CAA /NRC/NRP
संशोधित नागरिकता-कानून, जनसँख्या-रजिस्टर (एनपीआर) एवं नागरिकता-रजिस्टर (एनआरसी): एक तथ्यात्मक ब्यौरा
(हालाँकि यह पर्चा लम्बा है पर पढ़ें ज़रूर क्योंकि ये मुद्दे सब को प्रभावित करते हैं, किसी को कम, किसी को ज़्यादा।)
भाग 1 आसाम समझौता, नागरिकता-कानून में संशोधन एवं आसाम का नागरिकता-रजिस्टर
नागरिकता कानून में संशोधन एवं नागरिकता रजिस्टर का विरोध एक कारण से नहीं हो रहा। यह दो कारणों से हो रहा है - उत्तर-पूर्व में अलग कारणों से और शेष देश में अलग कारणों से । दोनों तरह की आलोचनाओं का समाधान ज़रूरी है।
उत्तर-पूर्व के राज्यों में इस का विरोध इसलिए हो रहा है कि इस के चलते अवैध रूप से देश में 2014 तक दाखिल हुए लोगों को भी नागरिकता मिल जायेगी जब कि 1985 में भारत सरकार के साथ हुए आसाम समझौते के तहत केवल 1965 तक आसाम में आए हुए अवैध प्रवासियों को ही नागरिकता मिलनी थी। (मोदी सरकार द्वारा पिछले कार्यकाल में प्रस्तावित नागरिकता संशोधन कानून का उत्तर-पूर्व राज्यों में भयंकर विरोध हुआ था। इस सशक्त विरोध के चलते मोदी सरकार ने 2019 में पारित कानून के दायरे से उत्तर-पूर्व के कुछ इलाकों को बाहर रखा है पर इस से भी उत्तर-पूर्व के स्थानीय संगठन/लोग संतुष्ट नहीं हैं। वे इसे वायदा-खिलाफ़ी के रूप में देखते हैं।)
आसाम (और तब के आसाम में लगभग पूरा उत्तर-पूर्व भारत आ जाता था) में अवैध प्रवासियों की समस्या बहुत पुरानी है। इस के नियंत्रण के लिए पहला कानून 1950 में ही बन गया था। इस का कारण यह है कि भारत-बंगलादेश सीमा हरियाणा-पंजाब सीमा जैसी ही है। कहीं-कहीं तो आगे का दरवाज़ा भारत में तो पिछला बंगलादेश में खुलता है। भारत के नक़्शे के अन्दर कुछ इलाके बंगलादेश के थे तो बंगलादेश के नक़्शे के अन्दर स्थित कुछ ज़मीन भारत की थी। (इन इलाकों का हाल में ही निपटारा हुआ है।) बोली, भाषा, पहनावा एक जैसा होने के चलते कलकत्ता में पहले-दिन-पहला-फ़िल्म शो देखने के लिए बंगलादेश से आना मुश्किल नहीं था। ऐसे अजीबो-गरीब तरीके से हुआ था देश का बंटवारा।
इसलिए 1985 में हुए आसाम समझौते की धारा 9 के अनुसार भारत सरकार ने भारत-बंगलादेश सीमा को सुरक्षित एवं नियंत्रित कर के अवैध प्रवासियों के आने पर रोक भी लगानी थी। पर इस इलाके का भूगोल ऐसा है कि लिखित वायदे के बावज़ूद केन्द्रीय सरकार, जिस में भाजपा की वाजपेयी और मोदी सरकार भी शामिल हैं, ऐसा अब तक नहीं कर पाई है।
हालाँकि ऊपरी तौर पर आसाम आन्दोलन अवैध बंगलादेशी प्रवासियों के ख़िलाफ़ था लेकिन नीचे-नीचे ही सभी ग़ैर-आसामी प्रवासियों के प्रति भी रोष था; परेशानी न केवल मुसलमानों से थी, न केवल बंगलादेशियों से थी बल्कि बंगलाभाषियों से थी, फिर चाहे वे हिन्दू हों या भारतीय हों। रोष हिंदी-भाषियों के प्रति भी था। इसलिए ही आन्दोलन 1979 से 1985 तक चला था। अवैध विदेशी प्रवासियों की पहचान से किस को इतनी गहरी आपत्ति हो सकती थी कि आन्दोलन 6 साल तक चलता?
आर्थिक कारणों के अलावा आसाम में ग़ैर-आसामियों के आने के लिए कुछ विशेष ऐतिहासिक परिस्थितियाँ भी ज़िम्मेदार थीं। अंग्रेजों के आने से पहले उत्तर-पूर्व पर दिल्ली का शासन (आमतौर पर) नहीं रहा। सांस्कृतिक एवं शारीरिक बनावट इत्यादि की दृष्टि से भी यहाँ के निवासी शेष देश से काफ़ी अलग रहे हैं (जैसे, अरुणाचल प्रदेश के कुछ इलाकों में माता-पिता की विरासत सब से छोटी बेटी/बच्चे को मिलती है और उस के साथ ही माता-पिता रहते हैं; ‘ख़म खेन सुआन हौसिंग’ उत्तर-पूर्व के एक प्रोफ़ेसर का नाम है पर पहली नज़र में आमतौर पर भारतीय प्रतीत नहीं होगा।) उत्तर-पूर्व अंग्रेज़ों के मातहत भी काफ़ी बाद में आया था। इसलिए जब उत्तर-पूर्व अंग्रेज़ों के अधीन आया तो वहाँ शासन-प्रशासन में बड़े पैमाने पर बंगला-भाषी लोग आए क्योंकि बंगाल में अग्रेज़ों का शासन सब से पहले आया था और वहाँ के निवासी अंग्रेज़ों की शासन-शिक्षा पद्धति से परिचित थे जब कि आसाम के लोग इस से अनभिज्ञ थे। इसलिए आसाम के कुछ तबकों के लिए बंगाली-भाषी भी वैसे ही बाहरी थे जैसे अंग्रेज़। हिन्दी-भाषी भी वहाँ चाय बागानों में मज़दूरी के लिए अंग्रेज़ों द्वारा ही लाए गए थे।
आसाम एवं उत्तर-पूर्व के अन्य राज्यों के मूल निवासी उन्हीं कारणों से नागरिकता कानून में संशोधन का विरोध कर रहे हैं जिन कारणों से कभी महाराष्ट्र में ग़ैर-मराठी भाषियों का विरोध होता है और कभी गुजरात में, जिन कारणों से हरियाणा में नौकरियों में हरियाणावासियों के लिए आरक्षण की मांग उठती है, जिन कारणों से हरियाणा पंजाब से अलग हुआ और तेलंगाना आंध्र प्रदेश से अलग हुआ, जिस के कारण आरक्षण के पक्ष और विरोध में आक्रामक आन्दोलन होते हैं। और वो बड़ा कारण है रोज़गार के घटते अवसर। प्रवास आसान होने के बावजूद भी आम तौर पर व्यक्ति अपनी जड़ों को छोड़ कर तब तक नहीं जाना चाहता जब तक कि रोज़गार, या बेहतर रोज़गार, के अवसर न मिलें। कोई अपना घर छोड़ कर किसी और की संस्कृति में ख़लल डालने के नजरिये से तो कहीं नहीं जाता। भारत के लोग अमेरिका, कैनेडा या आस्ट्रेलिया रोज़गार के लिए ही जाने का वैध-अवैध प्रयास करते हैं न कि वहाँ की संस्कृति को दूषित करने के इरादे से। इसलिए जब तक सब के लिए रोज़गार और सम्मानजनक रोज़गार सुनिश्चित नहीं होगा, तब तक ये टकराव खड़ा होता रहेगा, कभी विदेशियों के साथ एवं कभी अपने ही देश के नागरिकों के साथ। कभी आसाम में और कभी ट्रम्प के अमेरिका में।
