Master Sita Ram Saini, Panipat ke Buzurg

*मास्टर सीता राम सैनी*

        मास्टर सीता राम सैनी का जन्म 1 जनवरी 1908 को पानीपत के नजदीक ही लगते एक गांव बली कुतुबपुर में हुआ था।  उनके पिता श्री बख्तावर सिंह एक मामूली किसान थे जबकि उनकी माता श्रीमती मेवा देवी बेशक अनपढ़ थी परंतु व्यवहारिक कार्यों में अत्यंत कुशल थी। पिता का अल्पायु में ही निधन हो गया और अब उनके पांच बेटों और एक बेटी की जिम्मेवारी श्रीमती मेवा देवी पर आ गई। वे शिक्षा का महत्व समझती थी इसलिए उन्होंने अपने गांव के पास खुबडू के  एक स्कूल  में अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए प्रवेश दिलवाया। उनका एक पुत्र सीताराम पढ़ाई में कुशाग्र बुद्धि था। अपने इसी स्कूल में चौथी कक्षा पास की और अब  उसका मन था कि वह और ज्यादा शिक्षा प्राप्त करे और इसके लिए वह निकट के एक कस्बे पानीपत में पढ़ने के लिए आने लगा। लगभग 13 किलोमीटर नहर की पटरी पकड़ कर रोजाना  पानीपत में आता और पढ़कर इसी तरह से वापस भी जाता। माता ने भी अपने पुत्र की पढ़ाई के लिए  निश्चय किया कि वह भी गांव छोड़ कर पानीपत में ही आ जाए।
     मास्टर जी शुरू से ही प्रतिभाशाली थे और उन्होंने पानीपत आकर यहां के प्रतिष्ठित विद्यालय जैन हाई स्कूल में प्रवेश लिया । यह विद्यालय सन 1909 में स्थानीय जैन पंचायत के लोगों ने शिक्षा के प्रचार प्रसार के लिए स्थापित किया था। उस समय पानीपत कस्बे में दो ही स्कूल थे। एक हाली मुस्लिम हाई स्कूल और दूसरा जैन हाई स्कूल। ऐसा नहीं था की धर्म के आधार पर यहां बच्चे पढ़ते हो । उस स्कूल में  हेड मास्टर डाo केशव चंद्र सेन थे जिन की  ख्याति उस समय के  तत्कालीन पंजाब भर में थी। वे पानीपत के न केवल पहले पोस्ट ग्रेजुएट थे अपितु बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी से पीएचडी भी की थी। उनकी हमेशा कोशिश रहती थी निर्धन, कृषक,दलित एवं पिछड़ी जातियों के बच्चों को प्रोत्साहित करें तथा उन्हें उच्च से उच्च शिक्षा के लिए तैयार करें। उनका ऐसा ही भाव मास्टर जी के प्रति भी बना रहा। मास्टर जी ने दसवीं जैन हाई स्कूल से और उसके बाद एफ ए लाहौर से पास की। 
 अपने हेडमास्टर डॉo के सी सेन  की  प्रयासों से ही वे अलीगढ़ मुस्लिम कॉलेज में उर्दू, अरबी और फारसी के लिए शिक्षा प्राप्त करने के लिए गए,  और वहां उन्होंने अदीब ए आलिम, फाजिल की डिग्री प्राप्त की। डॉo सेन का ही यह स्नेह था   कि उन्होंने अपने इस  विद्यार्थी को अपने ही स्कूल में उपरोक्त विषयों का अध्यापक नियुक्त कर दिया, और इस तरह से मास्टरजी ने 1928 से 1948 तक अध्यापन किया ।
