से उपस्थित नहीं है। जगह-जगह उनकी स्मृति में सभाएं आयोजित की गई होंगी, जिसमें उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित की गई। दीदी स्वयं में एक ऐसी सामाजिक हस्ती थीं, जिनसे राजनीति भी प्रेरित हुए बिना नहीं रहती थी। इसलिए अनेक लोगों के लिए वह अनेक संस्थाओं की अध्यक्षा थीं अथवा सम्मानित पदाधिकारी। शायद ही किसी पार्टी का कोई ऐसा नेता होगा जो उनसे परिचित नहीं होगा तथा उनका सम्मान नहीं करता होगा । बेशक, कई लोग उनकी छवि को राजनीतिक रुप भी देना चाहेंगे, पर मेरे जैसे व्यक्ति के लिए वह किसी भी सामाजिक हस्ती से हटकर मेरी माता- पिता और गुरु थीं। वह जब तक जीवित रहीं, मैंने स्वयं को सदा सनाथ महसूस किया, परंतु अब उनके न रहने पर अनाथ और असहाय महसूस करता हूं। 'दीदी की छांव में' मेरी स्मृतियां ही नहीं है, अपितु मेरे जैसे हजारों कार्यकर्ताओं की
अभिव्यक्तियाँ है, जिनके लिए वह सब कुछ थीं। उनके परिवार के सदस्यों के प्रति वह कैसे आत्मीय भाव रखती थीं तथा उनके कवच में प्रत्येक कार्यकर्ता स्वयं को कितना सुरक्षित पाता था, ये ही सब बातें इस लघु पुस्तिका में है। बौनों के इस शहर में वह सबसे ऊंची थीं और वह ऊंचाई इतनी थी कि यदि हम सब एक- दूसरे के कंधों पर चढ़ जाएं तो भी छोटे रह जाएंगे ।17 अक्टूबर, मेरे जन्म के समय से, मेरे परिवार में एक उत्सव की तरह मनाया जाता है और दीदी के संपर्क के बाद उनके जन्म दिवस के रूप में । पहले इसलिए कि मेरा जन्म दिवस 17 अक्टूबर को ही पड़ता है। इस दिन प्रातः उठते ही मैं उन्हें बधाई देता था और वह जवाब में कहती , तुम्हें भी। दीदी को बधाई देने वाले हजारों है, पर वह नहीं है। उनके जन्मदिन पर खुद को उनके साथ आत्मसात करते हुए यह पुस्तक उन्हें को समर्पित करता हूं।
[: नित्य नूतन
एक बार किसी ने महात्मा गांधी जी से सवाल किया कि उनके जीवन की सर्वोत्तम कृति क्या है? बापू ने तुरंत जवाब दिया, 'खादी व हरिजन सेवा।' संत विनोबा ने अपने गुरु के काम को भूदान व ग्राम स्वराज के काम से आगे बढ़ाया तथा विनोबा की शिष्या दीदी निर्मला देशपांडे ने विश्व शांति व शांतिपूर्ण अहिंसक क्रांति के जरिए व्यवस्था परिवर्तन के कार्य की दिशा में अपना जीवन लगा दिया तथा अपने इस कार्य का मुख बनाया अपनी पत्रिका' नित्य नूतन' को। मैंने स्वयं दीदी के साथ अनेकों बार लंबी यात्राएं की है ।कभी रेल , कभी वायुयान से। मौका मिलते ही दीदी कभी भी अपने सहयोगियों को अपनी पत्रिका का परिचय देने तथा उसका ग्राहक बनने के आग्रह करने में कभी भी गुरेज नहीं करती थी। हर समय उनके चिंतन में 'नित्य नूतन' पत्रिका ही होती थी। एक बार हमारी कुरुक्षेत्र की साथी किरण शर्मा उनसे मिलने दिल्ली आई तथा वह दीदी को भेंट देने के लिए अचार के डिब्बे लाई। दीदी ने इस भेंट पर उन्हें प्रोत्साहित नहीं किया, अपितु मेरी इस बात का समर्थन किया, जब मैंने किरण शर्मा को कहा कि दीदी ज्यादा खुश होती यदि तुम 'नित्य नूतन' के कुछ ग्राहक बनाकर लाती। वह जहां भी जाती 'नित्य नूतन' की प्रतियां साथ ले जाती और यदि किसी को कुछ भी भेंट करना होता तो वह यह प्रतियां ही करती। नित्य नूतन में संपादकीय, रचना जगत व कथा त्रिवेणी तो ऐसे लगते मानो शुक्रदेव जी भागवत कथा परीक्षित को सुना रहे हो। वुमन्स इनीशिएटिव ऑफ पीस इन साउथ एशिया( महिलाओं की दक्षिण एशिया में शांति पहल के एक प्रतिनिधि के रूप में दीदी, मोहिनी गिरी, सईदा हमीद व सुश्री कुमकुम चड्ढा के साथ मुझे भी श्रीनगर जाने का अवसर मिला, जहां हुर्रियत समेत सभी पक्षों, राजनीतिक दलों के नेताओं से मिलने का मौका मिला। उन सभी बैठकों के मै नोट्स लेता रहा। हम सभी लोग दीदी को वहीं छोड़ कर दो दिन पहले वापस आ गए। इन दो दिनों में मैंने सभी बैठकों की रिपोर्ट लिखित में तैयार कर ली और जब वह दो दिन बाद वापस आईं तो पानीपत रेलवे स्टेशन पर ही मैंने वह रिपोर्ट उन्हें दे दी। इस बात से वह बेहद प्रसन्न रहीं और इस बात का इजहार उन्होंने मेरी पीठ थपथपाकर किया । पूरी रिपोर्ट मेरे नाम से ही नित्य नूतन में छापी गई।
मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के आग्रह पर उन्होंने नित्य नूतन का मध्य प्रदेश विशेषांक प्रकाशित करने का मन बनाया और मुझे इसके बारे में बताया। उनके मार्गदर्शन में घूम -घूम कर मैंने लेख इकट्ठे किए तथा सर्व श्री दिग्विजय सिंह, श्री श्यामा प्रसाद शुक्ला, श्री सुंदरलाल पटवा ,श्री मोतीलाल वोरा, श्री अर्जुन सिंह (सभी पूर्व मुख्यमंत्री) के पास जाकर उनके साक्षात्कार लिए। इस काम से दीदी इतनी प्रसन्न हुईं कि उन्होंने मुझे 'नित्य नूतन' के मध्य प्रदेश विशेषांक के अतिथि संपादक के रूप में सम्मानित किया। मेरा यह भी सौभाग्य रहा कि पूर्व प्रधानमंत्री श्री पी. वी. नरसिम्हा राव ,श्री अटल बिहारी बाजपेयी तथा श्री इंद्र कुमार गुजराल के भी साक्षात्कार लेने के अवसर 'नित्य नूतन' के निमित्त दीदी ने दिलवाए। स्वतंत्रता के पचासवें वर्ष के विशेषांक में डॉक्टर गोपल सिंह ,श्री विष्णु प्रभाकर और श्री सुधीर माथुर जैसे वरिष्ठ साहित्यकारों से भी बातचीत का अवसर दीदी ने जुटवाया तथा जिसे 'नित्य नूतन' में प्रकाशित किया। दीदी की प्रेरणा से नित्य नूतन के लिए मैं लेख लिखता रहता था। शायद मुझे प्रोत्साहित करने के लिए ही उन्होंने मुझे उसका सह संपादक नियुक्त किया। जब पहली बार दीदी के साथ मेरा नाम भी बतौर संपादक छपा तो मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। इसी दौरान वह जहां भी गईं, नित्य नूतन के प्रति मेरी निष्ठा की प्रशंसा करती रहीं। मैं भी इससे उत्साहित हुआ और मैंने इसको पानीपत में ही प्रकाशित करने का निश्चय किया। संपादकीय लिखने के लिए अतिरिक्त मैने सभी सामग्री जुटाई तथा अपने एक मित्र की प्रेस में छपवाया भी और फिर पत्रिका की प्रतियां लेकर दिल्ली पहुंचा। दीदी इन्हें देखकर बेहद प्रसन्न हुईं, पत्रिका के पन्ने पलटते हुए वह 'कथा त्रिवेणी' पर पहुंची तो हंसी से लोटपोट हो गईं, मैंने हंसी का कारण पूछा तो बोली, "राम मोहन जी, कथा शैली व भाव तो वैसे ही हैं, पर कथा त्रिवेणी तो नाम ही इसलिए है कि इसमें कुल 3 कथाएं हैं, पर आपने तो इसमें 6 कथाएं प्रकाशित कर दी।" मुझे भी अपनी गलती का एहसास हुआ। परंतु उन्होंने तुरंत बात संभाली, "त्रिवेणी का अर्थ गंगा, यमुना व सरस्वती का मेल ही तो नहीं है, यह तो सबका मेल है। दीदी के लिए नित्य नूतन ही उनकी उत्तराधिकारी थी। ब्रह्मचारिणी दीदी की पुत्र- पुत्री के रूप में रूप में 'नित्य नूतन' का स्थान है। एक बार दीदी की सचिव बबीता चौधरी ने कहा कि दीदी के बाद 'नित्य नूतन' कौन चलाएगा? मेरा जवाब था कि 'हम चलाएंगे।' आज दीदी नहीं रहीं। नित्य नूतन भी बंद हो गई, पर क्या दीदी नृवंश हो जाएगी? इसका जवाब उनके सभी साथियों के सामने है।
: मेरे लेख
जम्मू सम्मेलन
अमन व सुलह की ओर एक कदम
सांप्रदायिक सद्भावना के प्रदेश जम्मू व कश्मीर के साथियों को यह कतई अनुमान नहीं होगा कि रियासत में इतनी दहशतजदा कार्यवाहियों तथा भय के वातावरण के बावजूद पूरे देश के सभी प्रांतों से लगभग 10 हजार प्रतिनिधि उनके आतिथ्य को स्वीकार कर अखिल भारतीय रचनात्मक समाज के राष्ट्रीय सम्मेलन में पहुंचेंगे। रचनात्मक समाज की राष्ट्रीय अध्यक्ष कु. निर्मला देशपांडे जी की दूरदर्शिता की भरपूर सराहना की जानी चाहिए कि उन्होंने जम्मू को सम्मलेन के लिए चुना। तिरुपति में भगवान वेंकटेश्वर विराजमान है, दक्षिण भारत का भव्य मंदिर है, दर्शनीय स्थल है, वहां के लिए आकर्षण वाजिब है। चित्रकूट प्राकृतिक सौंदर्य से भरा है और जिस क्षेत्र को स्वयं भगवान राम ने अपना वनवास काल बिताने के लिए चुना हो तथा भूमि के चप्पे-चप्पे पर उनके चरण पड़े हो,उसका आकर्षण तो अवश्य ही होगा। परंतु जम्मू ,जहां नित्य बंदूक की गोलियों की शाय -शाय की आवाज गूंजती हो ,कश्मीर घाटी जहां भाड़े के विदेशी युवक तथा उनके गुमराह हुए नौजवान एक अजीब आतंक का माहौल बनाकर इसके स्वर्गीक आनंद को समाप्त करने पर आमादा हो, वहां 10 हजार लोगों का पहुंचना सचमुच साहस तथा निडरता का द्योतक है।
अखिल भारत रचनात्मक समाज की अध्यक्षा कु. निर्मला देशपांडे जी के नेतृत्व में पिछले कई वर्षों से जम्मू और कश्मीर रियासत में जो शांति स्थापना का कार्य चल रहा है, उसकी ही परीक्षा जम्मू सम्मेलन रहा। अहिंसा के सैनिकों के सामने हिंसक शक्ति बौनी प्रतीत होती थी। दीदी स्वयं अपने कई साथियों के साथ डोडा, श्रीनगर व अन्य क्षेत्रों में गईं तथा उन्होंने हर पक्ष के लोगों से बातचीत की और ऐसा माहौल बनाने की कोशिश की गई कि शांति व भाईचारे की गुंजाइश हर समय मौजूद है और इसके बाद सिरफिरे साथी एक के बाद एक पूरे क्षेत्र में घूमे। कौन नहीं जानता की भद्रवाह में हिंदू भाइयों के मकान को जिसे आतंकवादियों ने तहस-नहस कर दिया था, रचनात्मक समाज के साथियों से प्रेरित होकर मुस्लिम भाइयों ने उसके पुनर्निर्माण के लिए आर्थिक मदद की थी। यह काम इतना छोटा नहीं था। अविश्वास तथा भय के वातावरण में यह कदम अनुकरणीय रहा। रचनात्मक समाज के साथी उन सभी इलाकों में गए, जहां बिना शस्त्र जाना कश्मीरी नागरिकों के लिए भी मुश्किल था। ऐसे कार्यों तथा कार्यकर्ताओं के साहस ने दीदी को प्रेरित किया कि सभी साथी जम्मू पहुंचे, ताकि वहां के कार्यकर्ता साथियों व जनता का मनोबल बढ़ सके। वैष्णो देवी तीर्थ का प्रत्येक दर्शनार्थी जम्मू से होकर गुजरता है तथा मां के चरणों में जाकर अपने तथा अपने परिवार के स्वास्थ्य तथा प्रसन्नता की दुआ मांगता है। मां के बारे में यह आस्था है कि वह अपने भक्तों को उनमें श्रद्धा पैदा कर बुलाती हैं ।अक्सर साधन संपन्न लोग ही वहां पहुंच पाते हैं, पर यह पहला मर्तबा था कि मां ने बुलाया था, देश की एकता व अखंडता की रक्षा की दुआ मांगने के लिए, रियासत जम्मू कश्मीर में अमन व सुलह के लिए। यह देवी प्रेरणा ही मानी जाए और निश्चित रूप से इस दुआ का परिणाम सार्थक ही होगा। रचनात्मक समाज का कार्य वास्तव में अनेकता में एकता है। वह पाकिस्तान से मैत्री चाहता है व साथ- साथ कश्मीर में शांति की उम्मीद रखता है ।वह चीन से मैत्री चाहता है व तिब्बत की आजादी भी। देखने में इस कार्य में विरोधाभास लगता है,परंतु समाज के कार्यों ने पूरे देश की जनता को इस ओर आकर्षित किया है। पिछले दिनों दिल्ली तथा कलकत्ता में भारत-पाकिस्तान मैत्री समारोह में कु. निर्मला जी की सक्रिय भागीदारी व मार्गदर्शन ने उन्हें पाकिस्तान की भी दीदी बना दिया। भारत- चीन मैत्री समारोह दिल्ली में जब दीदी ने उद्बोधन किया तथा मैत्री की जरूरत को बताया तो स्वयं चीन के राजदूत उनकी प्रशंसा करते हुए अपनी बधाई देने आए । पर यह दोस्ती की बुनियाद किन्हीं सरकारों की दोस्ती न होकर जनता की दोस्ती है, जहां कश्मीर व तिब्बत का मसला गौण है। कश्मीर में शांति अभियान तथा तिब्बत की आजादी के लिए पूरी दुनिया के राजदूतावासों में उनके सुनवाई कोई देश, प्रांत, जाति व धर्म से जुड़ा व्यक्ति नहीं कर सकता, अपितु जय जगत का उद्घोष करने वाला रचनात्मक कार्यकर्ता ही कर सकता है। बिहार और उड़ीसा के साथी जो रेल से तीन-चार दिन का लंबा सफर तय करके पहुंचे थे, उनसे रास्ते में एक अनजान व्यक्ति के नाते मैंने उनके जम्मू जाने के उद्देश्य को पूछा तो एक नहीं अनेक स्वर एक साथ बोले, 'शांति व एकता के लिए, आपस में भाईचारे के लिए, एक नए समाज की रचना के लिए।' जम्मू की राजमा -चावल के बीच भी बिहार का सत्तू व चूड़ा चल रहा था। 'जय माता दी' की गूंज की अभ्यस्त जम्मू ने पहली बार भगवान जगन्नाथ की जय की गूंज को उड़ीसा के ढोल- नगाड़ों पर सुना। वैष्णो मां के दर्शन करवाने के लिए मुस्लिम सवारीवाह (जिन्हें टट्टू के नाम से जाना जाता है) तो देखे थे, परंतु भारी संख्या में हिंदू, मुस्लिम, सिख व ईसाई भाइयों को भी मां अपने दर्शनार्थियों की भीड़ में सम्मिलित पाकर मां की कृपा भी अवश्य द्रवित हो गई होगी।
सम्मेलन में समाज के प्रत्येक तबके की हिस्सेदारी रही। युवा, वृद्ध, महिलाएं, बच्चे ,खेतिहर मजदूर, किसान, मजदूर, बुद्धिजीवी, स्वतंत्रता सेनानी तथा विद्यार्थियों ने भी भारी संख्या में सम्मेलन में भाग लिया। अलग-अलग समूह चर्चा में सभी लोगों की शिरकत ने सम्मेलन की सफलता को नए आयाम दिए। महिलाओं के सम्मेलन में अनेक वक्ताओं ने अपनी भूमिका पर विचार प्रकट किए। राज्यपाल महोदय श्री कृष्णा राव की धर्मपत्नी ने इस सम्मेलन को अपनी उपस्थिति से गरिमा प्रदान की। राष्ट्रीय एकता व सद्भावना सम्मेलन, सर्वधर्म सम्मेलन, ग्राम स्वराज्य तथा पर्यावरण रक्षा सम्मेलन में भाग लेने के बाद सभी प्रतिनिधि अपनी अपनी चर्चा को उत्कृष्ट बता रहे थे। वास्तव में अलग-अलग चर्चाएं उच्च व गंभीर थी, जिनका कोई सानी नहीं था।