ख़ैर, आसाम समझौता हुआ। भविष्य में अवैध प्रवास को रोकने के लिए सीमा-सुरक्षा के कड़े कदम उठाने के अलावा यह तय हुआ था कि जो 1965 तक आसाम में रह रहे थे, वे वहाँ के नागरिक माने जाएँगे। 1966 से ले कर 24 मार्च 1971 तक आए अवैध प्रवासियों के वोट का अधिकार 10 साल के लिए छीन लिया जाएगा (पर उन के बाकी नागरिक अधिकार बचे रहेंगे; दस साल बाद उन का वोट का अधिकार भी बहाल हो जायेगा)। 24 मार्च 1971 के बाद आए अवैध प्रवासियों को देश से निकाल बाहर किया जाएगा।
पर आसाम समझौते को लागू कैसे किया जाए? आसाम समझौते के समय लागू नागरिकता कानून के अनुसार देश में जन्मा हर बच्चा भारतीय नागरिक था। इस के विपरीत आसाम समझौते के अनुसार 1965 के बाद आसाम में जन्मे बच्चों को स्वत: नागरिकता का अधिकार नहीं था। ऐसी अनेकों कानूनी दिक्कतों के कारण आसाम समझौते के अनुसार कारवाई नहीं हुई। वाजपेयी सरकार द्वारा भी कोई कारवाई नहीं की गई। (नागरिकता कानून में 1986 में हुए बदलाव के बाद 30 जून 1986 तक भारत में जन्मा हर बच्चा और इस के बाद भारत में जन्मा वो बच्चा जिस के माता-पिता में से कोई एक भारतीय नागरिक था, भी भारतीय था। वाजपेयी सरकार ने इस में फिर से संशोधन कर के यह नियम बनाया कि 4 दिसम्बर 2004 के बाद भारत में जन्मे बच्चे को तभी भारतीय नागरिकता का अधिकार होगा अगर उस के माता-पिता में से कोई एक भारतीय नागरिक हो तथा दूसरा अवैध प्रवासी न हो।)
अंतत: 2006 में आए सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के बाद, सुप्रीम कोर्ट के निर्देशन में आसाम में अवैध विदेशी प्रवासियों की पहचान एवं नागरिकता-रजिस्टर के नवीनीकरण का काम शुरू हुआ। आसाम के हर आदमी, यानी 3 करोड़ से अधिक लोगों को, नागरिकता के लिए आवेदन करना पड़ा। किसी के नागरिकता आवेदन पर कोई भी व्यक्ति आपत्ति कर सकता था। आसाम के नागरिकता-रजिस्टर के पहले प्रारूप में 120 लाख आवेदकों को इस से बाहर रखा गया। फिर अपील एवं दावों की दोबारा जाँच का काम शुरू हुआ और अंतत: 19 लाख आवेदकों का नाम नागरिकता-रजिस्टर में नहीं आ पाया। एक मिनट के लिए इन 19 लाख लोगों को भी छोड़ कर उन 1 करोड़ लोगों के बारे में सोचें, जिन का पहले रजिस्टर में नाम नहीं था पर आखिर में जिन का नाम नागरिकता-रजिस्टर में आ गया। वे किस मानसिक तनाव एवं चिंता से गुज़रे होंगे, इस का सहज अन्दाज़ा लगाया जा सकता है। और नागरिकता-रजिस्टर से बाहर कैसे-कैसे लोग रह गए हैं, इस बारे में अख़बारों में ख़बरें भरी पड़ी हैं। भारत के भूतपूर्व राष्ट्रपति के परिजन भी नागरिकता-रजिस्टर से बाहर कर दिए गए। बाप को नागरिक मान लिया गया, बेटे को नहीं या इस के विपरीत भी हुआ; एक भाई को नागरिक मान लिया गया तो दूसरे को नहीं। भारत की सेना से पेंशन आए लोग भी अवैध घुसपैठिये माने गए। ऐसी अनेकों विसंगतियां पाई गईं।
इन विसंगतियों के चलते दो काम हुए। एक तो नागरिकता कानून में वर्तमान बदलाव किया गया। भले ही आज इसे शरणार्थियों के लिए किया गया मानवीय उपाय कहा जाए पर इस के इतिहास को देखें तो स्पष्ट है कि वास्तव में आसाम में बने नागरिकता-रजिस्टर की विसंगतियों के चलते ही इसे लाया गया है। हालाँकि पहले हल्ला ‘मुस्लिम’/बंगलादेशी घुसपैठियों के नाम पर हुआ था पर अनुमान है कि आसाम के नागरिकता-रजिस्टर से बाहर रहने वाले 19 लाख लोगों में से 13 लाख के करीब तो हिन्दू हैं। इस के चलते ही नागरिकता-कानून में वर्तमान संशोधन हुआ है और ग़ैर-मुस्लिम अवैध प्रवासियों को नागरिकता देने का प्रावधान किया गया है।
आसाम के नागरिकता-रजिस्टर की विसंगतियों/ग़लतियों का दूसरा परिणाम यह हुआ है कि सुप्रीम कोर्ट के निर्देशन में नागरिकता-रजिस्टर तैयार करने वाली आसाम सरकार ने ही इसे अस्वीकार कर दिया है। यानी बरसों तक करोड़ों रुपये ख़र्च कर के तैयार किये गए नागरिकता-रजिस्टर को तैयार करने वाली सरकार ने ही इसे नकार दिया है। (1600-1700 करोड़ ख़र्च का अनुमान तो सरकारी ख़र्च का है। आम जनता के खर्चे, भागदौड़, परेशानी इस के अलावा हैं। )
भाग 2 जनगणना (सेंसस), जनसँख्या-रजिस्टर (एनपीआर) एवं नागरिकता-रजिस्टर (एनआरसी): अन्तर एवं सम्बन्ध
शेष भारत में मोदी सरकार की इन नीतियों का विरोध दो बिलकुल अलग कारणों से हो रहा है। एक, जिस नागरिकता- रजिस्टर को सुप्रीम कोर्ट के मार्गदर्शन में अरबों रुपये एवं कई साल ख़र्च होने के बावजूद, बनाने वाली आसाम की सरकार ने ही स्वीकार नहीं किया, जिस के चलते खड़ी हुई समस्याओं के निदान के लिए नागरिकता-कानून तक में संशोधन करना पड़ा, उस असफल योजना को पूरे देश में क्यों लागू किया जाए? क्यों देश के सारे 140 करोड़ लोगों को नोटबंदी की तर्ज़ पर पुन: लाइनों में खड़ा किया जाए? जिस परियोजना के निदेशक को सुप्रीम कोर्ट को दख़ल दे कर, बचा कर, आसाम से बाहर ट्रांस्फ़र करना पड़ा, उस परियोजना को पूरे देश में लागू करने से किस समस्या का हल होगा? अगर देश की बाबूशाही द्वारा तैयार वोटरलिस्ट, पैन कार्ड लिस्ट, राशन कार्ड लिस्ट, बीपीएल लिस्ट, आधार इत्यादि भरोसे लायक नहीं हैं, जिस के चलते नए सिरे से नागरिकता-रजिस्टर तैयार करने की ज़रूरत महसूस हो रही है, तो उसी बाबूशाही द्वारा तैयार किया गया नागरिकता-रजिस्टर कैसे विश्वसनीय होगा?