    मास्टर जी की एक सिफत यह भी थी कि वह सुबह ही  पास आसपास के गांवों के लड़के उनके घर पर ही पढ़ने के लिए आ जाते थे और वे उन्हें अच्छी से अच्छी शिक्षा देते और प्रेरित करते कि वे आगे बढ़े, क्योंकि उनका मानना था शिक्षा ही एक ऐसा प्रकाश है जो उनके विकास के रास्ते को आलोकित कर सकता है। शायद ही कोई ऐसा विद्यार्थी उस समय कर रहा हूं जो मास्टर जी का शिष्य न रहा हो। वे  जहां भी जाते लोग उन्हें श्रद्धा से आदर संप्रेषित करते थे। इसी दौरान उनका विवाह हिसार के एक प्रतिष्ठित  परिवार के बाबू श्योकर्ण दास, डिस्ट्रिक्ट इंजीनियर, की सुपुत्री सीता रानी से हुआ । यह एक अद्भुत संयोग ही था कि मास्टर जी का नाम सीताराम था और उनकी पत्नी का नाम सीता रानी।
 मास्टर जी के परिवार को भी परवान चढ़े और उनको तीन पुत्र सर्व श्री मनमोहन बहादुर, मदन मोहन राना और राममोहन राय तथा एक पुत्री अरूणा उत्पन्न हुए। उन्होंने भी बच्चों के जन्म से पूर्व ही रख दिए थे। ऐसा इसलिए भी   मास्टर जी के उस्ताद डॉ केशव चंद्र सेन एक बहुत अच्छे ज्योतिषी थे और  मास्टर जी ने भी उनसे यह ज्ञान सीखा हुआ था ।  संभवत: यह मास्टरजी तथा उनकी पत्नी की ऐतिहासिक, धार्मिक एवं सामाजिक आस्था रही होगी कि उन्होंने अपनी संतान के नाम ऐसे महापुरुषों पर रखे जो पूरे विश्व में वंदनीय है।
    मास्टर जी एक शायर भी थे। उनका उपनाम, *तखल्लुस* माहिर था।  उनकी अनेक रचनाएं सीताराम माहिर के नाम से मिलती  उनका मानना था कि उनके सबसे बड़ी उपलब्धि वह दिन था जब सन 1938में  हाली पानीपती की जन्म शताब्दी पर एक भव्य कार्यक्रम पानीपत में हुआ था और उस दौरान हुए मुशायरे में तत्कालीन संयुक्त भारत के मशहूर शायर अल्लामा इकबाल आए थे। इस मुशायरे में मास्टर जी ने भी अपनी नज़्म पढ़ी थी, जिसकी अल्लामा इकबाल ने भी  तारीफ़ की थी।
 वे शिक्षा के प्रति सदा अनुग्रही रहे । वे चाहते थे पिछड़ी और दलित जातियों के बच्चे अधिक से अधिक शिक्षा प्राप्त करें। शाम ढलते  ही वे लालटेन लेकर ऐसी बस्तियों में जाकर जहां उपेक्षित वर्गों के बच्चे रहते थे उन्हें इकठ्ठा करके पढ़ाने का काम करते। अनेक बार  अनपढ़ माता-पिता  यह सोच कर मास्टर जी उनके बच्चों को बिगाड़ना चाहते हैं तो उन्हें अपमानित भी किया परंतु वह अपने पथ से कभी नहीं डगमगाए। रोपड़ से  "सैनी सेवक पत्रिका" तत्कालीन शिक्षाविद संत साधू सिंह जी तथा उन्होने  लोगों को शिक्षा के  प्रति जागृत करने के लिए प्रकाशित की ।यह पत्रिका 1966 तक लगातार प्रकाशित होती रही। इसी दौरान रोहतक में उन्होंने सैनी एजुकेशन सोसाइटी की स्थापना में भी अग्रणी योगदान दिया। अपने मित्रों  महाशय लालमणि आर्य टटेसर, महाशय भरत सिंह रोहतक , श्री ज्ञानेंद्र सिंह रेवाड़ी, महाश्य तारा चंद नारनौल आदि  के साथ मिलकर उन्होंने पूरे भारत में शिक्षा के कार्यों का प्रचार किया। रोहतक में जो आज सैनी हाई स्कूल, सैनी गर्ल्स हाई स्कूल तथा सैनी कॉलेज आदि है  के भी वे  संस्थापक सदस्यों में रहे ।
