त्यागमूर्ति महात्मा हंसराज
*त्यागमूर्ति महात्मा हंसराज*
(लेखक डॉ धर्मदेव विद्यार्थी)
महात्मा हंसराजजी को भारतीय शिक्षा के पुनरुद्वारक के रूप में सदा याद किया जायेगा। इन्होने अपना जीवन शिक्षा के लिए अर्पण कर दिया। जिस शिक्षणालय के माध्यम से इन्होने भारतीय पुनर्जागरण का शंख बजाया,वह आज विशाल वट वृक्ष की भान्ति विस्तार करके भारत का सबसे बड़ा शिक्षा संस्थान बन गया है, जिसका नाम डी.ए.वी. कॉलेज प्रबन्ध समिति है। महात्माजी डीएवी स्कूल के प्रथम प्राचार्य बने और तत्पश्चात् अपनी लोकप्रियता के बल पर इस डीएवी कॉलेज प्रबंध समिति के प्रधान भी बने। आपने नेतृत्व में इस संस्थान ने स्थान-स्थान पर डी.ए.वी. विद्यालय और महाविद्यालय खोले।
महात्मा हंसराज का जन्म पंजाब के जिला होशियारपुर के बजवाड़ा गाँव में 19 अप्रैल 1864 को हुआ था। इनके पिता काम लाला चुन्नी लाल था तथा माता का नाम श्रीमती गणेशी देवी था । इनकी माता बड़ी धर्मपरायण महिला और कुशल गृहिणी थी। बालक हंसराज के जन्म के साथ गऊ सेवा का अद्भुत सम्बन्ध है।
क्योकि जन्म के समय इनकी माता गाय को चारा डाल रही थी। जिस कोठरी में गाय थी, उसी कोठरी में बालक का जन्म हुआ। अंधेरी कोठरी में जन्म लेने वाले बालक ने अपना समस्त जीवन भूमण्डल में ज्ञान का उजाला फैलाने में
लगा दिया। गाय के सानिध्य का ही फल कि बालक में गाय के स्वभाव अनुसार कल्याणकारी भावनाओं का जन्म हुआ। इसी भावना ने इन्हें महात्मा के गौरवशाली पद तक पहुंचा दिया।
हंसराज की शिक्षा- दीक्षा बजवाड़ा के प्राइमरी स्कूल से आरम्भ हुई। आगे की शिक्षा होशियारपुर से प्राप्त की,जो बजवाड़ा से 2-3 मील की दूरी पर था। रास्ता न तो आसान था,न जाने का कोई साधन था। रास्ते में एक नाला भी पड़ता था। इस ऊबड़ -खाबड़ रास्ते पर नंगे पाँव ही हंसराज अपने विद्यालय जाते थे। उनकी इस कठोर पदयात्रा का सुन्दर वर्णन आर्यसमाज के प्रसिद्ध सन्यासी महात्मा आनन्द स्वामीजी ने इस प्रकार किया है'भरी दोपहर की जलती धूप में तपती रेत नन्हे बालक के कोमल पाँव जला-जला डालती । तब हंस लकडी की तख्ती पांव तले रखकर खड़ा हो जाता। इससे जलन कुछ कम होती और वह फिर बढ़ने लगता। इस तरह जब -जब सेंक असह्य हो उठता , वह यों ही सुस्ता लेता।
बालक हंसराज की बचपन में की हुई यह तपस्या आगे चलकर काम आई। जिसके परिणाम स्वरूप उन्होंने अपार त्याग का परिचय देकर डीएवी आंदोलन को जन्म दिया। होशियारपुर के पश्चात आपकी शिक्षा लाहौर में हुई। आपके ज्येष्ठ भ्राता लाहौर में सरकारी नौकरी में थे। अतः उन्होंने आपको लाहौर बुला लिया। आपने अरबी, फारसी, संस्कृत तथा अंग्रेजी भाषाओं का अध्ययन किया। उस समय ईसाइयों द्वारा संचालित विद्यालय थे। जिसमें विद्यार्थियों को ईसाइयत के प्रभाव में लाने का प्रयास रहता था और ईसाइयों की पुस्तकें पढ़ने पढ़ाने को प्रोत्साहन दिया जाता था। भारतीय विद्यालयों का कोई स्पष्ट रूप नहीं था। यह परंपरागत विद्यालय या तो मंदिरों में चलते थे या मस्जिदों में होते थे। वहां धार्मिक शिक्षा ही दी जाती थी ।जिसकी कोई निश्चित पाठ्य विधि व नियम नहीं था। इसी काल में स्वामी दयानंद एवं उनके द्वारा स्थापित आर्य समाज के क्रियाकलापों की भारी चर्चा आरंभ हुई और विद्यार्थी जीवन से ही हंसराज के जीवन पर आर्य समाज का प्रभाव पड़ा। श्री हंसराज जीके आर्यसमाजी बनने की घटना का स्वयं हंसराज जी ने अपने लेख, 'मै कैसे आर्य समाजी बना' में वर्णन किया है। यह लेख उस समय 'आर्य गजट' में छपा। जिसके कुछ अंश इस प्रकार हैं -
" अपने ग्राम में मैंने केवल एक बार निमी वृध्द से सुना था कि लाहौर में एक साधु आया हुआ है। जोकि ईसाइयों से वतन पाता है तथा हिन्दू धर्म के विरुद्ध उपदेश करता है। उस समय मुझे यह भी ज्ञात नहीं था कि वह साधु ऋषि दयानन्द है और उसका उपदेश क्या है? मेरी आयु भी उस समय छोटी थी और न ही मेरी कोई शैक्षणिक योग्यता थी।"
"मुख्याध्यापक से मेरा जो विवाद हुआ उसने मेरे हदय पर विशेष प्रभाव डाला तथा मुझे यह जानने की इच्छा हुई की क्या हमारे पूर्वज प्रकृति के तत्वों को ही मानते और पूजते थे? अतः मैंने इधर-उधर से पूछताछ करके
आर्यसमाज के साप्ताहिक सत्संगों में जाना आरम्भ कर दिया। मै समाज के उपदेशों को सुनता और पत्रिकाओं को पढ़ता।
लाहौर समाज के पूज्य प्रधान दिवंगत लाला साईदास की दृष्टि समाज में आनेवाले नये व्यक्तियों पर शीघ्र पड़ती थी। उन्होंने मुझे बुलाया और प्रेरणा दी कि मैं सध्या कंठस्थ कर लूं। उन्होंने विद्यार्थियों की रुचि बनाने के लिए यह सूचना भी निकाली की जो विद्यार्थी उनको सन्ध्या कंठस्थ करके सुनायेगा, उसको वह पुरस्कार देंगे। इस प्रकार मैंने उनको सन्ध्या सुना दी और उनसे दो रुपये पुरस्कार स्वरूप प्राप्त किये। मै समाज के साप्ताहिक सत्संगो में कभी अनुपस्थित नहीं होता था। यद्यपि समाज में उपदेश पंडित अखिलानन्दजी के व पंडित मूलराजजी के हुआ करते थे तथा उसकी व्याख्यान-शैली इस प्रकार की थी कि पहले का वाक्य कभी समाप्त ही नहीं