देश भर में उठे विरोध के चलते प्रधानमंत्री ने यह कहा है कि अभी देश भर में नागरिकता-रजिस्टर बनाने का सरकार का कोई इरादा नहीं है एवं जनसँख्या-रजिस्टर का नागरिकता-रजिस्टर से कोई सम्बन्ध नहीं है। यह दूसरी बात है कि मोदी का इनकार इस के बावज़ूद है कि एक से अधिक बार उन के मंत्री अमित शाह दोनों के बीच के सम्बन्ध को मान चुके हैं एवं जनसँख्या-रजिस्टर के आधार पर नागरिकता-रजिस्टर बनाने के सरकार के इरादे की घोषणा कर चुके हैं। असलियत यह है कि वाजपेयी सरकार के समय पारित नागरिकता नियम 2003 में ही यह प्रावधान कर दिया गया था कि नागरिकता-रजिस्टर का निर्माण जनसँख्या-रजिस्टर के आधार पर होगा। इस की पूरी प्रक्रिया भी इन नियमों में उपलब्ध है। कोई भी देख सकता है।
सरकार/भाजपा द्वारा यह भी कहा जा रहा है कि जनसँख्या-रजिस्टर तो कांग्रेस के समय में पिछली जनगणना के वक्त भी तैयार किया गया था। यह अधूरा या आधा सच है। जनगणना तो देश में कभी से चली आ रही है। इस के आधार पर पिछली बार जनसँख्या-रजिस्टर भी बनाया गया था मगर जनगणना को नागरिकता से जोड़ने से इस की प्रकृति ही बदल जाती है। पिछली जनगणना में किसी को यह चिंता नहीं करनी पड़ी थी कि उन के यहाँ जनगणना-अधिकारी आया या नहीं आया, या क्या लिख कर ले गया, सब के नाम, उम्र एवं अन्य विवरण ठीक थे या नहीं। अब तक भी किसी को यह नहीं पता होगा कि पिछले जनसँख्या-रजिस्टर में उस का नाम था या नहीं - और था भी तो विवरण सही था या नहीं। (एक बार सोच कर देखें कि अगर 2041 या उस के बाद आप के बच्चों या उन के बच्चों को यह कहा जाए कि भारत की उन की नागरिकता 2011 के जनसँख्या रजिस्टर के आधार पर तय की जायेगी, तो इस का कैसा असर होगा? 2011 के जनगणना अधिकारियों ने क्या लिख कर सरकारी रिकार्ड में रख लिया, यह आज आप को पता नहीं है, लेकिन 30-40 साल बाद वह आप के वारिसों की नागरिकता का आधार बन जाए तो क्या वह ठीक होगा? आसाम में ठीक यही हुआ है। 1951 में तैयार जनसँख्या रजिस्टर को (जिसे सार्वजानिक नहीं किया गया था, यहाँ तक कि कई ज़िलों में वह तैयार भी नहीं किया गया था), 2019 में जारी किये गए आसाम के नागरिकता-रजिस्टर का आधार माना गया है।)
जनगणना, जनसँख्या-रजिस्टर (एनपीआर) एवं जनगणना-रजिस्टर (एनआरसी) को जोड़ने का सब से पहला प्रभाव तो यह पड़ेगा कि अब की बार नागरिकों को जनगणना अधिकारियों के पीछे-पीछे घूम कर यह सुनिश्चित करना पड़ेगा कि न केवल उन का नाम उस रजिस्टर में हो, बल्कि सारे विवरण ठीक हों क्योंकि अगर आप का नाम जनसँख्या-रजिस्टर में नहीं होगा तो आप का नाम नागरिकता-रजिस्टर में भी नहीं होगा। हर गाँव/वार्ड का अलग जनसँख्या-रजिस्टर बनेगा जिसे पटवारी सरीखा कोई अधिकारी जारी करेगा। जनसंख्या-रजिस्टर में नागरिकता का एक कॉलम भी होगा जिसे पटवारी स्वीकार या अस्वीकार कर सकता है। यह ठीक है कि जनगणना अधिकारी घर-घर जा कर सर्वे करेंगे और कोई सबूत नहीं मांगेंगे लेकिन अगर स्थानीय जनसँख्या-रजिस्टर में आप का नाम नहीं है या विवरण सही नहीं है या आप को पटवारी ने नागरिक नहीं माना है तो फिर इस त्रुटि को एक निश्चित समय-सीमा में दूर करने की ज़िम्मेदारी आप की होगी। यह नागरिकता नियम 2003 में स्पष्ट लिखा हुआ है। जनसँख्या-रजिस्टर में नाम दर्ज करवाने के लिए यह भी साबित करना होगा कि व्यक्ति कम से कम 6 महीने से उस स्थान पर रह रहा है। किराये पर या झुग्गी-झोपडी में रहने वाला कोई दिहाड़ी मज़दूर यह कैसे साबित करेगा कि वह कम से कम 6 महीने से उस स्थान पर रह रहा है? ऐसे लोगों का नाम तो दोनों जगह से कट जाएगा। अपने पैतृक स्थान पर वास्तव में वे 6 महीने से रह नहीं रहे, इसलिए वहाँ इन का नाम नहीं हो सकता और जहाँ रह रहे हैं, वहाँ अगर वे साबित नहीं कर पाए कि वे पिछले 6 महीने से रह रहे हैं तो वहाँ भी इन का नाम जनसँख्या-रजिस्टर में नहीं आ सकता, और जिस का नाम जनसँख्या-रजिस्टर में नहीं है वह तो देश का नागरिक हो ही नहीं सकता (विदेश में रहने वाले भारतीय पासपोर्टधारी इस का अपवाद हो सकते हैं।)