    सन 1947 में भारत की स्वतंत्रता के पश्चात पानीपत में नगर पालिका की  स्थापना हुई। मास्टर जी एक  उच्च शिक्षा प्राप्त व्यक्ति थे और उसी आधार पर उन्हें इस नगर पालिका में सुपरिंटेंडेंट  के पद पर नियुक्ति मिली, जिस पर उन्होंने सन 1962 तक लगातार काम किया। उनकी ईमानदारी, निष्ठा एवं कर्तव्य पारायणता का कोई सानी न था ।
     मास्टर जी अपने प्रारंभिक काल में ही महर्षि स्वामी दयानंद और उनके द्वारा स्थापित आर्य समाज के साथ जुड़ गए। आर्य समाज में उन्हें लाने का श्रेय वे,  पानीपत के प्रसिद्ध वैश्य समाजसेवी लाला छज्जू राम शिंगला को देते हैं। आर्य समाज में रहते हुए अनेक बार समाज के उप मंत्री रहे तथा लगातार कई वर्षों तक पुस्तकालयाध्यक्ष भी रहे। वे आर्य समाज द्वारा संचालित आर्य कन्या विद्यालय की प्रबंध समिति के भी उप प्रबंधक के रूप में कार्य करते रहे।
    आर्य समाज के अपने कार्यकाल के दौरान उन्हें आर्य समाज में पधारे स्वामी श्रद्धानंद, पंडित चमूपति एम ए, पंडित रामचंद्र देहलवी तथा स्वामी स्वतंत्रता नंद जैसे अनेक विद्वानों का भी सानिध्य प्राप्त हुआ। यह वह दौर था जब आर्य समाज संवाद और शास्त्रार्थ के पथ पर था। वे बताते थे कि अनेक बार आर्य समाज के विद्वानों ने मुस्लिम, जैन तथा पौराणिक विद्वानों के साथ  शास्त्रार्थ किया और कुछ बातें उनकी मानी और कुछ बातें अपनी भी मनवाई ।
 आप आर्य समाज के उस दौर के भी साक्षी बने जब खानपुर कलां, गोहाना के एक पटवारी फूल सिंह, आर्य समाज के वार्षिकोत्सव पर आए और समाज के कार्यों और विचारों से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने अपनी सरकारी नौकरी से त्यागपत्र देकर आर्य समाज के प्रचारक के रूप में कार्य करना प्रारंभ कर दिया।  वे अपने हाथ में खड़ताल लेकर गांव-गांव जाते और महर्षि दयानंद के संदेश को आम ग्रामीण लोगों, विशेषकर दलितों एवं पिछड़े वर्ग के लोगों में सुनाते।
  वे सदा याद करते कि किस तरह इसी तरह आर्य समाज के वार्षिकोत्सव में एक कुख्यात डाकू मुगला जाट, रात को छिपने के लिए पहुंचा उसने वही आर्य समाज के विद्वानों के विचारों को सुना और उसका हृदय परिवर्तन हो गया। उसने डकाजनी छोड़ कर पुलिस के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। मुकदमे के दौरान जब जज ने उससे पूछा कि क्या वह अपना गुनाह कबूल करता है तो उसका जवाब था   हां उसने अनेक लोगों को कत्ल किया है काफी लोगों को लूटा है और कई घरों और संपत्ति को जलाया है। मजिस्ट्रेट ने कहा कि क्या तुम यह सब कबूल करते हो और इसका अंजाम भी जानते हो तो मुगला ने कहा "हां" मैं जानता हूं, परंतु अब मैं आर्य बन गया हूं और मैं यह पूरी तरह से समझता हूं कि कर्मों का फल अवश्य भोगना पड़ता है तो फिर मैं क्यों न अभी भुगत लूं।  मजिस्ट्रेट ने उसका यह इकबालिया बयान सुन कर  उसे 7 साल की सजा दी। और जिसे उसने सहर्ष स्वीकार किया ।