होता था और दूसरे सज्जन के एक मन्त्र की व्याख्या
दूसरे मन्त्र की व्याख्या से कतई भिन्न नहीं होती थी। परन्तु हम उपदेश को चुपचाप सुनते रहते थे। तदुपरान्त भाई दित्तसिंहजी और भाई जवाहर सिंहजी के भाषण 'सिख इतिहास'
तथा ईसाई मत खंडन
बड़ी रुचि से सुनते थे। उस समय ये दोनो महानुभाव आर्यसमाज के सदस्य एवं वक्ता थे तथा आर्यसमाज के संगठन में उनका स्थान समादर का था। मुझे सप्ताहिक अधिवेशन में सम्मिलित होने की इतनी धुन थी कि मैं समाज के साप्ताहिक अधिवेशनो से अपनी एंट्रेंस की परीक्षा के दिनों में भी अनुपस्थित नहीं रहा। स्पष्ट है कि आर्य समाज के नेता लाला साईं दास जी के विशेष प्रयत्नों से आपने आर्य समाज की सदस्यता ग्रहण की ।आपके साथ ही लाला लाजपत राय जी आर्य समाजी बने, जिन्होंने बाद में राष्ट्रभक्ति का परिचय देते हुए देश के लिए बलिदान दिया। धीरे-धीरे आपने आर्य समाज का साहित्य पढ़ा और आर्य समाज के सप्ताहिक सत्संग में जाना आरंभ किया। आर्य समाज से आपका इतना गहरा लगाव हुआ कि आपने अपना जीवन आर्य समाज के प्रचार-प्रसार हेतु लगा दिया व महर्षि दयानंद के सभी ग्रंथों को पढ़ डाला था। आपकी ओर श्री गुरुदत्त विद्यार्थी की प्रेरणा से ही लाला लाजपत राय जी आर्य समाज में आए। सन 1883 में दीपावली के दिन महर्षि दयानंद सरस्वती के बलिदान के पश्चात देशभर के आर्य समाज में दुख व निराशा की लहर फैल गई ।परंतु आर्य समाज लाहौर के अथक प्रयासों ने इस निराशा को कम कर उत्साह में बदल दिया। लाहौर के पंडित गुरुदत्त विद्यार्थी और लाला जीवन दास जी ने महर्षि
के अंतिम समय में अजमेर में दर्शन किए थे ।उन्होंने लाहौर लौटकर महर्षि के बलिदान का ऐसा सुंदर वर्णन किया कि सुनने वालों के मन में महर्षि के मिशन को आगे ले जाने का उत्साह जाग उठा और उन्होंने महर्षि का स्मारक बनाने का निर्णय किया। महर्षि के स्मारक के रूप में
विद्यालय- महाविद्यालय बनाने का विचार सबके हृदयों को आलोकित कर गया। आर्य समाज लाहौर की एक सभा में इस विद्यालय हेतु ₹8000 का दान उपस्थित माताओं, बहनों तथा बच्चों व दानी महानुभावों ने दिया । 28 फरवरी 1886 ई. के दिन पुन: एक विशाल सभा लाहौर आर्यसमाज में हुई, जिसमें माता भगवती ने मार्मिक भाषण देते हुए भारत की 20 करोड़ जनता से एक कॉलेज खोलने की अपील की ।इसी प्रकार लाला लाजपत राय और पंडित गुरुदत्त विद्यार्थी ने सारगर्भित भाषण दिए ।फिर हंसराज जी ने बड़े भावुक होकर कॉलेज की स्थापना व महत्व पर बल दिया और कॉलेज हेतु अपना जीवन दान करने की घोषणा की ।उनकी घोषणा ने जनता में उत्साह का संचार कर दिया। उसी बैठक में मियानी शाहपुर मुल्तान के लाला ज्वाला सहाय ने आठ सहस्र भेंट किए ।आर्य समाज मुल्तान ने ₹600 भेंट किए ।इसके अतिरिक्त ₹125 का दान अनेक दानी महानुभावों ने मासिक देने का वचन दिया।
दान की यह परंपरा एक ऐतिहासिक घटना है ।क्योंकि अब तक लोग मंदिरों व मठों तथा पंडों को ही दान का अधिकारी समझते थे ।इस पुरानी परंपरा से हटकर विद्यालय या कॉलेज के लिए दान देना भारी परिवर्तन का सूचक था। यही दान की प्रवृत्ति जिसको हंसराजजी ने अपना जीवन दान देकर आरंभ किया फलती फूलती रही और स्थान -स्थान पर डीएवी स्कूलों व कॉलेजों की स्थापना में सहायक हुई। यहां यह भी ज्ञातव्य है कि स्कूल के लिए किसी रायबहादुर या बड़े -बड़े धनी लोगों ने दान नहीं किया अपितु जनसाधारण ने दान किया इस प्रकार सन 1886 ई. में लाहौर में प्रथम डीएवी स्कूल की स्थापना हुई। जिसका मुख्य अध्यापक नवयुवक हंसराज को बनाया गया ।1889 में यही स्कूल कॉलेज बन गया और हंसराज जी ही इस कॉलेज के प्राचार्य बने।वह पहले भारतीय थे जो किसी कॉलेज के प्राचार्य बने थे। क्योंकि अभी तक स्कूल- कॉलेजों पर ईसाई मिशनरियों का ही वर्चस्व था और अंग्रेज ही प्राचार्य बनाए जाते थे। हंसराज जी ने आजीवन डीएवी स्कूल कॉलेज के प्राचार्य के रूप में अवैतनिक सेवा की। उन्होंने कभी भी कॉलेज से वेतन नहीं लिया और न ही कॉलेज की किसी वस्तु पर का अपने हित में प्रयोग किया ।इसका एक उदाहरण है एक बार किसी ने श्री हंसराज जी को किसी के नाम एक निजी पत्र लिखने के लिए कहा तो श्री हंसराज जी ने किसी को कागज लाने भेजा। इस पर वह सज्जन कहने लगे कि इतना बड़ा कॉलेज है क्या इसमें एक कागज नहीं है? हंसराज जी ने कहा , कॉलेज में कागज तो है परंतु पत्र कॉलेज का नहीं, निजी है। अतः कॉलेज के
