महात्मा गांधी और मेवात - सदीक अहमद मेव

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गांधी जी और मेवात*     
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          बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में गांधीजी मेवातियो के सबसे बड़े हमदर्द थे। मेवाती भी उन्हें प्यार और सम्मान से गांधी बाबा कहते थे और आजाद भारत में उन्हें अपना संरक्षक समझते थे। गांधी जी भी मेवातियो के साहस और संघर्ष क्षमता से भलीभांति परिचित थे। मेवाती और गांधी बाबा का यह आत्मिक रिश्ता एक दिन में नहीं बल्कि बरसों में कायम हुआ था। अगर यह कहा जाए कि गांधीजी और 
मेवातियों का यह रिश्ता स्वतंत्रता आंदोलन में मेवातियों की भूमिका का इतिहास है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।   
                  वास्तव में सन 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की विफलता के पश्चात मेवातियों को अंग्रेजों और सेना अधिकारियों के ब बदले की भावना से की गई कार्यवाही का शिकार होना पड़ा ।हजारों मेवाती  आमने-सामने की लड़ाई में वतन के लिए शहीद हो गए। हजारों को खुलेआम फांसी पर लटका दिया गया ।अनेक लोगों को जेल की लंबी लंबी सजा दी गई। जमीनों की जब्ती ,भारी जुर्माने तथा खेती और पशुओं की बर्बादी ने आर्थिक तौर पर मेवाती किसानों की कमर तोड़ दी। लगभग 6 से 10 हजार की संख्या में लोग शहीद हुए और 42 गावों को आततायी अंग्रेजी सेना ने आग लगाकर तबाह व बर्बाद कर दिया।रायसीना  मोहम्मदपुर ,सांप की नंगली , हरियाहेडा ,नूह्ंहेडा , हरचंदपुर, डूंडाहेडी  और दोहा आदि गांवों की जमीनें  जब्त कर अंग्रेजों ने युद्ध में अपने सहायकों को पुरस्कार में दे दी। मेवातियों की सेना में भर्ती पर अघोषित प्रतिबंध लगा दिया गया ।ऊपर से अंग्रेज माल अफसरों की लूट खसोट
' कोड़ में खाज का काम' कर रही थी। यद्यपि 'देखो और इन्तज़ार करो ' की नीति अपना रखी थी  मगर जब जुल्म और शोषण सर के ऊपर से गुजरने लगे तो फिर विरोध और विद्रोह का रास्ता ही बचता है ।मेवाती  भी जब जालिमों के जुनून से तंग आ जाते तो उनका स्वाभिमान जाग उठता और वे  अंग्रेजी एवं  रियासती माल अफसरों के साथ मारपीट पर उतर आते।रियासत में 'कोलानी  और 'धमूकड़  की लड़ाई सशस्त्र विरोध का ही परिणाम थी,  जिसमें रियासत का नाजिम व कई सेना अधिकारी मारे गए थे ।                     
                  मेवातियों के  इस प्रकार के असंतोष को दबाने के लिए अंग्रेजों ने कूटनीति से काम लिया और स्थानीय जेलदरों और नम्बर दारो  के द्वारा मेवातियों येन-केन प्रकारेन शांत रखने में कामयाब हुए।
         सन 1939 में गांधी जी ने अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध सत्याग्रह शुरू किया ,जिसमें शामिल होने के लिए लोगों से फॉर्म भरने की अपील की गई ।चौधरी अब्दुल हई ने सत्याग्रह में शामिल होने के लिए फॉर्म भरा। इसके बाद कांग्रेस हाईकमान ने उन्हें सत्याग्रह में शामिल होने की इजाजत दे दी ।सत्याग्रह में शामिल होने की इजाजत मिलते ही चौधरी अब्दुल हई पूरे उत्साह और जोश के साथ सत्याग्रह में शामिल हो गए
 उन्होंने 'भर्ती मत दो', 'मालगुजारी मत दो' के नारों  के साथ पुरजोर तरीके से अंग्रेजी सरकार का विरोध करना शुरू कर दिया। मेवात में लगातार सभाएं और विरोध प्रदर्शन होने लगे। जिनसे सरकार और प्रशासन की नींद हराम हो गई।                             
             सन 1940 में चौधरी कंवल  खान के सहयोग से गांव में एक विशाल जनसभा का आयोजन किया गया । जिसमें संपूर्ण मेवात के हजारों लोगों ने भाग लिया। चौधरी अब्दुल हई ने एक जनसभा में सरकार की नीतियों की घोर निंदा करते हुए एक जोशीला भाषण दिया और सरकार से पूर्ण स्वतंत्रता की मांग की। जनसभा समाप्त होते ही पुलिस ने चौधरी अब्दुल हई को गिरफ्तार कर लिया और हथीन थाने में बंद कर दिया उन्हें अगले दिन गुडगांवा (अब गुरुग्राम) की अदालत में पेश किया गया, जहां उन्हें उनके भाषण के मुख्य अंश पढ़कर सुनाए गए। चौधरी अब्दुल ने उन्हें स्वीकार कर लिया ।इस पर न्यायालय ने उन्हें डेढ़ साल की सश्रम कैद की सजा सुनाई ।सजा के दौरान वह गुडगावां, हिसार और रावलपिंडी जेलों में रहे ।जहां उनसे सूत कतवाया जाता था।                     
                सन 1942 में वह जेल से रिहा हुए तो पूरे उत्साह के साथ स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े ।इसी समय 'अंग्रेजों भारत छोड़ो' आंदोलन शुरू हो गया। एक बार मेवाती चौधरी अब्दुल हई ,डॉक्टर कंवर मुहम्मद अशरफ,और मुत्ल्लवी फरीदाबदी के नेतृत्व में पूरे जोश के साथ 'भारत छोड़ो आंदोलन'में  कूद पड़े। 'अंग्रेजों भारत छोड़ो',' गांधीजी  जिंदाबाद' के नारों से  फ़िज़ाएं गूंज उठी।           
           सन 1946  में कांग्रेस में आपसी मतभेद उभर आए और कॉंग्रेस का
धड़ा अलग हो कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (सी पी आई) में शामिल हो गया। चौधरी अब्दुल हई भी डॉक्टर कंवर मुहम्मद अशरफ और सय्यद मुत्ल्लवी फरीदाबादी के साथ कांग्रेस से अलग हो कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया में शामिल हो गए और जीवन पर्यंत इसी पार्टी के लिए किसान और मजदूरों की भलाई के लिए काम करते रहे।
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आखिर लोगों की कुर्बानियां और अथक संघर्ष रंग लाया और हमारा देश 15 अगस्त सन 1947 को लगभग  200 साल की गुलामी की जंजीरों को तोड़ कर आजाद हो गया। वर्षों बाद लोगों ने आजादी की खुली हवा में सांस ली। आजादी की हवाओं में फैली वह भीनी भीनी खुशबू केवल उन्हीं लोगों ने महसूस की होगी जिन्होंने गुलामी का दौर देखा होगा ।मगर उस खुशबू में कुछ विशेष प्रकार की खुशी ,एहसास और संतोष होगा और साथ होगा जिम्मेदारी का अहसास और गंभीर चिंतन ।         
