मुजीब, गांधी और टैगोर पर हमले किस के निशाने पर
बांग्लादेश के घटनाक्रम से अनेक कयास लगाए जा रहे हैं. पर यह तो निश्चित है कि यह कोई इंकलाब तो नहीं है जैसा कि कई लोग युवा आक्रोश के नाम पर इसे एक नए अध्याय की शुरुआत बता रहे है.
राजनीतिक विज्ञान के एक विद्यार्थी के नाते मैं अपनी सन 2018 में सम्पन्न बांग्लादेश यात्रा के बारे में कहना चाहूँगा. जैसा कि हम जानते हैं कि भारत आज़ादी और विभाजन से पहले पूर्वी बंगाल, आज का बांग्लादेश, साम्प्रदायिकता की आग में झुलस रहा था. दोनों समुदायों के जान माल के नुकसान और नफरत चरम सीमा पर थी. तब महात्मा गांधी वहां गए थे और लगभग साढ़े चार महिने नोआखाली और उसके आसपास के गांवों में पैदल घूमे थे. एक चर्चित चित्र जिसमें बापू एक खेत की पगडंडी को अपनी लाठी लिए पार कर रहे है, उसी समय का है. हमने भी अपनी यात्रा में उन सभी स्थानों पर जाने का सुअवसर प्राप्त किया जहां जहां उनकी चरण धुली बिखरी हुई थी. वहीं हमें वे दो नौजवान मिले जो बापू के साथ कौतूहल वश घूमते थे. मोहम्मद जीतू मियां और अब्दुल कलाम भूरिया अब तो उनकी आयु 92 वर्ष हो गई थी, पर दिलों दिमाग़ से वे आज भी युवा थे. हमने जिज्ञासा वश उनसे पूछा कि आप कहते है कि गांधी जी की पदयात्रा का इतना व्यापक रूप से असर हुआ कि दंगे रुक गए और स्थिति सामान्य हो गई, पर क्या आज भी उन स्थानों पर गांधी जी का असर है जहां वे घूमे थे. उनकी आँखे यह कहते हुए चमचमा रहीं थीं और आवाज़ बुलन्द थी जब उन्होंने कहा कि जी हां, आज भी असर है. उन्होंने अपनी बात को जारी रखते हुए कहा कि इसके इम्तहान के तीन मुकाम आए. पहला - जब सन 1992 में अयोध्या में मस्जिद ढहाई गई तो उसकी प्रतिक्रिया में बांग्लादेश में भी गुस्सा फूटा और उसके शिकार बने अल्पसंख्यक समुदाय की हिन्दू आबादी, उनकी सम्पत्ति और धार्मिक स्थल. दूसरा - सन 2002 मे गुजरात नर संहार का भी इस देश में वैसा ही असर हुआ और फिर तीसरा- 2013 में जब जमायते इस्लामी के एक नेता को बांग्लादेश की ही एक कोर्ट ने उम्र कैद की सजा सुनाई और फिर दंगे भड़के और उसके शिकार भी वे ही निरपराध हिन्दू हुए. पर जब पूरा बांग्लादेश नफरत और प्रतिशोध की अग्नि में भभक रहा था, उस समय भी नोआखाली और उसके आसपास का वह इलाक़ा इन वारदातों में शामिल नहीं था जहां जहां बापू 1946 में घूमे थे. उनकी आवाज़ में जोश भी था और भावुकता भी कि यह था बापू का असर.
मुझे सन 1971 का वह तमाम घटनाक्रम हूबहू याद है जब पूर्वी पाकिस्तान, वर्तमान बांग्लादेश, के लोगों ने अपने नेता शेख मुजीब के नेतृत्व में पाकिस्तान की आतातायी निरंकुश फौजी तानाशाही के खिलाफ़ लड़ाई लड़ कर नव नवोदित बांग्लादेश का निर्माण किया.
भारत की जनता ने उनकी मदद की कोई कोर कसर नहीं छोड़ी. मुक्ति वाहिनी के नेतृत्व में बांग्लादेश आजाद हुआ और भारतीय सेना के सामने एक लाख पाकिस्तानी सैनिकों ने आत्मसमर्पण किया. उस समय रेडियो ही प्रचार का सबसे बड़ा साधन था. बीबीसी के संवाददाता मार्क टली कि इस घोषणा से कि बांग्लादेश मुक्त हो गया है और शेख मुजीब भी पाकिस्तान की जेल से रिहा होकर वापिस स्वदेश लौट रहे हैं ने पूरे भारत और पाकिस्तान में खुशी की लहर भर दी. अनेक वर्षो बाद मेरी मुलाकात इन्हीं मार्क टली से एक कार्यक्रम में आगरा में हुई. मेरे जानने पर उनका कहना था कि उनकी पत्रकारिता के इतिहास में यह अप्रतिम क्षण थे.
और हाँ वह दिन भी याद है जब 15 अगस्त, 1975 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने लालकिला की प्राचीर से अपने भाषण की शुरुआत में बहुत ही रुआँसी होकर कहा था कि कल रात बांग्लादेश के राष्ट्रपिता शेख मुजीब और उनके परिवार का बड़ी बेरहमी से कत्ल कर दिया गया. यह सुन कर पूरे देश में कोई ही ऐसा घर होगा जहां चूल्हा जला हो.