ख़ैर, सारी भागदौड़ और दफ़्तरों और पटवारी के चक्कर काटने के बावजूद अगर आप यह साबित नहीं कर पाए कि आप भारत के नागरिक हैं तो ग़ैर-मुस्लिम लोग तो शायद नागरिकता संशोधन कानून 2019 के माध्यम से भारत के नागरिक बन जाएँगे (आसाम में नागरिकता से वंचित हिन्दुओं को वापिस नागरिक बनाने के लिए ही यह संशोधन किया गया है), लेकिन असली समस्या आएगी मुसलमानों को। इसी लिए नागरिकता संशोधन क़ानून का विरोध हो रहा है। हालाँकि ऊपरी तौर पर इस संशोधन से देश के किसी नागरिक की, किसी मुस्लिम की नागरिकता नहीं छीनी जा सकती लेकिन इसे नागरिकता-रजिस्टर के साथ जोड़ कर देखा जाए तो इस का मुसलमानों पर पड़ने वाला दुष्प्रभाव स्पष्ट है। इस लिए उन की चिंता वाजिब है। (यह भी कहा जा रहा है कि मुसलमानों को चिंता करने की कोई ज़रूरत नहीं है क्योंकि करोड़ों लोगों को न देश से निकाला जा सकता और न सदा के लिए जेल में रखा जा सकता है। यह सही है कि करोड़ों लोगों को देश से निकाल बाहर तो नहीं किया जा सकता पर उन को दोयम दर्जे का नागरिक बना कर तो रखा ही जा सकता है, उन से वोट का अधिकार छीना जा सकता है। आसाम समझौते में यह प्रावधान था। इसलिए स्पष्ट तौर पर देश के मुस्लिम नागरिकों पर यह तलवार अब लटक रही है।)
पूरे देश के 140 करोड़ लोगों के लिए नागरिकता-रजिस्टर रूपी फ़िज़ूल की इस सिरदर्दी का कोई ख़ास फ़ायदा भी नहीं होगा क्योंकि खुले नल को बंद किये बिना पोचा मारने का कोई फ़ायदा नहीं होता - यानी जब तक देश की सीमाओं पर सख़्ती से निगरानी नहीं होगी, तब तक अवैध प्रवासियों का आना नहीं रुकेगा। और अगर यह नहीं रुकेगा तो 5-10 साल में फिर से नागरिकता साबित करनी पड़ेगी।
जहाँ तक दूसरे देशों में प्रताड़ित अल्पसंख्यक नागरिकों को शरण देने की बात है, अभी भी भारत में ऐसे लोगों को शरण मिलती रही है। तिब्बती यहाँ आए हैं, अफ़ग़ान और ईरानी भी आए हैं और बंगलादेश से भागे हुए लोगों को भी शरण मिली है – लेखिका तसलीमा नसरीन इस का प्रमुख उदाहरण हैं हालाँकि एकमात्र उदाहरण नहीं। {महत्वपूर्ण है कि सरकार द्वारा पेश किए गए पाकिस्तान में हिन्दू आबादी के आंकड़े ग़लत हैं। वर्तमान पाकिस्तान (जो पहले का पश्चिमी पाकिस्तान है) में हमेशा से हिन्दू आबादी 3-3.5% के आस-पास रही है और बंगलादेश में यह अब भी 10% के करीब है।} खैर, शरण के लिए आए किसी भी व्यक्ति को दरवाज़े से भगाने की वकालत कोई भी सभ्य समाज नहीं कर सकता और न ही यह कभी भारत की रीत रही है। पर न तो शरण देने के मामले में कोई भेदभाव होना चाहिए कि फ़लाँ धर्म वालों को और फ़लाँ देश से आने वालों को ही शरण मिलेगी, और न ही शरण देने का बोझ किसी एक राज्य या इलाके पर पड़ना चाहिए। इसलिए बिना धर्म एवं राष्ट्र के भेदभाव के शरण लेने वालों को पूरे देश में बसाया जाए न कि केवल उत्तर-पूर्व में। इस के ठीक उलट नागरिकता कानून में संशोधन के बाद देश में अवैध घुसपैठियों की तीन श्रेणियां बन गई हैं। तीन चिह्नित देशों से आने वाले ग़ैर-मुस्लिम, शेष पड़ोसी देशों (या दुनिया) से आने वाले ग़ैर-मुस्लिम और पूरी दुनिया से आने वाले मुस्लिम। इन में से पहली श्रेणी के अवैध प्रवासियों को नागरिकता मिलेगी, बाकियों को नहीं - यानी श्री लंका से आए तमिलभाषी हिन्दू शरणार्थिर्यों को भी इस संशोधन का फ़ायदा नहीं मिलेगा। मुस्लिम शरणार्थी तो स्पष्ट तौर पर इस से बाहर हैं। यह धार्मिक आधार पर भेदभाव नहीं तो और क्या है? यह देश के संविधान, हमारे बुज़र्गों द्वारा लिए गए फ़ैसले, हमारी सर्वधर्म समभाव की विरासत के ख़िलाफ़ नहीं है तो क्या है?