                मगर आजादी का  वह दौर मेवतियो के लिए काली अंधकार भरी रात की तरह था ।जाते-जाते शातिर अंग्रेज देश को भारत और पाकिस्तान नामक दो देशों में बांट गए ।परिणाम स्वरूप सांप्रदायिक दंगों, लूट ,कत्ल  ,आगजनी और बलात्कारों का एक ऐसा वीभत्स तूफान आया कि इंसानियत शर्मसार हो गई। दोनों देश सांप्रदायिक दंगों की चपेट में आकर लहूलुहान हो गए। जख्म इतना गहरा लगा कि दोनों देशों को आज तक साल रहा है ।                   
               सौभाग्य अंदरूनी मेवात( जिला गुड़गांवां )इस आग से बच गया। शायद यहां मेंवो ,जाटो, गुर्जरों, राजपूतों और अन्य जातियों के सामाजिक रिश्ते इतने मजबूत थे कि उस हैवानियत भरी तूफान में मजबूती से बंधे रहे। मगर रियासत भरतपुर और अलवर में मारकाट का ऐसा दौर चला कि इंसानों को लावणी की तरह काटा गया। रियासती फौजों ने सांप्रदायिक तत्वों से मिलकर हत्या ,आगजनी, लूट और बलात्कारों का वह तांडव किया कि शैतान भी आश्चर्यचकित रह गया होगा।                       
             वास्तव में 'अलवर तहरीक' से महाराजा अलवर और प्रजा परिषद के आंदोलन से महाराजा भरतपुर मेवों से खार खाए बैठे थे। महाराजा भरतपुर तो रोहतक व भरतपुर के बीच के पूरे क्षेत्र पर जाट राज्य स्थापित करने का सपना संजोए बैठा था। जिसमें सबसे बड़ी रुकावट मेवात थी। मगर मेवतियों ने साफ तौर पर कह दिया था कि न तो उन्हें देश का बंटवारा स्वीकार है और न ही वे मेवात छोड़कर पाकिस्तान जाएंगे। मगर दोनों ही रियासतों के शासक और कुछ सांप्रदायिक तत्व मेवों को जबरदस्ती पाकिस्तान भेजने पर उतारू थे ।इसलिए मेवो को जबरदस्ती पाकिस्तान भेजने को उतारू सांप्रदायिक तत्वों और रियासतों के शासकों ने फर्जी सेना तैयार की। जिसका नेतृत्व महाराजा भरतपुर का छोटा भाई बच्चू   सिंह कर रहा था। गुंडों और सांप्रदायिक तत्वों को फौजी वर्दी ,हथियार और जीप आदि देकर खुला छोड़ दिया गया ताकि वे लोगों को उनके घरों से निकालकर मेवात छोड़ने के लिए मजबूर कर सके ।         
             गढ़ गंगा के दंगों के बाद मेवात मे होडल से दंगों की शुरुआत हुई। होडल में कुछ गरीब भटियारे ,दस्तकार, सुनार, तांगे वाले, धोबी  मनिहार टोली और दर्जी आदि मुसलमान रहते थे ।जिनका मेवों से कोई संबंध नहीं था और वे हिंदुओं के ही काम करते थे तथा लोगों की रोजाना की आवश्यकताओं की पूर्ति करते थे ।     
          अचानक होडल और आसपास के गांवों के लोगों ने लाठियों,फरसो,नेज़ो
  कुल्हाडियों से लैस हो होडल में रहने वाले गरीब अल्पसंख्यक मुसलमानों पर हमला बोल दिया। बड़ी संख्या में जवान, बूढ़े, मर्द और बच्चे जिंदा जला दिए गए ।कुछ मेवों पर भी जो आसपास के गांवों से खरीदारी करने आए थे, हमला किया गया। औरतों को जो होडल के रास्ते किसी शादी में जा रही थीं, अगवा कर लिया गया। स्थानीय पुलिस केवल मूकदर्शक बनी देखती रही।       
                  स्पष्ट रूप से यह मेवात में सांप्रदायिक दंगे करवाने की योजना की शुरुआत थी ।जिसका अर्थ था, मेवात पर योजनाबद्ध हमला। मगर मेवात में इसकी कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई और इसे घरेलू मामला समझकर नजरअंदाज कर दिया गया। घायल मेवों की शिकायत और अगवा की गई औरतों की सकुशल वापसी के लिए पत्र लिखा गया ।इसके कुछ दिन बाद अगवा औरतें वापस भेज दी गई और इस तरह असामाजिक तत्वों की योजना विफल हो गई ।     
                  होडल योजना की असफलता से निराश अराजक तत्वों ने झूठी अफवाहें फैलाने शुरू कर दी ।कुछ दिन बाद अखबारों में एक समाचार छ्पा कि मेवात की मुस्लिम लीग( जो मेवात में थी ही नहीं) आसपास के हिंदू गांवों पर हमला करने की योजना बना रही है। डॉक्टर कंवर  मुहम्मद अशरफ के विरुद्ध भी दुष्प्रचार किया गया कि उन्होंने मेवात में 10000 मुसलमानों की सेना का गठन किया है। साथ ही कहा गया कि डॉक्टर अशरफ के स्वयं एक हिंदू गांव में दावा किया है कि वह मेवात के राजा हैं ।सबसे सनसनीखेज अफवाह यह थी कि अशरफ मेवों की मदद से मिनी पाकिस्तान बना रहे हैं।                               
        होडल की घटना के बाद इस क्षेत्र में शांति बनाए रखने के लिए बिछौर और सौंध गांवों में जाटों और मेवों की बिरादरी पंचायतें हुई ।इन पंचायतों में फैसला हुआ कि सांप्रदायिकता को मिलकर समाप्त किया जाए और क्षेत्र में गुंडागर्दी को किसी भी हालत में बर्दाश्त नहीं किया जाएगा, ताकि दोनों जातियों के बीच शादियों से सामाजिक संबंधों को कायम रखा जा सके।                         
      मगर ये पंचायतें अपने फैसलों को कायम न रख सकी। क्योंकि अलवर और भरतपुर रियासतों के शासकों की आंखों में मेवात कांटे की तरह चुभ रही थी। इसलिए वे किसी भी कीमत
पर मेवों को पाकिस्तान धकेलने पर उतारू थे । मेवात के आसपास का जाट बाहुल्य क्षेत्र जो पहले ही महाराजा भरतपुर के प्रभाव में था, तिस पर' जाट प्रदेश' का मुद्दा उछाल कर
सांप्रदायिकता की आग को और हवा दे दी गई । परिणाम स्वरूप मेवात  पर चारों ओर से 'धाडो '
 के हमले शुरू हो गए।   
            मेवात की पूर्वी सीमा पर एक विशाल भीड़ ने हमला कर नीमका ,नई, बिछौर, इनदाना और दाड़का गावों में आग लगा दी। उत्तर- पूर्व में कोट और हथीन गावों  में मोर्चे लग गए, जहां से कोट गांव पर लगातार हमले हो रहे थे। मगर मेवों ने एकजुट होकर इन हमलों को असफल कर दिया और उस विशाल 'धाड़'  को मार भगाया जो मेवात को नेस्तनाबूद करने पर तुली हुई थी ।उत्तर में रेवासन और घासेड़ा पर जाटों की एक विशाल धाड़  ने हमला कर दिया और गांवों को आग लगा दी। इसकी प्रतिक्रियास्वरूप मेवों ने भी जाटों के कई गांवों पर हमला कर उन्हें आग के हवाले कर दिया।
                उत्तर पश्चिम में झगड़ा 26 मार्च को तब शुरू हुआ जब मेवों ने  नूरपुर अहीर से भैंस चुरा ली.... रास्ते में धाड़ ने कोटली मेव पर हमला किया,जहां लगभग एक हज़ार जाट हाथी पर सवार नेता के साथ आए थे।     