हम भारतीयों के लिए शेख मुजीब हमारे उतने ही बड़े ज़न नायक थे जितने बड़े हमारे नेता. बांग्लादेश का मुक्ति संघर्ष हमारे लिए भी किसी दुश्मन देश पर हमला न था बल्कि यह जय जगत के सिद्धांत पर स्वतंत्रता को समर्थन था.
धान मंडी, ढाका में शेख मुजीब के उस घर में भी जाने का मौका मिला जहां उन्हे प्रधानमंत्री रहते उन्हें और उनके परिवार को और यहां तक आठ साल के बेटे रसेल को , उन्हीं के सुरक्षाकर्मियों जिन्हें वे अपने घर का सदस्य समझते थे, ने बहुत ही बेदर्दी से गोलियों से भुन दिया था. अब वहां म्युजियम है. वहां की हर चीज़ शहीद मुजीब की याद कराती है. जब वहां के एक कर्मचारी को पता चला कि हम इंडिया से आए है तो उसने हमें इस कदर इज़्ज़त और प्यार दिया जो अवर्णनीय है.
नोआखाली मे गांधी आश्रम ट्रस्ट द्वारा जियाग में बापू संग्रहालय भी जाने का मौका मिला और वहीं बापू की अनन्य शिष्या झरना धारा चौधरी, जिन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन ही गांधी विचार को समर्पित कर दिया, उनके भी वहीं दर्शनों का लाभ मिला.
ढाका यूनिवर्सिटी जो कि सदा ही छात्र आंदोलन का गढ़ रहा है वहां भी गए. तत्कालीन और पूर्व छात्र नेताओं से भी मिले. इतिफाक से गुरुदेव रबीन्द्रनाथ के जन्मदिन उस दिन पड़ता था. विद्यार्थियों ने रबीन्द्र संगीत की जो प्रस्तुति दी तो लगा कि वे तो न केवल इधर बल्कि वहां यहां से भी लोकप्रिय है. उनका लिखा गीत "आमर सोनार बांग्ला" जो कि इस देश का राष्ट्रगान है, उसके प्रति निष्ठा देख कर मन प्रसन्न हो गया. साँस्कृतिक सुगंध की खुशबु इसके कण कण में व्याप्त पाई.
हमने जगह जगह पाया कि आम ज़न में राजनीतिक और वैचारिक मतभेद के बावजूद भी शेख मुजीब, महात्मा गांधी, गुरुदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर, काजी नजरूल इस्लाम के प्रति किसी भी प्रकार की अनास्था नहीं है. पर आजकल बांग्लादेश के हालात तो कुछ और ही इशारे कर रहे हैं. तो क्या हमने गलत देखा और उसे हम समझ नहीं सके अथवा कुछ और ही बात है?
बंगाल की संस्कृति, इतिहास और भाषा विविधता को अपने में संजोए हुए है. आजकल जो बांग्लादेश में हो रहा है वह बंगाली अस्मिता के खिलाफ हैं.
शेख हसीना से मतभेद अथवा विरोध हो सकते है और मुखालफत करना वहां की राजनीतिक पार्टियों का अधिकार है. जनता और उससे जुड़े संगठन भी उनके खिलाफ अपना प्रतिरोध दर्ज करवाए परंतु राष्ट्र नायकों की प्रतिमाओं, उनके नाम पर संस्थानों पर हमले करना यह सब कहीं ओर इशारा करती है. शेख हसीना के प्रधानमंत्री निवास में घुस कर उनके बिस्तर पर बेहूदगी करना और उनके अन्तर वस्त्रों को प्रदर्शित करना और उनके निजी कपडों को पहनना कौन से विरोध का तरीका है?
ध्यान रहे शेख मुजीब और उनके परिवार का क़त्ल फौज के एक गिरोह ने करवाया था जिसमें पूरी तरह से कट्टरपन्थी संगठनों की भूमिका रहीं थीं. भारत और बांग्लादेश के बेहतर रिश्ते सीआईए और आई एस आई को नाग्वारा थे. उनके निशाने पर गांधी भी थे, मुजीब भी और गुरुदेव भी और उन्होंने ही इन तमाम करतूतों को अन्जाम दिया है. याद रहे कि सन 1970-80 के वर्ष ऐसे रहे हैं जब बांग्लादेश में मुजीब, पाकिस्तान में भुट्टो, श्रीलंका मे भंडारनायक और भारत में इंदिरा गांधी की शहादत हुई. ये सब वे व्यक्ति थे जो दुनियां भर में साम्राज्य शाही के खिलाफ लड़ कर अपने अपने देश में एक नए तरह के विकास को आगे बढ़ाने का काम कर रहे थे.
आज भी बांग्लादेश में उसकी ही पुनरावृत्ति हुई है. समय भावुकता का नहीं अपितु गम्भीरता और संजीदगी का है.
Ram Mohan Rai,
महासचिव, Gandhi Global Family
बहुत सटीक विश्लेषण
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