आनंद भवन
प0 जवाहरलाल नेहरू की जन्म स्थली आनंद भवन
( इलाहाबाद)
आनंद भवन एक रिहायशी मकान ही नही जिसे हिंदुस्तान के प्रसिद्ध वकील प0 मोती लाल नेहरू ने निर्मित किया। ऐसा भी केवल नही कि यहां उनके बेटे जवाहरलाल नेहरू की परवरिश हुई और इतना भी नही की , इसी घर मे उनकी पुत्री इंदिरा गांधी का जन्म हुआ । यह सब तो इसको गौरव देता ही है पर इससे भी ज्यादा ,मैं यह मानता हूं कि यह भारत के स्वतन्त्रता आंदोलन का साक्षी है । यह सिर्फ ईंट पत्थरों से बनी एक ऐतिहासिक इमारत ही नही है अपितु इतिहास के काल खण्डों को स्वयं में संजोए एक सजीव ऐतिहासिक धरोहर है ।
9 जून 1888 को यह जायदाद जस्टिस सैयद महमूद ने खरीदी थी जिसे उन्होंने 22 अक्टूबर 1894 को उन्होंने राजा जय किशनदास को बेच दिया, जिन से 7 अगस्त ,1899 को 20,000 में रुपए में इसे पंडित मोतीलाल नेहरु ने खरीदा इस प्रकार यह परिसर नेहरू परिवार का निवास बन गया और आधुनिक भारत के इतिहास से गहरा नाता जुड़ गया । सन् 1926 में पंडित मोतीलाल नेहरू ने अपना यह ऐतिहासिक निर्णय भी महात्मा गांधी को सुनाया कि वह आनंद भवन को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को दान में देना चाहते थे वह देश के स्वतंत्रता आंदोलन में अपना सर्वस्व पहले ही दांव पर लगा चुके थे । 11 अप्रैल 1930 को आनंद भवन को उस समय के कांग्रेस अध्यक्ष और पंडित मोतीलाल नेहरू के सुपुत्र पंडित जवाहरलाल नेहरू को सौंपा गया तो इसका नाम बदलकर *स्वराज भवन* रख दिया गया। । सन 1926 में पंडित मोतीलाल नेहरू ने आनंद भवन कांग्रेस को दान करने का निर्णय किया तो तभी साथ वाली भूमि पर एक नए आनंद भवन के निर्माण का काम शुरू करवा दिया जो 1927 के मध्य तक तैयार भी हो गया । इस नए निवास का नाम आनंद भवन हो गया और उसी वर्ष नेहरू परिवार पुराने आनंद भवन को छोड़कर नये आनंद भवन में रहने चला आया ।
27 मई 1964 को पंडित जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु के बाद नेहरू परिवार का यह पैतृक निवास आनंद भवन पंडित मोतीलाल नेहरू की पोती और जवाहरलाल नेहरू की सुपुत्री श्रीमती इंदिरा गांधी को विरासत में मिला ।पारिवारिक परंपरा के अनुसार इंदिरा गांधी ने भी आनंद भवन को निजी मिल्कियत में न रखने और इसे राष्ट्र को समर्पित करने का फैसला किया ।
1 नवंबर 1970 को आनंद भवन विधिवत जवाहरलाल नेहरू स्मारक निधि को सौंपा गया और उसके अगले ही वर्ष 1971 में उसे एक स्मारक संग्रहालय के रूप में दर्शकों के लिए खोल दिया गया । वह दिन था 14 नवंबर जो पंडित जवाहरलाल नेहरू का जयंती वर्ष है और बाल दिवस के रूप में मनाया जाता है ।
आनंद भवन -स्वराज भवन के बारे में कुछ भी लिखने से पहले बहुत कुछ सोचना पड़ता है । लेखनी स्तब्ध है और वाणी मूक । ताज्जुब होता है कि कैसे एक प्रसिद्ध सफल वकील ,महात्मा गांधी के प्रभाव में आकर न केवल वकालत छोड़ देता है व अपना बेशकीमती मकान ही नही अपना सम्पूर्ण जीवन देशहित के लिये त्याग देता है । यह सब बातें मैं खुद एक वकील होने के नाते भी सोचता हूं । मेरे संज्ञान में है कि उस समय भी श्री मोती लाल नेहरू की आमदनी लाखों में थी और उन्होंने आनंद भवन की जमीन भी उस समय के लाखों रुपयों में खरीदी था । यह महात्मा गांधी का ही करिश्माई असर था कि असहयोग आंदोलन में एक नही अनेक वकीलों ने अपनी जमी जमाई वकालत को छोड़ दिया था ,अध्यापकों ने अध्यापन को छोड़ दिया और विद्यार्थियो ने अपनी पढ़ाई को छोड़ कर