            अप्रैल के शुरु में  महाराजा भरतपुर ने जिला गुड़गावां की सीमा से सटे रियासत के अंतिम गांव धौलेट का दौरा किया। जब लोग इकट्ठे हो गए तो महाराज की सेना ने उन्हें घेरकर अंधाधुंध फायरिंग शुरू कर दी। 70 लोग सेना की इस बर्बर कार्यवाही में मारे गए और सैकड़ों घायल हुए ।                           
                जून के महीने में भरतपुर की सेनाओं ने गांव-गांव जाकर अंधाधुंध फायरिंग की और हजारों स्त्री- पुरुष और बच्चों व बुजुर्गों को मौत के घाट उतार दिया और जीवित बचे लोगों को अपने घरों में गांवों से बेघर और भागने पर मजबूर कर दिया। उनके घर व गांव लूट लिए गए और उनमें आग लगा दी गई।
             20- 21 जून तक कामा सहित भरतपुर रियासत के तमाम मेव गांव असामाजिक तत्वों से बनी धाड़ ने जलाकर राख कर दिए। इस आगजनी के बाद भरतपुर और मथुरा के आसपास बसे मेव दहशत के साए में जी रहे थे। लोगो ने स्वयं अपने घरों व गांवों को आग लगा दी ताकि लुटेरों को वहां से कुछ हासिल ना हो।                     
            जुलाई के अंतिम सप्ताह तक भरतपुर रियासत के तमाम मुसलमान रियासत अलवर और जिला गुड़गांव की ओर निकाल दिए गए। 5 अगस्त को अलवर रियासत की सेनाएं तिजारा पहुंची और अपनी ही रियासत के नाजिम चौधरी बरकातुल्लाह के घर पर हमला कर सारे मर्दों को मौत के घाट उतार दिया। औरतों ने हवेली के सहन  में बने कुएं में कूदकर अपनी इज्जत बचाई ।         
                 4 सितंबर को भरतपुर की सेना ने 'डीग मेव' को घेर लिया। 7 सितंबर को कुम्हेर के मुसलमानों पर कयामत टूटी। 8 सितंबर को बांदीकुई से आने वाली ट्रेन को रोककर उसमें सवार सभी मुसलमानों को कत्ल कर दिया गया। 9 सितंबर को तहसील बयाना और 10 सितंबर को भरतपुर के मुसलमानों को कत्ल कर दिया गया ।11व 12 सितंबर को रूपबास और अचैन की बारी थी।     
           रियासत अलवर में मंडावर के 12 मुस्लिम राजपूत गावों  को तबाह व बर्बाद कर दिया गया ।गांव भंगारा जो मंडावर से 15 मील दूर है, शुद्धि कर हिंदू बना लिया गया।               
         इसके बाद अलवर रियासत की सेनाओं ने सांप्रदायिक तत्वों के साथ मिलकर लोगों का कत्लेआम शुरू कर दिया।
 लोग भौण्ड की घाटी के रास्ते अपनी जान बचाकर जिला गुड़गांव की ओर भागे तो सेना ने घाटी को घेरकर अंधाधुंध फायरिंग की। सैकड़ों लोग मारे गए।
शेष ने गुड़गांवां- मेवात में अपने रिश्तेदारों के यहां शरण ली। सेना यहीं नहीं रुकी बल्कि रात के अंधेरे में जिला गुड़गांव की सीमा में घुसकर सिधरावट गांव की मस्जिद में नमाज पढ़ते लोगों पर फायरिंग की।   
                   एक प्रत्यक्षदर्शी के अनुसार लोगों को लावणी की तरह काटा गया ।अकेले भरतपुर में लगभग 30000 लोग रियासती फौजों के द्वारा मार डाले गए ।अलवर में लगभग 40000 लोगों की शुद्धि की गई। रियासत के प्रधानमंत्री ठाकुर शिव सिंह ने लोगों को शुद्ध करने का प्रबंध किया।                 
               इस तरह अलवर और भरतपुर रियासतों के दंगा पीड़ित, लुटे पिटे अपने घरों व जायदादो से बेदखल, असहाय मेव जिला गुड़गांवां  के मेवात में अपनी रिश्तेदारों में आ पड़े। मगर यहां भी रियासती फौजों व सांप्रदायिक तत्वों ने उनका पीछा नहीं छोड़ा।वे तो हर कीमत पर मेवों को पाकिस्तान भेजने पर उतारू थे।                       
                ऐसे हालात से परेशान रियासत अलवर से निकाले गए लोग रेवाड़ी के रास्ते गुड़गांव होते हुए सोहना कैंप में आकर ठहरे। कुछ लोग दिल्ली के' पुराना किला कैंप' में चले गए ,जहां दिल्ली के लोगों ने उनके खाने-पीने का इंतजाम किया।             
               डिप्टी कमिश्नर गुड़गांवां जो अभी नए नए आए थे, ने भरपूर प्रयास किया कि नागरिक प्रशासन को बेहतर बनाया जाए। जो अत्यंत खराब हो चुका था। कुमाऊं रेजिमेंट की एक बटालियन और एक यादु  पेट्रोल इन लुटे -पीटे मेव मर्दों औरतों, बच्चों और बुजुर्गों की मदद कर रहे थे। मगर पुलिस का रवैया भेदभाव पूर्ण था। बाद में मद्रास बटालियन ने स्थिति को संभालने का प्रयास किया ।मगर पुलिस के साथ-साथ कुछ सिविल अधिकारियों की कार्यशैली भेदभाव पूर्ण थी। वे सांप्रदायिक तत्वों से मिले हुए थे। लोगों के साथ निर्दयता पूर्वक मारपीट और रिश्वतखोरी के गंभीर आरोप भी उन पर लगाए जा रहे थे। अनेक सरकारी कर्मचारी और गुड़गांव, मथुरा तथा बुलंदशहर के कुछ कांग्रेसी नेता भी अपना प्रभाव जमाने अथवा सांप्रदायिक सोच के कारण दंगाइयों से मिले हुए थे।   
          हालात अत्यंत खराब थे। लुटे पिटे बर्बाद और असहाय मेवो को चारों ओर अंधेरा ही अंधेरा नजर आ रहा था ।उनके उस समय के सर्वमान्य नेता चौधरी मुहम्मद यासीन खान के खिलाफ गिरफ्तारी वारंट निकल चुके थे और उनके बारे में अफवाह फैला दी गई कि या तो वे गिरफ्तार कर लिए गए हैं या उनको कत्ल कर दिया गया। डॉक्टर कंवर मूहम्मद अशरफ के भी गिरफ्तारी वारंट निकल चुके थे।मुत्ल्लवी फरीदाबादी को पाकिस्तान जाने के लिए मजबूर कर दिया गया था।
           लोग अपने नेताओं के बिन परेशान और निराश थे ।उन्हें कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था कि ऐसे हालात में क्या किया जाए ।रेवाड़ी, सोहना, घासेड़ा, दिल्ली के पुराने किले में कैंप लग चुके थे  जहां से लोगों को उनकी मर्जी के खिलाफ पाकिस्तान भेजा जा रहा था। मगर इनकी हालत भी अत्यंत खराब थी ।खाने पीने की चीजों का नितांत अभाव था।ऊपर से बरसात के मौसम में हालात बद से बदतर बना दिए थे।         
          ऐसे हालात में चौधरी अब्दुल हई ने कमान संभाली ।मगर मेवात की वह स्थिति उनके लिए किसी अग्निपरीक्षा से कम नहीं थी ।ऐसे हालात में जहां चारों और हत्या, बलात्कार, लूटमार और आगजनी का माहौल हो , दिल्ली आना जाना और केंद्रीय नेताओं से मिलना खतरे से खाली नहीं था। सर पर कफन बांध कर ही यह काम किया जा सकता था। चौधरी अब्दुल हई ने इन हालातों में भी पूरे धैर्य, संयम ,साहस और समझ  भूझ कर पूरी गंभीरता से काम किया और लगातार काम करते रहे।           