कागज पर नहीं लिखा जा सकता।
श्री हंसराज के जीवन को त्यागमय बनाने के लिए तथा उनकी जीवन दान की घोषणा को सफल बनाने में उनके भाई मुल्खराज का योगदान सदा अविस्मरणीय रहेगा ।वह उस समय नगर पालिका में ₹50 मासिक पर कार्य करते थे उन्होने संकल्प किया कि वह जीवन भर अपने वेतन का आधा हंसराज जी को देते रहेंगे जिससे वह कभी अपनी घोषणा से डगमगा न जाए ।
इस प्रकार के तप- त्याग से ही आर्य समाज और डीएवी फला फूला। महात्मा जी सदा बालकों के सर्वांगीण विकास के लिए प्रयत्नशील रहते थे। वह पढ़ाई के साथ-साथ बालक के सांस्कृतिक विकास के पक्षधर थे ।वह स्वयं व्यायाम करते थे तथा बालकों के व्यायाम की व्यवस्था में भी रुचि रखते थे ।उन्होंने ही कबड्डी और कुश्ती जैसे भारतीय खेलों को कॉलेज के खेलों में स्थान दिलवाया ।हंसराज जी ने एक आदर्श मुख्याध्यापक तथा प्राचार्य के लिए दो प्रमुख नीति संबंधी सुझाव दिए हैं, जिन्हें अपनाकर कोई भी मुख्य अध्यापक एक सफल प्रशासक बन सकता है। वे इस प्रकार हैं- (1) मुख्य अध्यापक को स्कूल में आने वाले प्रत्येक पत्र का उत्तर स्वयं देना चाहिए। (2) अधिकार संबंधी पत्र तथ्यात्मक और शुष्क होना चाहिए, उसमें भावनात्मक संवेग नहीं होना चाहिए। उनके ये सुझाव वर्तमान युग में भी पूर्ण रूप से व्यवहारिक और तर्कसंगत है। हंसराजजी कॉलेज के प्राचार्य तो थे परंतु उनमें अंग्रेजीदां प्राचार्यौ वाली बू नहीं थी ।वह साधारण और सरल प्रकृति के जीव थे तथा छोटे -बड़े सब से प्रेम करते थे ।उन्हें सदा अपने छात्रों की भलाई का ध्यान रहता था ।वह सदा आर्य समाज की उन्नति के लिए प्रयत्नशील रहते थे। यही कारण है कि वह धर्म शिक्षा स्वयं पढ़ाते थे। क्योंकि प्राय: देखा जाता जाता है कि जिस विषय को प्राचार्य पढ़ाते हैं, छात्र उसमें अधिक रूचि लेते हैं। उनकी इस संस्कार देने वाली भावना के कारण और सर्वस्व त्याग के कारण ही सर्वप्रथम 1990 ईस्वी 'आर्य गजट 'साप्ताहिक में उन्हें महात्मा हंसराज लिखा गया।
इसके पश्चात लोगों को यह शब्द इतना जंचा की सभी ने श्री हंसराज को महात्मा हंसराज कहना आरंभ कर दिया। महात्मा गांधी के पश्चात महात्मा शब्द का प्रयोग सबसे अधिक महात्मा हंसराज जी के लिए ही किया जाता है।
महात्माजी ने कॉलेज के कार्य के साथ-साथ आर्यसमाज के माध्यम से सेवाकार्यों में भी बढ़-चढ़कर भाग लिया।।सन 1899 में राजस्थान में भीषण अकाल पड़ा। तो महात्मा हंसराजजी ने लाला लाजपत राय तथा आर्यजनों के साथ सेवाकार्य किया।
इसी प्रकार काँगड़ा में भयानक भूकंप आने पर महात्माजी ने नवयुवक आर्यों का एक दल गठित किया और इस दल को राहत-कायों के लिए कांगड़ा भेजा। उन्होने दयानन्द कालेज के छात्रों के दल को भी सेवाकार्य के लिए
भेजा। महात्माजी स्वयं भी वहाँ राहत-कार्य करते रहे। महात्मजी कांगड़ा के दुर्गम इलाकों में जाकर पीड़ितों की स्वयं देखभाल करते थे। घायलों की मरहम- पट्टी करते और दूर-दूर क्षेत्रों में राहत सामग्री पहुंचाते थे।
उनके इन कार्यों की भारत- भर में प्रशंसा हुई। जिसने देखा-सुना, वह सराहे बिना न रह सका।
1907-1908 में अवध में भयंकर अकाल पड़ा तो महात्माजी के नेतृत्व में आर्यसमाज ने राहत कार्य किया।
उन्हीं दिनों मुलतान में प्लेग फैली तो फिर आर्यसमाज ने राहत -कार्य किया।
1911 ई. मे रावलपिण्डी में प्लेग फैलने पर आर्यसमाज ने सेवाकार्य किया। इसी प्रकार दिल्ली में प्लेग फैलने पर, लाहौर में महामारी फैलने तथा छतीसगढ़ में अकाल पड़ने पर महात्माजी के नेतृत्व में आर्यसमाज ने बडे
पैमाने पर सेवाकार्य किये।
इस प्रकार हम देखते है कि चाहे केरल हो या मालाबार हो या देश का कोई भी कोना, जहाँ भी विपत्ति आती महात्मजी सबसे पहले आर्य युवकों को साथ लेकर जा पहुंचते थे।इसलिये किसी कवि ने उस समय उनके लिये व आर्यसमाज के लिये लिखा था-
है केवल आर्य समाज भलाई सबकी चाहने वाला। जब उजड़ा था बीकानेर, मचा था चारों तरफ अंधेर। वहां पर पहुंचा था यही शेर, भूखे मरतों को बचाने वाला। जब फटा धरती का सीना ,वहां इसने पुरुषार्थ कीना। गिरा जहां तुम्हारा पसीना, वहां यह खून बहाने वाला ।
उन्होंने आर्य समाज को भी नई दिशा दी ।आर्य समाज के प्रचार के लिए उपदेशको और प्रकाशन का समुचित प्रबंध किया गया। आर्य महासम्मेलनो का आरंभ किया गया ।स्वामी श्रद्धानंदजी के अमर बलिदान के बाद होने वाले आर्य महासम्मेलन की अध्यक्षता महात्मा जी ने की। हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में बढ़ावा देने के लिए आप सदा आगे रहते थे। इसलिए आपको हिंदी साहित्य सम्मेलन का प्रधान बनाया गया गया ।