अवैध घुसपैठ को ज़रूर रोका जाए पर इस के नाम पर देश की जनता, वह चाहे हिन्दू हो या मुसलमान, विशेष तौर पर ग़रीब मेहनतकश जनता, दिहाड़ीदार मज़दूर या छोटा दुकानदार, को प्रताड़ित न किया जाए। इस के लिए देश की सीमा पर निगरानी बढ़ाई जाए। झूठे सरकारी दस्तावेज़ों को जारी करने पर रोक लगाई जाए तो काफ़ी हद तक समस्या दूर हो जायेगी।
हिन्दुस्तान को एक धर्म के दबदबे वाला देश न बनाओ क्योंकि हमारे पड़ोस का कोई भी एक धर्म के दबदबे वाला देश हम से आगे नहीं है।
न देश को बांटो, न फ़िज़ूलखर्च करो, न देश की पूरी 140 करोड़ जनता को नोटबंदी की तरह लाइन में लगाओ -
नागरिकता कानून में संशोधन एवं नागरिकता-रजिस्टर वापिस हो, वरना परेशान सब होंगे, कोई कम कोई ज़्यादा।
जनहित में इस सामग्री का किसी भी रूप में प्रयोग किया जा सकता है। ये सारी जानकारी सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध सरकारी या भरोसेमंद प्रकाशनों से ली गई है न कि अपुष्ट स्रोतों से। जारीकर्ता: सप्तरंग, रोहतक (9416233992) तथा नागरिक एकता एवं सद्भाव समिति, रोहतक (9416961039) ।
(हालाँकि यह पर्चा लम्बा है पर पढ़ें ज़रूर क्योंकि ये मुद्दे सब को प्रभावित करते हैं, किसी को कम, किसी को ज़्यादा।)
भाग 1 आसाम समझौता, नागरिकता-कानून में संशोधन एवं आसाम का नागरिकता-रजिस्टर
नागरिकता कानून में संशोधन एवं नागरिकता रजिस्टर का विरोध एक कारण से नहीं हो रहा। यह दो कारणों से हो रहा है - उत्तर-पूर्व में अलग कारणों से और शेष देश में अलग कारणों से । दोनों तरह की आलोचनाओं का समाधान ज़रूरी है।
उत्तर-पूर्व के राज्यों में इस का विरोध इसलिए हो रहा है कि इस के चलते अवैध रूप से देश में 2014 तक दाखिल हुए लोगों को भी नागरिकता मिल जायेगी जब कि 1985 में भारत सरकार के साथ हुए आसाम समझौते के तहत केवल 1965 तक आसाम में आए हुए अवैध प्रवासियों को ही नागरिकता मिलनी थी। (मोदी सरकार द्वारा पिछले कार्यकाल में प्रस्तावित नागरिकता संशोधन कानून का उत्तर-पूर्व राज्यों में भयंकर विरोध हुआ था। इस सशक्त विरोध के चलते मोदी सरकार ने 2019 में पारित कानून के दायरे से उत्तर-पूर्व के कुछ इलाकों को बाहर रखा है पर इस से भी उत्तर-पूर्व के स्थानीय संगठन/लोग संतुष्ट नहीं हैं। वे इसे वायदा-खिलाफ़ी के रूप में देखते हैं।)
आसाम (और तब के आसाम में लगभग पूरा उत्तर-पूर्व भारत आ जाता था) में अवैध प्रवासियों की समस्या बहुत पुरानी है। इस के नियंत्रण के लिए पहला कानून 1950 में ही बन गया था। इस का कारण यह है कि भारत-बंगलादेश सीमा हरियाणा-पंजाब सीमा जैसी ही है। कहीं-कहीं तो आगे का दरवाज़ा भारत में तो पिछला बंगलादेश में खुलता है। भारत के नक़्शे के अन्दर कुछ इलाके बंगलादेश के थे तो बंगलादेश के नक़्शे के अन्दर स्थित कुछ ज़मीन भारत की थी। (इन इलाकों का हाल में ही निपटारा हुआ है।) बोली, भाषा, पहनावा एक जैसा होने के चलते कलकत्ता में पहले-दिन-पहला-फ़िल्म शो देखने के लिए बंगलादेश से आना मुश्किल नहीं था। ऐसे अजीबो-गरीब तरीके से हुआ था देश का बंटवारा।
इसलिए 1985 में हुए आसाम समझौते की धारा 9 के अनुसार भारत सरकार ने भारत-बंगलादेश सीमा को सुरक्षित एवं नियंत्रित कर के अवैध प्रवासियों के आने पर रोक भी लगानी थी। पर इस इलाके का भूगोल ऐसा है कि लिखित वायदे के बावज़ूद केन्द्रीय सरकार, जिस में भाजपा की वाजपेयी और मोदी सरकार भी शामिल हैं, ऐसा अब तक नहीं कर पाई है।
हालाँकि ऊपरी तौर पर आसाम आन्दोलन अवैध बंगलादेशी प्रवासियों के ख़िलाफ़ था लेकिन नीचे-नीचे ही सभी ग़ैर-आसामी प्रवासियों के प्रति भी रोष था; परेशानी न केवल मुसलमानों से थी, न केवल बंगलादेशियों से थी बल्कि बंगलाभाषियों से थी, फिर चाहे वे हिन्दू हों या भारतीय हों। रोष हिंदी-भाषियों के प्रति भी था। इसलिए ही आन्दोलन 1979 से 1985 तक चला था। अवैध विदेशी प्रवासियों की पहचान से किस को इतनी गहरी आपत्ति हो सकती थी कि आन्दोलन 6 साल तक चलता?
आर्थिक कारणों के अलावा आसाम में ग़ैर-आसामियों के आने के लिए कुछ विशेष ऐतिहासिक परिस्थितियाँ भी ज़िम्मेदार थीं। अंग्रेजों के आने से पहले उत्तर-पूर्व पर दिल्ली का शासन (आमतौर पर) नहीं रहा। सांस्कृतिक एवं शारीरिक बनावट इत्यादि की दृष्टि से भी यहाँ के निवासी शेष देश से काफ़ी अलग रहे हैं (जैसे, अरुणाचल प्रदेश के कुछ इलाकों में माता-पिता की विरासत सब से छोटी बेटी/बच्चे को मिलती है और उस के साथ ही माता-पिता रहते हैं; ‘ख़म खेन सुआन हौसिंग’ उत्तर-पूर्व के एक प्रोफ़ेसर का नाम है पर पहली नज़र में आमतौर पर भारतीय प्रतीत नहीं होगा।) उत्तर-पूर्व अंग्रेज़ों के मातहत भी काफ़ी बाद में आया था। इसलिए जब उत्तर-पूर्व अंग्रेज़ों के अधीन आया तो वहाँ शासन-प्रशासन में बड़े पैमाने पर बंगला-भाषी लोग आए क्योंकि बंगाल में अग्रेज़ों का शासन सब से पहले आया था और वहाँ के निवासी अंग्रेज़ों की शासन-शिक्षा पद्धति से परिचित थे जब कि आसाम के लोग इस से अनभिज्ञ थे। इसलिए आसाम के कुछ तबकों के लिए बंगाली-भाषी भी वैसे ही बाहरी थे जैसे अंग्रेज़। हिन्दी-भाषी भी वहाँ चाय बागानों में मज़दूरी के लिए अंग्रेज़ों द्वारा ही लाए गए थे।
आसाम एवं उत्तर-पूर्व के अन्य राज्यों के मूल निवासी उन्हीं कारणों से नागरिकता कानून में संशोधन का विरोध कर रहे हैं जिन कारणों से कभी महाराष्ट्र में ग़ैर-मराठी भाषियों का विरोध होता है और कभी गुजरात में, जिन कारणों से हरियाणा में नौकरियों में हरियाणावासियों के लिए आरक्षण की मांग उठती है, जिन कारणों से हरियाणा पंजाब से अलग हुआ और तेलंगाना आंध्र प्रदेश से अलग हुआ, जिस के कारण आरक्षण के पक्ष और विरोध में आक्रामक आन्दोलन होते हैं। और वो बड़ा कारण है रोज़गार के घटते अवसर। प्रवास आसान होने के बावजूद भी आम तौर पर व्यक्ति अपनी जड़ों को छोड़ कर तब तक नहीं जाना चाहता जब तक कि रोज़गार, या बेहतर रोज़गार, के अवसर न मिलें। कोई अपना घर छोड़ कर किसी और की संस्कृति में ख़लल डालने के नजरिये से तो कहीं नहीं जाता। भारत के लोग अमेरिका, कैनेडा या आस्ट्रेलिया रोज़गार के लिए ही जाने का वैध-अवैध प्रयास करते हैं न कि वहाँ की संस्कृति को दूषित करने के इरादे से। इसलिए जब तक सब के लिए रोज़गार और सम्मानजनक रोज़गार सुनिश्चित नहीं होगा, तब तक ये टकराव खड़ा होता रहेगा, कभी विदेशियों के साथ एवं कभी अपने ही देश के नागरिकों के साथ। कभी आसाम में और कभी ट्रम्प के अमेरिका में।