                   सौभाग्य से सांप्रदायिक लोगों की भरपूर कोशिशों के बावजूद 'अंदरूनी मेवात'( जिला गुड़गांव के मेवात) में शांति थी ।यह गर्व करने वाली बात है कि  मेवात के इस खित्ते के हिंदू- मुसलमान  अब सांप्रदायिक सौहार्द बनाए हुए थे ।अंदरूनी मेवात की यही स्थिति चौधरी अब्दुल हई और उनके साथियों को ऊर्जा प्रदान कर रही थी।
 मगर जिनके खून में अन्याय और अत्याचार के खिलाफ विरोध करने का जज्बा भरा हो उन्हें कोई कब तक शान्त रख सकता है ।आखिर 1914 में प्रथम विश्व युद्ध शुरू हुआ तो अंग्रेजों को अपना अघोषित प्रतिबंध समाप्त करना पड़ा। इसके परिणाम स्वरूप मेवात के हजारों नौजवान सेना में भर्ती हुए ।अंग्रेजी साम्राज्य की सुरक्षा हेतु' सात समंदर पार' युद्ध करने के लिए चले गए ।अंग्रेजों ने युद्ध की समाप्ति के बाद भारतीयों की मांगों पर सहानुभूति पूर्वक विचार करने का वचन दिया था। मगर दिया रौलट एक्ट, जिसका संपूर्ण भारत में तीव्र विरोध हुआ।फिर मेवात ही क्यों इससे अछूता रहता। गांधीजी के आह्वान पर पूरे देश में हड़ताल रही और अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध तीव्र विरोध प्रदर्शन हुए। मेवात में भी नूह , तावडू, फिरोजपुर, झिरका, पुन्हाना और बिछौर आदि कस्बों में पूर्ण हड़ताल हुई। नगीना में मास्टर खूबलाल जो डिस्ट्रिक्ट बोर्ड में अध्यापक थे, के नेतृत्व में सरकार के विरुद्ध जोरदार प्रदर्शन हुआ। इसके बाद सरकार ने मास्टर खूबलाल को बर्खास्त कर दिया और सैकड़ों आंदोलनकारियों को गिरफ्तार कर जेल में बंद कर दिया।                       
        29 दिसंबर 1921 की उस घटना को भला कौन मेवाती भूल सकता है ,जिसके कारण मेवों का क्रांतिकारी जज्बा एक बार फिर जिंदा हो गया। हुआ यूं कि फिरोजपुर में कांग्रेस कमेटी का गठन हुआ था ताकि विधिवत रूप से स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लिया जा सके। इस सिलसिले में कांग्रेस के कुछ वर्कर लाल कुआं पर मीटिंग कर रहे थे। तभी पुलिस आई और कांग्रेस कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर थाने ले जाने लगी। इत्तेफाक से उस दिन जुम्मा  था और आसपास के गांवों के काफी लोग जुम्मा की नमाज पढ़ने फिरोजपुर आए हुए थे ।कांग्रेस कार्यकर्ताओं की इस तरह गिरफ्तारी लोगों को नागवार गुजरी और लगभग 200 आंदोलनकारी अपने 14 साथियों को छुड़ाने के लिए 'वंदे मातरम,' ' अल्लाह हू अकबर 'और गांधी जी जिंदाबाद के नारे लगाते हुए पीछे पीछे चल दिए ।कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने जमानत पर रिहा होने से इंकार कर दिया तो पुलिस ने उन्हें थाने में बंद कर दिया ।इस पर लोग उत्तेजित हो गए और उन्होंने थाने तथा तहसील पर पथराव शुरू कर दिया। पुलिस कप्तान ने मौके की नजाकत को देखते हुए पुलिस को हवाई फायर करने के आदेश दिए। पुलिस ने हवाई फायरिंग की तो लोग और उग्र हो गए और थाने की ओर बढ़ने लगे। इस पर पुलिस ने सीधी फायरिंग की। परिणाम स्वरूप तीन आंदोलनकारी मदार (,भटियारा) भिखारी (व्यापारी) और कामेंडा  गांव के नंबरदार शहजाद का लड़का मौके पर ही शहीद हो गए।                     
         तीन लोगों की शहादत की सूचना जंगल की आग की तरह फिरोजपुर के आसपास के गांवों में फैल गई। इस पर आसपास के गांवों के लोग 
लाठियों, तलवारों ,नेजो और बंदूकों से लैस हो फिरोजपुर पहुंच गए और थाना व तहसील को घेर कर हमला कर दिया तथा सभी कांग्रेस कार्यकर्ताओं को जबरदस्ती छुड़ा लिया। पुलिस की सूचना पर अलवर रियासत के 21 घुड़सवारो का एक दस्ता फिरोजपुर भेजा गया। गुड़गांवां से पुलिस पहुंची, तब कहीं जाकर प्रशासन ने स्थिति पर काबू पाया। पुलिस  ने  31 आंदोलनकारियों को गिरफ्तार किया। 31 में से 13 लोगों को भा.द.स. की धारा 339/ 149 के तहत दो-दो साल की सश्रम कैद की सजा हुई। शेष 18 को सबूतों के अभाव में रिहा कर दिया गया।       
         फिरोजपुर की उपरोक्त घटना ने मेवतियो और कांग्रेस का स्वतंत्रता आंदोलन से परिचय करवा दिया। इसलिए जब फरवरी सन 1922 को गांधीजी ने व्यक्तिगत अवज्ञा आंदोलन चलाया तो हजारों मेवाती  अपने गांव और घरों से बाहर निकल कर आए। पूरे मेवात में पूर्ण हड़ताल रखी गई ।"गांधी बाबा जिंदाबाद" और "अल्लाह हू अकबर" के नारों से मेवात की फिजाएं गूंज उठी ।     
                1930 के सविनय अवज्ञा आंदोलन के समय तो लोगों का जोश देखते ही बनता था। 11 मार्च को फिरोजपुर और नूह तथा 12 मार्च को नगीना और तावडू  में पूर्ण हड़ताल रही ।बिछौर और पुन्हाना में भी बंद रखा गया। सरकार की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ जोरदार प्रदर्शन हुए।
सन 1932-33 में महाराजा अलवर की किसान विरोधी नीतियों के विरुद्ध जोरदार आंदोलन चलाया जिसे मेवाती 'अलवर तहरीक' के नाम से जानते हैं ।यह आंदोलन नीमराणा के राजपूत किसानों ने शुरू किया था ,जिसमें बाद में मेव किसान भी शामिल हो गए। मगर महाराज सवाई विनय सिंह ने बड़ी चालाकी कि हिंदू किसानों को इस आन्दोलन  से अलग कर दिया। अब यह मेव किसानों का आंदोलन बन गया। जिसका नेतृत्व चौधरी मोहम्मद यासीन खां कर रहे थे ।बाद में चौधरी अब्दुल हई  ,डॉक्टर कंवर मुहम्मद अशरफ और सय्यद मुत्ल्लवी फरीदाबादी भी इससे जुड़ गए।        गोविंदगढ़ गोलीकांड के बाद जिसमे 94 मेव किसन  शहीद हुए थे, अंग्रेजी सरकार ने अलवर की स्थिति पर गंभीरता से गौर किया और महाराजा को रियासत बदर कर प्रशासन  अपने हाथों में ले लिया। इस तरह एक साधन सम्पन्न महाराज के खिलाफ सीधे सादे किसानों की जीत हुई।   
                   अलवर तहरीक से उत्साहित भरतपुर रियासत के किसानों ने भी आंदोलन छेड़ दिया। मगर भरतपुर रियासत के दीवान मिस्टर बत्रा ने बड़ी समझदारी से काम लिया। वह नूह आया और ऑल इंडिया मेव पंचायत के नेताओं से मिलकर किसानों की जायज मांगों को मानकर आंदोलन समाप्त करवा दिया।                               
