Habibpur Niwada (घूमकड़ की डायरी)

*Habibpur Niwada*.
     हबीब पुर निवादा, डाकखाना सिकरोडा, ब्लॉक भगवानपुर, तहसील रूड़की, ज़िला सहारनपुर, यू पी का पता मेरे जहन में वर्ष 1974 से है जब मेरी बहन अरुणा (मुन्नी ) का रिश्ता इस गांव के एक अध्यापक एवम किसान मास्टर चौहल सिंह जी के वकील सुपुत्र विजय पाल सिंह सैनी(M. A., LL. b) से हुआ था.  मास्टर जी के परिवार की पूरे इलाके में ख्याति थी. उनके सबसे बड़े सुपुत्र देव वर्मा ने अपने समय में आई आई टी, रुड़की में इंजीनियरिंग में टॉप किया था और तब वें XEN के पद पर कार्यरत थे, उनसे छोटा बेटा मलखान सिंह गांव में रह कर खेती का काम संभालते रहें और तीन बहनें दया, संतोष और बाला भी उच्च शिक्षा प्राप्त कर अपने अपने पति का घर बार संभाल रही थी. परिवार में आर्य समाज का सात्विक प्रभाव था.
मास्टर चौहल सिंह जी और उनकी पत्नी श्रीमती बुगली देवी का पूरा जीवन अपने परिवार की परवरिश में गुजरा, पर हाँ मास्टर जी न केवल एक अच्छे गायक थे वहीं एक रंगकर्मी भी थे. महात्मा गाँधी और आर्य समाज के विचारों की झलक उनके गीत संगीत में हमेशा मिलती थी.
     मैं अपने बहन भाइयों में सबसे छोटा था परन्तु घर के तमाम महत्वपूर्ण कार्यों में मेरी दखल एवम सक्रियता रहती थी. सहारनपुर के एक सामाजिक कार्यकर्त्ता महाशय बारूमल सर्राफ़ के माध्यम से विजय पाल जी का रिश्ता मेरी बहन के लिए आया था. लड़का वकील था पर कद काठी में ऊँचा -लम्बा था पर एक ही कमी बताई गई थी कि उनका गांव  एक नदी के पार है जहाँ आवागमन की सुविधा नदारद है, बिजली नहीं है और न ही घरों में शौचालय की कोई व्यवस्था है. मैंने अपनी बहन से इस बारे में पूरी चर्चा की थी पर उसका कहना था कि शादी के बाद तो वकील पति के साथ सहारनपुर ही रहना होगा और कभी तो गांव के भी हालात बदलेंगे ही.और इस संतुष्टि पर, एक रोज़ विजय पाल जी अपनी छोटी बहन बाला के साथ हमारी बहन को देखने पानीपत आये. दोनों ने एक दूसरे को पसंद किया और अब सगाई की एक तारीख तय की गई.यद्यपि उस समय मेरी उम्र मात्र 17 वर्ष थी पर इस अवसर पर सारी तैयारी की जिम्मेवारी मुझे ही सौंपी गई और मैं इसे निभाने एक दिन पहले ही अपने होने वाले बहनोई के नारायण पुरी कॉलोनी, सहारनपुर स्थित निवास पर पानीपत से बस में बैठ कर शामली होते हुए शाम को आ गया और महाशय बारू मल जी की मदद से मिठाई, फल आदि की खरीददारी की. अगले दिन ही मेरे माता -पिता, बड़े भाई एक कार द्वारा भगवानपुर पहुंचे और वहाँ से शरू हुई हमारी गांव की यात्रा और वह भी झोटा बुग्गी में बैठ कर. उबड़-खाबड़ कच्चे रास्ते पर यह सवारी हिचकोले भरती हुई धीरे धीरे चल रही थी. ऐसी सवारी पर बैठने का यह हमारा पहला अवसर था.
और आख़िरकार हम इस गांव में पहुँच ही गए. मेरी माँ काफ़ी खिन्न और दुखी थी कि बेटी को कहाँ दें दिया और उसने उस व्यथा को कहा भी पर मेरी और बहन को यकीन था कि हालात सुधरेंगे.
      मेरी बहन की शादी होकर हम बहन के साथ मैं भी गांव में आया. हालात तो बदले नहीं थे. हम उसी तरह से झोटा बुग्गी पर बैठ कर आये. बरसात का मौसम था और रास्ते में पड़ने वाली नदी में भरपूर पानी था. पुल तो कोई था नहीं जिस पर यह गाड़ी चलती. नदी को इस झोटा बुग्गी में ही बैठ कर पार करना था. झोटा(भैंस का पति 🥰) ठहरा तो पानी का जानवर ही, उसे रुकने में आनंद आता पर बुग्गी का ड्राइवर जिसका नाम बुच्चा था वह एक चाबुक से जिसके आगे एक कील लगी थी उसकी खोद झोटे को चुभा कर आगे चलता. खैर इस दयनीय हालात में हम बहन की ससुराल गांव में पहुंचे. पर उसकी  यहाँ जो आवभगत हुई और उसकी सहूलियत प्रदान हुई उससे वह खुश थी.
     तीसरी बार हम चौधरी मलखान सिंह जी के बेटे  होने पर दसुठन (नामकरण ) पर आये. गांव में खूब जश्न मनाया गया था.यहां का परम्परागत खाना बनाया गया था जिसमें उड़द की दाल, चावल और घी-बूरा (मिठाई )परोसी गई थी. पूरे गांव की चूल्हा न्योत थी.ग्रामीण लोक गीत संगीत का भी आनंद रहा. परिवार में राष्ट्रीय भावना, गाँधी -नेहरू विचारों का माहौल था इसलिए बालक का नाम भी उसके दादा ने देशबंधु रखा. ग्रामीण माहौल में थोड़ा थोड़ा विकास होने लगा था.
   चौथी बार आये हम जब हमारे मौसा जी चौधरी चौहल सिंह जी (पुत्र चौधरी रणजीत सिंह) के देहांत के उपरांत उनकी तेहरवीं इसी गांव में मनाई गई. न केवल यहाँ के बल्कि आसपास के लोग भी इसमें शामिल होने को आये. एक उत्सव सा ही माहौल था. ऐसा इसलिए भी कि मेरी बहन के ससुर जी की मृत्यु लगभग 90 वर्षो की अवस्था में हुई थी इसलिए उनके इस दिन को "बड़ा" कह कर मनाया गया.