ख़ैर, आसाम समझौता हुआ। भविष्य में अवैध प्रवास को रोकने के लिए सीमा-सुरक्षा के कड़े कदम उठाने के अलावा यह तय हुआ था कि जो 1965 तक आसाम में रह रहे थे, वे वहाँ के नागरिक माने जाएँगे। 1966 से ले कर 24 मार्च 1971 तक आए अवैध प्रवासियों के वोट का अधिकार 10 साल के लिए छीन लिया जाएगा (पर उन के बाकी नागरिक अधिकार बचे रहेंगे; दस साल बाद उन का वोट का अधिकार भी बहाल हो जायेगा)। 24 मार्च 1971 के बाद आए अवैध प्रवासियों को देश से निकाल बाहर किया जाएगा।
पर आसाम समझौते को लागू कैसे किया जाए? आसाम समझौते के समय लागू नागरिकता कानून के अनुसार देश में जन्मा हर बच्चा भारतीय नागरिक था। इस के विपरीत आसाम समझौते के अनुसार 1965 के बाद आसाम में जन्मे बच्चों को स्वत: नागरिकता का अधिकार नहीं था। ऐसी अनेकों कानूनी दिक्कतों के कारण आसाम समझौते के अनुसार कारवाई नहीं हुई। वाजपेयी सरकार द्वारा भी कोई कारवाई नहीं की गई। (नागरिकता कानून में 1986 में हुए बदलाव के बाद 30 जून 1986 तक भारत में जन्मा हर बच्चा और इस के बाद भारत में जन्मा वो बच्चा जिस के माता-पिता में से कोई एक भारतीय नागरिक था, भी भारतीय था। वाजपेयी सरकार ने इस में फिर से संशोधन कर के यह नियम बनाया कि 4 दिसम्बर 2004 के बाद भारत में जन्मे बच्चे को तभी भारतीय नागरिकता का अधिकार होगा अगर उस के माता-पिता में से कोई एक भारतीय नागरिक हो तथा दूसरा अवैध प्रवासी न हो।)
अंतत: 2006 में आए सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के बाद, सुप्रीम कोर्ट के निर्देशन में आसाम में अवैध विदेशी प्रवासियों की पहचान एवं नागरिकता-रजिस्टर के नवीनीकरण का काम शुरू हुआ। आसाम के हर आदमी, यानी 3 करोड़ से अधिक लोगों को, नागरिकता के लिए आवेदन करना पड़ा। किसी के नागरिकता आवेदन पर कोई भी व्यक्ति आपत्ति कर सकता था। आसाम के नागरिकता-रजिस्टर के पहले प्रारूप में 120 लाख आवेदकों को इस से बाहर रखा गया। फिर अपील एवं दावों की दोबारा जाँच का काम शुरू हुआ और अंतत: 19 लाख आवेदकों का नाम नागरिकता-रजिस्टर में नहीं आ पाया। एक मिनट के लिए इन 19 लाख लोगों को भी छोड़ कर उन 1 करोड़ लोगों के बारे में सोचें, जिन का पहले रजिस्टर में नाम नहीं था पर आखिर में जिन का नाम नागरिकता-रजिस्टर में आ गया। वे किस मानसिक तनाव एवं चिंता से गुज़रे होंगे, इस का सहज अन्दाज़ा लगाया जा सकता है। और नागरिकता-रजिस्टर से बाहर कैसे-कैसे लोग रह गए हैं, इस बारे में अख़बारों में ख़बरें भरी पड़ी हैं। भारत के भूतपूर्व राष्ट्रपति के परिजन भी नागरिकता-रजिस्टर से बाहर कर दिए गए। बाप को नागरिक मान लिया गया, बेटे को नहीं या इस के विपरीत भी हुआ; एक भाई को नागरिक मान लिया गया तो दूसरे को नहीं। भारत की सेना से पेंशन आए लोग भी अवैध घुसपैठिये माने गए। ऐसी अनेकों विसंगतियां पाई गईं।
इन विसंगतियों के चलते दो काम हुए। एक तो नागरिकता कानून में वर्तमान बदलाव किया गया। भले ही आज इसे शरणार्थियों के लिए किया गया मानवीय उपाय कहा जाए पर इस के इतिहास को देखें तो स्पष्ट है कि वास्तव में आसाम में बने नागरिकता-रजिस्टर की विसंगतियों के चलते ही इसे लाया गया है। हालाँकि पहले हल्ला ‘मुस्लिम’/बंगलादेशी घुसपैठियों के नाम पर हुआ था पर अनुमान है कि आसाम के नागरिकता-रजिस्टर से बाहर रहने वाले 19 लाख लोगों में से 13 लाख के करीब तो हिन्दू हैं। इस के चलते ही नागरिकता-कानून में वर्तमान संशोधन हुआ है और ग़ैर-मुस्लिम अवैध प्रवासियों को नागरिकता देने का प्रावधान किया गया है।
आसाम के नागरिकता-रजिस्टर की विसंगतियों/ग़लतियों का दूसरा परिणाम यह हुआ है कि सुप्रीम कोर्ट के निर्देशन में नागरिकता-रजिस्टर तैयार करने वाली आसाम सरकार ने ही इसे अस्वीकार कर दिया है। यानी बरसों तक करोड़ों रुपये ख़र्च कर के तैयार किये गए नागरिकता-रजिस्टर को तैयार करने वाली सरकार ने ही इसे नकार दिया है। (1600-1700 करोड़ ख़र्च का अनुमान तो सरकारी ख़र्च का है। आम जनता के खर्चे, भागदौड़, परेशानी इस के अलावा हैं। )
भाग 2 जनगणना (सेंसस), जनसँख्या-रजिस्टर (एनपीआर) एवं नागरिकता-रजिस्टर (एनआरसी): अन्तर एवं सम्बन्ध
शेष भारत में मोदी सरकार की इन नीतियों का विरोध दो बिलकुल अलग कारणों से हो रहा है। एक, जिस नागरिकता- रजिस्टर को सुप्रीम कोर्ट के मार्गदर्शन में अरबों रुपये एवं कई साल ख़र्च होने के बावजूद, बनाने वाली आसाम की सरकार ने ही स्वीकार नहीं किया, जिस के चलते खड़ी हुई समस्याओं के निदान के लिए नागरिकता-कानून तक में संशोधन करना पड़ा, उस असफल योजना को पूरे देश में क्यों लागू किया जाए? क्यों देश के सारे 140 करोड़ लोगों को नोटबंदी की तर्ज़ पर पुन: लाइनों में खड़ा किया जाए? जिस परियोजना के निदेशक को सुप्रीम कोर्ट को दख़ल दे कर, बचा कर, आसाम से बाहर ट्रांस्फ़र करना पड़ा, उस परियोजना को पूरे देश में लागू करने से किस समस्या का हल होगा? अगर देश की बाबूशाही द्वारा तैयार वोटरलिस्ट, पैन कार्ड लिस्ट, राशन कार्ड लिस्ट, बीपीएल लिस्ट, आधार इत्यादि भरोसे लायक नहीं हैं, जिस के चलते नए सिरे से नागरिकता-रजिस्टर तैयार करने की ज़रूरत महसूस हो रही है, तो उसी बाबूशाही द्वारा तैयार किया गया नागरिकता-रजिस्टर कैसे विश्वसनीय होगा?