प्रधानमंत्री श्री इंद्र कुमार गुजराल ने अपने संबोधन में जब कहा ,'मैं भारत के प्रधानमंत्री के तौर पर व बतौर हिंदुस्तानी निर्मला जी का एहसानमंद हूं कि उन्होंने इतनी संख्या में लोगों को यहां लाने का काम किया और राष्ट्रीय एकता व कश्मीर में शांति स्थापना के लिए उन्हें जोड़ा तो समूचा जनसमूह करतल ध्वनि से गूंज उठा और खुद को सम्मानित समझने लगा।निर्मलजी के प्रति उनके उद्गार कि खादी की धोती पहनकर इस फकीरी लिबास में वह पूरे देश को जगा रही हैं, को सुनकर प्रत्येक कार्यकर्ता भावुक हो गया तथा उसके कार्य करने की क्षमता में नई ऊर्जा का संचार हो गया ।श्री गुजरालजी के प्रधानमंत्री बनने के बाद यह उनकी पहली जनसभा थी, जो कि एक सामान्य न होकर समर्पित देशभक्तों का जमावड़ा था। मुख्यमंत्री श्री फारुख अब्दुल्ला जी के भाषण ने लोगों को प्रेरित किया। उनके द्वारा दिया गया स्वागत भाषण, किसी राजनेता का न लगकर अपने परिवार के मुखिया का ही लग रहा था। फिल्म अभिनेता राज बब्बर ने कहा कि उन्होंने अपने फिल्मी तथा राजनैतिक जीवन में कभी इतना सम्मानित महसूस नहीं किया ,जितना आज दीदी निर्मला जी के साथ कुर्सी पर बैठ कर सम्मानित महसूस कर रहे हैं। राज बब्बर के इन शब्दों ने भी सभी का मन मोह लिया। श्री सोमेश भंडारी जी राज्यपाल के तौर पर नहीं, अपितु समाज के कार्यकर्ता के रूप में बोले । श्री बलराज पुरी , श्री शेख अब्दुलरहमान की सदाश्यता ने समाज को अपना मित्र बना लिया।
रचनात्मक समाज के इस सम्मेलन ने देश के कार्यकर्ताओं में एक नई ऊर्जा का संचार किया।
इस लेख में, बिहार के क्रांतिकारी नेता श्री गोखले जी के विचारों को जरूर शामिल करना चाहेंगे कि रचनात्मक समाज, निर्मला जी के नेतृत्व में जनआंदोलन का रूप ले चुका है। जरुरत है कि कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षित करने के लिए नियमित कक्षाएं हो, पूरे देश में लोगों की समस्याओं से इसे जोड़कर ग्राम स्वराज्य, गांधी -विनोबा के स्वप्न को पूरा करने के लिए आगे बढ़ा जाए । जम्मू सम्मेलन पूरे देश में नए आयाम देगा तथा जम्मू कश्मीर में अमन व सुलह का मार्ग प्रशस्त करेगा।
नित्य नूतन पत्रिका के 1 जून 1997 के अंक में प्रकाशित
[: पानीपत से कराची भारत की स्वतंत्रता जयंती वर्ष में इससे ज्यादा खुशकिस्मती और क्या होगी कि इस अवसर पर अपने पड़ोसी तथा भाई देश पाकिस्तान जाया जाए। अखिल भारत रचनात्मक समाज की अध्यक्षा कु. निर्मला देशपांडे जी की विशेष कृपा से एसोसिएशन ऑफ पीपुल्स ऑफ एशिया के पाकिस्तान चैप्टर के निमंत्रण पर मुझे भी 6 अगस्त से 11 अगस्त तक पाकिस्तान जाने का निमंत्रण मिला। इस प्रतिनिधिमंडल में दीदी के अतिरिक्त दो विश्वविद्यालय के पूर्व उपकुलपति, विश्वविद्यालय के प्रोफेसर, अनेक सामाजिक कार्यकर्ता तथा पूर्व राजनेता सहित कुल 11 लोग थे । इन सबमे सबसे छोटी आयु,छोटे रूतबे तथा छोटे से शहर पानीपत का मैं ही प्रतिनिधि था ।
स्मरण रहे, हमारे शहर पानीपत की कुल आबादी भारत के बंटवारे के समय 35 हजार के लगभग थी। इनमें से 30 हजार मुसलमान भाई थे तथा कुल 5 हजार हिंदू थे। बंटवारे के बाद सभी मुसलमान भाई पाकिस्तान चले गए तथा उनमें से सिर्फ एक जनाब लक्काउल्ला खां (जोकि महात्मा गांधी के शिष्य थे) व उनके मुंशी मोहम्मद उमर साहब को छोड़कर सभी पाकिस्तान चले गए। पानीपत से पाकिस्तान जाने वाले लोग वहाँ ज्यादातर लाहौर, झंग ,मुल्तान तथा कराची में जाकर बसे। वहाँ वे उंचे ओहदों पर हैं तथा उनकी आर्थिक स्थिति अन्य लोगों की अपेक्षा अच्छी है। पाकिस्तान में बसने के बावजूद भी वे अपने बाबा- ए- वतन यानी पूर्वजों के शहर पानीपत को न भूल पाए तथा उन्होंने स्थान- स्थान पर पानीपत एसोसिएशन के नाम पर संगठन बना रखे हैं, जहां वे अपनी पुरानी यादों को ताजा करने का प्रयास करते हैं। झंग निवासी श्री मुबस्सर हसन साहब, पाकिस्तान सरकार में मंत्री रहे तथा वहीं पर ख्वाजा पीर पयां, वहाँ की प्रसिद्ध सामाजिक हस्ती है। कराची में , डॉ जकी हसन (जिनका संबंध पानीपत के मशहूर खानदान हकीम वालों से है) कराची में बकाई मेडिकल यूनिवर्सिटी में बतौर वाइस चांसलर हैं। पानीपत की पूर्व नागरिक डॉ मासूम हसन वियना (ऑस्ट्रेलिया) में पाकिस्तान की राजदूत रहीं तथा ख्वाजा जफर रजा स्वास्थ्य विभाग सिंध में उच्च अधिकारी रहे।
मई 1996 में दिल्ली में भारत-पाक मित्र मिलन हुआ था, जहां अपना परिचय कराते हुए डॉ जकी हसन ने कहा था कि उनका ताल्लुक पानीपत से है। सौभाग्यवश, मैं भी उस मित्र मिलन में था ,जब उन्हें मेरा पता चला तो उनके लिए मैं तथा मेरे लिए वह ही 'मित्र मिलन' रह गए और अन्ततः उनकी ही पुरजोर सिफारिश पर भारतीय प्रतिनिधिमंडल में दीदी ने मुझे शामिल किया।
6 से 11 अगस्त 1997 की पाकिस्तान प्रवास के दौरान हमने एक मैत्री सेमिनार में भाग लिया व कई स्थानों पर जाने का मौका मिला। परंतु डॉ जकी हुसैन के घर पर जो रात्रि भोज हुआ, उसकी जितनी भी तारीफ की जाए, कम थी ।वहाँ जहां कराची के प्रबुद्ध वर्ग के अनेक प्रतिनिधि थे, वहीं कराची के ही नहीं झंग तक से आए पानीपत एसोसिएशन के सदस्य थे। वही पीर पयाँ से मुलाकत हुई। एक पत्रकार ने एक महिला से पूछा, आप कौन से शहर की हैं? उनका जवाब था- कौन से? दुनिया में सिर्फ एक ही शहर है ,वह है पानीपत। इतना सुनकर मैं भी बाग-बाग हो गया। उनका परिचय पूछने पर पता चला कि वह डॉक्टर मासूम हसन, पूर्व राजदूत है। मैंने अपने नगर की परंपरा का पालन करते हुए उन्हें अपना नजराना पेश किया तो तभी दूसरी महिला आई और बोली - भाई जान, मैं भी तो पानीपत की हूं, मेरा हिस्सा मुझे दो और मैं भावुक हो गया । मुझे ऐसा लगा मानों मेरी सगी बहन अपने प्यार का हक मांग रही है और फिर शुरू हो गया घरेलू प्यार व स्नेह का मामला व सिलसिला। होटल मेट्रोपोल जोकि कराची के बिल्कुल बीच में है और जहां हम ठहरे थे, वहीं एक कर्मचारी मुब्बर अली को जब पता चला कि मैं पानीपत से आया हूँ तो वह बोला," मेरी माँ भी पानीपत की रहने वाली है तो क्या मैं आपको मामू....? और मेरे हां कहने पर वह सभी होटल कर्मचारियों को कहता- फिरता रहा कि कमरा नंबर 406 में उसके मामू ठहरे हैं और विदा करते हुए तो वह सचमुच भावुक हो गया। दिनांक 8 अगस्त 1997 को पानीपत एसोसिएशन की बैठक व रात्रि भोज पानीपत निवासी तथा पूर्व जमींदार ख्वाजा नेयमत अली के पुत्र ख्वाजा जफर अली के आलीशान घर में हुआ था, जहां पर लगभग 40 लोग इकट्ठा हुए। रात्रि भोज का समय 8 बजे का था, परंतु कार्यक्रम में व्यस्त होने के कारण हम वहां साढ़ें नौ बजे पहुंचे तो देखा कि सभी लोग एक मेज को घेरे हुए खड़े हैं तो पता चला कि वे एक बड़े कागज पर बनाए गए पानीपत के नक्शे में अपना- अपना घर ढूंढ रहे हैं। सचमुच भावुकता के क्षण थे और फिर सबसे गले लगकर परिचय हुआ। वहीं ख्वाजा साहब के मँझले बेटे फरहत अली से मुलाकात हुई । सबसे अच्छा मिलनसार तथा मासूम नौजवान। उसने मेरा हाथ पकड़ लिया और उंगलियों की लंबाई, मोटाई तथा बनावट का मिलान अपनी उंगलियों से करने लगा और फिर खुशी से कहने लगा, "अब्बा जान! बिल्कुल हमारे जैसी उंगलियां है, क्या सभी पानीपत वालों की एक जैसी उंगलियाँ होती हैं?" बात मासूम थी, पर प्यार का जज्बा लबालब भरा हुआ था, जिसकी गहराई बहुत ज्यादा थी। बातों का सिलसिला जब चला तो रात 12 बजे ध्यान आया कि खाना भी तो खाना है। मैं पानीपत के कुछ निवासियों की तरफ से पाकिस्तान में पानीपत से बसे लोगों के नाम एक पत्र ले गया था। डॉ कुमार पानीपती ने उर्दू में बहुत ही खूबसूरत खत तैयार किया था। जब मैंने उसे उन्हें सुनाया तथा फोटोस्टेट कॉपी भेंट की तो सभी ने उसे माथे पर लगा कर अपनी खुशी का इजहार किया। कलंदर साहब की मजार की चादरें, तबर्रूख (प्रसाद) व किताबें भी मैंने उन्हें भेंट की, जिसे उन्होंने बड़ी श्रद्धा से ग्रहण किया। बड़े लोग, पानीपत के बुजुर्ग नागरिकों ,सर्वश्री ब्रह्मदत्त सिंगला, लाल ओम प्रकाश जी, लाला रामानंद जी व लाला विश्वनाथ को उनके बचपन के नामों से याद कर रहे थे। पं माई दयाल,(साइकिल वाले) , पंडित जयंती प्रसाद, पंडित शांति प्रसाद, पदम सेन गौहर,लाला ज्वाला प्रसाद वकील, वैद्य पं सेवाराम, भगत जी औतार,मास्टर सीताराम, लाला खड़कू व चेतन को उन्होने खूब याद किया और जब पता चला कि अधिकतर स्वर्गवासी हो गए हैं तो सभी ने उन सब की याद में फातिहा पढ़ा व बहुत अफसोस जाहिर किया। ख्वाजा जफर रजा तो फूट -फूट कर रोने लगे और कहने लगे कि अल्लाह मियां मुझे एक बार पानीपत जरूर भेजें और वही अपने पास बुला लें ताकि मैं वहीं दफ़न हो सकूं। पानीपत के लोगों की प्रार्थना पर तब उन्होंने फैसला किया कि पानीपत एसोसिएशन का एक 25 सदस्यीय प्रतिनिधि मंडल पानीपत के लिए तैयार हो, जो पानीपत जाएं और अपने दोस्तों तथा प्रिय जनों को मिलकर अपनी शुभकामनाएं दें। एक अजीब क्षण था। लगता था कि पानीपत वहां के रहने वालों के लिए उनके दिलों में असीम प्यार और मोहब्बत है, जो सरहदों के बावजूद बंटी नहीं है ।
पानीपत के मशहूर शायर मौलाना अल्ताफ हुसैन हाली के नाती फिल्म कथाकार व साहित्यकार ख्वाजा अहमद अब्बास ने भी अपने नाना की तरह ही बुलंदी हासिल की। उनके भांजे श्री अनवर अब्बास 1982 में कराची चले गए और वहीं बस गए। आजकल वह हबीब पब्लिक स्कूल के डायरेक्टर हैं । वह हमें अपने स्कूल में ले गए । पानीपत की उपायुक्त श्रीमती जयवंती श्योकंद भी उर्दू की काफी अच्छी जानकार है तथा साहित्य प्रेमी भी है। इस बात को बहुत कम लोग जानते हैं । श्रीमती श्योकंद को ख्वाजा अहमद अब्बास अपनी पुत्रीवत दर्जा देते थे। जिसका जिक्र उन्होंने अपनी इंदिरा गांधी पर लिखी पुस्तक की प्रस्तावना में किया है। ख्वाजा अनवर अब्बास को जब पता चला कि श्रीमती जयवंती जी पानीपत की उपायुक्त है तो वह बेहद प्रसन्न हुए तथा एक पत्र उनके नाम हिंदी में लिख डाला। उन्होंने स्वर्ण जयंती वर्ष में एक हॉकी टीम भी भारत में लाने का इरादा रखा, जिस पर मैंने कहा कि पानीपत के हालात माकूल है। इस वजह से आपकी टीम पानीपत में भी आए ,जिसे अनवर अब्बास ने तुरंत मान लिया। स्कूल में ही अपनी आदत के अनुसार मैंने छोटे लड़के के साथ बातचीत शुरू की कि तभी उसकी मां आ गई। जब उसे पता चला कि मैं पानीपत से आया हूं तो वह बोली कि उसके मायके का परिवार भी पानीपत का है तथा इस तरह से मैं उसका भाई हुआ। उस अपने लड़के को कहा कि बेटा, यह तुम्हारे मामू है, इन्हें सलाम करो। मैंने भी उस बहन के सिर पर हाथ फेरा व नजराना भेंट किया, जिससे वह बहुत खुश हुई।
वही फरहत तो भारत-पाकिस्तान की दोस्ती का प्रतीक है। वह तो पानीपत के नाम पर फ़िदा था । डॉ जकी हसन से उसने कह दिया ,अब राम भाई उसके मेहमान होंगे। भला मैं उसकी बात कैसे टाल सकता था। वह बड़ा बेबाक व जिंदादिल नौजवान है , जिस पर भरोसा किया जा सकता है। उसका परिवार पानीपत नाम को समर्पित है। वह मुझे बार-बार कह रहा था कि भाई जान, उसकी शादी में जरूर आना। मैं उसके प्यार के आगे चुप था, पर मेरी भी तो मजबूरी है। मैंने कहा ,जब शादी हो जाए तो हिंदुस्तान जरूर आना। तो वह बोला- पानीपत तो हमारा असली घर है। वह मुझे अपनी मंगेतर हुमा के घर ले गया। उमा के स्वर्गीय पिता कैराना (उत्तरप्रदेश) से पानीपत आए थे। बड़ी मासूम तथा भोली -भाली बिटिया थी। उसकी मां ने मुझे अपनी बेटी के होने वाले जेठ के रूप में सम्मान दिया। पानीपत से कराची में बसे अनेक परिवारों ख्वाजा राजी, शहीद व अजहर जमील के परिवारों में भी मुझे जाने का मौका मिला। हर जगह एक ही स्नेह मिला। सभी लोगों का कहना था कि पानीपत से चाहे कितने ही लोग आएं , 'सभी उनके मेहमान होंगे। बस कराची तक आ जाएं फिर सब काम हमारा।' मेरी परमात्मा से प्रार्थना है कि वह अपनी कृपा करें ताकि दोस्ती, भाईचारे व प्यार का यह पुराना रिश्ता पुन: कायम हो सके। दोनों देश शांतिपूर्ण वातावरण में रहते हुए अपनी- अपनी तरक्की के रास्ते पर चलें। एक पाकिस्तानी नौजवान कवि श्री तौकीर चुकताई ने लिखा -
ये किस्सा दुश्मनी का पुराना होने वाला है,
हमारे दरम्याँ तो दोस्ताना होने वाला है।
यह कांटे भी गुलाबों की तरह खुशबू लुटाएंगें,
कि गुलशन में हमारा आना- जाना होने वाला है।
वो हिंदू है यह मुसलमा, वो शूद्र ये ब्राह्मण है,
ये किस्सा भी कुछ दिन में पुराना होने वाला है।
अजंता और हड़प्पा की भला तकसीम क्या होगी, कि ये रिश्ता कई सदियों पुराना होने वाला है ।
हमें लूटा बनामे दीनो मिल्लत रहनुमाओं ने,
मगर नाकाम उनका कारखाना होने वाला है ।।