आज़ादी के आंदोलन में भाग लिया । इसी दौरान लाहौर में नेशनल कॉलेज की स्थापना लाला लाजपतराय ने की थी जिनमे ऐसे ही बच्चों को राष्ट्रीय भावनाओ से ओतप्रोत कर के शिक्षित किया जाता था । मेरी बड़ी बेटी सुलभा ने कक्षा चार में *मोती लाल नेहरू स्कूल ऑफ स्पोर्ट्स राई सोनीपत* में प्रवेश लिया तो मैं ज्यो ही इसके प्रशासनिक भवन में दाखिल हुआ तो वहाँ दो चित्र शीशे में फ्रेम किये हुए रखे थे । दोनो चित्र एक ही व्यक्ति के थे पर अलग-२ परिधान व भावों में । एक चित्र में वह व्यक्ति की घुमावदार मूछें थी ,वह सूट बूट में था व पास ही एक विदेशी छड़ी थी वही दूसरे चित्र में उसी व्यक्ति की मूछें सफाचट थी , वह खादी की धोती- कुर्ता में था ,एक सफेद शाल ओढ़े था और पांव में चप्पल पहने था । दोनो चित्र एक ही व्यक्ति के थे और वह थे *प0 मोतीलाल नेहरू* ।
आनंद भवन सर्वथा सजीव है । इसका एक -२ कमरा अपनी भव्यता की गाथा गा रहा है। कमरे ऐसे सजे है जैसे अभी कोई उठ कर गया है और थोड़ी देर में लौटेगा । *तुलसी का क्यारा* वही रखा है जहां इस घर की मालकिन माता स्वरूप रानी ने इसे प्रतिष्ठा दी थी हां उसी जगह जहाँ उनकी बहू *कमला नेहरू* इसकी पारिवारिक परम्परा व आस्था के अनुसार देखभाल करती थी । जी हाँ उसी जगह जहां प0 मोतीलाल नेहरू ,उनके पुत्र जवाहरलाल नेहरू , उनकी पौत्री इंदिरा प्रियदर्शनी गांधी , परपौत्र संजय व राजीव गांधी के अस्थि कलश ,इसकी छांव में रखे गए थे । आज भी इसका आंगन घर के बच्चों की किलकारी से गूंजता दिखता है वही आंगन जहां विदेशी कपड़ो की होली जलाई गई थी और घर की सबसे लाडली गुड़िया इंदिरा के प्यारे खिलौने गुड़िया की भी । महात्मा गांधी कक्ष जहां बापू रुकते थे । कांग्रेस की मीटिंगों का सभागार , घर की देशी- विदेशी बर्तनों से सजी रसोई , वकील साहब की बैठक , अतिथि गृह , जवाहर व उनकी प्यारी बेटी इंदिरा के कमरे सभी अपने मे छुपे इतिहास को बोलते है । कोई प्रयाग जाए और आनंद भवन - स्वराज भवन के दर्शन न कर पाए तो यह यात्रा अधूरी ही है । इलाहाबाद, गंगा ,यमुना व सरस्वती का तो संगम स्थल है ही विचारों का भी संगम स्थल है । अध्यात्म त्रिवेणी , विचार रूप में आनंद भवन व शहीद चंद्र शेखर आज़ाद की पुण्यस्थली का संगम ।इन्ही तीनो तीर्थो के दर्शन व स्नान कर मन गदगद है , शरीर पुलकित व विचार ऊर्जावान ।
राम मोहन राय
(Nityanootan broadcast service)
*नेहरू*
जब जब नेहरू का जिक्र आता है, मुझे यूनान के एक पुराने देवता प्रोमेथियस की कथा याद आती है. प्रोमेथियस स्वर्ग से धरती को देखता था. उसे इंसान बड़ी बदहाली में दिखाई देता. कभी उसके बच्चों को जंगली जानवर खा जाते, तो कभी वे जाड़े से मर जाते. देवताओं की तरह दो पांवों पर चलने वाला यह प्राणी सारे चौपायों से गया गुजरा नजर आता.
तब प्रोमेथियस को एक युक्ति सूझी. उसने देखा कि स्वर्ग में आग है. इस आग ने देवताओं को बहुत से सुख, शक्ति और सुरक्षा दी है. अगर यह आग किसी तरह धरती पर इंसान के पास पहुंचा दी जाए, तो इंसान अपनी बहुत-सी पीड़ाओं से मुक्त हो जाएगा.
आग पर स्वर्ग और देवताओं का कॉपीराइट था. प्रोमेथियस क्या करता. उसने स्वर्ग से आग चुरा ली. चुपके से आग धरती पर इंसानों को दे आया. आग मिलते ही इंसान की रातें रोशन हो गईं, उसका भोजन पकने लगा, जंगली जानवर उससे डरने लगे. धरती पर सुख की ऊष्मा पसरने लगी. सुख आया तो देवताओं की चाकरी बंद होने लगी. मनुष्य अब उन्हें कम अर्घ्य चढ़ाने लगा.