              ' अलवर तहरीक' के बाद चौधरी अब्दुल हई, डॉक्टर कंवर मुहम्मद, अशरफ और  मुत्ल्लवी फरीदाबादी की सलाह पर कांग्रेस में शामिल हो गए। चौधरी अब्दुल हई ने अपना पूरा ध्यान मेवात पर केंद्रित कर दिया और मेवों को विधिवत रूप से कांग्रेस और स्वतंत्रता आंदोलन से जोड़ने के लिए मेवात के  कस्बों और बड़े-बड़े गांव जैसे घूडावली , शिकरावा, पुन्हाना,बिछौर,आलीमेव, साकरस ,नगीना, बहीन, कोट ,फिरोजापुर आदि में विधिवत रूप से कांग्रेस कमेटिया गठित की ताकि सुचारु रूप से कार्य शुरु किया जा सके।
          इस समय कांग्रेस अंग्रेजों द्वारा सीधे शासित राज्यों में कांग्रेस कमेटियां गठित कर स्वतंत्रता आंदोलन चला रही थी
मगर रियासतों  में प्रजामंडल या प्रजा परिषद गठित कर अन्याय, अत्याचार और शोषण के विरुद्ध संघर्ष कर रही थी। अलवर रियासत शांति स्वरूप  मौलवी ईब्राहिम, मौलवी सुलेमान थाझौटवी , रूपलाल मेहता और मौलवी अब्दुल कहद्दूस  प्रजामंडल का संचालन कर रहे थे तो भरतपुर में चौधरी सफाल खां, मास्टर आदित्य नंद  राजबहादुर आदि नेता प्रजा परिषद का नेतृत्व कर रहे थे। ।इधर जिला गुड़गांवां  के मेवाती कांग्रेसी मे चौधरी अब्दुल हई ,कंवर  मोहम्मद अशरफ और सैयद मुत्ल्लवी  फरीदाबादी उनका दिशा निर्देशन कर रहे थे।                         
                  इसी प्रकार हसनपुर खादर में एगजय एस्टेट( अंग्रेज रियासत) थी, जो मेवात में 'पट्टे की रियासत 'के नाम से मशहूर थी ।इस रियासत के लोगों रियासत के प्रबंधन से कई शिकायतें थी ।चौधरी अब्दुल हई ने इन  शिकायतों को एक मेमोरेंडम (मांग पत्र) के रूप में पंडित जवाहरलाल नेहरू को भेज दिया। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने एक कमेटी इंक्वायरी के लिए भेज दी।मगर  रियासत के ठेकेदार( प्रबंधक)अब्दुल
समद और उसके कर्मचारियों ने लोगों को बहला-फुसलाकर     कहलवा दिया कि  उन्हें रियासत के प्रबंधन से कोई शिकायत नहीं है।                         
                मेवात स्थिति अत्यंत चिंताजनक हो चुकी थी। मेवात में सांप्रदायिक दंगे भरतपुर और अलवर से लेकर रेवाड़ी तक फैल चुके थे ।रियासतों के शासकों और सांप्रदायिक शक्तियों का गठजोड़ हर कीमत पर मेवों को मेवात से बाहर खदेड़ने पर आमादा थ साथ ही मेवात से बाहर के घुसपैठियों ने स्थानीय हिंदू के साथ उनके (मेवों के) सामाजिक और पालबंदी संबंधों को जबरदस्ती तुड़वा दिया था। सांप्रदायिक शक्तियों से मिले हुए स्थानीय सरकारी अधिकारी मेवों को धमका रहे थे कि  पाकिस्तान चले जाओ, वरना कफ़न भी नसीब नहीं होगा। ऐसे निराशाजनक माहौल में चौधरी मुहम्मद यासीन खान का संदेश आया कि" तुम कुर्भान और काला पहाड़ को मत छोड़ना"इस  संदेश से लोगों का साहस तो बढ़ा, मगर स्थिति  ऐसी थी कि कुछ सूझ ही नहीं रहा था कि क्या करें? पूरी स्थिति का गंभीरतापूर्वक आंकलन करने के पश्चात डॉक्टर मुहम्मद अशरफ ने लोगों को जोर देकर कहा "अपनी सीमाओं के बाहर ना जाओ और अपने घर में पराजित ना होना। "उनकी( डॉक्टर अशरफ की) यह सलाह मेवों के लिए 'संजीवनी बूटी' सिद्ध हुई और मेवात सांप्रदायिक शक्तियों के लिए अभेद्य दुर्ग बन गया।
     मगर एक सवाल अब भी मुंह बाए खड़ा था कि मेवात को कैसे बचाया जाए? मेवात की सांस्कृतिक विरासत को टूटने से कैसे बचाया जाए?
           चौधरी अब्दुल हई ने  डॉक्टर अशरफ और सय्यद मुत्ल्लवी के साथ मिलकर केंद्रीय नेताओं से मिलने की योजना बनाई। चौधरी मुहम्मद यासीन खान भूमिगत थे, मगर गुप्त रूप से उनका मार्गदर्शन कर रहे थे ।इधर सांप्रदायिक तत्व भी पूरी गंभीरता के साथ सक्रिय थे।वे केंद्रीय नेताओं विशेषकर सरदार पटेल को गुमराह करने का प्रयास कर रहे थे तथा मेवात में भी तरह तरह की अफवाह फैलाकर माहौल में  सांप्रदायिकता का जहर घोल रहे थे।                   
            ऐसे हालातो में  मेवाती नेताओं को बहुत सोच समझकर कदम बढ़ाने की जरूरत थी। क्योंकि ऐसे कई सवाल थे जिनके जवाब मेवाती नेताओं को खोजने थे ।पहला और सबसे कठिन सवाल तो गुडगांव, मथुरा और बुलंदशहर के कुछ कांग्रेसियों का, अपना प्रभाव स्थापित करने हेतु दंगाइयों से मिल जाने का ही था। दूसरा सवाल था बहुत से सरकारी कर्मचारियों का मेवों को भारत से खदेड़ने के पक्ष में होना और तीसरा तथा सबसे खतरनाक सवाल था सुरक्षा एजेंसियों का नजरिया। हरियाणा के जाट सिपाही और पंजाब की सेनाएं मुसलमान विरोधी थे। हिंदू दंगाइयों को रोकने के बजाय उनकी मदद ही कर रहे थे ।इस तरह कांग्रेस और सिविल तथा मिलिट्री की संयुक्त शक्ति के सामने सारे प्रयास असफल हो रहे थे।                           
              मेवाती नेताओं ने गंभीर विचार विमर्श के पश्चात सबसे पहले कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया के मुख्यालय से सलाह मशवरा किया। तत्कालीन जनरल सेक्रेट्री कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया ,श्री सी पी जोशी की सलाह पर सबसे पहले यूपी क्षेत्र से संबंधित कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं की दिल्ली में मीटिंग बुलाई गई ।मीटिंग में फैसला हुआ कि यूपी के हिंदुओं को मेवात पर हमला करने से रोकने का प्रयास किया जाए और उन अफवाहों का खंडन किया जाए कि मेवों ने पहले  हमला किया था या मेव अपने पड़ोसियों के लिए खतरा है।                         
                मीटिंग में डॉक्टर मुहम्मद अशरफ ने सुझाव दिया कि इस मामले को गांधीजी के पास ले जाया जाए। इस पर श्री पीसी जोशी ने अपनी सहमति जताई और इस नतीजे पर पहुंचे कि मेवतियों की सुरक्षा केवल गांधीजी के हस्तक्षेप से ही संभव है।