नित्य नूतन पत्रिका के 1 सितंबर 1997 के अंक में प्रकाशित
: 50 वर्षों के बाद घर वापसी
यह यात्रा घबराहट व हिचक के साथ की जा रही थी। वे अपने घर 50 वर्षों के बाद आ रहे थे। इनमें वे लोग थे, जिन्हें दो देशों की सरकारों के मुहायदे के अनुसार इधर से उधर व उधर से इधर आना पड़ा, क्योंकि भारत का कुछ भाग पाकिस्तान से आने वाले हिंदू व सिखों के लिए खाली किया जाना था तथा ऐसे ही पाकिस्तान का भाग भारत से जाने वाले मुसलमानों के लिए। कोई इनसे पूछे कि क्या यह तुम्हारा चयन था? जाना जरूरी था, क्योंकि ऐसा यह कदम अपना जीवन बचाने के लिए था।अत: उन्होने अपना घर छोड़ने के लिए स्वयं को तैयार किया तथा उन खाली गाड़ियों तथा ट्रकों में बैठ गए , जो उन्हें सरहद पार ले जाने को तैयार थे। सरहद पार उन्होंने दूसरी ओर से ऐसे ही लुटे कारवां को आते हुए चुपचाप देखा। उनमें से अधिकांश को ऐसा लगता था कि उनकी यह यात्रा आखिरी नहीं है और जब भी हालात माकूल होंगे,वे भी अपने घर वापस आएंगे।
पचास साल बीत गए और एक दिन 20 मार्च, 1998 को 22 आदमी, औरतों और बच्चों का जत्था जिनके बाप-दादा पानीपत छोड़ कर चले गए थे, भारत में अपनी जन्मभूमि के दर्शन के लिए आया और यही उनकी घर वापसी की कहानी है। उन्होंने अपनी जन्मभूमि पर बहुत हिचकते हुए कदम रखा क्योंकि अपनी नई कर्मभूमि में वे अपनी जड़े जमाने लगे थे। उन्होंने अपनी मेहनत से वहां उच्च पद प्राप्त किए थे व नाम पैदा किया था, परंतु पानीपत की याद उन्हें सदा झंझोड़ती थी । पानीपत एक साधारण व प्राय: अनजान शहर , उनके लिए एक खींच रखता था। वे चाहते हुए भी उसे भुला नहीं पाते थे और आज वे अपने शहर पानीपत के रूबरू थे।
यह यात्रा कैसे वजूद में आई
पानीपत के मौजूदा शहरियों ने अपने नगर के पुराने पानीपतियों को उनके पुरखों के शहर में आने के लिए निमंत्रित किया कि वे आएं । इस तरह कराची, इस्लामाबाद व लाहौर से बुजुर्ग महिला- पुरुष, युवा, किशोरों व बच्चों का एक 22 सदस्यीय जत्था पानीपत आने के लिए तैयार हुआ। वे सब एक भरपूर उद्देश्य के साथ आए थे और इच्छुक थे पानीपत की मिट्टी को देखने को , कि कहीं वह बदल तो नहीं गई। पानीपत के वर्तमान शहरी भी कुछ हिचकचा रहे थे । इससे पूर्व भारत से एक छोटी सी टोली पाकिस्तान गई थी और वहां पर कराची में हुए आवभगत से बहुत प्रभावित थी। पानीपत में वकील तथा इस यात्रा के संयोजक श्री राम मोहन को डॉ मासूमा हसन, आस्ट्रिया में पाकिस्तान की पूर्व राजदूत की यह बात भूली नहीं थी जो उन्होंने कराची में अपनी मुलाकात के दौरान उन्हें कही थी ,जब उनसे किसी ने पूछा था कि आप कहां की है? तो उनका जवाब था कि, "अरे दुनिया में पानीपत के अलावा भी कोई शहर है क्या ?"और अब मौजूदा पानीपतियों की बारी थी कि क्या वे उम्मीदों पर खरे उतरेंगे और पानीपत की पुरानी खातिर तवज्जो की इज्जत बरकरार रखेंगे? पाकिस्तान के नौजवान को ऐसा क्या दिया जाए कि वे पानीपत को याद रखें? दोनों तरफ सरहद के आर-पार ऐसे सवाल उभर रहे थे और तब अजूबा हुआ और वह भी ऐसा जैसे किसी दैवीय शक्ति की कृपा व प्रताप से हुआ हो। मशहूर सूफी सन्त बू अली शाह कलंदर, जिन्हें कलंदर साहब के नाम से जाना जाता है, इस सरजमीं में दफन है। ऐसी मान्यता है कि शहर पानीपत उनके फैज़ से आबाद व तरक्की पर है। जब कलंदर साहब अपनी मस्ती में पानीपत की गलियों में घूमते थे तब यहां 700 रूहानी विद्वान थे। प्रसिद्ध इतिहासविद मोहम्मद इस्माइल के अनुसार ईरान,हेजाज ,तुर्की, अफगानिस्तान व अन्य देशों के विद्यार्थी यहां रूहानी ज्ञान प्राप्त करने के लिए आते थे और यही भावना थी कि जिसकी वजह से यह यात्रा एक पूर्ण वृतांत बन गई। यह एक ऐसा अवसर था, जिससे सरकारों का कोई लेना देना नहीं था। पाकिस्तानी अपने खर्चे पर आए थे और मेजबानों ने उन्हें गेस्ट हाउस, होटल तथा घरों में ठहराया था और लोगों ने भी मेहमानों की शान में दावतों में कोई कसर नहीं छोड़ी।हर समय के तीन निमंत्रण थे और आखिरी दिन तो हद ही हो गई, जब सात जगह नाश्ते के लिए जाना पड़ा। किसी भी सरकारी ताम-झाम से परे लोगों के प्यार और स्नेह से भरपूर इंतजाम था। फिर चाहे स्काई लार्क टूरिस्ट
कांप्लेक्स में नागरिक अभिनंदन हो या देवी मंदिर के दर्शन अथवा सनातन धर्म कॉलेज में कवि सम्मेलन हो या फिर पुराने शहर में सुबह के नाश्ते का इंतजाम, सभी के सभी लोगों के प्यार से सरोबार थे और उनकी बेहद शिरकत थी।
कुछ दृश्य तो यादगार बन गए । एक 19 वर्षीय लंबे बालों वाली खूबसूरत लड़की मंच पर आई । उस समय सभा में छोटे व्यापारी, पूर्व इंजीनियर, समाचारों से जुड़े लोग, अध्यापक, नगर के सम्माननीय बुजुर्ग, आदमी और औरत एक दूसरे को पहचानने की कोशिश कर रहे थे। उसने कहा कि आज वह उस गज़ल को गाएगी जो पानीपत के मशहूर शायर श्री शुगन चंद रोशन ने अब से 50 वर्ष पूर्व उसके नाना को पानीपत से जाने पर उनकी जुदाई की पीड़ा में लिखी थी-
ऐ बादे सबा-ऐ बादे सबा
पैगाम हमारा उनको सुना, वो चल दिए हमसे होकर खफा,
अरमान हमारा दिल में रहा।
उसकी मीठी आवाज में खिंचाव था, जो उस दोस्त की पीड़ा को बता रही थी कि कुदरत भी उनके जाने के बाद नाराज हो गई है।
वे जब से गए परदेश सबा, कलियों ने महकना छोड़ दिया,
कांटो ने खटकना छोड़ दिया ,
गूचों ने चटकना छोड़ दिया।
उस लड़की ने बताया कि कैसे उसके नाना फूट-फूट कर रोए जब उन्हें यह पत्र मिला। ग़ज़ल खत्म होने के बाद सभी नए- पुराने चेहरों की आंखें नम थीं। एक बड़ी उम्र की औरत ने उस लड़की को गले लगा लिया और बोली," मैं शुगन चंद रोशन की बेटी हूं । मुझे याद है कि तुम्हारे नाना के जाने के बाद, बाबूजी कभी नहीं मुस्कुराए थे।"
देवी मंदिर में मैंने एक सलवार -कमीज पहने लंबी दाढ़ी वाले बुजुर्ग मस्तक पर तिलक लगाते तथा दोनों हाथों से प्रसाद लेते हुए देखा । मैंने देखा कि किस तरह मेहमान लड़कियां मंदिर की ऊंची -ऊंची घंटियों को उचक -उचक कर बजा कर खुश हो रही थीं और उसके बाद मंदिर के प्रांगण में सभी के माथे पर लंबे तिलक पाए, जो आपस में खुशियां बांट कर जीवंत हंसी हंस रहे थे और जब जत्थे के लोगों ने बताया कि पानीपत की सरजमीं सूफी व औलियों की वाणी से पवित्र है, जो जरखेज( सोना उगलने वाली) है और जहां के ढाक के जंगलों में पक्षी व जंगली जानवर निर्भीक घूमते थे तो लोगों ने इतिहास के इन पन्नों को बहुत ध्यान से सुना।
एक इकहरे बदन के लंबे, नीली आंखों में चांदी जैसे बालों वाले व्यक्ति, जो पानीपत के मशहूर खानदान हकीम वालों से ताल्लुक रखता था, ने अपने बुजुर्गों के 700 साल पुराने इतिहास के पन्नों को एक के बाद एक पलट कर रखा। उपस्थित श्रोता हक्के बक्के रह गए, जब एक मेहमान ने पानीपत के ईद- गिर्द के 51 गांवों के नाम एक पहाड़े की तरह सुनाये। जमीन की पैमाइश किस तरह होती थी , एक बीघा में कितने बिसवा होते हैं? एक बिसवा में कितनी बिस्वांसी हैं और एक बिस्वांसी में कितनी कचवांसी है और और अंत में एक कचवांसी में कितनी औसंसी है ? दिल्ली और अंबाला के बीच कौन -कौन से रेलवे स्टेशन है ? ककड़ी बेचने वाले ऐसे गाकर ककड़ी बेचते थे-
लैला की उंगलियां है, मजनू की पसलियां है,
क्या खूब ककड़िया है, सुभाने राबुल अल्लाह।
एक महिला खड़ी हुई। उसने अपने लेख को हिस्सों में पढ़ा , जिसमें पानीपत के बारे में बताया गया था। वह किसी अलग ग्रह के लग रहे थे और हरियाणा के भूमि पुत्र उन्हें विस्मित नजरों से देख रहे थे कि वे यहां से क्यों और कैसे लापता हो गए?
कलंदर चौक जाते हुए बाजार में उन्हें एक बुजुर्ग व्यक्ति ने अपनी दुकान के बाहर रोक लिया और अपने पुराने मित्रों तथा उनके बच्चों की खैरियत पूछने लगा । एक और सज्जन ने मेहमानों को अपनी बाहों में भर लिया और अपनी स्कूल की यादों में डूब गए । सपाटू वाले परिवार के लोग काफी संख्या में मेहमानों के स्वागत के लिए आए । बड़े बुजुर्ग भगवान को प्यारे हो गए हैं , पर नई पीढ़ी के लोग उनकी यादों को ताजा रखे हुए हैं। किसी ने श्री ओमप्रकाश सिंगला के बारे में पूछा ,पर उनका भी तो स्वर्गवास हो गया है। उनके बड़े भाई की विधवा श्रीमती विद्यावती चुपचाप बैठी थी, चेहरे पर केवल शून्य- शून्य और शून्य। समय की तेज रफ्तार में सब समा चुके थे या शायरों के शायर मिर्जा गालिब के शब्दों में," सब कहां कुछ लाला ओ गुल में नुमाया हो गए, खाक में क्या सूरते होंगी जो पिन्हान हो गए।" परंतु वर्तमान यहीं और भी है । लंबे बालों वाली खूबसूरत मेहमान लड़की और उसका लंबा व सुंदर भाई जिसने पहली बार धोती-कुर्ता पहना है ,खादी ग्रामोद्योग भंडार में कताई कर रही महिला, छोटी और बड़ी लड़कियां वर्तमान की अभिव्यक्ति है ।
पानीपत की पहचान प्रारंभ से ही रूहानी ज्ञान (इल्मो इरशाद) में अग्रणी रही है। इस बार इसने साबित कर दिया है कि अभी रास्ता है, आपसी द्वेष तथा नफरत को समाप्त करने का। जब एक छोटे शहर के लोग एकजुट होकर 50 सालों के बाद, अपने पवित्र तथा सादगी भरे इंसानी रिश्तो के संबंधों के सेतु बना सकते हैं तो दोनों देशों के नेता इससे सबक क्यों नहीं लेते। बिना किसी दांव -पेंच व खेल के पानीपत के लोगों ने एक पहल की है । पुराने पानीपती लंबे रास्ते पर चलकर अपनी मिट्टी पर पुनः मिले हैं। उन्होंने एक- दूसरे को यहां पाया है और इसे पाने का आनंद लिया, जहां द्वेष का कोई स्थान नहीं है।
पानीपत का एक जानकारीनामा लीजिए तो पाएंगे कि सैकड़ों की तादाद में पानीपती भारत व पाकिस्तान में है, जैसे कि ग़ालिब ने फरमाया है -
गो वां नहीं पेह वान से निकले हुए तो है
काबे से भी इन बूतों को भी निस्बत है दूर की।
-डॉ सईदा हमीद
: पानीपत से लाहौर
भारत व पकिस्तान के शासकों के बीच चाहे जितना भी तनावपूर्ण युद्धोन्मादी माहौल हो,बेशक पूरी दुनिया में उन दोनों की पहचान दुश्मनों के रूप में हो,पर इंसानी रिश्ते जो प्यार, मोहब्बत व
भाईचारे से सराबोर है, एक दूसरा ही नजारा पेश करते हैं , जिसकी एक मिसाल हमारी 6 से 12 अक्टूबर 1998 को संपन्न हुई लाहौर यात्रा है । प्रसंगवश एसोसिएशन ऑफ पीपुल ऑफ एशिया के निमंत्रण पर इसी साल मार्च में पाकिस्तान में बसे पानीपतियों का एक प्रतिनिधिमंडल अपने चार दिवसीय दौरे पर अपने तथा अपने पूर्वजों के जाने के 50 वर्ष बाद पानीपत आया था । इसमें सभी आयु वर्ग के पुरुष और महिलाएं थीं। अपनी वापसी पर प्रतिनिधिमंडल के सदस्य अपने बाबा- ए- शहर पानीपत के लोगों की मेजबानी से बेहद बाग-बाग तथा भावुक थे कि अविरल अश्रु धारा के बीच दोहरा रहे थे कि कभी पाकिस्तान आकर उन्हें भी खिदमत का मौका दें। श्री अब्दुर रब अपनी बेटियों, दामाद, नाती तथा नातिनों सहित पूरे परिवार के साथ आये थे। उनके एक दामाद श्री आबिद आरिफ नौमानी, प्रसिद्ध सूफी संत बू अली शाह कलंदर के वर्तमान सज्जादानशीं है तथा अब वे लाहौर में आबाद है । उनकी होनहार बेटी आयु में सबसे छोटी होते हुए भी प्रतिनिधिमंडल की अग्रणी थी। उसके नाना अब्बासी, पानीपत के मशहूर शायर श्री शगुनचंद रोशन के दोस्त थे व श्री रोशन ने अपने इस दोस्त को 1947 में पाकिस्तान जाने पर जो जुदाई नज़्म भेजी थी, उसे बेटी असमारा याद करके आई थी, जिसे अपनी सुरीली आवाज में गाकर पानीपत में लोकप्रियता अर्जित की थी। अपने प्रवास के दौरान प्रतिनिधिमंडल की इतनी धूम थी कि वह यहां पूरी तरह रच बस गया था। पानीपत के वर्तमान नागरिकों को उन्होंने इस अंदाज से पाकिस्तान की दावत दी थी कि हर कोई वहां जाना चाहता था। नौमानी परिवार का सभी से आग्रह था कि अक्टूबर में असमारा की शादी है, उसमें जरूर आना। इस दौरान आपस में पत्र व्यवहार व टेलीफोन के जरिए संपर्क जारी रहा और मोजू यही था, भाईचारे के आपसी रिश्ते तथा असमारा की शादी में आने का निमंत्रण। असमारा से जब भी बात होती वह कहती , 'मामू मेरी शादी में जरूर आना, अगर नहीं आए तो शादी नहीं करूंगी।' आसमारा की मां जुबेदा पानीपत की बेटी थी व पुरानी शहरी परंपरा के अनुसार वह हमारी बहन थी। हमारा भी जवाब होता, जरूर आएंगे। भारत और पाकिस्तान में परमाणु परीक्षणों के बाद दोनों देशों के राजनीतिक रिश्तों व सीमा पर तनाव था। भाईचारे के इंसानी रिश्ते सहम गए थे कि कहीं इन्हें अन्यथा न लिया जाए । पर तभी लाहौर से जुबेदा बहन का खत आया, जिसमें लिखा था, 'भाई चाहे कितने परीक्षण हो अथवा मिसाइलें तैयार हों, पर याद रखना मेरे भाई, जब मैं हूं तुम्हारा कोई कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता। यह एक ऐसी अभिव्यक्ति थी , जिसने विचार को दृढ़ता प्रदान की और होने लगी जाने की तैयारी और आखिरकार चिट्ठी आ गई कि शादी 9अक्टूबर की है, आना है जरुर। इस बार का सफर ट्रेन का था। ट्रेन हफ्ते में दो दिन यानी बुधवार व रविवार को ही आती-जाती है। परमात्मा की कृपा भी देखिए कि शादी के ठीक एक दिन पहले 8 तारीख को ट्रेन लाहौर पहुंचेगी और शादी की तमाम रस्में निबटते हुए 12 तारीख को वापस आएगी। ऐसा लगता था कि जैसे सब कुछ तय होकर ही व्यवस्था की गई हो।
