बाबु जी श्री केयूर भूषण जी

*बाबु जी श्री केयूर भूषण*   
       गुरु नानक देव जी महाराज ने अपने मूल मंत्र में परमपिता परमात्मा के स्वरूप का स्मरण करते हुए उन्हें निरभऊ तथा निरवैर कहा है।
     स्वामी दयानन्द सरस्वती ने कहा है कि ईश्वर के गुणों का बखान इसलिए करना चाहिए ताकि हम उससे प्रेरित होकर उन गुणों का अनुसरण करते हुए अपने जीवन मे उतारे।
    मुझे अपने जीवन मे अनेक संत-महात्माओं,  सामाजिक एवं  राजनैतिक कार्यकर्ताओं तथा बुद्धिजीवियों का सानिध्य एवं संरक्षण प्राप्त करने का अवसर मिला  है.  वे सभी अपने जीवन, कार्यों एवं विचारों से इतने सम्पन्न रहे कि उनकी स्मृति मात्र से मन प्रफुल्लित हो उठता है.  ऐसे ही एक दिव्य विभूति का स्नेह पूर्ण साथ,  जीवन रूपी प्रेरणा तथा ज्ञानवर्धक वृतांत मिला जिससे मेरे सम्पूर्ण जीवन को स्पंदित किया. 
  वे महात्मा गांधी के परम भक्त,  संत विनोबा जी के अनुरागी तथा दीदी निर्मला देशपांडे जी के अनन्य सहयोगी ऐसा व्यक्तित्व जो अपने कृति एवं कृतित्व से गुरु नानक देव जी महाराज  के आख्यान निडर एवं निरवैर थे। एक  अद्भुत योगी जो राजनीति में होते हुए भी उसकी दल- दल से परे थे। एक कवि,  लेखक एवं  साहित्यकार श्री केयूर भूषण इन्हीं उपरोक्त वर्णित भावों को चरितार्थ करते व्यक्तित्व थे।
    उनसे मेरी पहली मुलाकात उन्हें बतौर लोकसभा सदस्य रहते मिले उनके आवास, 2 साउथ एवेन्यू, न्यू दिल्ली में हुई थी.  उनका घर एक सांसद का घर कम बल्कि एक सराय ज्यादा लगता था।  देशभर से आए गांधी सेवकों एवं रचनात्मक कार्यकर्ताओं का एक ठिकाना । जहां हर समय रसोई चलती होती थी और रसोईया प्रेम बनाता रहता था लोगों के लिए भोजन.  मकान मालिक तथा उसके परिवार के लिए तो एक ही कमरा था बाकी सब भरे थे अतिथियों से ।  दिल्ली जैसे शहर में राष्ट्रपति भवन से लगते वी आई पी  इलाके में यदि ठहरने और खाने की बेतकल्लुफ व्यवस्था मिल जाए तो कहना ही क्या? यह सब कुछ था यहां  आध्यात्मिक,  सामाजिक एवं राजनीतिक चर्चा के साथ-साथ। इसी मकान के एक छोटे कमरे में ही दीदी निर्मला देशपांडे जी की स्थायी रिहाइश थी और यहीं से अखिल भारत रचनात्मक समाज की स्थापना हुई और यह ही था उसकी तमाम गतिविधियों का केंद्र।
     श्री केयूर भूषण जी एक बेहद ही शानदार इंसान थे। एक  निहायत ही शरीफ एवं ईमानदार.  गांधी-विनोबा विचार  उनकी कथनी और करनी की एकरूपता में झलकता था। उनकी काव्यात्मक भाषा में साक्षात सरस्वती का वास था . बनावटी पन उनके आसपास भी नहीं था।  मैं पहली मुलाकात में ही प्रभावित हुए बिना नहीं रहा था.  उसका एक कारण एक यह भी कि वे भी मेरी तरह स्टूडेंट्स फेडरेशन और वामपंथी आंदोलन से जुड़े रहे थे और अब सर्वोदय समाज से जुडे थे।