      डॉक्टर कंवर मुहम्मद अरशद के सुझाव पर आम सहमति हो जाने के पश्चात तय हुआ कि पहले सय्यद मुत्ल्लवी फरीदाबदी और चौधरी अब्दुल हई जाकर मौलाना अबुल कलाम आजाद से विचार विमर्श करें और फिर उनके सुझाव के अनुसार आगे बढ़ा जाए। चौधरी अब्दुल हई के अनुसार," हम उनसे (मौलाना आजाद) से मिले। हमने उन्हें जो कुछ कहना था,उसे सुनकर उन्होंने गांधी जी से हमारी मुलाकात के लिए समय तय कर लिया और उनको (गांधी जी को) सूचना भेज दी कि चौधरी अब्दुल हई और सय्यद मुत्ल्लवी साहब मेवात के प्रतिनिधि हैं और आपको कांग्रेसियों और सरकारी एजेंसियों के सांप्रदायिक दंगों में शामिल होने के बारे में बताना चाहते हैं। उन्होंने गांधी जी से हमारे मिलने का समय तय कर लिया और मेवों की सुरक्षा की अपील भी की। मौलाना आजाद ने हमे सुझाव दिया की गांधी जी को सारी बात बता दे और बाकी मेरे ऊपर छोड़ दें ।           
                 1947 में जब सांप्रदायिक दंगे शुरू हुए तो उस समय गांधी जी दिल्ली में ही थे। मेवात की बर्बादी की सूचना तुरंत उनके पास पहुंचने शुरू हो गई थी। वह रियासतों की नृशंसता से अच्छी तरह परिचित थे। यही नहीं बहुसंख्यको के सांप्रदायिक और संकुचित सोच के लोगों की साजिशों से भी भलीभांति परिचित थे। वह यह जानते थे कि लोग अंग्रेजों से मिली शक्तियों पर बलपूर्वक कब्जा करना चाहते हैं। मेवात  की घटनाओं और दिल्ली के सांप्रदायिक ने महात्मा गांधी को जहनी तौर पर बेचैन कर दिया था। अलवर और भरतपुर के रियासतों के हज़ारों मेवों ने जब लुट- पिट कर खाली हाथ देहली कैम्प मे शरण   ली तो महात्मा गांधी स्वयं हुमायूं के मकबरा कैंप में शरणार्थियों से मिलने आए। लोगों ने कैम्प में हो रही
बंद इंतजाम मी बदइंतजामी  की शिकायत की और गांधी जी को बताया कि वे  उसी खाने पर निर्भर है जो उनके मुसलमान दोस्तों ने भेजा है। गांधीजी जानते थे कि मेवाती बहुत जल्दी जोश में आकर परेशानी का कारण बन जाते हैं ।पर इसका यह इलाज तो नहीं कि उन्हें उनकी मर्जी के खिलाफ पाकिस्तान भेज दिया जाए।       
         उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि गाँधीजी मेवों और  उनके चरित्र से भलीभांति परिचित थे।शायद यही कारण था कि जैसे ही चौधरी अब्दुल हई और सय्यद मुत्ल्लवी गांधी जी से मिलने गए उन्हें तुरंत बुला लिया गया।चौधरी अब्दुल हई लिखते हैं कि, 'जब हम  गांधी जी से मिलने भंगी कॉलोनी पहुंचे तो  वह दोपहर का खाना खा रहे थे ।उन्होंने (गांधीजी ने) कहा खाने के समय पर्दा नहीं  होता। जिस तरह तुम  मौलाना के दोस्त हो उसी तरह मेरे भी दोस्त हो। इसलिए जिस तरह खाना खाते समय मै मौलाना से बिना झिझक मिल सकता हूं, उसी तरह उनके दोस्तों को बुलाने में भी मुझे कोई झिझक नहीं है। माफ कीजिए, इसलिए मैंने आपको इंतजार कराये बिना ही बुला लिया।             
           हमारी बातें सुनकर गांधी जी बहुत दुखी हुए। यह जानकर कि कुछ कांग्रेसी और सरकारी मशीनरी भी दंगों में शामिल है, उन्होंने तुरंत गुड़गांव , मथुरा और बुलंदशहर एवं भरतपुर के कांग्रेसी नेताओं को बुलवाया और हमसे कहा कि 2 दिन बाद मुझसे  फिर मिलो ।मगर हमारी  वहाँ उपस्थिति के कारण इन 3 जिलों से कोई भी कांग्रेसी नेता मेवातियों की समस्या पर विचार विमर्श करने के लिए गांधी जी से मिलने नहीं आया। 2 दिन बाद जब हम तय समय पर दोबारा मिलने गए तो गांधीजी ने कहा,"तुम्हारी मौजूदगी के कारण वे लोग यहां मुझसे मिलने नहीं आए। । मैं कोई मध्यस्थ नहीं हूं ।मगर एक पक्ष ने मेरी मध्यस्थता नकार दी है और मैं इस मामले में स्वयं एक पक्ष हूं ।इसलिए इस मामले में मैं पूरा प्रयास करूंगा ।यही मौलाना का आदेश भी है और मेरा कर्तव्य भी।"   
        गांधीजी ने हमारी इस रिपोर्ट की सच्चाई जानने के लिए कि कांग्रेसी व सरकारी मशीनरी दंगों में शामिल थी अपने कुछ आदमी भेजे। फिर पंडित नेहरू से कहा कि वह मेवतियों की सुरक्षा की जिम्मेदारी अपने ऊपर लें।     
          तत्पश्चात चौधरी अब्दुल हई ,चौधरी खुर्शीद (धौज़) और हिम्मत खां उर्फ हिमता, मौलाना अबुल कलाम आजाद के जरिए सरदार पटेल से मिले ।उन्होंने पंडित नेहरू से विचार विमर्श करने के पश्चात मद्रास बटालियन
मेवात भेजी। उसके बाद कहीं जाकर मेवात के हालात सुधरे और मेवात  में शांति कायम हुई। इसके बाद सौंध  गांव के जाट चौधरी राधेलाल और मेव नेताओं के प्रयासों से हिंदू और मेवों की पंचायतें हुई और क्षेत्र में शांति रखने पर सहमति हुई।     
          कई अंग्रेज अधिकारी भी क्षेत्र में शांति कायम करने के प्रयासों में लगे हुए थे ।इनमें (उघाड़ा  साहिब) चार्ल्स इरविन एक अंग्रेज पुलिस अधिकारी बहुत प्रसिद्ध थे ।वह शांति कायम करने के लिए मेवात में चारों और भागदौड़ करते फिर रहे थे ।वह रियासतों में भी जाते थे और बड़ी निर्भीकता से दंगाइयों को दबा रहे थे। उधारा साहब का मुख्यालय सोहना तावडू सड़क के किनारे स्थित 'ध्यान दास की प्याऊ' था। जहां से वह पूरे मेवात को नियंत्रित कर रहे थे। 
            मगर पाकिस्तान जाने और आबादी के अदला बदली हो जाने के पश्चात मेवों के सामने सबसे बड़ा सवाल यह था कि भारत में रहा जाए या पाकिस्तान चले जाएं ?यह फैसला करना उनके लिए अत्यंत कठिन था।फिर भी अधिकांश ने पहले विकल्प को ही चुना ।
          मगर सांप्रदायिक तत्व अब भी सक्रिय थे। क्योंकि वे तो पहले ही मेवों को मेवात से खदेड़ने की योजना बना चुके थे। इधर मुस्लिम लीग ने भी सोहना में अपना ट्रांजिट कैंप कायम कर दिया था और मेवात  में आम ऐलान करवा दिया की तबादला आबादी मंजूर हो चुका है। इसलिए सारे मेव अपने-अपने गांवों को खाली कर सोहना कैंप में आ जाएं ।सांप्रदायिक लोगों ने भी मेवों को ट्रांजिट कैंप में जाने के लिए उकसाया। उन्होंने गांवों में जाकर लोगों को डराया धमकाया और जबरदस्ती गांवों को खाली करवाया।। एक बड़ा अमीर नेता खान बहादुर सरदार मोहम्मद खान पाकिस्तान सरकार की ओर से ऑफिसर थे।वह भी गांव-गांव जाकर लोगों को पाकिस्तान चलने की हिदायत दे रहे थे।मेवात की स्थिति अभी भी मेवों के
 लिए अनुकूल नहीं थी। लोग हैरान और परेशान थे कि ऐसे हालात में क्या करें?