अटारी रेलवे स्टेशन से गाड़ी समझौता एक्सप्रेस शाम 6:30 बजे चलकर कुल 20 मिनट में ही बाघा स्टेशन जो पाकिस्तान का प्रवेश स्टेशन है, पर पहुंची और फिर शुरु हो गई कस्टम,इमीग्रेशन व अन्य कार्यवाही। यात्रियों में उत्सुकता थी, हमारी यात्रा के उद्देश्य को जानने के बारे में और इंटेलीजेंस के लोग परेशान व शंकित थे कि हमारे लाहौर जाने का मकसद मात्र शादी में शरीक होना है। वे इस वजह से भी हैरान थे कि हिंदू होकर एक मुस्लिम भांजी की शादी में शामिल होने के लिए हम जा रहे हैं। इंटेलिजेंस वालों को अपनी आदत के मुताबिक हमारी बात पर यकीन कुछ कम था और वे हमसे कुरेद कर कुछ ऐसा निकालना चाहते थे जिससे उनका मकसद हल हो, पर हम तो सहज भाव से शादी में शिरकत को ही जा रहे थे। आखिरकार अटारी से लाहौर तक का कुल 25-30 किलोमीटर का सफर 4:30 घंटे में तय करके लाहौर पहुंचे। जहां हमारी आगवानी में मेजबान घर से लोग आए हुए थे। हम बेशक थके थे, बेवजह के सवालों से मन बोझिल था, गर्मी में पसीने की वजह से बेहाल थे, फिर भी हमें सीधा वहां ले जाया गया, जहां शादी की एक खास रस्म मेहंदी चल रही थी। हमारा मुस्लिम शादी में शामिल होने का पहला मौका था। जुबेदा बहन व अन्य पारिवारिक लोग अपनी तमाम व्यस्तततों के बावजूद हमारी आगवानी में ऐसी आये जैसे जिन मुख्य अतिथियों का उन्हें इंतजार था , वे आ पहुंचे। एक -एक रिश्तेदार से ऐसे मिलवाया गया, मानो हम भी उन्हीं के अंग हों और सचमुच मन का मलाल,तन की थकावट, व बदहाली इस प्यार भरी स्वागत से बिल्कुल धुल गई। कार्यक्रम लगभग रात 12:30 बजे खत्म हुआ, तब घर पहुंचे और वहीं भांजी असमारा मिली और मामू से लिपट गई। क्षण भावुक थे, जिनका बयान शब्दों में तो बिल्कुल ही मुमकिन नहीं है। अगले दिन पहला काम था पुलिस में अपने आप की रिपोर्टिंग का। हम लोग अपने मेजबान आबिद मियां के साथ एसपी ऑफिस में पहुंचे । वहां काम रुका मात्र इसलिए कि फोर्मों पर दो फोटो चाहिए थे, जो हमारे पास नहीं थे। ऑफिस के सामने ही सड़क पर पुराने किस्म का डिब्बानुमा कैमरा लेकर फोटोग्राफर बैठा था। ऐसे कैमरे पहले हमारे पुराने शहरों व कस्बों में हुआ करते थे, उनको अभी भी वहाँ पाकर अचरज व खुशी हुई। फोटो खिंचवाने के बाद फोटोग्राफर ने 15- 20 मिनट का समय उसकी धुलाई के लिये मांगा । इन्तजार के इन्हीं क्षणों में मेरी नज़र ऑफिस के सामने ही बड़ी बिल्डिंग की दीवार, जिस पर हिंदी में दयानंद एंग्लो वैदिक कॉलेज लाहौर ,खुदा था, पर पड़ी। बाखुद आर्य समाजी होने के नाते मेरी आस्था जाग गई और मैं कॉलेज भवन के अंदर चला गया। कॉलेज के मुख्य हाल के बाहर पत्थर पर हिंदी में खुदा बोर्ड था, जिसमें लाजपत राय व आर्य समाज के नेताओं के नाम खुदे थे। उस सूची में उन लोगों के नाम भी थे, जिन्होंने कॉलेज के निर्माण के समय 5 सहस्त्र रुपया दान में दिया था। दान में दिया पैसा व्यर्थ नहीं जाता। दानदाताओं में रोहतक के लाला रामरतन अग्रवाल का नाम भी शामिल था। कॉलेज मे चक्कर लगाने पर स्वामी श्रद्धानंद, लाला लाजपत राय, महात्मा आनंद स्वामी, महात्मा हंसराज ,महाशय कृष्ण, स्वामी सत्यानंद व पंडित जगदेव सिंह सिद्धांती सरीखे महापुरुषों का स्मरण सहज में हो गया । शहीद- ए- आजम भगत सिंह जैसे क्रांतिकारी बलिदानी जिन्होंने इसी कॉलेज में शिक्षा प्राप्त की थी, का स्मरण सौभाग्य से अनायास ही हो गया। उस दिन जुमां ( शुक्रवार) का दिन था और नमाज का वक्त हो रहा था। मेजबान आबिद मियां को जुमे की नमाज पढ़नी थी। अतः उन्होंने एक ऐसी मस्जिद के सामने कार खड़ी , जिसके पास ही एक बड़ा ही खूबसूरत बाजार था । उन्होंने कहा कि जितनी देर में हम नमाज पढ़े, आप लोग सामने वाले बाजार अनारकली में घूम आएं। हमारे खुशी का ठिकाना न रहा। पूरे बाजार में सरसरी ढंग से घूमने में डेढ़ घंटा कैसे चला गया, इसका पता ही नहीं चला। बाजार के बीच ऊंची- ऊंची बिल्डिंग पर जियाराम बिल्डिंग आज भी बदस्तूर लिखा था। चहल-पहल उतनी ही थी, जिसका जिक्र अक्सर बड़े- बुजुर्ग किया करते थे। शाम होने को आई थी ।रात को उस कार्यक्रम में शामिल होना था , जिसमें शिरकत के लिए हम लाहौर आए थे।
[5/25, 12:08 PM] Sunita Anand: लाहौर के आलीशान होटल आवरी में शादी का कार्यक्रम था। यहां इस बात को बताना जरूरी है कि पंजाब पाकिस्तान सरकार ने एक कानून बनाकर विवाह- शादियों में फिजूलखर्ची को रोकने के लिए खाने की दावतों पर सख्ती से रोक लगा रखी है, जो वास्तव में काबिले- तारीफ है। अब दावतों में भाग लेने वालों को खाना घर से खाकर आने में ही संतोष करना पड़ता है। क्योंकि विवाह पार्टी में सिर्फ कोल्ड ड्रिंकस ही मिलेंगी। भांजी असमारा की शादी के समारोह में लाहौर में बसे लगभग हर तबके के भूतपूर्व पानीपती जमा थे। वहां उन सभी से मिलने का अवसर मिल गया। शादी में हमें सबसे पहली पंक्ति में बिठाया गया था व सभी से हम हिंदुस्तानियों का परिचय करवाया जा रहा था। शादी में लंदन से एक अन्य महिला भी शामिल थी, जो बीबीसी के लिए पाकिस्तानी शादी का फीचर्स तैयार कर रही थी। उसने मुझसे पूछा कि क्या मैं दुल्हन की मां का सगा भाई हूँ या चचाजाद भाई? जब उन्हें पता चला कि मैं तो भारत से आया हूं और एक हिंदू हूं और जो खास इस शादी में ही शरीक होने आया हूं तो उसे बड़ा आश्चर्य हुआ कि अभी इंसानी रिश्ते किन्हीं अन्य रिश्तो से बढ़कर है। असमारा निकाह के मौके पर पानीपत से ले जाई गई सुहाग की चूड़ियों को विशेष तौर से पहने थी।दूल्हा मियां मसूत व दुल्हन असमारा दोनों खास राजस्थानी ड्रेस पहने हुए थे। लड़की लहंगा, चोली व चुनरी तथा लड़का चूड़ीदार पायजामा , सिर पर परंपरागत राजस्थानी पगड़ी, गले में गुलाब के फूलों की सुंदर मालाएं राधाकृष्ण के स्वरूप को याद करा रही थी और ऐसा लग रहा था मानो शादी लाहौर में न होकर जयपुर में हो रही हो। निकाह की रस्म खत्म होने के बाद रुखसती (विदाई) के क्षण आ गए ।यद्यपि मुझे दुल्हन पक्ष के साथ ज्यादा रहने का मौका न मिला था फिर भी विदाई ऐसी घड़ी थी, मानो मेरी खुद की बेटी की विदाई हो रही हो।
शनिवार 10 अक्टूबर घुमाई का दिन था। घर से निकलते निकलते 12 बज गए। आज का लंच श्री अब्दुर रब अब्बासी के घर था। खाने का समय 2 बजे तय था। सोचा पहले कुछ देर थोड़ा घूम लिया जाए। सबसे पहले हम शालीमार बाग गए, जो बादशाह शाहजहां ने बनवाया था। बाग का ऐतिहासिक महत्व बहुत अधिक है, परंतु रखरखाव में उपेक्षा होने की वजह से वीरान है। सुनने में आया कि बाग का मुकाबला श्रीनगर के निशात बाग से है। बाग से निकलने के बाद लाहौर किला देखने गए यद्यपि इसके किले का संबंध लाहौर की स्थापना के समय से ही है और इसका नाम भगवान राम के पुत्र लव के नाम से जुड़ा है फिर भी मुगल बादशाहों, सिख राजा रंजीत सिंह अंग्रेजों का भी इसके निर्माण में योगदान रहा है। महाराजा रंजीत सिंह का महल आज भी दर्शनीय है। उन्ही से संबंधित काफी चीजें म्यूजियम में सुरक्षित है। किले के बिल्कुल सामने ही श्री गुरु अर्जुन देव महाराज जी की स्मृति में गुरुद्वारा है तथा उसी गुरुद्वारे के एक हिस्से में महाराजा रणजीत सिंह की समाधि है । गुरुद्वारा में पाकिस्तानी मुसलमानों का प्रवेश निषेध है व हमें भी अपना पासपोर्ट प्रवेश द्वार पर जमा करवा कर ही जाने दिया गया। किले के एक तरफ सामने मिंटो पार्क है, जहां मीनारे- पाकिस्तान स्थित है। हम भारतीयों के लिए इसका ऐतिहासिक महत्व है। रावी नदी अब 5 किलोमीटर दूर चली गई है। पर 1931 में जब कांग्रेस का महाधिवेशन पंडित जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में लाहौर में हुआ, तब नदी पार्क के साथ ही बहती थी और इसी स्थान पर 26 जनवरी 1931 को कांग्रेस ने पूर्ण स्वराज की मांग की थी ।
शाम घिरने लगी , फिर हमें अब्बासी साहब के यहां लंच पर भी तो जाना था। हम पुराने लाहौर की भीड़-भाड़ वाली तंग सड़कों से गुजरते हुए लंच के लिए पहुंचे, जहां हमारा बेसब्री से इंतजार हो रहा था। जब घड़ी की ओर ध्यान दिया तो शाम के 4:30 बज चुके थे, पर मेजबान खुश थे कि देर आयद दुरुस्त आयद । रात को वर पक्ष की ओर से वलीमा (स्वागत )कार्यक्रम एक आलीशान होटल में था। समारोह में ऑर्केस्ट्रा पार्टी भारतीय फिल्मी गानों की धुन बजा रहे थे। किसी ने मेरे कान के पास कहा कि सुनने हैं भारतीय गाने, देखनी हैं भारतीय फिल्में और फिर झगड़ा भी करना है तो भारत से ।पर सच्चाई बिल्कुल विपरीत है।पाकिस्तानी लोगों को तो भारतीय जनता से कोई वैर- विरोध नहीं है । ये झगड़े तो निरे सियासी हैं।
रविवार का दिन छुट्टी का दिन था और जब वापसी का बुखार भी शुरू हो गया था ।जुबेदा बहन की चारों और बहनें है। उन सभी का आग्रह था कि हम उनके घर भी आएं। यह दिन उसी के लिए रखा गया। शाम को घर पर चौथी की रस्म थी। उस दिन वर पक्ष के लोग कन्या पक्ष के घर दोबारा आते हैं। दूल्हा- दुल्हन फूलों की छड़ों से एक-दूसरे के साथ खेलते हैं और इसके बाद दोनों पक्ष प्यार से फूलों से मारामारी करते हैं। बेहद खुशनुमा माहौल था, ऐसा अल्हड़पन जैसा होली पर भारत में हम अक्सर देखते हैं। रात ज्यादा हो चुकी थी, असमारा विदाई के समय बार-बार दीदी निर्मला देशपांडे जी को शुक्रिया अदा कर रही थी ,जिनकी वजह से उसका मामू उसकी शादी में शामिल होने में समर्थ हो सका। दीदी ने उसे जिनेवा से लाई एक हाथ घड़ी भी भेजी थी, जिस पर भी वह आभारी थी ।लाहौर की जनता ने सर गंगाराम अस्पताल व गुलाब देवी हस्पताल के नामों की सुरक्षा प्रशासन से काफी संघर्ष करके की है। इसी तरह से सरदार दयाल सिंह लाइब्रेरी पुराने लाहौर में अपनी शान से स्थित है। अयोध्या में बाबरी मस्जिद गिराने के बाद, लाहौर में हिंदू व जैन मंदिर उन्मादियों के शिकार अवश्य हुए हैं । अगले दिन 12 तारीख को लाहौर रेलवे स्टेशन पर हमारी विदाई के लिए हमारे मेजबान आबिद नौमानी, बुजुर्ग अब्दुर रब अब्बासी, बहन सायरा व उसके पति हैदर आए थे। आबिद की आंखों से अश्रुधारा रुक नहीं रही थी और बड़े मियां पानीपत के एक- एक आदमी का नाम लेकर सलाम भेज रहे थे, वे भावुक हो उठे थे। हमारी आंखें भी छ्लछला रही थीं। अपने बहन, भाइयों से रुखसत होते हुए अक्सर ऐसा होता है, पर इस बात का सुकून था कि वायदे के मुताबिक मामू अपनी भांजी की शादी में शामिल हुए जरूर।
( नित्य नूतन पत्रिका के 1 नवंबर 1998 के अंक में प्रकाशित)
[: वजीरे आजम की यात्रा के बाद
भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की गत दिवस लाहौर बस यात्रा के बाद 27- 28 फरवरी, 1999 को कराची में संपन्न हुए पाकिस्तान शांति सम्मेलन में भाग लेने के लिए अखिल भारतीय रचनात्मक समाज की अध्यक्ष व संत विनोबा की मानस पुत्री सांसद निर्मला देशपांडे के नेतृत्व में प्रतिनिधिमंडल की संभवत: पहली यात्रा होगी , जिसे पाकिस्तान में आम लोगों से मिलते हुए कराची में जाने का मौका मिला। यह प्रतिनिधिमंडल एसोसिएशन ऑफ पीपुल्स ऑफ एशिया का था, जिसमें दीदी के साथ युवा सांसद मो. सलीम, शिक्षाविद प्रो. इम्तियाज अहमद, सहारनपुर के विधायक श्री संजय गर्ग और मोगा के प्रसिद्ध चिकित्सक डॉ. पवन थापर के अतिरिक्त मुझे भी शामिल होने का मौका मिला। अन्य भारतीय लोगों में राष्ट्रीय महिला आयोग की सदस्य श्रीमती सईदा हमीद व मानवाधिकार अग्रणी कार्यकर्ता प्रो. रजनी कोठारी आदि कुल 20 सदस्य थे।
कराची के कायदे आजम एयरपोर्ट के बाहर निकलते ही हम जिस गाड़ी में बैठकर होटल की ओर जा रहे थे, उसमें हमें लिवाने आये सज्जन का परिचय प्राप्त करने के पश्चात उनका पहला ही प्रश्न था कि अटल बिहारी वाजपेयी की यात्रा का हिंदुस्तान की जनता पर क्या असर है? और यह सवाल हमारे छह दिन के कराची व लाहौर प्रवास के दौरान छाया रहा । चाहे आपस में प्रतिनिधियों की वार्ता हो अथवा बाजार में खरीदारी करते हुए दुकानदार या किसी आम शहरी से बातचीत, वह इसका असर जानने का इच्छुक था। इसके विपरीत हमारा सवाल भी यही था कि पाकिस्तान में इसका असर क्या था? जवाब दोनो तरफ एक ही था कि इंशा अल्लाह सफर परवान चढे।
सबसे पहले मैं अगस्त 1997 में एक प्रतिनिधिमंडल में कराची गया था। उस यात्रा के भी मेरे अनुभव बहुत गहरे थे।