देश भर में उठे विरोध के चलते प्रधानमंत्री ने यह कहा है कि अभी देश भर में नागरिकता-रजिस्टर बनाने का सरकार का कोई इरादा नहीं है एवं जनसँख्या-रजिस्टर का नागरिकता-रजिस्टर से कोई सम्बन्ध नहीं है। यह दूसरी बात है कि मोदी का इनकार इस के बावज़ूद है कि एक से अधिक बार उन के मंत्री अमित शाह दोनों के बीच के सम्बन्ध को मान चुके हैं एवं जनसँख्या-रजिस्टर के आधार पर नागरिकता-रजिस्टर बनाने के सरकार के इरादे की घोषणा कर चुके हैं। असलियत यह है कि वाजपेयी सरकार के समय पारित नागरिकता नियम 2003 में ही यह प्रावधान कर दिया गया था कि नागरिकता-रजिस्टर का निर्माण जनसँख्या-रजिस्टर के आधार पर होगा। इस की पूरी प्रक्रिया भी इन नियमों में उपलब्ध है। कोई भी देख सकता है।
सरकार/भाजपा द्वारा यह भी कहा जा रहा है कि जनसँख्या-रजिस्टर तो कांग्रेस के समय में पिछली जनगणना के वक्त भी तैयार किया गया था। यह अधूरा या आधा सच है। जनगणना तो देश में कभी से चली आ रही है। इस के आधार पर पिछली बार जनसँख्या-रजिस्टर भी बनाया गया था मगर जनगणना को नागरिकता से जोड़ने से इस की प्रकृति ही बदल जाती है। पिछली जनगणना में किसी को यह चिंता नहीं करनी पड़ी थी कि उन के यहाँ जनगणना-अधिकारी आया या नहीं आया, या क्या लिख कर ले गया, सब के नाम, उम्र एवं अन्य विवरण ठीक थे या नहीं। अब तक भी किसी को यह नहीं पता होगा कि पिछले जनसँख्या-रजिस्टर में उस का नाम था या नहीं - और था भी तो विवरण सही था या नहीं। (एक बार सोच कर देखें कि अगर 2041 या उस के बाद आप के बच्चों या उन के बच्चों को यह कहा जाए कि भारत की उन की नागरिकता 2011 के जनसँख्या रजिस्टर के आधार पर तय की जायेगी, तो इस का कैसा असर होगा? 2011 के जनगणना अधिकारियों ने क्या लिख कर सरकारी रिकार्ड में रख लिया, यह आज आप को पता नहीं है, लेकिन 30-40 साल बाद वह आप के वारिसों की नागरिकता का आधार बन जाए तो क्या वह ठीक होगा? आसाम में ठीक यही हुआ है। 1951 में तैयार जनसँख्या रजिस्टर को (जिसे सार्वजानिक नहीं किया गया था, यहाँ तक कि कई ज़िलों में वह तैयार भी नहीं किया गया था), 2019 में जारी किये गए आसाम के नागरिकता-रजिस्टर का आधार माना गया है।)
जनगणना, जनसँख्या-रजिस्टर (एनपीआर) एवं जनगणना-रजिस्टर (एनआरसी) को जोड़ने का सब से पहला प्रभाव तो यह पड़ेगा कि अब की बार नागरिकों को जनगणना अधिकारियों के पीछे-पीछे घूम कर यह सुनिश्चित करना पड़ेगा कि न केवल उन का नाम उस रजिस्टर में हो, बल्कि सारे विवरण ठीक हों क्योंकि अगर आप का नाम जनसँख्या-रजिस्टर में नहीं होगा तो आप का नाम नागरिकता-रजिस्टर में भी नहीं होगा। हर गाँव/वार्ड का अलग जनसँख्या-रजिस्टर बनेगा जिसे पटवारी सरीखा कोई अधिकारी जारी करेगा। जनसंख्या-रजिस्टर में नागरिकता का एक कॉलम भी होगा जिसे पटवारी स्वीकार या अस्वीकार कर सकता है। यह ठीक है कि जनगणना अधिकारी घर-घर जा कर सर्वे करेंगे और कोई सबूत नहीं मांगेंगे लेकिन अगर स्थानीय जनसँख्या-रजिस्टर में आप का नाम नहीं है या विवरण सही नहीं है या आप को पटवारी ने नागरिक नहीं माना है तो फिर इस त्रुटि को एक निश्चित समय-सीमा में दूर करने की ज़िम्मेदारी आप की होगी। यह नागरिकता नियम 2003 में स्पष्ट लिखा हुआ है। जनसँख्या-रजिस्टर में नाम दर्ज करवाने के लिए यह भी साबित करना होगा कि व्यक्ति कम से कम 6 महीने से उस स्थान पर रह रहा है। किराये पर या झुग्गी-झोपडी में रहने वाला कोई दिहाड़ी मज़दूर यह कैसे साबित करेगा कि वह कम से कम 6 महीने से उस स्थान पर रह रहा है? ऐसे लोगों का नाम तो दोनों जगह से कट जाएगा। अपने पैतृक स्थान पर वास्तव में वे 6 महीने से रह नहीं रहे, इसलिए वहाँ इन का नाम नहीं हो सकता और जहाँ रह रहे हैं, वहाँ अगर वे साबित नहीं कर पाए कि वे पिछले 6 महीने से रह रहे हैं तो वहाँ भी इन का नाम जनसँख्या-रजिस्टर में नहीं आ सकता, और जिस का नाम जनसँख्या-रजिस्टर में नहीं है वह तो देश का नागरिक हो ही नहीं सकता (विदेश में रहने वाले भारतीय पासपोर्टधारी इस का अपवाद हो सकते हैं।)