पाकिस्तान जायें याअपने घरों में दोबारा आजाद हो जाएं ।
     आखिर जबरन तबादला आबादी ,जबरदस्ती गांव खाली करवाने  डराने धमकाने और दंगे की शिकायत केंद्रीय सरकार को दी गयी। सरकार ने छानबीन करने और सच्चाई जानने के लिए मिस्टर वृषभान ,जय नारायण दास और मौलाना    हिफ्जुर्रहमान को भेजा। इस समय सोहना कैम्प में  भी भारी संख्या में मेव इकट्ठे हो गए थे ।जहां से काफिले बना बना कर उन्हें पकिस्तान भेजा जा रहा था।
 ऐसे समय लोगों का विश्वास बहाल करने के लिए केंद्रीय सरकार के
इशारे पर बिना विभाग के मंत्री स्वामी अयंगर सोहना कैंप आए और लोगों को दोबारा आबाद करने और उनकी सुरक्षा का विश्वास दिलाया।  कैम्प में भारी  हलचल मची हुई थी। लोगों को विश्वास नहीं हो रहा था।
इधर मुस्लिम लीग के स्वयंसेवक इसे धोखा बता रहे थे तो सांप्रदायिक तत्व अपना अपना काम कर रहे थे ।इस पर लोगों ने स्वामी अयंगर को साफ कह दिया कि अगर उन्हें दोबारा आबाद करना है तो चौधरी यासीन खां को यहां लाओ।वह स्वयं आकर कहें तो हम विश्वास कर लेंगे ।इसके बाद मिस्टर अयंगर ने डिप्टी
कमिश्नर गुडगांव को निर्देश दिए कि अगर मेवों को दोबारा आबाद करना है तो   चौधरी मोहम्मद यासीन खान ,चौधरी अब्दुल हई और चौधरी खुर्शीद (धौज़) की हर संभव मदद की जाए।
                 चौधरी मोहम्मद यासीन  खां उस  समय दिल्ली मे थे ।
उन्होंने लोगों का फैसला सुना तो वह फरीदाबाद और धौज  के रास्ते से
सोहना कैंप आए और लोगों  से  कहा,'वे  पाकिस्तान ना जाए। वे दोबारा आबाद होंगे और हिंदुस्तान में ही रहेंगे।
            मगर दोबारा आबाद कारी का काम इतना आसान नहीं था। सांप्रदायिक लोग अब भी मेवात में सक्रिय थे ।स्वयं सरदार पटेल की हिमायत उन्हें  प्राप्त थी। यहां तक कि सरदार पटेल को मुस्लिम अधिकारियों पर भी विश्वास नहीं था। उनका अनुमान था कि भारत में रहने का निर्णय ले चुके मुस्लिम अधिकारी भी निष्ठावान नहीं है तथा उन्हें बर्खास्त कर देना चाहिए ।
              इधर सांप्रदायिक लोग गांधी जी से मिले और उन्हें समझाया कि मेव अपराधी प्रवृत्ति के लोग हैं। इसलिए रियासतों का उन्हें पाकिस्तान भेजने का निर्णय सही है ।यही नहीं एक तरफ महाराज भरतपुर का छोटा भाई बच्चू
 सिंह दंगाइयों का नेतृत्व कर रहा था तो दूसरी और सांप्रदायिक सोच के सरकारी अधिकारी कदम कदम रोड़े अटका रहे रहे थे। पश्चिमी पंजाब से  शरणार्थी आने के पश्चात तो स्थिति और भी जटिल हो गई थी ।शरणार्थियों ने कैंपों में रह रहे मेवों के मकानों पर कब्जा कर लिया था और वे किसी भी तरह निकलने को तैयार नहीं थे। 
      इधर तत्कालीन मेव नेता सख्त परेशान थे, क्योंकि उनके सारे प्रयासों के बावजूद मेवों को जबरदस्ती पाकिस्तान धकेला जा रहा था। लोग चारों से कैंपों में आ रहे थे। जहां से उन्हें काफिले बना बना कर पाकिस्तान भेजा जा रहा था। स्थिति अत्यंत नाजुक और जटिल थी ।मगर चौधरी मुहम्मद यासीन खान और दूसरे मेव नेता निश्चय कर चुके थे कि किसी भी कीमत पर हमें पाकिस्तान नहीं जाना है और भारत में ही रहना है। वे दूसरे मेव चौधरियों के साथ कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया के मुख्यालय पहुंचे और वहां डॉक्टर कंवर  मुहम्मद अशरफ और पण्डित पी सी जोशी से मिले ।पी  सी जोशी की अध्यक्षता में मीटिंग हुई जिसमें सय्यद मुत्ल्लवी, चौधरी अब्दुल हई और चौधरी मोहम्मद यासीन खां ने  मेवात की स्थिति पर विस्तार पूर्वक विचार विमर्श हुआ । विशेष तौर से पाकिस्तान जाने या ना जाने का मुद्दा बड़ा महत्वपूर्ण था। सारी स्थिति को समझ लेने के पश्चात पंडित पीसी जोशी ने कहा यदि मेवों  को अपनी कौमी श्रेष्ठता और जातीय पहचान कायम रखनी है तो उन्हें पाकिस्तान नहीं जाना चाहिए। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए एक कार्य योजना भी बनाई गई।
       इस सिलसिले में निजामुद्दीन जाकर तबलीगी मर्कज के जिम्मेदारों से भी बात की गई। उनकी इच्छा भी यही थी कि मेवात के लोगों को हिंदुस्तान में ही रहना चाहिए। मगर हिंदुस्तान में रुकना और दोबारा अपने घरों में आबाद हो जाना आसान नहीं था। 
        डॉक्टर कंवर मुहम्मद अशरफ और पंडित पीसी जोशी ने सलाह दी कि हम सबको इस अभियान में लग जाना चाहिए और दिन रात काम करना चाहिए ।तय हुआ कि लोगों को पकिस्तान जाने से रोकने के लिये किसी भी तरह से मेवात में  गांधी जी की यात्रा का प्रबंध किया जाए।
              योजना अनुसार मेवात की बारह-बावन का एक प्रतिनिधिमंडल जिनकी संख्या साठ सत्तर थी चौधरी मुहम्मद यासीन खां के नेतृत्व में महात्मा गांधी से मिलने बिड़ला हाउस पहुंचे और वहां जाकर गांधी जी मेव कौम का ऐतिहासिक फैसला सुनाया कि मेवात के लोग हिंदुस्तान और  पाकिस्तान की सरकारों के देश छोड़ने या आबादी की अदला- बदली के खिलाफ है। हम लोग आप की हिमायत हासिल करने के लिए यहां आए हैं। हम मर जाएंगे ,मगर अपना वतन नहीं छोड़ेंगे।   
             गांधीजी ने काफी देर तक नेताओं के विचार सुने और फिर मेवों की भावना से प्रभावित होकर भराई हुई आवाज में कहा, "गांधी भी उन लोगों के साथ मेवात में मरना पसंद करेगा जहां लोग अपनी मातृभूमि में रहने का निश्चय कर चुके हैं ।"   
                 यह विश्वास दिलाने के पश्चात महात्मा गांधी 19 दिसंबर 1947 को मेवात के  ऐतिहासिक गांव घासेड़ा आये।