आम जनता में हिंदुस्तान के साथ संबंध सुधारने की बेहद तमन्ना नजर आई थी। जहां कहीं भी हिंदुस्तानी क कहकर परिचय करवाने का मौका मिला, वहीं इज्जत और प्यार पाया ।उस समय हम गांधी की आत्मकथा के उर्दू अनुवाद की लगभग 50 प्रतियां लेकर गए थे, जो हाथों- हाथ लोगों ने ले लीं व उसकी ओर प्रतियां भेजने की फरमाइश भी की । प्यार और सम्मान की एक मिसाल एक दुकान पर भी देखने को मिली। मैं अपने एक पाकिस्तान दोस्त के साथ पठानी मर्दाना सूट लेने के लिए गया। वहां दुकानदार ने मेरे पसंद के सूट की कीमत 400 रुपये बताई । मैंने उससे कहा कि सूट काफी दूर जाना है, कुछ तो कीमत कम करो। उसने सूट की कीमत कम करने से मना कर दिया और कहा, कीमत तो यही लगेगी, दूर से दूर लाहौर ही तो जाना होगा जब मैंने उसे बताया कि पानीपत (भारत) में जाना है तो उसने मुझ से हाथ मिला कर एकदम सूट की कीमत 50 रुपये घटा दी। ऐसी ही अनेक मिसालें उस समय रहीं, जो एक प्रेरणादायक संस्मरण बनकर रह गई है। उसके बाद हमारी पहली यात्रा के रिसपांस में हबीब पब्लिक स्कूल कराची से छात्रों की एक हाकी टीम भारत आई। इसके बाद पाकिस्तान में विभिन्न क्षेत्रों से आए पूर्व पानीपतियों का एक 22 सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल पानीपत आया। एक अजब फिज़ा बनने लगी थी। हॉकी टीम के 16 वर्षीय सदस्य शहजाद अथर से जब जी टीवी पर उनके आने के मकसद के बारे में पूछा गया तो उसने अपने जवाब से सभी को अभिभूत कर दिया कि वह मैच जीतने नहीं बल्कि दिलों को जीतने आए हैं।
: उसके बाद पहले भारत में और उसके बाद पाकिस्तान में न्यूक्लियर टेस्ट हुए। हवाओं का रुख उल्टा बहने लगा।लगने लगा मानो जंग शुरू हो गई हो।दोनों और के जिम्मेदार नेताओं के ऐसे-ऐसे बयान सामने आने लगे मानो वे किसी सभ्य देश के राजनेता ना होकर किसी अखाड़े के पहलवान हों, जो अपने- अपने वजन के मुताबिक अपने मुखालिफों को चुनौती दे रहे हों। ऐसे ही हालात में मुझे अक्टूबर 1998 में अपनी मुंहबोली भांजी की शादी में शामिल होने के लिए जाना पड़ा।ऐसे माहौल में खुल कर बोलना किसी आफत को दावत देना था। यात्रा का मकसद साफ होते हुए भी शंकाओं के घेरे में था। सिर्फ हमें ही नहीं, अपितु मेजबान को भी शंकाओं वजह से बेवजह परेशानियों का सामना करना पड़ा। पुलिस रिपोर्टिंग के नाम पर जिस स्थिति को झेलना पड़ा,वह नाकाबिले बर्दाश्त थी। इसमें किसी का भी कसूर न था। हालात ही ऐसे थे। प्राय: लोग पूछते थे कि गांधी के देश को क्या हो गया है? जवाब कुछ भी न था, जिसके त्रासदी दोनों देशों की मासूम जनता को भुगतनी पड़ी।
और फिर अवसर आया जब पकिस्तान शांति सम्मेलन में भाग लेने का अवसर मिला। अब हवाएं फिर सीधी चलने लगी थीं। लोगों से बातचीत करने पर एक ही निष्कर्ष निकलता था कि हिंदुस्तान की जनता दो चीजें तो कतई नहीं चाहती और इसके लिए उनका हुक्मरानों (शासकों) पर बेहद दबाव है ,एक पाकिस्तान के साथ जंग, दूसरी हिंदुस्तान में चुनाव।
दूसरी किन्हीं बातों को रखने से पूर्व मै शांति सम्मेलन के बारे में चर्चा करना चाहूंगा। सम्मेलन कराची के बीचोंबीच स्थित मेट्रोपोल होटल में 27 फरवरी 1999 को प्रात: प्रारंभ हुआ। सम्मेलन की अध्यक्षता प्रो. हारून अहमद ने की। सम्मेलन का आगाज प्रसिद्ध पाकिस्तानी शायर शाह लतीफ़ मिटठाई की नजम सुश्री जरीना बलूच व भारतीय कवि फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की नज़्म खालिद अहमद ने सुनाकर किया। स्थानीय संस्था पाइलर के सचिव श्री बीएम कुट्टी के स्वागत भाषण के उपरांत प्रसिद्ध विद्वान श्री आईएम रहमान ने अपना मुख्य भाषण दिया। भारतीय प्रतिनिधिमंडल की नेता दीदी निर्मला देशपांडे के व्याख्यान को प्रसिद्ध जनसमूह ने काफी सराहा, जिसमें उन्होंने कहा कि गांधीजी का हिंसा का रास्ता ही एकमात्र उपाय है, जिससे अंदरूनी समस्याओं का निदान ही नहीं ,अपितु विश्व शांति भी संभव है, का लोगों ने हर्ष ध्वनि से स्वागत किया। तत्पश्चात पूरे सम्मेलन में भाग ले रहे लगभग 600 प्रतिनिधियों को 10 वैचारिक ग्रुपों में बांट दिया, जिनकी विषय वस्तु (1). सुरक्षा में निरस्त्रीकरण (2). दो युद्ध और शांति का अर्थशास्त्र (3). पत्रकारिता में शांति की राजनीति (4) कला, संस्कृति और शांति (5). महिलाएं व सैन्यीकरन (6). शांति की वकालत (7). शांति की शिक्षा (8). स्थानीय विवाद के मुद्दे (9). उत्तर की भूमिका व अंतरराष्ट्रीय शांति आंदोलन (10).मजदूर आंदोलन में शांति की राजनीति,थी। प्रतिनिधियों ने अपनी अपनी पसंद के ग्रुपों का चयन किया और फिर विचार मंथन में खुलकर भाग लिया। मुद्दा एक ही था कि दोनों देशों की जनता के बीच दोस्ती को कैसे संभव बनाया जाए। कहीं शोर था कि सांस्कृतिक कार्यक्रमों और कला का आदान-प्रदान तुरंत शुरू किया जाए । लोगों की एक ही राय थी कि जब दोनों देशों में भूख, बेकारी, महंगाई , बीमारी और गरीबी आदि समस्याएं हैं तो फिर उनके खिलाफ लड़ाई के बजाय आपस में लड़ाई कैसी? सभी गंभीर थे कि बच्चों के पालन-पोषण व शिक्षा पर खर्च बढ़ाने की बजाय रक्षा खर्चों को क्यों बढ़ाया जा रहा है? सभी चिंतित थे क्यों दोनों देशों में एक-दूसरे की घुसपैठ को बढ़ावा देने की कार्यवाहियों से आतंकवाद पनपकर मानवता की हत्या करने को आमादा है । नतीजा एक ही था कि क्यों न बच्चों, महिलाओं, आम नागरिकों, वृद्धों व मजदूरों द्वारा झझती समस्याओं के लिए एकजुट होकर मुकाबला करें । पाकिस्तान के पूर्व वित्त मंत्री व भारत-पाक दोस्ती के पक्के हिमायती डॉ मुबस्सर हसन ने अपनी ओजस्वी तकरीर में लोगों को आह्वान किया कि वे आगे आकर दुश्मनी की जंजीरों को तोड़ कर दोस्ती के बंधन में बंध जाएं। पूरे सम्मेलन में एक अजीब माहौल था। चारों तरफ नफरत व दुश्मनी की नापाक दीवार जर्जर
हालत में खड़ी दिखाई दे रही थी , इसे बस एक धक्का लगाने की जरूरत थी।
[हमारी पहली दो यात्राओं में हमने मात्र भारत से पाकिस्तान में बसे भाइयों से मुलाकात का मौका मिला था, जिन्हें पाकिस्तान में मुहाजिर कहकर संबोधित किया जाता है। आम भारतीय जानकार लोगों का कहना था कि चूंकि मुहाजिर पाकिस्तान में शोषित है, अतः वे भारत से दोस्ती चाहते हैं। आम लोगों के विचार भारत विरोधी हैं। हम भी स्वयं मे यह शंका पाले थे कि शायद मुहाजिरों के अतिरिक्त पाकिस्तानियों में भारत विरोधी भावना है, परंतु यह सम्मेलन जो सचमुच में लघु भारतीय उपमहाद्वीप था ,ने इन सभी शंकाओं का निवारण कर दिया। इस सम्मेलन में पंजाबी, सिंधी, बलूच , पख्तून और उर्दू मुहाजिर सभी बड़ी तादाद में थे और तो और पाकिस्तान में बसे हिंदुओं के प्रतिनिधि भी शामिल थे ,से इस दौरान चर्चा का अवसर मिला। एक ने कश्मीर का मुद्दा उठाने की कोशिश की तो तभी एक बलूच भाई ने बड़े जोर से आवाज लगाई पहले सिंधी,बलूच ,पख्तून कोमौं से ताल्लुक रखने वाले लोगों से फैसला करो । सिन्धी साथियों ने सम्मेलन में भी व व्यक्तिगत चर्चा में भी बार-बार कहा कि उनका रवैया न तो बंटवारे से पहले और न ही बाद में भारत विरोधी रहा है । वे हमेशा भारत से दोस्ती के हामी रहे हैं। ब्लूचिस्तान से आई एक बहन 'चागाई रिपोर्ट' के नाम से एक पुस्तक बांट रही थी, जिसमें जहां एक और वहां, स्थानीय लोगों तथा सरकार की बिना किसी अनुमति से परमाणु परीक्षणों की निंदा की गई थी वही , एक निष्पक्ष मानवाधिकार टीम को भेजने की मांग की थी, जो परीक्षण के बाद लोगों की जान-माल के नुकसान का अंदाजा लगा सके। उसी तरह भारतीय युवा प्रतिनिधि अपने यहां के परीक्षणों के विरुद्ध 'पोखरण से सारनाथ' पदयात्रा का विचार कर रहे थे। दोनों देशों के शांति समर्थक व युद्ध विरोधी लोग अपने -अपने देश में शांति के लिए किए जा रहे कार्यों की जानकारी दे रहे थे। इस बीच सिन्ध से आए कलाकारों ने जो केसरिया लिबास में थे, ने लोकगीतों को गाना शुरू कर दिया। बोल होली के रंगों व खुशी से सराबोर थे। ऐसी फिजा बनी कि भारत और पाकिस्तान के 50 युवक उन गीतों पर नाचना शुरू हो गए। प्रसिद्ध लोक नर्तकी व कलाकार शीमा किरमानी ने खुद नाचते- नाचते दीदी निर्मला जी को भी अपने साथ उठा लिया और वे भी होली के इस माहौल में नाचने लगी। फिर तो कोई ऐसा नहीं था जिसने अपने पावों को नाचने से रोका हो। लोक गायक भी एक के बाद एक होली के गीत गा रहे थे। इसी दौरान स्थानीय हिंदू पंचायत के मंत्री श्री टीएस खेतपाल व अन्य साथियों ने भारतीयों को अपने यहां मंदिर में होली उत्सव में शामिल होने का निमंत्रण दिया, जिसे सभी ने स्वीकार कर लिया। शाम को सम्मेलन की समाप्ति पर उनके दो साथियों द्वारा गुरु रविंद्रनाथ टैगोर के एक गीत पर एक नृत्य नाटिका प्रस्तुत की, जिसमें महात्मा गांधी के प्रिय भजन' रघुपति राघव राजा राम, ईश्वर अल्लाह तेरो नाम' का भी समावेश किया गया था। सचमुच एक भावपूर्ण प्रस्तुति थी, जिसकी सभी ने सराहना की। रात को कराची की सड़कों पर सम्मेलन में भाग लेने वाले लोगों ने मशाल जुलूस निकाला। लोग युद्ध व हथियारों की दौड़ के विरोध में अपने-अपने हाथ में मशाल तथा सफेद झंडे लिए हुए थे । जुलूस में तब गर्मजोशी आ गई, जब भारतीय युवा सांसद मो. सलीम ने युवकों का एक समूह बनाकर नारे लगवाने शुरू कर दिए। नारे युद्ध के खिलाफ और शांति के हक में थे, जिनकी समाप्ति पर प्रत्युत्तर था 'हम एक हैं, हम एक हैं' युवाओं द्वारा सामूहिक रूप से एक स्वर में 'हम होंगे कामयाब' गाना व फिर यूथ इंटरनेशनल का गाना सचमुच भावपूर्ण था। वातावरण ऐसा था कि कोई नहीं चाहता था कि सम्मेलन इतनी जल्दी विराम ले पर समय की परिधि भी तो होती है।
[: अगले दिन होली का दिन था। सम्मेलन की समाप्ति के बाद वह एक ऐसा दिन था ,जब हम फ्री थे। बाजार जा कर खरीदारी करने तथा घूमने फिरने के लिए। पर हमारी दिलचस्पी लोगों से बातचीत करने तथा जानकारी प्राप्त करने की थी। सबकी एक ही तमन्ना थी कि जब जर्मनी की दीवार टूट सकती है तो हम क्या दोस्त भी नहीं बन सकते? जवाब वक्त का इंतजार कर रहा था। एक मार्च होली के दिन हम हिंदू मंदिर में हिंदू पंचायत के निमंत्रण पर होली मनाने के लिए पहुंचे। फरहत अली व उसका परिवार भी इस मंजर को देखने के लिए हमारे साथ गया था। मंदिर के मुख्य प्रांगण में सैकड़ों की संख्या में लोग होलिका दहन को देख रहे थे । हमें देख कर वे ऐसे टूट पड़े मानों जिनका इंतजार था, वे आ पहुंचे और उन्होंने हमें लाल- हरे रंगों में रंग दिया। ऐसा महसूस ही नहीं हुआ कि हम पानीपत या दिल्ली के किसी मंदिर में है अथवा पाकिस्तान के किसी हिस्से में। बाद में उन्होंने बताया कि कराची शहर में लगभग सवा लाख हिंदू बसे हैं। जिनमें से काफी व्यापारी हैं। अन्य जहां- जहां भी है, प्रतिष्ठित स्थानों पर है। हिंदू महिलाएं अपनी परंपरागत वेशभूषा में मांग में सिंदूर भर के सुहाग के निशान लगाये मिलीं। इसी बीच डॉ जयपाल छिबरिया से भी मुलाकात हुई, उन्होंने बताया कि वर्तमान में सिन्ध हाईकोर्ट में एक हिंदू जज है। पंचायत की तरफ से एक यशोदा- कृष्ण का वर्ष 1999 का कैलेंडर भी दिया गया। जिसमें तमाम हिंदू त्योहारों का सविस्तार वर्णन किया गया है। सांसद मो. सलीम ने यह मुद्दा बार-बार उठाया कि शक्तिपीठ हिंगलाज जाने की भारतीय हिंदुओं को इजाजत मिलनी चाहिए। होली के इन्हीं रंगों से सराबोर होकर 12 बजे रात को रुखसत लेनी पड़ी। क्योंकि उसी रात लाहौर के लिए हवाई जहाज पकड़ना था।
अगले दिन सुबह 3 बजे हम लाहौर एयरपोर्ट पर पहुंचे। डॉ मुबारक और उनकी पत्नी हमारे स्वागत में खड़े थे। यद्यपि लाहौर मेरे लिए नया नहीं था, परंतु इस बार बसंती रंग में रंगे लाहौर का रूप ही न्यारा था। परीक्षणों के बाद के माहौल से इस बार की फिज़ा अलग थी। जहां पहली बार परीक्षणों से उत्पन्न हुई बदबू थी, वहां इस बार अटल- नवाज की मुलाकातों की खुशबू चारों तरफ बहार बिखेर रही थी। रात को बुजुर्ग अब्दुर रब अब्बासी ने अपने घर पर हमें दावत पर बुलाया। खाना खाकर हंसी- खुशी की बात चलने लगी तो उनकी छोटी बेटी बदर ने कहा कि आज तो होली है। सब ने एक- दूसरे को मुबारकबाद दी। फिर वह ही बोली, बिना रंग के होली कैसी? रंग तो था नहीं तो वह एक प्लेट में ढेर सारी हल्दी ले आई, जिस पर मैंने सब के माथे पर हल्दी का टीका करके होली की मुबारकबाद दी। बुजुर्ग ने हमें छाती से लगा लिया व बंटवारे से पहले की होली मिलन के कार्यक्रमों को याद कर भावुक हो गए। इस माहौल में हम भी खुश थे कि बहन- भाइयों से मिलकर होली मिलन का यह अद्भुत कार्यक्रम रचा गया। परमात्मा करे होली के ऐसे ही मिलन भारत और पाकिस्तान के राजनेताओं को भी गले लगा दे ताकि वे एक अच्छे पड़ोसी की तरह एक- दूसरे का ख्याल रखकर दुश्मनी को सदा- सदा के लिए भूल कर अपनी अपनी तरक्की में लग जाएं।