ख़ैर, सारी भागदौड़ और दफ़्तरों और पटवारी के चक्कर काटने के बावजूद अगर आप यह साबित नहीं कर पाए कि आप भारत के नागरिक हैं तो ग़ैर-मुस्लिम लोग तो शायद नागरिकता संशोधन कानून 2019 के माध्यम से भारत के नागरिक बन जाएँगे (आसाम में नागरिकता से वंचित हिन्दुओं को वापिस नागरिक बनाने के लिए ही यह संशोधन किया गया है), लेकिन असली समस्या आएगी मुसलमानों को। इसी लिए नागरिकता संशोधन क़ानून का विरोध हो रहा है। हालाँकि ऊपरी तौर पर इस संशोधन से देश के किसी नागरिक की, किसी मुस्लिम की नागरिकता नहीं छीनी जा सकती लेकिन इसे नागरिकता-रजिस्टर के साथ जोड़ कर देखा जाए तो इस का मुसलमानों पर पड़ने वाला दुष्प्रभाव स्पष्ट है। इस लिए उन की चिंता वाजिब है। (यह भी कहा जा रहा है कि मुसलमानों को चिंता करने की कोई ज़रूरत नहीं है क्योंकि करोड़ों लोगों को न देश से निकाला जा सकता और न सदा के लिए जेल में रखा जा सकता है। यह सही है कि करोड़ों लोगों को देश से निकाल बाहर तो नहीं किया जा सकता पर उन को दोयम दर्जे का नागरिक बना कर तो रखा ही जा सकता है, उन से वोट का अधिकार छीना जा सकता है। आसाम समझौते में यह प्रावधान था। इसलिए स्पष्ट तौर पर देश के मुस्लिम नागरिकों पर यह तलवार अब लटक रही है।)
पूरे देश के 140 करोड़ लोगों के लिए नागरिकता-रजिस्टर रूपी फ़िज़ूल की इस सिरदर्दी का कोई ख़ास फ़ायदा भी नहीं होगा क्योंकि खुले नल को बंद किये बिना पोचा मारने का कोई फ़ायदा नहीं होता - यानी जब तक देश की सीमाओं पर सख़्ती से निगरानी नहीं होगी, तब तक अवैध प्रवासियों का आना नहीं रुकेगा। और अगर यह नहीं रुकेगा तो 5-10 साल में फिर से नागरिकता साबित करनी पड़ेगी।
जहाँ तक दूसरे देशों में प्रताड़ित अल्पसंख्यक नागरिकों को शरण देने की बात है, अभी भी भारत में ऐसे लोगों को शरण मिलती रही है। तिब्बती यहाँ आए हैं, अफ़ग़ान और ईरानी भी आए हैं और बंगलादेश से भागे हुए लोगों को भी शरण मिली है – लेखिका तसलीमा नसरीन इस का प्रमुख उदाहरण हैं हालाँकि एकमात्र उदाहरण नहीं। {महत्वपूर्ण है कि सरकार द्वारा पेश किए गए पाकिस्तान में हिन्दू आबादी के आंकड़े ग़लत हैं। वर्तमान पाकिस्तान (जो पहले का पश्चिमी पाकिस्तान है) में हमेशा से हिन्दू आबादी 3-3.5% के आस-पास रही है और बंगलादेश में यह अब भी 10% के करीब है।} खैर, शरण के लिए आए किसी भी व्यक्ति को दरवाज़े से भगाने की वकालत कोई भी सभ्य समाज नहीं कर सकता और न ही यह कभी भारत की रीत रही है। पर न तो शरण देने के मामले में कोई भेदभाव होना चाहिए कि फ़लाँ धर्म वालों को और फ़लाँ देश से आने वालों को ही शरण मिलेगी, और न ही शरण देने का बोझ किसी एक राज्य या इलाके पर पड़ना चाहिए। इसलिए बिना धर्म एवं राष्ट्र के भेदभाव के शरण लेने वालों को पूरे देश में बसाया जाए न कि केवल उत्तर-पूर्व में। इस के ठीक उलट नागरिकता कानून में संशोधन के बाद देश में अवैध घुसपैठियों की तीन श्रेणियां बन गई हैं। तीन चिह्नित देशों से आने वाले ग़ैर-मुस्लिम, शेष पड़ोसी देशों (या दुनिया) से आने वाले ग़ैर-मुस्लिम और पूरी दुनिया से आने वाले मुस्लिम। इन में से पहली श्रेणी के अवैध प्रवासियों को नागरिकता मिलेगी, बाकियों को नहीं - यानी श्री लंका से आए तमिलभाषी हिन्दू शरणार्थिर्यों को भी इस संशोधन का फ़ायदा नहीं मिलेगा। मुस्लिम शरणार्थी तो स्पष्ट तौर पर इस से बाहर हैं। यह धार्मिक आधार पर भेदभाव नहीं तो और क्या है? यह देश के संविधान, हमारे बुज़र्गों द्वारा लिए गए फ़ैसले, हमारी सर्वधर्म समभाव की विरासत के ख़िलाफ़ नहीं है तो क्या है?
अवैध घुसपैठ को ज़रूर रोका जाए पर इस के नाम पर देश की जनता, वह चाहे हिन्दू हो या मुसलमान, विशेष तौर पर ग़रीब मेहनतकश जनता, दिहाड़ीदार मज़दूर या छोटा दुकानदार, को प्रताड़ित न किया जाए। इस के लिए देश की सीमा पर निगरानी बढ़ाई जाए। झूठे सरकारी दस्तावेज़ों को जारी करने पर रोक लगाई जाए तो काफ़ी हद तक समस्या दूर हो जायेगी।
हिन्दुस्तान को एक धर्म के दबदबे वाला देश न बनाओ क्योंकि हमारे पड़ोस का कोई भी एक धर्म के दबदबे वाला देश हम से आगे नहीं है।
न देश को बांटो, न फ़िज़ूलखर्च करो, न देश की पूरी 140 करोड़ जनता को नोटबंदी की तरह लाइन में लगाओ -
नागरिकता कानून में संशोधन एवं नागरिकता-रजिस्टर वापिस हो, वरना परेशान सब होंगे, कोई कम कोई ज़्यादा।
जनहित में इस सामग्री का किसी भी रूप में प्रयोग किया जा सकता है। ये सारी जानकारी सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध सरकारी या भरोसेमंद प्रकाशनों से ली गई है न कि अपुष्ट स्रोतों से। जारीकर्ता: सप्तरंग, रोहतक (9416233992) तथा नागरिक एकता एवं सद्भाव समिति, रोहतक (9416961039) ।
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