उनके साथ पंजाब के मुख्यमंत्री डॉ गोपीचंद भार्गव थे। यहां गांधी जी को देखने के लिए लोग दूर-दूर से बैलगाड़ियों, ऊंटो ,
 घोड़ो ,साईकिलो
 और पैदल चलकर आए थे।विशाल जनसभा को संबोधित करते हुए गांधी जी ने कहा ," मेव हिंदुस्तान की रीड की हड्डी है।इन्हें  पाकिस्तान जाने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता ।इन्हें इनके घरों में दोबारा आबाद किया जाएगा। केंद्रीय सरकार और पंजाब सरकार उनके जानमाल की सुरक्षा की जिम्मेदारी लें ।मुझे बताया गया है कि मैं जराइम पेशा है ।इसका मतलब यह तो नहीं कि उन्हें जबरदस्ती उनके घरों से निकाल दिया जाए ।अगर यह जराइम पेशा है तो उनका सुधार किया जाए और उन्हें पुन: आबाद किया जाए। 
              इसके पश्चात केंद्रीय सरकार ने रेडियो पर घोषणा की जो मुसलमान खुशी से पाकिस्तान जाना चाहते हैं वे जा सकते हैं और जो हिंदुस्तान में रहेंगे उनके अधिकारों की सुरक्षा की जिम्मेदारी सरकार की होगी ।             
      डॉक्टर गोपी चंद भार्गव, तत्कालीन मुख्यमंत्री की मेवों के प्रति सोच अच्छी नहीं थी और मेवों के प्रति उनका व्यवहार न्याय संगत नहीं था ।वे मेवों को  किसी भी तरह की रियायत देने के पक्ष में नहीं थे ।चौधरी  मुहम्मद यासीन खान मरहूम में स्टेज पर ही उनके पक्षपातपूर्ण रवैये  की शिकायत की। इस पर गांधी जी ने गोपी चंद भार्गव को हिदायत दी कि वे मेवों के जानमाल की सुरक्षा की पूरी जिम्मेदारी लें।     
              महात्मा गांधी की घासेड़ा यात्रा के पश्चात हालात सामान्य होने लगे और अनिश्चितता के बादल छंट गए। धीरे-धीरे लोग अपने घरों को लौटने लगे और अपने घर बाहर और संपत्ति (जो भी बच पाई )को संभालने लगे। अभी लोग संभल भी नहीं पाए थे कि महात्मा गांधी की शहादत के समाचार ने उन्हें अंदर तक हिला कर रख दिया। अपने सबसे बड़े हमदर्द की जुदाई ने एक बार फिर उनके आत्मविश्वास को डावांडोल कर दिया ।अपनी मातृभूमि पर फिर से आबाद होने का सपना एक बार फिर चकनाचूर होता नजर आया। एक बार फिर अपने घरों गावों और खेतों में पुनर्वास का निश्चय कमजोर पड़ने लगा ।अपनी मातृभूमि की खुशगवार फिजा एक बार फिर उन्हें दूर जाती दिखाई देने लगी । लोग सोचने पर मजबूर हो गए थे कि उनका हमदर्द इस दुनिया को अलविदा कह चुका है ।ऐसे में उनका पुनर्वास कैसे और किस प्रभाव संभव हो पाएगा? अब कौन करेगा यह कठिन काम?           
  भरोसो उठगो मेवन को गोली लगी है बापू के छाती बीच !                           लोग अत्यंत निराश थे। मगर उपरोक्त गाने की गूंज दूर तक सुनाई देने लगी। जिसने सच्चे गांधीवादीयों को झकझोर कर रख दिया। गांधी जी के प्रसिद्ध शिष्य विनोबा भावे यह आवाज सुन नूह पधारे और लोगों को विश्वास दिलाया कि गांधी जी द्वारा किए गए वायदे को हर हाल में पूरा किया जाएगा और मेवों को दोबारा उनके घरों में आबाद किया जाएगा। इसके बाद उन्होंने( विनोबा ने) अपने सबसे अच्छे कार्यकर्ताओं की टीम मेवात भेजी। प्रसिद्ध गांधीवादी नेताओं मृदुला साराभाई ,पंडित सुंदरलाल ,सुभद्रा जोशी,मिस आमना इस्लाम, जनरल शाहनवाज खान, महात्मा भगवानदीन, मिस्टर बनर्जी, मिस्टर शेरजंग आदि समय समय पर आकर पुनर्वास कार्यों को देखते और मेवात के विभिन्न गांवों का दौरा करते तथा अलवर व भरतपुर रियासतों के उजड़े हुए लोगों का हौसला बढ़ाते।       
        नूह में यूनाइटेड काउंसिल ऑफ रिलीफ एंड वेलफेयर के कार्यालय पंजाब तथा राजस्थान की सरकारों द्वारा खोले गए। श्री सत्यम भाई रिलीफ (राहत) के कार्यों के इंचार्ज थे ।चौधरी यासीन खान भी उनके कंधे से कंधा मिलाकर काम कर रहे थे। मेवात के पढ़े-लिखे नौजवानों की टीमें उजड़े , तबाह व बर्बाद लोगों की देखभाल और सूचियाँ  आदि बनाने के लिए चौधरी अब्दुल हई के नेतृत्व में काम कर रही थी ।चौधरी अब्दुल हई ,मौलवी इब्राहिम, चौधरी मजलिस खान, चौधरी दीन मोहम्मद  (सबलाना) चौधरी हुरमत खां  (ढाणा) ,चौधरी अब्दुर्रहमान (बिलग ) और चौधरी सैईद अहमद (सीकरी) चौधरी रसूल खां (घुड़ावली) आदि ने दिन रात एक कर पुनर्वास कार्यों में सरकार और लोगों की मदद की और लोगों का आत्मविश्वास बढ़ाया।     
                मगर पुनर्वास का कार्य इतना आसान नहीं था ।अगवा की गई  लड़कियों की सूची बनाना, उनका पता लगाना और उन्हें वापस लाना अत्यंत दुष्कर कार्य था।उधर  सांप्रदायिकतत्व अब भी चुप नहीं बैठे थे और अनेक प्रकार से पुनर्वास कार्य में रुकावट डाल रहे थे। यही नहीं इस समय तक मेवों की  तरह ही तबाह व बर्बाद हिंदू भी पंजाब व सिन्ध से आ चुके थे ।उन्होंने मेवों के मकानों व खेतों पर कब्जा कर लिया था और वे किसी कीमत पर उन्हें छोड़ने को तैयार नहीं थे।मेवो के शिक्षण संस्थानों( मदरसों ) सरायों टाकियो और मस्जिदों पर भी कब्जा कर लिया था। हालात ऐसे हो गए कि मेव अब  खुले आसमान के नीचे खेतों में डेरा डाले पड़े थे और शरणार्थी अनेक उनके घरों में कब्जा जमाए बैठे थे।
                        अंत में सारी परेशानियों पर काबू पा लिया गया। पुनर्वास का काम कई सालों तक चलता रहा। आखिर मेवो का मातृभूमि प्रेम का जज्बा जीत गया और वे खुशी-खुशी अपने घरों में, गांवों में दोबारा आबाद हो गए ।       
   बसा हा फिर हंस हंस के  गांधी बाबा ने रोकली आके गैल!
*Nityanotan Broadcast Service*
04.12.2019

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