हैदराबाद के निजाम- शाही के विरुद्ध हुए संघर्ष में महात्मा जी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । यह आपकी कटर देशभक्ति की भावना का ही परिणाम था कि जब लॉर्ड हार्डिंग बम कांड में आपके पुत्र श्री बलराजजी को पकड़ा गया तो आप सरकार के आगे नहीं झुके ।लाला बलराजजी को राजद्रोह का दोषी ठहराया गया और जेल भेज दिया गया तब भी एक पिता का हृदय नहीं पिघला नहीं। क्योंकि यह पिता केवल एक बालक का पिता ही नहीं था अपितु भारत भर के बालकों का पिता था ।यह उनकी देशभक्ति के रूप का सबसे बड़ा प्रमाण है।
महात्मा हंसराज जी ने डीएवी स्कूल के मुख्य अध्यापक के रूप में कार्य आरंभ किया ।जब डीएवी का छोटा सा पौधा एक वटवृक्ष बना तो अनेक स्थानों पर डीएवी स्कूल कॉलेज खोले गए, जिनका संचालन करने के लिए एक समिति ,डीएवी कॉलेज प्रबंध समिति बनाई गई। आपको इसका प्रधान बनाया गया। आर्य समाज का कार्य करने के लिए बनी आर्य प्रादेशिक प्रतिनिधि सभा के रूप में आप प्रधान बने। इसके साथ-साथ आप आर्य समाज अनारकली लाहौर के भी प्रधान रहे। अर्थात आप व्यक्ति न होकर एक संस्था थे। आपने देश की सामाजिक और शैक्षणिक अवस्था को एक नया आयाम दिया ।आपने अनेक छात्रों ने जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आगे बढ़कर नाम और ख्याति प्राप्त की
महात्माजी जीवन की ऊंचाइयों पर चढ़कर जब प्राचार्य पद से निवृत हुए तो कॉलेज का मकान छोड़कर किराए के एक मकान में रहने लगे ।तब उनके पास ना कोई बैंक जमा पूंजी थी और न ही कोई जमीन जायदाद। यह था उनके त्याग का एक प्रमाण। शिक्षा के साथ-साथ धर्म प्रचार के कार्य को महात्मा जी जीवन पर्यंत करते रहे ।उन्होंने धर्म प्रचार हेतु 26 जनवरी 1894 को आर्य प्रतिनिधि सभा की स्थापना की। अनेक भजनोपदेश्क व प्रचारक रखे गए। उनके वेतन की व्यवस्था की गई।प्रचार कार्य को चलाने के लिए स्थिर निधियां स्थापित की गई। महात्मा जी ने स्वयं स्थान स्थान पर जाकर धन एकत्रित किया। उनकी प्रबल इच्छा थी कि उपदेशक व प्रचारक जीवन की चिंताओं से मुक्त होकर वैदिक धर्म का प्रचार करें तथा सभा उनके बाल -बच्चों की शिक्षा दीक्षा व अन्य आवश्यकता की पूर्ति के लिए समुचित प्रबंध करें। इसलिए महात्मा जी ने वेद प्रचार -निधि के लिए ऋषि बौद्ध पर्व तथा ऋषि निर्माण पर्व पर परिवारों के प्रति सदस्यों से 4 आना निधि की प्रथा चलाई, जिससे बाद में सभी आर्य समाजो ने अपनाया।
प्रचार के दूसरे महत्वपूर्ण अंग प्रकाशन विभाग पर भी महात्माजी ने ध्यान दिया ।उन्होंने अपने जीवन काल में अनेक पुस्तकों के प्रकाशन की व्यवस्था की। वह सदा विद्वानों को प्रचारात्मक पुस्तकें लिखने के लिए प्रोत्साहित करते रहते थे। उन्होंने जनसाधारण में आर्य समाज का प्रचार करने के लिए अनेक ट्रैक्ट प्रकाशित करवाए त था बंटवाये। सभा के द्वारा दो पत्र आर्य गजट ,जो उर्दू में था तथा आर्य जगत, जो हिंदी में है के प्रकाशन का पूर्ण प्रबंध किया ।उनकी प्रबल इच्छा थी कि सभा का अपना प्रेस लगाया जाए, इसके लिए उन्होंने योजना भी बनाई जो किसी कारण पूर्ण नहीं हो सकी।
वैदिक धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए उन्होंने भारत देश से बाहर भी प्रयत्न किए और बर्मा,हिन्देशिया, दक्षिण अफ्रीका, नेपाल आदि देशों में आर्य समाज के प्रचारक भेजें ।धर्म प्रचार स्कूल, कॉलेजों की स्थापना के साथ साथ इन्होंने सेवा व कल्याणकारी कार्यों को स्थाई रूप देने का प्रयास भी किया ।इस कार्य के लिए ₹85000 एकत्रित कर लखपत राय सेवा संघ की स्थापना की। यह संस्था लम्बे समय तक सेवा कार्य करती रही। इसी प्रकार पंडित रलाराम स्मारक निधि, पंडित जगत सिंह परिवार सहायता- निधि के द्वारा अनेक महत्वपूर्ण कार्य किए गए। विधवाओं के पुनर्वास हेतु विधवा सहायक निधि, अनाथ बच्चों के लिए आर्य अनाथालय ,मुल्तान की स्थापना आदि कार्य इनकी लोकोपकारी प्रकृति का परिचय देते हैं ।
यही वे कार्य थे जिन्होंने इन्हें हंसराज से महात्मा हंसराज बना दिया। इनका त्याग व तपस्या पूर्ण जीवन तथा आर्य समाज के प्रति तड़प की भावना का ही परिणाम है कि आज डीएवी आंदोलन देश- विदेश में शिक्षा प्रसार का सर्वोत्तम संस्थान बन गया है। इसी प्रकार आर्य प्रादेशिक प्रतिनिधि सभा सेवा व परोपकार का पर्याय बन गई है। इनका अमूल्य योगदान सदैव धर्म के दीवानों को प्रेरणा देता रहेगा ।
महात्मा जी कुंभ और अर्धकुंभ के अवसर पर हरिद्वार आदि तीर्थ स्थानों पर जाकर स्वयं प्रचार कार्य में बढ़ चढ़कर भाग लेते थे। हरिद्वार में उन्होने मोहन आश्रम की स्थापना की थी। सन कुंभ, महात्मा जी के लिये अंतिम कुंभ था। जब महात्मा जी प्रचारार्थ वहां गए। कुंभ के अंतिम दिनों में हरिद्वार में हैजा फूटा, हाहाकार मच गया। सब ने महात्मा जी से कहा कि लौट आए ।किंतु महात्मा जी ने कहा जब तक मोहन आश्रम में आए सभी अतिथि वापस नहीं चले जाते मैं तब तक यहीं रहूंगा। वही रहते हुए आप लोगों की सेवा करते रहे व धर्म -प्रचार के कार्य को आगे बढ़ाते रहें। परंतु इसी दौरान उनको अनेक रोगों ने घेर लिया ,जिससे पेट पीड़ा मुख्य रोग था ।