    सन 1987 में  हरियाणा में विधानसभा चुनाव थे और  कॉंग्रेस पार्टी ने उन्हें एक पर्यवेक्षक के  रूप मे जिम्मेवारी प्रदान की  थी।इस दौरान उन्होंने मुझे अपने साथ जुड़ने को कहा और मैं तो जैसे उनकी इस बात के इंतजार में ही था । इसके बाद हम दोनों गुरु-चेला ने प्रदेश का कोई ही तो निर्वाचन क्षेत्र होगा जिसमें जाकर प्रचार-प्रसार एवं पर्यवेक्षण न  किया हो। हमारे यहां किसी सांसद की तो छोड़ो, एक विधायक की भी बड़ी बात है पर एक अदना सा स्थानीय प्रतिनिधि भी इस तड़क-भड़क में रहता है कि उसका जलवा देखने वाला होता है परंतु हमारे गुरु श्री केयूर भूषण जी   इस तरह की तमाम बातों के बिल्कुल विपरित । पार्टी उनके ठहरने का इंतजाम गेस्ट हाउस में करके रखती थी पर उनका ठिकाना होता किसी भी छोटे कार्यकर्ता का घर।  वहीं रहते और खाते। खाने में भी क्या, बिना नमक-मसाले की उबालकर हुई सब्जी और बिना  घी लगी रोटी।  खाने के साथ मिली सब्जी के बरतन में ही दही, लस्सी आदि को मिला लेते और बाद में उसी में पानी मिला कर बर्तन साफ कर पी जाते। बापू के अस्वाद को वे पूरी तरह चरितार्थ करते।
 भिवानी में तो कमाल हो गया. उन्हें बाबा लखीराम झोपड़ी वाले  ने आग्रह किया कि वे उनके पास ठहरे और वे हो गए तैयार।  भिवानी तो ठहरी तत्कालीन मुख्यमंत्री चौधरी बंसी लाल का निर्वाचन क्षेत्र और कॉंग्रेस का पर्यवेक्षक ठहरे एक झोपड़ी में । यह तो मुख्यमंत्री जी के लिए भी दिक्कत पैदा कर रहा था पर बाबु जी तो चुनाव के साथ-साथ गांधी सेवकों की तलाश में थे अतः उन्हें कोई नहीं रोक सका।
    चुनावों के दौरान अब हमारी कामरेड शिप ,पिता- पुत्र के रूप मे भी विकसित हो रहीं थी।  वे चाहते थे कि मैं उनके साथ रह कर काम करूं। उन्हीं ने मेरा परिचय श्री सीता राम केसरी,  माखन लाल फोतेदार आदि कॉंग्रेस के शीर्ष नेताओं से करवाया। जो भी चाहते थे कि मैं राजनीति में काम करूं, पर यह पैसा और समय मांगती है जो दोनों हमारे पास नहीं थे। अभाव के वैभव से हम सरोबार थे।
    इसी बीच हरिजन सेवक संघ ने मेरी ससुराल नाथद्वारा के श्रीनाथ जी के मंदिर में हरिजन प्रवेश का बीड़ा उठाया और इसका जिम्मेदारी दी हम दोनों गुरु-चेला को।  मेरी पत्नि श्रीमती कृष्णा कांता के पिता श्री गणेश लाल माली नाथद्वारा के मूल निवासी के साथ-साथ वहां की नगरपालिका के पहले निर्वाचित अध्यक्ष थे और बाद में राजस्थान से  वर्ष 1973-79 तक राज्यसभा के सदस्य रहे। वे मंदिर के वकील भी थे। उनका उस पूरे नगर में व्यापक प्रभाव था।  माली साहब को पूरा यकीन था कि उनकी बात को मंदिर प्रशासन एवं तंत्र टाल नहीं सकेगा और हरिजनो  का मन्दिर प्रवेश बिना किसी टकराव के हो जाएगा । श्री केयूर भूषण जी यद्यपि  मिश्र ब्राह्मण थे परन्तु इससे भी ज्यादा वे हरिजन सेवक थे । उनका व्यवहार तथा आचरण भी उनकी उच्च जाति का गुमान नहीं देता था। उदयपुर में एक सभा हुई जिसमें तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री हरिदेव जोशी सहित प्रदेश के शीर्षस्थ नेताओं ने मीठी मीठी लफ्फाजी की और कहा कि मंदिर में तो निषेध  है ही नहीं।  