कथा त्रिवेणी: स्व0 दीदी निर्मला देशपांडे जी द्वारा संपादित पत्रिका नित्यनूतन के प्रवेशांक 15 अगस्त ,1985 में प्रकाश

कथा त्रिवेणी       (1)     
    एक था राजा , विद्वानों की बड़ी कद्र करता था। उसने सुना कि राज्य में कहीं एक बहुत बड़े ज्ञानी हैं ।तुरंत  दूतो को आदेश दिया ,जाओ, ज्ञानी को खोज कर लाओ, मैं उनसे मिलना चाहता हूं। दूत चार दिशाओ में घूम आएं। ज्ञानी तो नहीं मिले ।राजा ने पूछा, "कहां ढूंढा था तुमने उन्हें।' दूतो ने  कहा ,"सारे शहर ढूंढ डाले,सारे गांव छान डाले। ज्ञानी का तो कहीं पता नहीं चला।" राजा बोला अरे मूर्खों, ज्ञानी कहीं शहर में थोड़े ही रहते हैं?उपह्यरे गिरिणा संगथे च नदीनाम धिया विप्रो अजायत- जंगलों पहाड़ों की गुफाओं और नदियों के संगम पर ज्ञानी रहते हैं। जाओ  फिर से खोजो उन्हें। दूत फिर निकले पडे ज्ञानी की खोज में और उन्हें  ढूंढ ही लाये।यह  था उपनिषदों का युग और आज.....
    *************** 
(2)     
कालिदास के शाकुंतल में आता है- राजा दुष्यंत शिकार को निकला ।एक घने जंगल में उसने एक हिरण को देखा। राजा ने धनुष बाण संभाला। हिरण दौड़ने लगा। दुष्यंत हिरण का पीछा करने लगा। दौड़ते दौड़ते हिरन पहुंचा कणव मुनि के आश्रम में ।आश्रम के छोटे से बालक ने देखा कि राजा तो हिरण का पीछा करता हुआ आश्रम में आ रहा है। तो बालक ने चिल्लाकर कहा ",रुक जाओ हे राजा रुक जाओ।" आश्रममृगयो अयम न हनतव्यो न हनतव्य:-यह आश्रम का मृग है इसे तुम नहीं मार सकते।बालक के  कहने का अर्थ था कि आश्रम में ऋषि की सत्ता चलती है,राजा की नहीं।राजा ने उसकी बात मान ली। बालक फिर बोला- "आर्ततृणाय हि व: शस्त्रम,न हि प्रहर्तु मनागसि " हे राजा,तूने जो शस्त्र उठाया है वह दुर्बलो की रक्षा के लिए है ,दुर्बलो को मारने के लिए नहीं। उसमें युग मे आश्रम का एक बालक निर्भीकता से राजा को उसका कर्तव्य बताता था । और आज......
       ****************
            (3)
 
यूनान (ग्रीस )का राजा सिकंदर  दुनिया को जीतकर दुनिया का बादशाह बनना चाहता था। वह अपने देश से निकला और एक एक राह में पढ़ने वाले देशों को जीतता हुआ पहुंचा भारतवर्ष ।सीमा पर एक छोटा सा राजा था पोरस , उसे भी सिकंदर ने हरा दिया। लेकिन उस समय भारत की राजधानी थी पाटलिपुत्र (पटना), सिकंदर वहां अपना झंडा गाड़ना चाहता था। सीमा से पाटलिपुत्र बहुत दूर था। सिकंदर ने सुन रखा था कि सीमा के पास तक्षशिला विद्यापीठ है ।जहाँ एक बहुत महान ज्ञानी रहते है ।सिकंदर ज्ञान का प्रेमी था,उसने ज्ञानी के पास सन्देश भेजा कि मिलने आइये। ज्ञानी ने जवाब भेजा ,मै क्यो आऊँ?सिकंदर को गरज हो तो वह आये। सिकंदर को गुस्सा तो आया ,लेकिन उसे ज्ञान पाना था ।घोड़े पर सवार होकर निकला तक्षशिला की ओर। विद्यापीठ के पेड़ की छांव में कोई लेटा था। सिकंदर का घोड़ा रुक गया वह बोला,' वह बदतमीज! कौन हो तुम, मेरे घोड़े की राह रोकने वाले ?वह आदमी ठहाका मारकर हँसा, बोला ' मुझसे क्या पूछते हो, मैं हूं दुनिया का बादशाह ।'यह सुनकर सिकंदर गुस्से से बोला  "यूनान से लेकर हिंदुस्तान तक सब देशों पर मैंने विजय पाई है और तुम खुद को दुनिया का बादशाह कहते हो? वह आदमी और हंसा ,'अच्छा तो तुम हो सिकंदर? तुम कहते हो तुम दुनिया जीतने चले हो, पर क्या अपने आप को जीता है तुमने? अपने मन, इंद्रियों पर विजय पाई है ?सिकंदर जान गया  यही है ज्ञानी। घोड़े से उतरकर प्रणाम किया और बोला,' जी नहीं  अभी तक मैंने अपने आप पर विजय नहीं पाई है ।मुझे ज्ञान दीजिए।' तब ज्ञानी ने उसे ज्ञान का उपदेश दिया।
         दूसरे ही दिन सिकंदर ने अपने सिपाहियों से कहा, लौट चलो ।हम आगे नहीं बढ़ेंगे। इस देश को कोई जीत नहीं सकता, कोई गुलाम नहीं बना सकता। यहां से ज्ञानी मौजूद है जिन्होंने खुद को जीत लिया है और वह लौट गया ।   
              इस घटना का उल्लेख ग्रीक इतिहासकारों ने 'सिकंदर और ब्राह्मण' शीर्षक से किया है ।     
     यह था उस जमाने का भारत और आज.......

Comments

Popular posts from this blog

Justice Vijender Jain, as I know

Aaghaz e Dosti yatra - 2024

मुजीब, गांधी और टैगोर पर हमले किस के निशाने पर