वह रुग्णावस्था में लाहौर पहुंचे,अनेक डॉक्टरों से परामर्श लिया गया ।सबने रोग की भयंकरता बताई किंतु यह भी कहा कि रोग असाध्य नहीं है ।लाला बलराज तथा जोधराज दोनों सुपुत्र ,पुत्रवधुएँ सब सेवा सुश्रुषा करने लगे, डॉक्टर चिकित्सा करते रहे।
5 नवंबर को पंडित मेहरचंद से महात्मा जी ने कहा, अच्छी निभ गई है अच्छी गुजर गई है। कुछ तो कर्तव्य पूर्ण हुआ ही है ।
अपने अंतिम समय का अहसास होने पर महात्माजी ने श्री खुशहाल चंद जी को बुलाकर वेद- प्रचार का कार्य जारी रखने तथा अपना दाह- संस्कार वैदिक रीति से, संस्कार विधि के अनुसार करने की इच्छा प्रकट की।
15 नवंबर 1988 को रात्रि को महात्माजी का
श्वास उखाड़ने लगा और अंतिम घड़ी आती हुई तो आपने श्री खुशहाल चंद जी को 'ओम विश्वानि देव' मंत्र 21 बार बोलने के लिए कहा। मंत्र पूर्ण होने पर आपने एक हिचकी ली और अपनी इहलीला समाप्त की।
वह इस नश्वर संसार से स्वयं तो चले गए परंतु विरासत के रूप में डीएवी का विशाल आंदोलन छोड़ गए। यही आन्दोलन प्रगति करता हुआ भारत का भाग्य विधाता बन रहा है ।क्योंकि डीएवी के लाखों-करोड़ों छात्र देश के विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न उत्तरदायित्व निभा रहे हैं ।
यही प्रकृति का नियम है, एक दीपक स्वयं जलकर भी अनेक दीप जला जाता है।
( डॉ धर्मदेव विद्यार्थी द्वारा लिखित पुस्तक डी ए वी के कर्णधार पुस्तक से साभार)
(Nityanootan Broadcast Service)
19.04.2020
(लेखक डॉ धर्मदेव विद्यार्थी)
महात्मा हंसराजजी को भारतीय शिक्षा के पुनरुद्वारक के रूप में सदा याद किया जायेगा। इन्होने अपना जीवन शिक्षा के लिए अर्पण कर दिया। जिस शिक्षणालय के माध्यम से इन्होने भारतीय पुनर्जागरण का शंख बजाया,वह आज विशाल वट वृक्ष की भान्ति विस्तार करके भारत का सबसे बड़ा शिक्षा संस्थान बन गया है, जिसका नाम डी.ए.वी. कॉलेज प्रबन्ध समिति है। महात्माजी डीएवी स्कूल के प्रथम प्राचार्य बने और तत्पश्चात् अपनी लोकप्रियता के बल पर इस डीएवी कॉलेज प्रबंध समिति के प्रधान भी बने। आपने नेतृत्व में इस संस्थान ने स्थान-स्थान पर डी.ए.वी. विद्यालय और महाविद्यालय खोले।
महात्मा हंसराज का जन्म पंजाब के जिला होशियारपुर के बजवाड़ा गाँव में 19 अप्रैल 1864 को हुआ था। इनके पिता काम लाला चुन्नी लाल था तथा माता का नाम श्रीमती गणेशी देवी था । इनकी माता बड़ी धर्मपरायण महिला और कुशल गृहिणी थी। बालक हंसराज के जन्म के साथ गऊ सेवा का अद्भुत सम्बन्ध है।
क्योकि जन्म के समय इनकी माता गाय को चारा डाल रही थी। जिस कोठरी में गाय थी, उसी कोठरी में बालक का जन्म हुआ। अंधेरी कोठरी में जन्म लेने वाले बालक ने अपना समस्त जीवन भूमण्डल में ज्ञान का उजाला फैलाने में
लगा दिया। गाय के सानिध्य का ही फल कि बालक में गाय के स्वभाव अनुसार कल्याणकारी भावनाओं का जन्म हुआ। इसी भावना ने इन्हें महात्मा के गौरवशाली पद तक पहुंचा दिया।
हंसराज की शिक्षा- दीक्षा बजवाड़ा के प्राइमरी स्कूल से आरम्भ हुई। आगे की शिक्षा होशियारपुर से प्राप्त की,जो बजवाड़ा से 2-3 मील की दूरी पर था। रास्ता न तो आसान था,न जाने का कोई साधन था। रास्ते में एक नाला भी पड़ता था। इस ऊबड़ -खाबड़ रास्ते पर नंगे पाँव ही हंसराज अपने विद्यालय जाते थे। उनकी इस कठोर पदयात्रा का सुन्दर वर्णन आर्यसमाज के प्रसिद्ध सन्यासी महात्मा आनन्द स्वामीजी ने इस प्रकार किया है'भरी दोपहर की जलती धूप में तपती रेत नन्हे बालक के कोमल पाँव जला-जला डालती । तब हंस लकडी की तख्ती पांव तले रखकर खड़ा हो जाता। इससे जलन कुछ कम होती और वह फिर बढ़ने लगता। इस तरह जब -जब सेंक असह्य हो उठता , वह यों ही सुस्ता लेता।
बालक हंसराज की बचपन में की हुई यह तपस्या आगे चलकर काम आई। जिसके परिणाम स्वरूप उन्होंने अपार त्याग का परिचय देकर डीएवी आंदोलन को जन्म दिया। होशियारपुर के पश्चात आपकी शिक्षा लाहौर में हुई। आपके ज्येष्ठ भ्राता लाहौर में सरकारी नौकरी में थे। अतः उन्होंने आपको लाहौर बुला लिया। आपने अरबी, फारसी, संस्कृत तथा अंग्रेजी भाषाओं का अध्ययन किया। उस समय ईसाइयों द्वारा संचालित विद्यालय थे। जिसमें विद्यार्थियों को ईसाइयत के प्रभाव में लाने का प्रयास रहता था और ईसाइयों की पुस्तकें पढ़ने पढ़ाने को प्रोत्साहन दिया जाता था। भारतीय विद्यालयों का कोई स्पष्ट रूप नहीं था। यह परंपरागत विद्यालय या तो मंदिरों में चलते थे या मस्जिदों में होते थे। वहां धार्मिक शिक्षा ही दी जाती थी ।जिसकी कोई निश्चित पाठ्य विधि व नियम नहीं था। इसी काल में स्वामी दयानंद एवं उनके द्वारा स्थापित आर्य समाज के क्रियाकलापों की भारी चर्चा आरंभ हुई और विद्यार्थी जीवन से ही हंसराज के जीवन पर आर्य समाज का प्रभाव पड़ा। श्री हंसराज जीके आर्यसमाजी बनने की घटना का स्वयं हंसराज जी ने अपने लेख, 'मै कैसे आर्य समाजी बना' में वर्णन किया है। यह लेख उस समय 'आर्य गजट' में छपा। जिसके कुछ अंश इस प्रकार हैं -