   उनके सामने इसी मुगला आर्य का एक और दृष्टांत भी आया । अपने अंतिम समय में वह एक ऐसी रोग से पीड़ित हो गया  जिससे उसके शरीर में पीड़ा असहनीय थी। डॉक्टर ने कहा कि यदि वह अल्कोहल ले ले तो पीड़ा को  सहन कर पाएगा। इस पर मुगला ने कहा उसने आर्य बनने से पहले कुप्पे  के कुप्पे शराब के पिए हैं परंतु अब वह ऐसी किसी वस्तु को ग्रहण नहीं करेगा जो धर्म विरुद्ध हो।
     पानीपत के ही प्रसिद्ध वकील लाला जय भगवान जैन के एक सुपुत्र जैन मुनि जिनेंद्र वर्णी जी महाराज हुए।  मास्टरजी का यह सौभाग्य रहा कि ये मुनिदेव उनके विद्यार्थी रहे थे। उन्होने अपने जीवन काल में जैन सिद्धांत पर  अनेक रचनाओ एवं पुस्तकों का लेखन किया।  स्वयं संत विनोबा भावे ने उनसे आग्रह कर एक ग्रंथ समन सुतम की रचना की जो  जैन मत के तमाम विभिन्न उपमतों को मान्य थी। एक बार किसी कार्यक्रम में मास्टर जी को मुनि जी से मिलने का अवसर मिला।   जब मास्टरजी ने उनकी वंदना करनी चाही तो मुनि जी बोले कि बेशक वे धार्मिक संत है और संत की वंदना उचित है परंतु चूंकि वे उनके उस्ताद है इसलिए वे उनके वंदनीय है।
    सन 1962 में नगर पालिका से सेवानिवृत्ति के बाद वे अपने प्रिय शिष्य श्री लाल चंद गर्ग  के आग्रह पर उनके व्यवसाय में प्रबंधक के रूप में काम करने लगे। पानीपत में स्वास्तिका स्पिनिंग मिल  तथा बल्लभगढ़ में आकाश थिएटर के निर्माण का सुपरविजन  किया। वे   रोजाना फैक्ट्री तक 4 किलोमीटर पैदल जाते और पैदल आते। इस तरह से अपनी आयु 90 वर्षों तक 8 किलोमीटर तक की पैदल यात्रा करते रहे। पूरे दिन में एक बार ही भोजन करते और वह भी यह स्पेशलिटी थी कि थाली में परोसे दही,  हलवा अथवा सब्ज़ी  सभी को एक कटोरी में मिला कर उसे खाते । अगर कोई पूछते तो उनका ज़वाब भोजन जीने के लिए खाना चाहिए न की स्वाद के लिए। वे अक्सर कहते कि कम खाओ, गम खाओ।  जीवन पर्यंत उनको किसी भी तरह की कोई बीमारी  नहीं रही। यहां तक की रोजाना अपने पुत्र उत्कर्ष के साथ जो कि कुल 5 साल का था, क्रिकेट खेलते। एक दिन तो ऐसा आया की वह बाल कटवाने गए और अपना मुंडन करवा आए । घर आने पर  जब घर आने पर जब उनके परिवार ने उनसे पूछा कि ऐसा क्यों किया तो उन्होंने कहा कि मैं तो अब चलने की तैयारी में हूं इसलिए मैं बाल अपने दान कर आया हूं।  किसी भी प्रकार का मोह और धन अर्जित रखने की भावना कभी भी उनमें नहीं रही। आखिरकार 17 जनवरी,1997 को रात के ठीक 11:00 बजे उन्होंने अपने सभी पारिवारिक जन को बुलाया और कहा कि अब उनके चलने का समय हो गया है और उन्हें विदा दी जाए।   यह क्या उन्होंने सीताराम, राम राम का पाठ शुरू किया और इसे करते हुए  अनंत में समा गए। मास्टर सीताराम जी एक योगी थे जिन्होंने अपनी मृत्यु को भी अपनी इच्छा अनुसार वरण किया। उनका जीवन और संदेश सभी लोगों के लिए प्रेरणादायी एवं अनुकरणीय है, विशेषकर युवा पीढ़ी के लिए।
राम मोहन राय
*पानीपत के बुज़ुर्ग पुस्तक से उद्धरित*

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