एक लड़की और इंदिरा गांधी - उपन्यास समीक्षा उर्मिला श्रीवास्तव
तमाम तरह के कामों के उलझनों के बीच संजय (संजय सिन्हा )का यह उपन्यास कई किश्तों में 'एक लड़की और इंदिरा गांधी 'अभी अभी खत्म किया।
बहुत खूबसूरत,ताजी हवा जैसा कथ्य,शिल्प की मौलिकता से रचा बसा।
................मन बहुत गहरे प्रभाव में रहा है बहुत देर तक।
परंपरागत स्त्री चरित्र से इतर एक स्त्री का ये चरित्र एक नई दुनिया में ले जाता है,जो दुनिया सबके लिए पहचानी से ज्यादा सुनी हुई है।
क्या विद्रोह खुद से भी हो सकता है ?
हां होता है ,ये कहानी यही कहती है।
ये विरोधाभास ही है सपने देखना और उन्हें बगैर फ्रेम तोड़े पूरा करना।
सब कहते हैं -
' सपने देखो।सपने देखने का साहस तो करो! '
पर कहने वाले शायद इस विरोधाभासी समाज को नहीं जानते कि सपने पूरे करने के लिए कई कई बार लीक को तोड़ना पड़ता है और लीक तोड़ने में कहीं भी कभी भी भटकने बहकने का डर रहता ही है।
वो बना बनाया पंथ जो नही होता।
सपना देखने की कीमत चुकानी पड़ती है और पूरा करने के लिए एक जन्म में ही कई कई जन्म लेने पड़ते हैं।
और होता ये है कि ज्यादातर एक अंतराल की मृत्यु के बाद अगला जन्म होता नही।
पता नहीं उसे क्या कहा जाय।
परंपरा,पलायन,विवशता या मोक्ष।
तभी शायद कई लोग सपना देखना तो दूर उसे देखने का साहस तक नहीं कर पाते।
.......................पर ज्वालायें कर पाती हैं।
पर सार तत्व ये भी है कि अग्नि किसी को भी स्वीकार्य नही होती अगर वह फ्रेम को तोड दे तो।
यही सामाजिक संरचना है।
बड़ों बड़ों की महत्वाकांक्षाओं में कितने पिसते हैं कभी किसी समय ने उनका कोई हिसाब नही किया ,वो केवल इतिहास की एक लाइन में समा गए एक बिंदु की तरह ,कभी कभी वो भी नहीं।
पर फिर भी चरैवेति चरैवेति।
इस सबसे इतर ये उपन्यास सबके लिए यही संदेश देने में भी सफल रहा है कि किसी भी आग को तब तक उस मर्यादा में रहना होगा जब तक वह न केवल दूसरों के सपनो की रक्षा कर सके बल्कि सबके जीवन की भी रक्षक बनी रह सके।
किसी के जीवन की कीमत से बड़ा कभी भी किसी का सपना नहीं हो सकता।
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