प्रधानमंत्री जी की यात्रा में उनके साथ गए एक पत्रकार ने भारत के एक समाचार पत्र में अपने एक लेख में लिखा कि यात्रा के विरोध में लाहौर के बाजार बंद रहे, व्यापक प्रदर्शन रहे व जब वे लाहौर किला देखने के लिए गए तो उनकी आंखों में जलन थी क्योंकि विरोधी प्रदर्शनकारियों पर अश्रुगैस के गोलों की चरचराहट वहां तक थी। इसके जवाब में लाहौरवासियों के जवाब बड़े बेबक थे कि किन्हीं हुड़दंगबाजो के हाथ अपनी जान- माल व दुकान छोड़ी नहीं जा सकती। मैत्री विरोधी लोगों की एक जमात न तो भारत में कम है न ही पाकिस्तान में, पर इन मुट्ठी भर लोगों से मुल्क की धारा को तो नहीं बदला जा सकता , पर अवाम दोस्ती व अमन चाहता है और यह होकर रहेगा। लोगों की साफ राय थी बस अब बहुत हो लिया, तीन-तीन लड़ाइयां हो चुकी, क्या हासिल हुआ- बर्बादी, बेहाली व गुरबत। लोगो को रोटी चाहिए ,बम नहीं। ऐसे ख्यालात सभी जगह सुनने को मिले। रोज रात को 4 बजे सुबह तक ऐसे ही मजमों में घिरे रहते। कई लोगों ने तो यहां तक कहा कि पहले हम दोनों मुल्कों ने कश्मीर को बर्बाद किया अब कश्मीर ने दोनों मुल्कों को तबाह कर दिया है। लोगों को यह बात समझ में आने लगी है कि दूसरे मुल्क अपनी दखलअंदाजी कर हमें लड़वाना चाहते हैं। क्योंकि सीधी बातचीत करके अपने मसले को हल कर लें ।अब लोगों में उम्मीद जागने लगी है। वे जनता के स्तर पर और ज्यादा मेलजोल पैदा कर अपनी समझ पैदा करना चाहते हैं। इसमें इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का बहुत बड़ा हाथ है। जी टीवी,जी इंडिया, दूरदर्शन, सोनी व स्टार प्लस पर हिंदी कार्यक्रम पूरे पाकिस्तान में छाए हैं। उन्हें हमारी जनता की ज्यादा जानकारी है। अटल जी, सोनिया जी, गुजराल साहब, लालू यादव व मुलायम सिंह के बारे में भी अपनी पसंद- नापसंद के कारण बेबाक ढंग से रखते हैं। भारतीय त्योहारों, पर्वों व परंपराओं की जानकारी अब उन्हें मिलने लगी है और लोग चाहते हैं कि सिंध की ओर से खोखराबाद का बार्डर खोला जाए । ज्यादा से ज्यादा लोग भारत आना चाहते हैं । उनकी मांग है कि कराची और लाहौर में पहले की तरह भारतीय हाई कमीशन के वीजा कार्यालय खुले ताकि लोगों को दिक्कत न हो । शिक्षाविद चाहते हैं कि पंजाब विश्वविद्यालय लाहौर में महात्मा गांधी पीठ की स्थापना हो और इसी तरह अलीगढ़ विश्वविद्यालय में कायदे आजम जिन्ना चेयर की स्थापना हो । अब लोग अति उत्साही हैं और चाहते हैं कि युवाओं व विद्यार्थियों के कैंप दोनों देशों के बॉर्डर के गांव में लगे, जहां नई पीढ़ी में दुश्मनी को जड़ से खत्म कर प्यार व मोहब्बत का पाठ पढ़ाया जाए। प्रधानमंत्री की यात्रा के बाद एक नई फ़िजा बनी है, जिसका श्रेय उन लोगों को ज्यादा है, जो विपरीत परिस्थितियों में भी दोस्ती की मशाल को उठाये रहें। लोगों की चाहत है कि अब कोई ऐसा काम न हो, जिससे पटरी पर बड़ी मुश्किल से आई गाड़ी कहीं फिर न उतर जाए। अब कमान राजनेताओं के हाथ में है वरना इतिहास माफ नहीं करेगा। कवयित्री अमृता प्रीतम का अहद- नामा सबको आवाज देता है
अमन वा अहे अहदनामा आओ दीना वालियो दस्तक करो ।
कागज है एक तकदीर दा ते कलम है तदबीर दी।
अज कलम विच अमल दी स्याही भरो दस्तक करो।
नफरत दी काली रात है, नफरत दी काली बात है। ठोकरां लगे अलम नू ठोकर न लगे कलम नू।
दिल दे चिराग बाल के साहमे धरो दस्तक करो। आओ के जिंदा महंगीया आओ के मोंता सस्तीयां।
आवो हुसन दे बंजारियों आवो हुनर दे बंजारियो। आज अपने-अपने इश्क नू जामन धरो दस्तक करो।
बरकत तेरी आवाज दी बरकत मेरी आवाज दी।
बिंदू- बिंदू जोड़ के सागर भरो दस्तक करो।
दुहां जहानियां वालियो दस्तक करो।
अमन दे इस अहदनामे ते दस्तक करो।
(नित्य नूतन पत्रिका के 16 से 31 मार्च 1999 के अंक में प्रकाशित)
[: पाकिस्तान का सफरनामा
पचास साल पहले की बात। देश का बंटवारा हो गया, दो आजाद देश अस्तित्व में आए, भारत और पाकिस्तान। महात्मा गांधी कहते रहे,' देश बांटो पर दिल न बंटे' दिलों को जोड़ रखने का सपना लेकर महात्मा ने योजना बनाई पाकिस्तान जाने की। मेरा ख्याल था कि वे दिल्ली से लाहौर जाने वाले थे, पर श्रीमती आभा गांधी ने बताया कि लाहौर नहीं कराची जाने का कार्यक्रम था, तैयारी के लिए। ... दुनिया जानती है कि वे कराची पहुंच न सके, दिल्ली में ही शहीद हो गए । जब हमारे पास पाकिस्तान का वीजा आया, केवल कराची जाने का, तो लाहौर न जाने का गम जरूर था, दिल में एक विचार बिजली की तरह चमक उठा, वे भी तो कराची जाने वाले थे । पचास साल बाद उनके छोटे सेवक जा रहे हैं, उन्हीं के नक्शे कदमों पर। और तभी से निरंतर अनुभव होता रहा कि बापू आगे- आगे चल रहे हैं और हम उनके पीछे हो लिए हैं।
जाने से पहले जब चर्चा चली की भेंट के, उपहार के तौर पर क्या साथ लिया जाए तो अब्दुल माबूद भाई ने कहा, 'बेहतरीन चीज होगी, गांधीजी की आत्मकथा जो उर्दू में "तलाशे हक" के नाम से छपी है। दूसरे ही दिन आनंद साहब (गांधी संग्रहालय के निदेशक) एक सभा के लिए पधारें तो उन्होंने बताया कि हमारे पुस्तक घर में वह किताब मिलेगी। साथियों को दौड़ाया तो सिर्फ दो प्रतियां ही प्राप्त हो सकीं। पता चला कि अहमदाबाद से प्राप्त हो सकती हैं। दिन बचे थे, केवल दो, वहां से मंगवाना असंभव था। पर माबूद भाई का इरादा पक्का था, उनके साथ आए एक सज्जन ने कहा कि वह दूसरे ही दिन अहमदाबाद जा रहे हैं, एक दिन के लिए और ठीक समय पर पचास प्रतियां पहुंचा दी। महात्मा का पैगाम पाकिस्तान पहुंच गया। "तलाशे हक" पाने के लिए वहां पर होड़ लगी।सारी प्रतियां देखते ही देखते उड़ गई। हम मन मसोस के रह गए कि और सौ प्रतियां लाते तो अच्छा होता। जिस श्रद्धा और आदर के साथ पाकिस्तान के बुद्धिजीवियों ने, प्रतिष्ठित सज्जनों ने गांधी की आत्मकथा को लिया ,उसे देख पूरा विश्वास हो गया कि बापू पाकिस्तान पहुंच चुके हैं। वरना हमारी क्या हैसियत थी कि हमारे विचारों को लोग प्रेम से सुनते ,पसंद करते और हम पर प्यार की वर्षा करते।छह अगस्त को, जिस दिन 1975 में जापान के हिरोशिमा पर पहला परमाणु बम गिराया गया था, हम कराची पहुंचे, अमन, दोस्ती और मोहब्बत का पैगाम लेकर। जाना तो हमें था बहुत पहले। पर कभी हमारे मेजबानों की सुविधा तो कभी हमारी सुविधा को देख यात्रा टलती गई। दो माह तक मुझे बिस्तर पर रहना पड़ा, डोडा में पसली के टूटने के कारण और दिल्ली में पैर की हड्डी टूटने के कारण। चिंता हो रही थी क्या हमारी पाकिस्तान की यात्रा होगी ही नहीं। काफी इंतजार के बाद जब हमारा जहाज दिल्ली के इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे से उड़ा तो यकीन नहीं हो रहा था कि सचमुच पाकिस्तान जा रहे हैं। कराची के कायदे आजम हवाई अड्डे पर उतरते ही, मोहन महर्षि बोले,'वह हवाई अड्डा बड़ा ही शानदार है, हमसे बेहतर है। वहां पर हमारे मेजबानों ने अच्छा इंतजाम कर रखा था तो हमें कोई परेशानी नहीं हुई। न कस्टम वालों ने हमारा समान देखा न कोई सवाल पूछा। राम मोहन जी पानीपत के अचार की बोतलें साथ लाये थे,कराची के पानीपतियों को देने के लिए। वे सभी बोतलें भी सुरक्षित पहुंच गईं। कराची के भव्य हवाई अड्डे पर बिजली की सीढ़ी के साथ ही सीधे चलने के लिए भी बिजली की पटरी रखी हुई है, जिसका सबसे अधिक लाभ मझे मिला। मेरे पैर का प्लास्टर हाल में ही कटा था ,पर पट्टी बंधी थी। किसी तरह मैं चल लेती थी। दिल्ली के हवाई अड्डे पर काफी चलना पड़ता था। पर कराची में टांगों की रक्षा हो गई। बाहर निकलते ही देखा एसोसिएशन ऑफ पीपुल्स ऑफ एशिया का बहुत बड़ा बैनर, गुलाब के हार और गुलदस्ते लेकर खड़े दोस्तों की भीड़। जिस गर्मजोशी से हवाई अड्डे पर हमारा स्वागत हुआ, उसे देखकर हम गदगद हो गए। महिलाएं बड़े प्यार से मुझसे मिलीं। उधर भाई लोग भाइयों के गले मिले। हमें लाल गुलाबों के हार पहनाए गए, फोटो खींचे गए। हवाई अड्डे पर लाल गुलाब की पंखुड़ियां बिछ गई, जैसे हमारे लिए फूलों की राह बन गई। 1996 के 'भारत-पाक मैत्री मिलन के लिए दिल्ली आए हुए कराची के डॉक्टर जकी हसन ( पूर्व कुलपति बकाई विश्वविद्यालय), क्वेटा के श्री ताहिर खान ( पूर्व केंद्रीय मंत्री), पाकिस्तान इंस्टिट्यूट ऑफ लेबर एजुकेशन ऑफ रिसर्च' के श्री बी. एम. कुट्टी तथा उनके साथी नौजवानों की फौज, क्वेटा की अधिवक्ता श्रीमती सुरैया अब्बास तथा समाज सेवी श्रीमती कमरुद्दीन और हमारे साथियों के रिश्तेदारों की भीड़ स्वागत के लिए खड़ी थी।
शहीदाने वतन की कब्र से आवाज आई है,
वही हमसे मिले आकर जो अपनी जान से खेले।
उधर दुनिया की राहत है इधर लुत्फे -शहादत है ,
यह सौदा है तेरे आगे, जो तू चाहे वही ले ले
निर्मला देशपांडे
: पाकिस्तान में क्या किया?
वैसे पाकिस्तान तक पहुंचने का यह सफर भी आसान नहीं था। कराची में 27- 28 फरवरी को होने वाली पाकिस्तान पीस कॉन्फ्रेंस की जानकारी और निमंत्रण बहुत पहले प्राप्त होने के बाद भी वीजा और अन्य औपचारिकताएं उड़ान भरने से मात्र दो घंटे पहले ही प्राप्त हुई। इधर कुछ दिनों से मित्रगण मजाक करते रहे कि,' अब हमारी दीदी भारत और पकिस्तान दोनों का वीजा दिला सकती है।' इस बार वह बात सही भी हो गई और अपने साथियों को लेकर, भारत से जाने वाले प्रतिनिधियों को पकिस्तान का वीजा दिलाने का काम मुझे ही करना पड़ा। मुंबई के प्रतिनिधियों को
तो हवाई जहाज से वीजा भेजना पड़ा ।
दोपहर तक पार्लियामेंट में उपस्थित रहकर, जब मैं घर लौट कर हवाई अड्डे पर जाने के लिए तैयार हुई तो पता चला हमारे एक साथी की भूल से उनके वीजा में लाहौर लिखा ही नहीं था। पर पाकिस्तान के दूतावास और पाकिस्तान इंटरनेशनल (पीआईए) के अधिकारियों के सहयोग से हमारी टोली कराची जाने के लिए पीआईए के जहाज में बैठ गई। जहाज उड़ने से पहले उर्दू में 'अस्सलाम आलेकुम' कह कर कुरान का पाठ पढ़ाया गया। जहाज में पाकिस्तान के अखबारों के जरिए भारत के प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी बाजपेयी जी की हाल की पाकिस्तान यात्रा पर कई लेख पढ़ने को मिले। डेढ़ घंटे बाद जब जहाज कराची के हवाई अड्डे पर उतरा तो मेरे और राम मोहन जी के लिए सब कुछ जाना पहचाना था। पर हमारे दूसरे साथी पश्चिम बंगाल के सीपीएम के युवा सांसद मोहम्मद सलीम, उत्तरप्रदेश के विधायक संजय गर्ग, पंजाब हरिजन सेवक संघ के अध्यक्ष डॉ पवन थापर ,जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर इमित्याज अहमद तथा श्रीमती सबीहा अहमद यहां पहली बार पहुंचे थे। सांसदों के सार्क दक्षस के देशों में वीजा की जरूरत नहीं पड़ती, आना-जाना खुला है। इसका पूरा लाभ सलीम भाई को तथा मुझे मिलता रहा। जहाज में भारत के दूसरे भी कई प्रतिनिधि मिले, जिनमें दिल्ली की राष्ट्रीय महिला आयोग की सदस्य श्रीमती सईदा हमीद भी थी, जिनसे घरेलू संबंध बन चुके हैं।
हवाई अड्डे पर डॉ जकी हसन,करामत अली जैसे सभी स्नेही जन स्वागत के लिए उपस्थित थे। राम मोहन जी के पानीपती प्रियजन फरहत अली ने हम सभी को अपने घर चलने का आग्रह किया, पर आखिर राम मोहन जी को उनके साथ भेजकर हम सब पूर्व परिचित होटल मेट्रोपोल गए। मित्रों को दुख था कि अब हवाई अड्डे पर फूल आना मना हो गया। पिछली यात्रा के जोरदार स्वागत में खिले लाल गुलाबों के हारों को याद किया गया। उस वक्त हवाई अड्डे पर चारों और गुलाबों की पंखुड़ियां बिखरी पड़ी थी । होटल पहुंचते पर दीदी आई कहते हुए अनेकों निमंत्रण प्रेम से मिले। पाकिस्तान अब हमारे लिये पराया देश नहीं रहा है। एसोसिएशन आफ पीपुल्स ऑफ एशिया के पूर्व अध्यक्ष डॉक्टर जकी हसन में किसी युवा से कम उत्साह नहीं है। रात में वे मुझे ,सईदा जी, सलीम भाई और राम मोहन जी को पाकिस्तान के जिमखाना क्लब में खाने के लिए ले गए। मेरे और राम मोहन जी के लिए खास शाकाहारी खाना बनवा लिया। यह जिमखाना अंग्रेजों के जमाने का बड़े लोगों का खास स्थान है। यहां का बाग बड़ा ही सुंदर है। पिछली यात्रा में मेमोन साहब ने यहीं पर हमारे सम्मान में भोज दिया था। सुबह नौ बजे से शांति सम्मेलन हुआ। मैं किसी तरह तैयार होकर नीचे पहुंची। नाश्ता करने को कई लोगों ने कहा, तभी मंच से मुझे पुकारा जाने लगा। मैं ऐसे ही मंच पर चली गई। मुझे पता ही नहीं था कि उद्घाटन सत्र में मुझे बोलना है । सभी कागजात समय से मेरे पास भेजे गए थे। पर अनेकों कामों में उलझनों के कारण मैंने उन्हें देखा ही नहीं था। सिर्फ दिल्ली छोड़ने से पहले, रात में अंग्रेजी में कुछ लिख डाला था। जिसकी प्रतियां साथ थीं। मानवाधिकार संस्थाओं के अध्यक्ष श्री रहमान साहब का पाकिस्तान की ओर से प्रथम भाषण हुआ और फिर मेरा नाम पुकारा गया। मैंने हिंदुस्तानी में पांच-सात मिनट कुछ कहा और फिर अंग्रेजी में लिखा हुआ पढ़ डाला । 'हिंदुस्तान से दोस्ती और मोहब्बत का पैगाम लेकर आई हूँ' से आरम्भ किया। बाद में सभी ने प्यार से मुझे घेर लिया कि मैं समझ ही नहीं पाई कि मेरे उन चंद शब्दों का पाकिस्तानी मित्रों पर इतना असर कैसे हुआ। दो दिनों के उस सम्मेलन में कई नए मित्र बने। प्यार का ही लेन-देन चलता रहा।