" अपने ग्राम में मैंने केवल एक बार निमी वृध्द से सुना था कि लाहौर में एक साधु आया हुआ है। जोकि ईसाइयों से वतन पाता है तथा हिन्दू धर्म के विरुद्ध उपदेश करता है। उस समय मुझे यह भी ज्ञात नहीं था कि वह साधु ऋषि दयानन्द है और उसका उपदेश क्या है? मेरी आयु भी उस समय छोटी थी और न ही मेरी कोई शैक्षणिक योग्यता थी।"
"मुख्याध्यापक से मेरा जो विवाद हुआ उसने मेरे हदय पर विशेष प्रभाव डाला तथा मुझे यह जानने की इच्छा हुई की क्या हमारे पूर्वज प्रकृति के तत्वों को ही मानते और पूजते थे? अतः मैंने इधर-उधर से पूछताछ करके
आर्यसमाज के साप्ताहिक सत्संगों में जाना आरम्भ कर दिया। मै समाज के उपदेशों को सुनता और पत्रिकाओं को पढ़ता।
लाहौर समाज के पूज्य प्रधान दिवंगत लाला साईदास की दृष्टि समाज में आनेवाले नये व्यक्तियों पर शीघ्र पड़ती थी। उन्होंने मुझे बुलाया और प्रेरणा दी कि मैं सध्या कंठस्थ कर लूं। उन्होंने विद्यार्थियों की रुचि बनाने के लिए यह सूचना भी निकाली की जो विद्यार्थी उनको सन्ध्या कंठस्थ करके सुनायेगा, उसको वह पुरस्कार देंगे। इस प्रकार मैंने उनको सन्ध्या सुना दी और उनसे दो रुपये पुरस्कार स्वरूप प्राप्त किये। मै समाज के साप्ताहिक सत्संगो में कभी अनुपस्थित नहीं होता था। यद्यपि समाज में उपदेश पंडित अखिलानन्दजी के व पंडित मूलराजजी के हुआ करते थे तथा उसकी व्याख्यान-शैली इस प्रकार की थी कि पहले का वाक्य कभी समाप्त ही नहीं
होता था और दूसरे सज्जन के एक मन्त्र की व्याख्या
दूसरे मन्त्र की व्याख्या से कतई भिन्न नहीं होती थी। परन्तु हम उपदेश को चुपचाप सुनते रहते थे। तदुपरान्त भाई दित्तसिंहजी और भाई जवाहर सिंहजी के भाषण 'सिख इतिहास'
तथा ईसाई मत खंडन
बड़ी रुचि से सुनते थे। उस समय ये दोनो महानुभाव आर्यसमाज के सदस्य एवं वक्ता थे तथा आर्यसमाज के संगठन में उनका स्थान समादर का था। मुझे सप्ताहिक अधिवेशन में सम्मिलित होने की इतनी धुन थी कि मैं समाज के साप्ताहिक अधिवेशनो से अपनी एंट्रेंस की परीक्षा के दिनों में भी अनुपस्थित नहीं रहा। स्पष्ट है कि आर्य समाज के नेता लाला साईं दास जी के विशेष प्रयत्नों से आपने आर्य समाज की सदस्यता ग्रहण की ।आपके साथ ही लाला लाजपत राय जी आर्य समाजी बने, जिन्होंने बाद में राष्ट्रभक्ति का परिचय देते हुए देश के लिए बलिदान दिया। धीरे-धीरे आपने आर्य समाज का साहित्य पढ़ा और आर्य समाज के सप्ताहिक सत्संग में जाना आरंभ किया। आर्य समाज से आपका इतना गहरा लगाव हुआ कि आपने अपना जीवन आर्य समाज के प्रचार-प्रसार हेतु लगा दिया व महर्षि दयानंद के सभी ग्रंथों को पढ़ डाला था। आपकी ओर श्री गुरुदत्त विद्यार्थी की प्रेरणा से ही लाला लाजपत राय जी आर्य समाज में आए। सन 1883 में दीपावली के दिन महर्षि दयानंद सरस्वती के बलिदान के पश्चात देशभर के आर्य समाज में दुख व निराशा की लहर फैल गई ।परंतु आर्य समाज लाहौर के अथक प्रयासों ने इस निराशा को कम कर उत्साह में बदल दिया। लाहौर के पंडित गुरुदत्त विद्यार्थी और लाला जीवन दास जी ने महर्षि
के अंतिम समय में अजमेर में दर्शन किए थे ।उन्होंने लाहौर लौटकर महर्षि के बलिदान का ऐसा सुंदर वर्णन किया कि सुनने वालों के मन में महर्षि के मिशन को आगे ले जाने का उत्साह जाग उठा और उन्होंने महर्षि का स्मारक बनाने का निर्णय किया। महर्षि के स्मारक के रूप में
विद्यालय- महाविद्यालय बनाने का विचार सबके हृदयों को आलोकित कर गया। आर्य समाज लाहौर की एक सभा में इस विद्यालय हेतु ₹8000 का दान उपस्थित माताओं, बहनों तथा बच्चों व दानी महानुभावों ने दिया । 28 फरवरी 1886 ई. के दिन पुन: एक विशाल सभा लाहौर आर्यसमाज में हुई, जिसमें माता भगवती ने मार्मिक भाषण देते हुए भारत की 20 करोड़ जनता से एक कॉलेज खोलने की अपील की ।इसी प्रकार लाला लाजपत राय और पंडित गुरुदत्त विद्यार्थी ने सारगर्भित भाषण दिए ।फिर हंसराज जी ने बड़े भावुक होकर कॉलेज की स्थापना व महत्व पर बल दिया और कॉलेज हेतु अपना जीवन दान करने की घोषणा की ।उनकी घोषणा ने जनता में उत्साह का संचार कर दिया। उसी बैठक में मियानी शाहपुर मुल्तान के लाला ज्वाला सहाय ने आठ सहस्र भेंट किए ।आर्य समाज मुल्तान ने ₹600 भेंट किए ।इसके अतिरिक्त ₹125 का दान अनेक दानी महानुभावों ने मासिक देने का वचन दिया।