      आज हम पाँचवी बार ऋषिकेश -मसूरी -देहरादून यात्रा को जाते हुए आये है. पिछले दिनों मेरी बहन की मृत्यु पर गांव से सब लोग आये थे. तभी देशबंधु का आग्रह था कि हम उनके घर जरूर आये और फिर हमनें यह प्रोग्राम बनाया.आने से पहली शाम को ही मैंने उन्हें मैसेज किया कि हमारा आना सम्भव नहीं होगा पर यह पता चलते ही देशबंधु का फोन आया कि वें सभी  आतुरता से हमारे आने की इंतज़ार कर रहें है. उनके भावपूर्ण निमंत्रण को हम टाल नहीं सके और उन्हें अपने आने के लिए आश्वस्त किया.
    16 मार्च को शाम लगभग 4 बजे हम पानीपत से रवाना हुए और जीपीएस बता रहा था कि हम साढ़े 6 बजे भगवानपुर पहुँच जाएंगे पर इस बीच करीब 6-7 बार देशबंधु का फोन आया जिसमें वह हमारे बारे में जानकारी लेता रहा और फिर हमारे भगवानपुर पहुंचने पर हमें अपनी मोटरसाइकिल से एस्कॉर्ट करते हुए अपने गांव ले गया. गाड़ी ख़डी करते ही घर के अंदर पहुंचते ही गुलाब की पंखुड़ियाँ बिखेर कर  और फिर कमरे में बिठा कर घर के फूलों से बने फूल मालाओं को पहना कर हमारा स्वागत किया गया. पूरे घर में उत्सव का माहौल रहा. मैं थोड़ा गमगीन रहा क्योंकि यह पहला अवसर था जब हम अपनी बहन के बिना इस गांव में आये थे. इतिफ़ाक़ से कल उसका जन्मदिन भी है और यह पहला अवसर होगा जब वह इस दुनियां में नहीं होंगी.
 रात को भी हमारी खूब खातिर तवाजो की गई और सुबह उठने के बाद भी यह सिलसिला जारी था. उनकी पत्नी मनीषा , पुत्रीयां जूही और निधि और पुत्र अभिषेक  सभी तो हमारे साथ घुल मिल कर साथ रहे. हमारी दिवंगत बहन की जेठानी प्रेमवती तो बार बार यह कह कर ख़ुशी जाहिर कर रही थी कि आज उनका भाई आया है.
     हबीबपुर निवादा भी अब 50 साल पुराने वाला नहीं रहा. भगवानपुर से गांव तक पक्की सड़क है और हाँ उस नदी पर जिसे झोटा बुग्गी से पार करना पड़ता था अब वहाँ भी पक्का पुल बन गया है. यहाँ अब स्कूल भी है और पक्की गलियां भी और लोगों में देश में बढ़ती नफरतों के खिलाफ जागृति भी. इसे देख कर लगता है मेरी बहन का गांव के बदलने का विश्वास फलिभूत हों रहा है. सम्भवतः यही उसको श्रद्धांजलि है.
       पुराने लोग धीरे धीरे खत्म हों रहें है परन्तु नए लोग आशा और विश्वास से भरे है. हमारी कामना है कि यें संबंध और अधिक मजबूत हों.
शुभकामनायें और आशीर्वाद.
राम मोहन राय,
हबीबपुर निवादा, भगवान पुर, रुड़की, हरिद्वार.
17.03.2024.

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