सम्मेलन में टोलियों में बैठकर जमकर चर्चा चली । हर टोली में सभी ने खूब दिलचस्पी ली। युवाओं की अच्छी-खासी तादाद देख कर बड़ी खुशी हुई ।पाकिस्तान के हर हिस्से से स्वयंसेवी संस्थाओं के प्रतिनिधि शांति के सक्रिय कार्यकर्ता, बुद्धिजीवी, कलाकार आदि गए थे। बांग्लादेश, श्रीलंका नेपाल तथा यूरोप- अमेरिका के देशों के शांतिवादी मित्र उपस्थित थे। सम्मेलन में बीच-बीच में सांस्कृतिक कार्यक्रम भी चलते थे। जिसका आयोजन विख्यात भरतनाट्यम नृत्यांगना सीमा किरमानी और उनके पति खालिद अहमद ने किया था। शाम को 'रघुपति राघव राजा राम 'पर सीमा ने आकर्षक नृत्य प्रस्तुत किया। गंभीर चर्चा और संगीत- नृत्य का सुंदर संगम रहा।
गत वर्ष पानीपत से पाकिस्तान गए हुए 22 लोगों का एक दल हमारे निमंत्रण पर पानीपत आया हुआ था । राम मोहन जी के संयोजन में पानीपत के निवासियों ने उनका जो अभूतपूर्व स्वागत किया, उसकी मीठी यादें उनके दिलों में किस तरह बसी हुई है , इसका हमें इस बार दर्शन हुआ । शांति सम्मेलन के साथ-साथ हम प्रतिदिन दो -तीन बार उन पानीपतीयों के द्वारा आयोजित भोज में शामिल होते रहे। हर कोई चाहता था कि हम उनके घर पहुंचे। पानीपती रिश्तेदारों की गहराई का वर्णन शब्दों में करना संभव नहीं है। फरहत अली के पिताजी तो पानीपत को याद कर लगातार आंसू बहाते। उन्होंने अपनी लड़की को कहकर पानीपत का एक नक्शा बनवाया। 50 साल बीत गए, पर उन्हें सब याद था कि कौन सी सड़क किधर से जाती है और कौन सा स्कूल कहां है। लकवे से पीड़ित बुजुर्ग को जब हम कहते कि आप पानीपत आइए, तो कहते' मेरी बस यही ख्वाहिश है कि मैं वहीं की मिट्टी में समा जाऊं।' हमारे कारण हर घर में कई व्यंजनों वाला शाकाहारी भोजन बनता पर फरहत अली की मां की तरह हर गृहिणी कहती कि हम आपको कुछ खिला ही नहीं पाए। पानीपत की यादें दोहराई जाती और हमें तोहफे भेंट किए जाते। मैंने गांधीजी की आत्मकथा भेज की, राम मोहन जी ने पानीपती अचार तो संजय जी ने सहारनपुर की लकड़ी की चीजें दीं। कोई पूछे कि आपने वहां क्या किया तो एक ही जवाब था, प्यार लिया, प्यार दिया।
निर्मला देशपांडे
(नित्यनूतन पत्रिका में 16 से 31 मार्च 1999 के अंक में प्
जड़ो की तलाश में
बीतने जा रही बीसवीं सदी में भारत का विभाजन एक ऐसी त्रासदी था, जिसे चाह कर भी टाला न जा सका था। एक ऐसा नजारा, जो अपनी तरह का अलग ही था, जिसकी कोई व्यवहारिकता न थी । लोग अपने-अपने घरों, मोहल्लों, परिवार,मित्र व प्रियजनों को छोड़कर एक ऐसी जगह जा रहे थे ,जहां उनका कोई न था व भविष्य बिल्कुल अनिश्चित था। अंग्रेज कामयाब हुआ और गांधी नाकामयाब। बापू को विवशतापूर्वक कहना पड़ा, देश बेशक बंट जाए , पर दिल न बंटे। परंतु दोनों देशों के बनने के बाद देश के साथ दिलों को बांटने की कोशिश की गई थी । दोष किसको दे, हालात दोनों ओर से कसूरवार थे। वक्तन- पवक्तन दोनों देशों में जनता की ओर से ऐसी कोशिशें चलती रही, चाहे वे बिल्कुल छोटे पैमाने पर थीं, जो घोर अंधेरे में छोटे दीये के जलने के समान थी।
52 साल बीत जाने के बाद भी भारत में पाकिस्तान से आया व्यक्ति पंजाबी, हिंदी, पख्तून व बलूच था और पाकिस्तान में वह महाजिर था, परंतु तड़प दोनों और थी, कैसे भी हो, मिलाप हो। अपनी पाकिस्तान यात्रा के दौरान मुझे बताया गया कि पाकिस्तान में पानीपत से गए लोग जहां- जहां भी आबाद हुए हैं वहाँ- वहाँ उन्होने पानीपत एसोसिएशन बना रखी है और फिर डॉ जकी हसन की मार्फत पानीपत एसोसिएशन की बैठक में भाग लेने का अवसर मिला। वह दिन 6 अगस्त 1997 का था, जब कराची में बसे श्री रफत अली पानीपती के घर जाने का मौका मिला। वहां 40 के करीब पानीपती मौजूद थे और बातों के दौर में सिर्फ पानीपत ही हावी था। श्री रफत अली अपनी उम्र के आखिरी पड़ाव में है, परंतु वे अभी भी पानीपत में ही जी रहे हैं। अपनी छोटी बेटी मुन्नी (तलत) की मदद से 5" 4 आकार आकार का नक्शा बनाया है, जिसमें उन्होंने पानीपत उतारा हुआ है। पानीपत के रेलवे स्टेशन ,बस अड्डा, जीटी रोड, देवी मंदिर, दरगाह बू अली शाह कलंदर और यमुना नदी इसमें चित्रित की गई है। उसी नक्शे में वे अपने घर को देखकर भावुक हो उठते हैं। जब मैंने उनसे अपने घर के बारे में पूछा तो उन्होंने बिल्कुल ठीक देवी मंदिर व किले के बीच मास्टर विशंभर लाल शर्मा के मकान के पिछवाड़े में हमारा घर भी दिखाया। दशहरे के दिन में रामलीला, होली के रंग व दरगाह कलंदर का उर्स उन्हें आज भी याद है। पंडित माई दयाल साइकिलों वाले की दुकान से लेकर श्री लालचंद गर्ग के साथ रामलाल गार्ड द्वारा करवाई गई रेलगाड़ी से दिल्ली की सैर का सारा मंजर उन्हें भूला न है। शटल रेलगाड़ी पानीपत से दिल्ली अभी भी पौने छह बजे चलती है, सुनकर तो झूम उठते हैं ।अपने शहर पानीपत को भी चाह कर भी भूला नहीं पाए हैं। यद्यपि विभाजन के समय उनकी पत्नी की उम्र मात्र 3 साल की थी । परंतु उन्हें भी इस बात का गर्व है कि उनका पुश्तैनी मकान सोनीपत में सबसे ऊंचे टीले पर था। उनके मँझले बेटे फरहत का विवाह मरहूम रजा साहब की बेटी हूमा के साथ कराची में हुआ है, परंतु ख्वाजा रफत अली से पूछने पर उनके बेटे की शादी कैराना (जिला मुजफ्फरनगर) के रजा साहब के घर हुई है। ।अब फरहत की ससुराल का आलम देखिए, ये कराची में एम ब्लॉक पर रहते हैं यानी मुजफ्फरनगर ब्लॉक में। वहां अधिकांश मुजफ्फरनगर से बसे लोग रहते हैं। जब दीदी निर्मला जी ने पूछा क्या नागपुर (महाराष्ट्र) से आए लोग यहां बसे हैं तो उनका जवाब था, हां । सभी एन ब्लॉक यानी नागपुर ब्लॉक में रह रहे हैं। इस बार की यात्रा में, सहारनपुर के विधायक संजय गर्ग भी साथ थे। वे अपने साथ पाकिस्तान में बसे सहारनपुरियों के नाम एक पत्र लेकर गए थे। जिसमें सभी को सहारनपुर आने का निमंत्रण दिया गया था। घूम- घूम कर वे सहारनपुरियों को ढूंढ रहे थे व सहारनपुर वासी उन्हें। पाकिस्तान में जाकर पता चला कि जनरल जिया उल हक के शासन में जालंधरियों की खूब पूछ थी, क्योंकि जिया साहब जालंधर के पास के गांव के थे । इस तरह मियां नवाज के वर्तमान शासन में अमृतसरियों का दबदबा है क्योकि नवाज साहब जिला अमृतसर के गांव उमरा के हैं । कौन नहीं जानता कि श्री इंद्र कुमार गुजराल के प्रधानमंत्री बनने पर उनके पैदाइशी शहर झेलम के लोगों की खुशी का ठिकाना न था। लाहौर में बसे पानीपत के श्री अब्दुर रब अब्बासी 50 सालों के बाद अपने पूरे परिवार के साथ अपने बाबा- ए- शहर पानीपत आये व वहाँ से जाने के बाद वे इतने उत्साहित हैं कि वे लाहौर में ऐसी जगह बनवाना चाहते हैं , जहां पानीपत से आए लोग ठहरे ताकि वे होटल वगैरह में न रुके । उनके दामाद कैप्टन जफर पाकिस्तान में ही पैदा हुए ,परंतु वे अपना पुश्तैनी मकान पानीपत में देखने जरूर आना चाहते है। पिछ्ली यात्रा में बदायूं के डॉ राजवीर सिंह यादव जी भी गए थे । इस बार डॉ यादव को उनके बदायूं वाले मित्र पूछ रहे थे।
भारत में भी यही आलम है। पंजाब में झंग मुलतान, गुजरांवाला, रावलपिंडी से आए लोग झंगी, मुलतानी व अपने शहरों के नाम से संबोधित होकर ज्यादा खुश होते हैं। यही नहीं छोटे कस्बों हाफिजाबाद ,हैदराबाद, खानेवाल आदि के लोगों ने स्थान -स्थान पर अपने अपने कस्बों के नाम के सभाओं का गठन कर रखा है। कई -कई जगह पर तो इन नामों से बस्तियां ही बसा रखी है। मिन्टमुमरी, लैय्या हैदराबादी अस्पताल व स्कूलों के नाम काफी लोकप्रिय है। हिंदी भाषा में पढ़े-लिखे परिवारों में माता-पिता से सीखे छोटे-छोटे बच्चे जब सिन्धी, पंजाबी, हैदराबादी, मुलतानी अथवा झांगी बोलते हैं तो लगता है बेशक इन बच्चों के दादा-दादी पाकिस्तान से आए थे, माता-पिता यहीं जन्में , पले व पढ़ें, परंतु तीसरी पीढ़ी के बच्चे अभी भी वहीं हैं और अपनी भाषा- संस्कृति को नहीं भूले हैं। भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय प्रधान श्री के आर मलकानी चूंकि सिंध में जन्मे ,अब अपनी तमाम प्रतिबद्धताओं के बावजूद भारत- पाक दोस्ती के पक्के हिमायती हैं। कॉमरेड रामदित्ता मुलतान जाकर एक बार फिर अपने मकान व दुकान को देखना चाहते हैं। उन्होंने 20 मुल्तानी लोगों का एक ग्रुप तैयार किया है ,जो मुल्तान की तैयारी में है ।अपने जीते जी श्री फतेह चंद विज अपनी मातृभूमि लायलपुर में एक बार जरूर जाना चाहते हैं। वैसे यहां हर प्रकार की मौज है ,परंतु अपने गांव की याद उन्हें भूली नहीं है। बस एक बार हो आएं , यह चाहत सभी में बसी है। कवि सम्मेलनों में लोकप्रिय कवि राणा गन्नौरी जब तक अपनी मुलतानी बोली में कविता नहीं सुना लेते, उन्हें चैन नहीं पड़ता। कराची से आसिफ अली जाफरी, एडवोकेट जब पानीपत के लिए रवाना होने लगे तो उन्होंने अपनी बेटी से पूछा कि वे उसके लिए क्या लाएं। वह पहले तो ना- नुकर करती रही , पर बाद में बहुत कहने पर बोली , 'अब्बू पानीपत की थोड़ी मिट्टी ले आना ।' जब वे अपनी यात्रा के बाद वापस लौटने लगे तो मैंने उनसे पूछा क्या अपनी बेटी की ख्वाहिश पूरी की तो वह बोले मिट्टी उठाने की हिम्मत नहीं पड़ी। मैंने मिट्टी की मुट्ठी भरी और एक कागज की पुड़िया में रखी। उस मिट्टी को अपने सिर पर लगाकर वह फूट-फूट कर रोने लगे। इस बार जब मैं कराची उनके घर गया तो मैंने वह मिट्टी एक छोटे जार में संजोकर शोकेस में रखी देखी। उनकी बुढ़िया माता अपने जीवन के लगभग 90 वर्ष पार कर चुकी है। बैठने
व बोलचाल में असमर्थ है, पर जब उन्हें पता चला कि खास पानीपत से एक व्यक्ति आया है तो उनमें एक अजीब ताकत आ गई और वह बैठकर विभाजन से पूर्व मोहल्ला इन्सार व पानीपत की बातें करने लगीं। परिवार के सभी लोग अचंभित थे ।भारत में आए पुरुषार्थी चाहे लोग चाहे पाकिस्तान से आकर बेहतर हालात में है, पर अपने गांव की मिट्टी, गलियां व बात-बात पर वहां की चर्चा उन्हें अभी भी जोड़े हुए हैं। एक- दूसरे का परिचय वे 'पीछू किथे दे' करके करते हैं यानी विभाजन से पहले कहां रहते थे और एक ही जगह के मिलने पर देखिए प्यार।
तो क्या बंटवारा झूठा था? क्या धर्म के नाम पर लिया गया सपना बिखर रहा है? क्या 52 साल बाद भी यह अंतराल अपनी भूमि से लोगों को जुदा नहीं कर पाया? प्रश्न बड़े गहरे व कठिन है ,पर उत्तर बहुत आसान । नफरत की दीवार, प्यार व इंसानी रिश्तों के सैलाब के सामने टिक नहीं पायेगी और सैलाब अपने साथ उसे बहा ले जायेगा। यह टिक पाती यदि नव अंकुरित पत्तियां अपनी जड़ों का ठिकाना न पूछती।
पानीपत आए पूर्व पानीपतियों के एक दल ने अपने विचार इस तरह व्यक्त किए-
' किया तरके वतन भी, सरजमीनें ओलिया छोड़ा, बसा ली हमने पाकिस्तान में जाकर नई बस्ती ,
भूलाए से नहीं भूलेगा, लेकिन शहर पानीपत, भूलाने की जगह होती नहीं, अपनी जन्मभूमि
( नित्यनूतन पत्रिका के 1 से 15 मई 1999 के अंक मे
52 वर्षों बाद घर वापसी