दान की यह परंपरा एक ऐतिहासिक घटना है ।क्योंकि अब तक लोग मंदिरों व मठों तथा पंडों को ही दान का अधिकारी समझते थे ।इस पुरानी परंपरा से हटकर विद्यालय या कॉलेज के लिए दान देना भारी परिवर्तन का सूचक था। यही दान की प्रवृत्ति जिसको हंसराजजी ने अपना जीवन दान देकर आरंभ किया फलती फूलती रही और स्थान -स्थान पर डीएवी स्कूलों व कॉलेजों की स्थापना में सहायक हुई। यहां यह भी ज्ञातव्य है कि स्कूल के लिए किसी रायबहादुर या बड़े -बड़े धनी लोगों ने दान नहीं किया अपितु जनसाधारण ने दान किया इस प्रकार सन 1886 ई. में लाहौर में प्रथम डीएवी स्कूल की स्थापना हुई। जिसका मुख्य अध्यापक नवयुवक हंसराज को बनाया गया ।1889 में यही स्कूल कॉलेज बन गया और हंसराज जी ही इस कॉलेज के प्राचार्य बने।वह पहले भारतीय थे जो किसी कॉलेज के प्राचार्य बने थे। क्योंकि अभी तक स्कूल- कॉलेजों पर ईसाई मिशनरियों का ही वर्चस्व था और अंग्रेज ही प्राचार्य बनाए जाते थे। हंसराज जी ने आजीवन डीएवी स्कूल कॉलेज के प्राचार्य के रूप में अवैतनिक सेवा की। उन्होंने कभी भी कॉलेज से वेतन नहीं लिया और न ही कॉलेज की किसी वस्तु पर का अपने हित में प्रयोग किया ।इसका एक उदाहरण है एक बार किसी ने श्री हंसराज जी को किसी के नाम एक निजी पत्र लिखने के लिए कहा तो श्री हंसराज जी ने किसी को कागज लाने भेजा। इस पर वह सज्जन कहने लगे कि इतना बड़ा कॉलेज है क्या इसमें एक कागज नहीं है? हंसराज जी ने कहा , कॉलेज में कागज तो है परंतु पत्र कॉलेज का नहीं, निजी है। अतः कॉलेज के
कागज पर नहीं लिखा जा सकता।
श्री हंसराज के जीवन को त्यागमय बनाने के लिए तथा उनकी जीवन दान की घोषणा को सफल बनाने में उनके भाई मुल्खराज का योगदान सदा अविस्मरणीय रहेगा ।वह उस समय नगर पालिका में ₹50 मासिक पर कार्य करते थे उन्होने संकल्प किया कि वह जीवन भर अपने वेतन का आधा हंसराज जी को देते रहेंगे जिससे वह कभी अपनी घोषणा से डगमगा न जाए ।
इस प्रकार के तप- त्याग से ही आर्य समाज और डीएवी फला फूला। महात्मा जी सदा बालकों के सर्वांगीण विकास के लिए प्रयत्नशील रहते थे। वह पढ़ाई के साथ-साथ बालक के सांस्कृतिक विकास के पक्षधर थे ।वह स्वयं व्यायाम करते थे तथा बालकों के व्यायाम की व्यवस्था में भी रुचि रखते थे ।उन्होंने ही कबड्डी और कुश्ती जैसे भारतीय खेलों को कॉलेज के खेलों में स्थान दिलवाया ।हंसराज जी ने एक आदर्श मुख्याध्यापक तथा प्राचार्य के लिए दो प्रमुख नीति संबंधी सुझाव दिए हैं, जिन्हें अपनाकर कोई भी मुख्य अध्यापक एक सफल प्रशासक बन सकता है। वे इस प्रकार हैं- (1) मुख्य अध्यापक को स्कूल में आने वाले प्रत्येक पत्र का उत्तर स्वयं देना चाहिए। (2) अधिकार संबंधी पत्र तथ्यात्मक और शुष्क होना चाहिए, उसमें भावनात्मक संवेग नहीं होना चाहिए। उनके ये सुझाव वर्तमान युग में भी पूर्ण रूप से व्यवहारिक और तर्कसंगत है। हंसराजजी कॉलेज के प्राचार्य तो थे परंतु उनमें अंग्रेजीदां प्राचार्यौ वाली बू नहीं थी ।वह साधारण और सरल प्रकृति के जीव थे तथा छोटे -बड़े सब से प्रेम करते थे ।उन्हें सदा अपने छात्रों की भलाई का ध्यान रहता था ।वह सदा आर्य समाज की उन्नति के लिए प्रयत्नशील रहते थे। यही कारण है कि वह धर्म शिक्षा स्वयं पढ़ाते थे। क्योंकि प्राय: देखा जाता जाता है कि जिस विषय को प्राचार्य पढ़ाते हैं, छात्र उसमें अधिक रूचि लेते हैं। उनकी इस संस्कार देने वाली भावना के कारण और सर्वस्व त्याग के कारण ही सर्वप्रथम 1990 ईस्वी 'आर्य गजट 'साप्ताहिक में उन्हें महात्मा हंसराज लिखा गया।
इसके पश्चात लोगों को यह शब्द इतना जंचा की सभी ने श्री हंसराज को महात्मा हंसराज कहना आरंभ कर दिया। महात्मा गांधी के पश्चात महात्मा शब्द का प्रयोग सबसे अधिक महात्मा हंसराज जी के लिए ही किया जाता है।
महात्माजी ने कॉलेज के कार्य के साथ-साथ आर्यसमाज के माध्यम से सेवाकार्यों में भी बढ़-चढ़कर भाग लिया।।सन 1899 में राजस्थान में भीषण अकाल पड़ा। तो महात्मा हंसराजजी ने लाला लाजपत राय तथा आर्यजनों के साथ सेवाकार्य किया।
इसी प्रकार काँगड़ा में भयानक भूकंप आने पर महात्माजी ने नवयुवक आर्यों का एक दल गठित किया और इस दल को राहत-कायों के लिए कांगड़ा भेजा। उन्होने दयानन्द कालेज के छात्रों के दल को भी सेवाकार्य के लिए
भेजा। महात्माजी स्वयं भी वहाँ राहत-कार्य करते रहे। महात्मजी कांगड़ा के दुर्गम इलाकों में जाकर पीड़ितों की स्वयं देखभाल करते थे। घायलों की मरहम- पट्टी करते और दूर-दूर क्षेत्रों में राहत सामग्री पहुंचाते थे।
