नित्यनूतन गीता - पुरूषोत्तम यशवंत देशपांडे

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नित्यनूतन गीता*
(महाराष्ट्र के विज्ञान लेखक दार्शनिक पत्रकार भूतपूर्व सांसद श्री पु य देशपांडे के अप्रकाशित  ग्रंथ मराठी 'नित्यनूतन भगवतगीता' के प्रथम अध्याय का अनुवाद)
जो 'नित्य' होता है वह निरंतर वैसा रहेगा, जैसा कि पहले था, तो यह अस्तित्व में होते हुए भी अस्तित्व हीन हो जाएगा। उसका कोई अर्थ ही नहीं रहेगा। इससे उल्टे जो' अनित्य' होता है वह अभी है - फिर नहीं - इस श्रृंखला में अटक जाता है। इसलिए वह भी अर्थ शून्य बन जाता है। क्योंकि उसके है- पन (अस्तित्व) का देखते- देखते 'नहीं- पन' (अस्तित्वहीनता) में विलोप हो जाता है। उसका नहीं- पन देखते-देखते 'है- पन' का रूप धारण कर लेता है। यह दोनों पर्याय एक दूसरे के विपरीत होने के कारण दोनों ही अर्थशून्य हो जायेंगे।
'        फिर सवाल उठता है सार्थ '(अर्थ युक्त) के माने क्या है? सार्थ वही होता है, जिस पर 'नित्य' या  अनित्य की परिभाषा लागू नहीं होती। नित्य और अनित्य ये  यह दोनों शब्द, काल वाचक है । सार्थता के लिए दोनों उपयोगी नहीं है ।इसलिए एक विलक्षण (अद्भुत) सत्य हमारे ध्यान में आता है कि सार्थता से जो व्यक्त होता है, उसका काल के साथ कोई संबंध ही नहीं होता। शोधकर्ताओं की राय है कि गीता का रचनाकाल करीब डेढ़  दो हज़ार साल पहले का है। लेकिन केवल इसीलिए वह अर्थपूर्ण या मानव जीवन के लिए महत्वपूर्ण ग्रंथ साबित नहीं हो सकता है।' गीता' का महत्व काल पर निर्भर नहीं है। क्योंकि' काल' और सार्थता का एक दूसरे से कोई संबंध नहीं होता।
               गीता एक' शब्द बन्ध है। अधिकतर शब्द बन्ध तात्कालिक ही होते हैं। वे प्रकट होते हैं और तुरंत ही अव्यक्त में लीन हो जाते हैं।गीता एक पुराना ग्रंथ है केवल इतने से ही वह महत्वपूर्ण नहीं बन जाता है। गीता की अद्भुत सार्थता इसी में निहित है कि प्रदीप्त कालावधि बीतने के बाद भी वह आज भी मानव को अर्थपूर्ण प्रतीत होती है ।
         'नित्यंनूतन' विशेषण उसी के लिये लागू होता है,जिसको अतीत-वर्तमान भविष्य की कालश्रृंखला बाधित नहीं कर सकती,
जिस की सार्थकता कभी भी निरर्थक नहीं हो सकता है। केवल सातत्य नित्य नूतन होता है,ऐसी बात नहीं है । सातत्य (सततता)के साथ -साथ वह विशेष अर्थ से अल्ंकृत हो तभी 'नित्यनूतन' शब्द सार्थ  होता है। यह विशेष अर्थ किसी भी परिभाषा के चौखटे मे बैठ नही सकता। क्योंकि परिभाषा उसकी की जा सकती है ,जो देशकाल बध  होता है ।'नित्य नूतन' की जोड़ी में "नित्य "शब्द केवल क्षणक्षणता को दिखाता है। लेकिन पहले वाले क्षण की  नूतनता उसके बाद के क्षण में भी कायम रहेगी, तभी नित्य नूतन सार्थक होती है। लेकिन पहले वाले क्षण की नूतन बाद के क्षण में बनी रहे तो क्षणों के सातत्य में वह नष्ट हो जाएगी।
                     इसलिए 'नित्यनूतन' के माने वह वस्तु नहीं, जिसके साथ सातत्य होता है। जहां  सातत्य होता है, वहां नूतनता नहीं होती ।।नूतन वही है, जिसके काल का, सातत्य  स्पर्श भी सहन नहीं होता है। नूतन जो कालातीत या काल निरपेक्ष होता है। यानी काल की परिभाषा ही उस पर लागू नहीं होती। पर जहां भाषा होती है, वहां काल आता ही है। काल को साथ लेकर ही भाषा अवतरित होती है। लेकिन फिर भी' नित्यनूतन' शब्द का उच्चारण काल युक्त होते हुए भी उसके अर्थ में कालातीतता होती है। किसी भी शब्द के अर्थ दो प्रकार के होते हैं -1 कालयुक्त और कालातीत, काल से परे। कालातीत अर्थ अरूप होता है। सृष्टि नाम रूप आत्मक होती है। फिर भी कभी-कभी नाम और रूप अलग अलग हो जाते हैं। नाम है पर रूप नहीं, जैसे आकाश ।अकाश का रूप तो नहीं होता, पर वह है नित्य, नित्यनूतन नहीं। समझने की बात है की 'नित्यनूतन' में जो नित्य  शब्द आता है वह काल वाचक या सातत्यवाचक नहीं, काल निषेधात्मक होता है। नूतनता पर काल का कोई असर नहीं होता है, यह बताने के लिए नूतनता के साथ 'नित्य' विशेषण जोड़ा जाता है। नित्य नूतन यानी निरंतर नूतन ।
           'नूतन' वही है जो सातत्य को भंग कर साकारित होता है। भूतपूर्व सातत्य को भंग करते हुए ही गीता उदित हुई थी। उसी तरह आज भी वह निरंतर सातत्य भंग करती ही रहती है। बल्कि सातत्य को भंग करते रहना, यही है गीता का नित्य नूतन तत्व। यह प्रक्रिया निरंतर चल ही रही है,उस वास्तविकता  पर ध्यान देते हुए गीता का आशय समझना होगा। अतीत के भाष्यकारो या  टीकाकारो ने  गीता के बारे में जो कुछ कहा है, उसकी यथार्थता को नित्य नूतन की कसौटी पर ही नापना होगा। जो शब्द उस कसौटी  पर खरे नहीं उतर सकते हैं, हमें गीता के उलटे अर्थो में  उलझा देंगे।
               महाराष्ट्र के महान संत ज्ञानेश्वर ने इस सत्य को पहचाना कि  गीता, नित्य नूतन ग्रंथ है। उनके गीता शब्द,ज्ञानेश्वरी के पहले अध्याय में ही कहा गया है ।' तेथ हर म्हणे  नेणिजे। देवी जैसे का रूप तुझे। नित्य नूतन देखिजे। गीतातत्व'
        भगवान शंकर देवी, पार्वती से कहते हैं कि हे देवी, जैसे तेरा रूप नित्य नूतन दिखाई देता है, उसी प्रकार गीतातत्व भी नित्य नूतन रूप में देखें।
(Nityanootan Broadcast Service)
07.12.2019

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