भारत के इतिहास में सन 1947 जहां एक ओर अंग्रेजी गुलामी से मुक्ति दिवस के रूप में जाना जाएगा, वही यह काला वर्ष भी माना जाएगा। इस वर्ष धर्म और मजहब के आधार पर एक ही बोली बोलने वाले,एक ही संस्कृति ,एक ही रंग- रूप और एक ही खानपान और पहनावे के 40 करोड़ लोग दो हिस्सों में बंट गए। 6 करोड़ पाकिस्तानी कहे जाने लगे और बकाया हिंदुस्तानी। वैसे भी अंग्रेजी साम्राज्यवाद के नापाक कदम जिस भी देश में पड़े, उन्होंने उन देशों की आजादी की लड़ाई को कमजोर करने के लिए" फूट डालो राज करो" को अपनाकर उन देशों को हिस्सों में बांट दिया ताकि साम्राज्य के दिए जख्म कभी भी न भर सकें। महात्मा गांधी के नेतृत्व में भारत छोड़ो आंदोलन, नेताजी सुभाष चंद्र बोस की अगुवाई में आजाद हिंद फौज, जलसेना में विद्रोह और बंदरगाहों पर अंग्रेजी फौजों को भगाकर यूनियन जैक के स्थान पर तिरंगे झंडे लहरा दिए गए, पुलिस जोकि किसी भी सरकार की रीड की हड्डी है, ने भी बगावत का बिगुल बजा दिया । रेलवे मजदूर, दुकानदार ,सरकारी मुलाजिम हड़ताल और प्रदर्शन करके अपना गुस्सा अंग्रेजो के खिलाफ जाहिर कर रहे थे। ऐसे समय में अंग्रेजों ने यहां से भागना ही मुनासिब समझा और एक षड्यंत्र के तहत भारत और पाकिस्तान का बंटवारा कर हिंदू और मुसलमान के बीच ऐसी नफरत की आग लगाई, जो बुझाए से भी नहीं बुझी। जब पूरा देश आजादी का जश्न मना रहा था, उस समय राष्ट्रपिता महात्मा गांधी सांप्रदायिकता की आग को बुझाने के लिए कोलकाता में अनशन पर बैठे थे। साजिश के तहत दंगों ने 70 लाख लोगों की जिंदगी को लील लिया। तीन करोड़ लोग अपना घर-बार और वतन छोड़कर शरणार्थी बन गए। अरबों रुपयों की जायदाद ,घर- बार, मकान, दुकानें आग लगाकर बर्बाद कर दी। हजारों मासूम औरतों को अगवा किया गया और उनकी इज्जत के साथ खिलवाड़ किया गया। इस तरह देश की आजादी के लिए भारी कीमत चुकानी पड़ी और बस यहीं तक नहीं, जाते -जाते भारत और पाकिस्तान की जनता की छाती पर कश्मीर के मसले का जख्म छोड़ गए, जोकि आज कैंसर का फोड़ा बन चुका है। जिसका हल आज दोनों मुल्कों के पास नहीं है। कश्मीर के सवाल पर भारत और पाकिस्तान तीन जंग लड़ चुके हैं। दोनों देशों में हथियारों की दौड़ लगी है और हथियारों के सौदागर इन दोनों को आपस में लड़ा कर मजे से अपना सामान बेच रहे हैं। दोनों मुल्कों में परमाणु हथियार और मिसाइलों के निर्माण पर अरबों रुपया पानी की तरह खर्च किया जा रहा है, जबकि दोनों देशों की आर्थिक हालत दिन-प्रतिदिन खराब हो रही है । महंगाई और भ्रष्टाचार का शिकार अधिकांश जनता गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन कर रही है। इन लोगों को दवाई तो क्या बिना रोटी के भूखों मरना पड़ता है। लोग आज भी अनपढ़ता और जहालत के शिकार हैं। जनता को बम नहीं, रोटी चाहिए पर राजनेता मूल समस्या से विमुख होकर धन कमाने में लगे हैं। समय की नजाकत को समझते हुए संत विनोबा की मानस पुत्री कुमारी निर्मला देशपांडे की रहनुमाई में देश के चुनिंदा अमन पसंद बुद्धिजीवी लोगों ने पहल करके 'एसोसिएशन ऑफ पीपल्स ऑफ एशिया' की स्थापना की है। इस संगठन को बनाने का मकसद दोनों देशों की जनता के दिलों में नफरत और दुश्मनी का वातावरण खत्म करके आपस में दोस्ती, मेलजोल, भाईचारे का वातावरण पैदा करना है। इसी संगठन के माध्यम से मैं अपने 10 साथियों सर्वश्री डॉ बहादुर चंद खुराना, गुरदास खुराना, उनकी धर्मपत्नी इंदिरा खुराना, डॉ बीएल दुआ, नंदलाल सचदेवा, सरदार बलकार सिंह , हीरा पहलवान, राधेश्याम
मेहंदी रत्ता और श्री गणेश दास वडेरा आदि के साथ प्यार मोहब्बत का मिशन लेकर 28 मई 1999 को बस के जरिए लाहौर पहुंचा। हमारी यात्रा से एक दिन पूर्व एपीए की अध्यक्षा कुमारी निर्मला देशपांडे जी ने अपने निवास स्थान पर जलपान करवाकर बहुत ही खूबसूरत सभागार में हमारे स्वागत में एक बैठक रखी, जहाँ लगभग 50 लोग इकट्ठे हुए, जहां आपसी विचार-विमर्श में नफरत की दीवारें गिरा कर दोस्ती को बढ़ावा देने का अहद किया गया और निश्चय किया गया कि दोनों देशों की सरकारों पर दबाव डाला जाए कि वे जंगी जुनून और नफरत का वातावरण खत्म कर अच्छे संबंध बनाने की शुरुआत करें। हमें वहां एक अच्छा जलपान भी कराया गया। वहां रात यानी 30 मई 1999 को हमारे 4 साथी सर्वश्री हीरा पहलवान, सरदार बलकार सिंह, श्री गणेश दास वडेरा और श्री राधेश्याम जो मूलत: गुजरावाला जिले के थे ।52 साल के बाद अपने पैतृक मकान व स्थान के दर्शन करने के लिए रवाना हो गए। हम छह लोगों की जन्मभूमि मुल्तान जिले के देहात में थी। मुल्तान के लिए रात 12 बजे गाड़ी रवाना हुई जो सुबह 7:30 बजे मुल्तान स्टेशन पर लगभग ढाई घंटे लेट पहुंची। लोग सुबह 5 बजे से ही हमारा इंतजार कर रहे थे । हमारे पुराने दोस्त जोकि अब इस दुनिया में नहीं है ,उनके बेटे और पोते जिन्होंने अपने बुजुर्गों से हमारा नाम सुना था, बड़ी बेसब्री से हमारा इंतजार कर रहे थे। गाड़ी से उतरते ही उन लोगों ने हमें सलाम कह कर हमें सीने से लगा लिया और हमारे हाथ चूमकर अपने प्यार और मोहब्बत का इजहार किया। हम कुल 6 लोगों के लिए 12 लोग 6 कारें लेकर आए थे ।उन्होंने गाड़ी से हमारा सामान उतारा और हमें हाथ भी नहीं लगाने दिया। पहले दिन उन्होंने हमारे ठहरने का इंतजाम एक होटल में किया और दोपहर का खाना अपने घर दिया। दूसरे दिन वे हमें अपने घरों में ले गए, हमें बेडरूम में सुलाया और खुद परिवार सहित बाहर सोए। सुबह का नाश्ता करवाने के बाद हम सब लोगों को अपनी गाड़ियों में बिठा कर हमारे पुश्तैनी गांव, जहां हमारा जन्म हुआ, उस के दर्शन कराने खानेवाल ,कबीरवाला , मानिषवाला, कुक्कड़हरा और मुजफ्फरगढ़ ले गए। हम जहां भी गए लोगों ने हमें भरपूर प्यार दिया ।वे हमें अपने गले लगाते मानो बरसों बाद बिछड़े हुए भाई मिले हो। अनजान लोगों को जब हम बताते कि हम हिंदुस्तान से अपनी जन्मभूमि को देखने आए हैं तो बड़े अदब से अपने- अपने घरों में ले जाते और हमें हमारे पुराने मकान दिखा कर खुशी जाहिर करते । चौंक दर चौंक लोग
इकट्ठे हो जाते और चाय ठंडा पिलाकर हमारा स्वागत करते। हमारा पता नोट करते और हमें बताते कि हिंदुस्तान के कौन- कौन से शहर से वे आये हैं। जिन लोगों के घरों में हम मुल्तान में ठहरे थे, उनके रिश्तेदारों और दोस्तों को भी पता लगा कि हम हिंदुस्तान से आए हैं, वे भी हमें खाने की दावत देने आने लगे । किसी के नाश्ता, कहीं दोपहर का खाना और किसी के घर रात का खाना। पूरा दिन कैसे बीत गया पता ही नहीं चला। कुछ दोस्तों ने तो हमें बड़े-बड़े होटलों में खाना खिला कर अपने प्यार मोहब्बत का इजहार किया। हमने वहां एपीए की इकाई का गठन किया और उसी की ओर से मुल्तान में 2 सभाएं आयोजित की गई, जिसमें डॉ व समाजसेवी शामिल हुए। मुद्दा एक ही था, नफरत को खत्म कर दोस्ती कायम की जाए। एक परिवार के लोग तो हमारे पास यह कहने लगे कि उनकी मां उन्हें घर में घुसने नहीं देगी,यदि उन्होंने दावत कबूल नहीं की।डॉ बहादुर चंद खुराना जिला मुल्तान में एक मशहूर डॉक्टर रहे हैं। जहां-जहां पता चला कि पानीपत से 52 साल बाद डॉ साहब आये है तो लोग झुंड के झुंड बनाकर उनसे मिलने आते और डॉ साहब ने भी अपने प्यार के दरवाजे उनके लिए खोल दिए थे।अपने चलने से पहले डॉ साहब ने पूरे गांव के लोगों की अपनी पुश्तैनी मकान में दावत दी। मुझसे भी जब पुराने दोस्त पूछते कि,' रामदित्ता तू कित्थे।' यह कहकर वह मुझे गले लगा लेते। एक दोस्त जिनके साथ मैंने आजादी के आंदोलन में भाग लिया और मैं जेल गया, वे और उनके बच्चे मुझे ऐसे मिले, जैसे उनका सगा रिश्तेदार मिला हो। हीरा पहलवान व उनके साथी अपने गांव जाकर बेहद भावुक थे। हमारे हालात ऐसे थे कि अगर किसी अन्धे से पूछा जाए कि उनकी तमन्ना क्या है तो वह कहेगा कि आंखों की रोशनी, जिससे कि वह दुनिया और अपने रिश्तेदारों को देख सकें। उसी तरह यदि हम से भी कोई पूछता कि हमारी अंदरूनी ख्वाहिश क्या है तो यही आह निकलती कि एक बार अपने बिछड़े वतन पाकिस्तान की उस मिट्टी को देख सकें जिसकी वादियों में हमारा बचपन बीता। हम दीदी निर्मला देशपांडे और श्री राम मोहन राय के शुक्रगुजार हैं, जिन्होंने हमें मौका दिया कि हम अपनी मातृभूमि के दर्शन कर सकें । इन्हीं प्यार मोहब्बत का जज्बा लेकर हमने पाकिस्तान की यात्रा की। सरदार बलकार सिंह 52 वर्ष के बाद गुजरावाला में रह रहे अपने भाई- भतीजों से मिले और श्रीमती इन्दिरा खुराना अपने रिश्तेदारों से शरवरसिन्ध में जाकर मिली। मिलन भावुक थे और इसी प्यार से सराबोर हो हम 8 मई 1999 को बस से दिल्ली की ओर रवाना हुए। जिनके घरों में हम ठहरे हुए थे वे हमें अलविदा करने लाहौर बस स्टैंड पर आए हुए थे । वे हमें बार-बार सीने से लगाकर मिल रहे थे। बिछुड़ते समय हमारी आंखों से प्यार भरे आंसुओं की झड़ी लग रही थी और दोबारा मिलने की तमन्नाएं लेकर हम अपने शहर पानीपत आ गए।
कॉमरेड रामदित्ता,
पानीपत
( नित्य नूतन पत्रिका में 16 से 31 जून 1999 के अंक में प्रकाशित)
मुज्जफरनगर में इंडो पाक मुशायरा
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के प्रमुख नगर मुजफ्फरनगर में 3 अप्रैल 1999 को भारत- पाक मुशायरा शानदार ढंग से संपन्न हुआ। एसोसिएशन ऑफ पीपुल्स ऑफ एशिया, अखिल भारत रचनात्मक समाज व एक स्थानीय संगठन जनकल्याण उपभोक्ता समिति के संयुक्त तत्वावधान में इस मुशायरे का आयोजन किया गया था। सांप्रदायिक ताकतें शुरू दिन से इस आयोजन के विरोध में उतर आईं, परंतु प्रगतिशील धर्मनिरपेक्ष ताकतों के सामने टिक नहीं सकी। शिवसेना तथा अन्य ऐसे ही संगठनों के लोगों ने पूरे नगर में तनाव का वातावरण बनाने का भरपूर प्रयास किया, यहां तक कि मुशायरा आयोजक श्री मुनीष गुप्ता के घर पर भी हमला किया, परंतु लोगों की लामबंदी ने इस आयोजन को भारी कामयाबी दिलाई। मुशायरा स्थानीय आईटीआई के विशाल मैदान में हुआ, जिसमें हजारों लोगों ने भाग लिया । सुबह 4:30 बजे तक चलने वाले इस कार्यक्रम में निरंतर लोगों की संख्या बढ़ रही थी ,जिससे आयोजकों जा उत्साह बढ़ रहा था।
मुशायरे का शुभारंभ रचनात्मक समाज की अध्यक्ष व सांसद कुमारी निर्मला देशपांडे ने दीप प्रज्वलित करके किया। अपने संक्षिप्त भाषण में उन्होंने कहा कि ऐसे आयोजन निश्चित तौर पर नफरत को दूर कर अमन व मोहब्बत का संचार करेंगे। उन्हें संत विनोबा के जय जगत के नारे को उद्धृत करते हुए कहा कि पूरी दुनिया के नजदीक आने के कारण अब जय जगत का जमाना आ गया , जिसमें सभी की जय हो।
मुशायरे का आगाज़ करते हुए पदमश्री से विभूषित शायर व पूर्व सांसद बेकल उत्साही ने फरमाया -
' हर नजर का जुगनू, दिल का तारा हो सकता नहीं,
धर्म जब नफरत बने, फिर प्यारा हो सकता नहीं,
मंदिर हो मस्जिद, गुरुद्वारा हो गिरजाघर,
सब है सगाई के घर, बंटवारा हो सकता नहीं।' पाकिस्तान से पधारे युवा शायर शाजिदज्जमां ने इस अवसर पर अपना कलाम पेश करते हुए कहा-
'सरहदें बेशक अलग है, फासले कुछ भी नहीं,
दिल की राहों पर चलें तो रास्ते कुछ भी नहीं ,
आओ किनारे तासुब्ब को गिरा दें प्यार से
यह अगर हट लें तो मरहले कुछ भी नहीं।'
भारत-पाक की जनता की दिली इच्छा का इजहार करते हुए शायरा अंजुम रहबर ने कहा-
'भूलकर आज हर अदावत को,
दोस्ती का नसीब हो जाए, दरम्यां से गुजर ना सकें कोई हवा,
आओ इतने करीब हो जाएं।'
वर्तमान राजनीति का पर्दाफाश करते हुए शायर जावेद ने कहा-
' सियासत को लहू पीने की लत है,
नहीं तो मुल्क में सब खैरियत है। '
पाकिस्तान से पधारी शायरा फहमिदा रियाज ने अपना कलाम पढ़ा, जिसे लोगों ने बेहद पसंद किया-
'ये धरती कितनी सुंदर है, ये सुनकर और खिल धरती, ये धानी आंचल पूरब का, हवा में उड़ जाता है और लहराता जाता है।'
पाक से ही पधारे शायर हिमायत अली ने यूं कहा- 'इस दुख भरे जहान में कोई कहां रहे,
गिरजा हो, खानकां हो, मंदिर हो या हरम,
जिसको जहां सुकून मिले, वह वहां रहे।'
उन्होंने ही कहा-
' मैं साया किए अब्र की मांनिंद चलूंगा,
आ दोस्त जहां तक भी तेरी राह गुजर जाए ।'
शायर प्रो. उनवार चिश्ती ने अपना कलाम पेश करते हुए कहा -
वो होली का मयार नहीं हो सकती,
दिवाली सा शहकार नहीं हो सकती,
जिस ईद पर बच्चों को सिवाइयां भी न हो,
वह ईद का त्यौहार नहीं हो सकती।'
पाकिस्तान से आई शायरा समाना रजा ने अपने कलाम के जरिए कहा-
मैं तुम्हारे अक्स की आरजू में ,
बस आईना ही बनी रही,
कभी तुम न सामने आ सके,
कभी मुझ पर गर्द पड़ी रही।
अपने अलग ही अंदाज में मंजर भोपाली ने कहा- उनके पीछे भी कोई सियासी लीडर होगा,
वरना इंसान कहां लड़ते हैं इंसानों से।
मुनव्वर राणा ने अपने क्रांतिकारी अंदाज में कहा-
तुम्हारे शहर में मैयत को भी सभी कांधा नहीं देते ,
हमारे गांव में छप्पर भी सभी मिलकर उठाते हैं। लखनऊ से पधारे श्री कृष्ण बिहारी नूर ने अपना कलाम यूं पेश किया-
रुक गया आंख से बहता हुआ दरिया कैसे,
गम को तुफां तो बहुत तेज था ठहरा कैसे,
हर घड़ी तेरे ख्यालों में घिरा रहता हूं,
मिलना चाहूं तो मिलो खुद से मैं तन्हां कैसे ।
मुशायरा के अंतिम क्रांतिकारी शायर कैफी आज़मी थे, जिन्होंने सांप्रदायिकता को' सांप' का रूप देकर एक कविता पढ़ी
जिसमें यूं कहा-
' ये सांप आज जो फन उठाये
मेरे रास्ते में खड़ा है
पड़ा था कदम चांद पर मेरा जिस दिन
उसी दिन उसे मार डाला था मैंने'
उसे मैनें जहांक के भारी कांधे पर देखा था एक दिन ये हिंदू नहीं है मुसलमां नहीं ये दोनों के मग्ज और खूं चाटता है
बने जब ये हिंदू मुसलमान इंसा
उस दिन ये कमबख्त मर जाएगा'
एक अन्य कविता में उन्होंने कहा यूं कहा-
चांद-सूरज बुजुर्गों के नक्शे कदम,
खैर बुझने दो इनकी हवा तो चले ,
हाकिमे शहर ये भी कोई शहर है ,
मस्जिद बंद है मैकदा तो चले।
इनके अतिरिक्त शायर मुजफ्फर रजमी कैरानवी, मौज रामपुरी, आयाज अहमद राज, नफ्त मुजफ्फर नगरी ने भी अपने कलाम पढ़ें।
इस अवसर पर एसोसिएशन ऑफ पीपुल्स ऑफ एशिया के सचिव प्रो. मो. हाशिम कुरैशी, सहारनपुर के विधायक श्री संजय गर्ग ,सर्वोदय विचारक श्रीमती कृष्णा बहन, सुश्री इंदु टिकेकर, सर्वोच्च न्यायालय के अधिवक्ता श्री सुभाष माहेश्वरी आदि विशेष रूप से उपस्थित थे।
मुशायरे की समाप्ति पर भी कैफ़ी आज़मी ने अपने उद्गार प्रकट करते हुए कहा कि इतना शानदार मुशायरा बहुत अरसे के बाद देखने को मिला है।
( नित्य नूतन पत्रिका के 1 से 15 मई 1999 के अंक में प्रकाशित)
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