इस भरोसे पर अगले दिन मेरे ससुर श्री गणेश लाल जी  , श्री केयूर भूषण जी को लेकर मन्दिर दर्शन के लिए नाथद्वारा गए पर वहां स्थिति सर्वथा विपरित थी। मन्दिर के पंडे और अन्य अराजक तत्व हिंसा की तैयारी में थे।  मन्दिर के निकट पहुंचते ही आवाज आई गयी कि माली, भंगी को लेकर मन्दिर में घुस गया है(गणेश लाल माली,  केयूर भूषण, जिन्हें भंगी  कह कर प्रचारित किया गया था, को मन्दिर प्रवेश करवा दिया है), ऐसा सुनते ही इन दोनों पर  ताबङ  तोड़  हमला शुरू हो गया।
     इस हमले में इन दोनों को बेहद गहरी चोटें आयी । पुलिस ने आकर बड़ी मुश्किल से इन दोनों की जान बचाई। पूरे कस्बे में कर्फ्यू लगा दिया गया और देर रात इन्हें  उदयपुर लाया गया। इस पूरी वारदात के दौरान श्री केयूर भूषण जी ने अपनी जाति परिचय के बारे मे चुप्पी साधे रखी और भंगी  ही बने रहे। ऐसा हो सकता था कि यदि वे उपद्रवियों को अपनी ब्राह्मण जाति बताते तो बच सकते थे। मुझे भी  बाद में ही पता चला कि वे हरिजन न  होकर ब्राह्मण हैं। ऐसा पता चलने पर जब मैंने उनसे कहा कि उन्होंने अपने बचाव के लिए अपना जाति परिचय क्यों नहीं दिया तो वे बोले कि वे जानना चाहते थे कि उनकी जाति के लोगों में हरिजन लोगों के प्रति कितनी घृणा है और इसको सहन  कर वे कैसे इसका प्रायश्चित कर सकते हैं ?
       इस घटना के बाद जहां मेरे पारिवारिक संबंध बढ़े वहीं आत्मिक आध्यात्मिक रिश्तों में भी वृद्धि हुई।
      दीदी निर्मला देशपांडे जी को वे अपनी बड़ी बहन मानते थे.  रचनात्मक समाज के निर्माण एवं संचालन में उनकी बराबरी की भूमिका थी। अनेक वर्षो तक वे हरिजन सेवक संघ के उपाध्यक्ष रहे।वे स्वयं एक पत्रकार थे अतः उन्होंने लघु पत्रकार संघ की भी राष्ट्रीय स्तर पर स्थापना की.  वास्तव मे वे खुद एक संस्था थे।  लोकसभा का कार्यकाल पूरा होने पर वे अपने पैतृक घर रायपुर चले गए और वहां अपना शेष जीवन रचनात्मक कार्यों, साहित्य सेवा में बिताया।  उनके पत्रकार सुपुत्र श्री प्रभात मिश्र ने उनकी स्मृति को चिरस्थायी रखने के लिए एक संस्थान बना कर वहाँ उनकी एक प्रतिमा स्थापित की है।
     मैं यह बात विश्वास से कह सकता हूं कि बाबु जैसा निश्छल,निर्भय और निरवैर व्यक्ति कोई नहीं हो सकता। उनके साथ रहना, अनेक शिक्षको के सानिध्य में रहना है।
(मेरी पुस्तक "मेरे विद्यालय "से उद्धृत 
राम मोहन राय, 
03.07.2022
Seattle, Washington-USA 
(Nityanootan broadcast service)

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