देवताओं ने जांच की तो पता चला कि कांड हो चुका है. देवताओं की बपौती आग, धरती पर पहुंच चुकी है. आदमी आत्मनिर्भर हो रहा है. यह पता लगते भी देर न लगी कि आग प्रमथ्यु ने धरती तक पहुंचाई है. प्रमथ्यु को बंदी बना कर देवताओं के राजा के सामने पेश किया गया. हर कोई उसे कड़ी सजा देता चाहता था. ज्यादातर तो मृत्युदंड ही चाहते थे. लेकिन मृत्युदंड संभव नहीं था, देवता अमर होते हैं, वे भला कैसे मरें.
तब यूनान के इंद्र ने एक ज्यादा ख़तरनाक सज़ा सोची. प्रमथ्यु को स्वर्ग से निकाल कर जमीन पर लाया गया. वहां इंसान की बस्ती के पास कम ऊंची पहाड़ी पर उसे सलीब पर टांग दिया गया. ठीक वैसे ही जिस तरह ईसा मसीह की सलीब पर टंगी तस्वीर हम देखते हैं. उसके शरीर में ठुकी कीलों से रक्त की धारा बह निकली. प्रोमेथियस असहनीय वेदना में टंगा हुआ था. फिर उसके कंधे पर एक गिद्ध बैठाया गया. यह गिद्ध दिन भर जीवित प्रमथ्यु का मांस नोच कर खाता. रात में जब गिद्ध सोता तो प्रमथ्यु का मांस फिर से भर जाता क्योंकि वह अमर देवता था. सुबह से गिद्ध फिर वही क्रम शुरू कर देता.
प्रमथ्यु की चीखें इंसानों की बस्ती तक पहुंचती रहतीं. सुबह की पहली किरण के साथ बस्ती वाले उस पहाड़ के नीचे पहुंच जाते. वे दिन भर प्रमथ्यु की चीखों को तमाशे की तरह देखते और शाम को फिर अपने घर आ जाते.
जिन मनुष्यों के लिए सलीब पर टंगा प्रमथ्यु अपना मांस नुचवा रहा था और असहनीय पीड़ा झेल रहा था, वे उसकी लाई आग से आगे बढ़ रहे थे और उसकी बेबसी का उत्सव मना रहे थे.
कथा यहीं समाप्त होती है. लेकिन कथा में बताई बात कभी खत्म नहीं होती. वह हर महापुरुष पर लागू होती है, जिसे गोली से नहीं मारा जा सका. लिंकन और गांधी सौभाग्यशाली थे कि उन्हें गोली से मार दिया गया. नेहरू अभागे थे, जो देश की मरते दम तक सेवा करते रहे. जब तक वे सेवा कर रहे थे, जब तक वे स्वर्ग की आग भारत तक ला रहे थे, वे बहुत लाड़ले थे. उनके जाने के बाद हमने उनके पूरे किरदार को सलीब पर टांग दिया और गिद्ध की तरह उसे नोच रहे हैं.
पहाड़ी के नीचे खड़े होकर उनकी पीड़ा का तमाशा देखने का सिलसिला अब इतना लंबा हो गया है कि तमाशाइयों की नई पीढ़ी यह भूल ही गई है कि इस शख्स को किस बात की सजा दी जा रही है. आज नेहरू की जयंती पर उन्हें फिर याद दिलाता हूं कि नेहरू का जुर्म यही था कि जब अंग्रेजी राज में वह सारे सुख भोग सकता था, तब वह बागी हो गया. जब नौजवान ही था, तब उसने जलिंयावाला बाग हत्याकांड की रिपोर्ट विस्तार से तैयार की. वह उन चंद लोगों में था जो लोकमान्य तिलक की अंतिम यात्रा में गांधी के साथ चल रहा था. वह उन लोगों में था जिसके प्रभाव में आकर उसके पिता ने अपना घर-मकान सब कांग्रेस को दे दिया था. वह उन लोगों में था जो पहली बार अपने पिता के साथ जेल गया था. वह उन लोगों में था जो सरदार भगत सिंह से मिलने जेल गया था. और भगत सिंह की रिहाई के लिए अंग्रेजों से लड़ रहा था. कांग्रेस के अंदर वह सुभाष चंद्र बोस का सच्चा दोस्त था. अपनी पत्नी कमला की मौत के बाद उनकी चिता की एक चुटकी राख वह जीवन भर अपने साथ रखता रहा. महात्मा गांधी के अंतिम उपवास में चुपचाप खुद भी उपवास करने वाला वह विरला प्रधानमंत्री था. जब वह संसद में 'ट्रिस्ट विद डेस्टिनी' का भाषण दे रहा था, तब उसके दिमाग में लाहौर के वे हिंदू मुहल्ले चल रहे थे, जहां का पानी काट दिया गया था.
वह इतना बुरा था कि जब दुनिया बमों के ढेर पर बैठी थी, तब भी शांति की बात करता था. उसकी शांति का ऐसा जलवा था कि कोरिया के गृहयुद्ध को अंतत: उसी ने एक समझौते पर पहुंचाया था. वह पूरी दुनिया में सम्मानित था और रहेगा. लेकिन उसके घर में उचक्कों का गिरोह, उसकी वेदना से तब भी मनोरंजन करता था आज भी कर रहा है.
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साभार
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