उनके इन कार्यों की भारत- भर में प्रशंसा हुई। जिसने देखा-सुना, वह सराहे बिना न रह सका।
1907-1908 में अवध में भयंकर अकाल पड़ा तो महात्माजी के नेतृत्व में आर्यसमाज ने राहत कार्य किया।
उन्हीं दिनों मुलतान में प्लेग फैली तो फिर आर्यसमाज ने राहत -कार्य किया।
1911 ई. मे रावलपिण्डी में प्लेग फैलने पर आर्यसमाज ने सेवाकार्य किया। इसी प्रकार दिल्ली में प्लेग फैलने पर, लाहौर में महामारी फैलने तथा छतीसगढ़ में अकाल पड़ने पर महात्माजी के नेतृत्व में आर्यसमाज ने बडे
पैमाने पर सेवाकार्य किये।
इस प्रकार हम देखते है कि चाहे केरल हो या मालाबार हो या देश का कोई भी कोना, जहाँ भी विपत्ति आती महात्मजी सबसे पहले आर्य युवकों को साथ लेकर जा पहुंचते थे।इसलिये किसी कवि ने उस समय उनके लिये व आर्यसमाज के लिये लिखा था-
है केवल आर्य समाज भलाई सबकी चाहने वाला। जब उजड़ा था बीकानेर, मचा था चारों तरफ अंधेर। वहां पर पहुंचा था यही शेर, भूखे मरतों को बचाने वाला। जब फटा धरती का सीना ,वहां इसने पुरुषार्थ कीना। गिरा जहां तुम्हारा पसीना, वहां यह खून बहाने वाला ।
उन्होंने आर्य समाज को भी नई दिशा दी ।आर्य समाज के प्रचार के लिए उपदेशको और प्रकाशन का समुचित प्रबंध किया गया। आर्य महासम्मेलनो का आरंभ किया गया ।स्वामी श्रद्धानंदजी के अमर बलिदान के बाद होने वाले आर्य महासम्मेलन की अध्यक्षता महात्मा जी ने की। हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में बढ़ावा देने के लिए आप सदा आगे रहते थे। इसलिए आपको हिंदी साहित्य सम्मेलन का प्रधान बनाया गया गया ।
हैदराबाद के निजाम- शाही के विरुद्ध हुए संघर्ष में महात्मा जी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । यह आपकी कटर देशभक्ति की भावना का ही परिणाम था कि जब लॉर्ड हार्डिंग बम कांड में आपके पुत्र श्री बलराजजी को पकड़ा गया तो आप सरकार के आगे नहीं झुके ।लाला बलराजजी को राजद्रोह का दोषी ठहराया गया और जेल भेज दिया गया तब भी एक पिता का हृदय नहीं पिघला नहीं। क्योंकि यह पिता केवल एक बालक का पिता ही नहीं था अपितु भारत भर के बालकों का पिता था ।यह उनकी देशभक्ति के रूप का सबसे बड़ा प्रमाण है।
महात्मा हंसराज जी ने डीएवी स्कूल के मुख्य अध्यापक के रूप में कार्य आरंभ किया ।जब डीएवी का छोटा सा पौधा एक वटवृक्ष बना तो अनेक स्थानों पर डीएवी स्कूल कॉलेज खोले गए, जिनका संचालन करने के लिए एक समिति ,डीएवी कॉलेज प्रबंध समिति बनाई गई। आपको इसका प्रधान बनाया गया। आर्य समाज का कार्य करने के लिए बनी आर्य प्रादेशिक प्रतिनिधि सभा के रूप में आप प्रधान बने। इसके साथ-साथ आप आर्य समाज अनारकली लाहौर के भी प्रधान रहे। अर्थात आप व्यक्ति न होकर एक संस्था थे। आपने देश की सामाजिक और शैक्षणिक अवस्था को एक नया आयाम दिया ।आपने अनेक छात्रों ने जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आगे बढ़कर नाम और ख्याति प्राप्त की
महात्माजी जीवन की ऊंचाइयों पर चढ़कर जब प्राचार्य पद से निवृत हुए तो कॉलेज का मकान छोड़कर किराए के एक मकान में रहने लगे ।तब उनके पास ना कोई बैंक जमा पूंजी थी और न ही कोई जमीन जायदाद। यह था उनके त्याग का एक प्रमाण। शिक्षा के साथ-साथ धर्म प्रचार के कार्य को महात्मा जी जीवन पर्यंत करते रहे ।उन्होंने धर्म प्रचार हेतु 26 जनवरी 1894 को आर्य प्रतिनिधि सभा की स्थापना की। अनेक भजनोपदेश्क व प्रचारक रखे गए। उनके वेतन की व्यवस्था की गई।प्रचार कार्य को चलाने के लिए स्थिर निधियां स्थापित की गई। महात्मा जी ने स्वयं स्थान स्थान पर जाकर धन एकत्रित किया। उनकी प्रबल इच्छा थी कि उपदेशक व प्रचारक जीवन की चिंताओं से मुक्त होकर वैदिक धर्म का प्रचार करें तथा सभा उनके बाल -बच्चों की शिक्षा दीक्षा व अन्य आवश्यकता की पूर्ति के लिए समुचित प्रबंध करें। इसलिए महात्मा जी ने वेद प्रचार -निधि के लिए ऋषि बौद्ध पर्व तथा ऋषि निर्माण पर्व पर परिवारों के प्रति सदस्यों से 4 आना निधि की प्रथा चलाई, जिससे बाद में सभी आर्य समाजो ने अपनाया।
प्रचार के दूसरे महत्वपूर्ण अंग प्रकाशन विभाग पर भी महात्माजी ने ध्यान दिया ।उन्होंने अपने जीवन काल में अनेक पुस्तकों के प्रकाशन की व्यवस्था की। वह सदा विद्वानों को प्रचारात्मक पुस्तकें लिखने के लिए प्रोत्साहित करते रहते थे। उन्होंने जनसाधारण में आर्य समाज का प्रचार करने के लिए अनेक ट्रैक्ट प्रकाशित करवाए त था बंटवाये। सभा के द्वारा दो पत्र आर्य गजट ,जो उर्दू में था तथा आर्य जगत, जो हिंदी में है के प्रकाशन का पूर्ण प्रबंध किया ।उनकी प्रबल इच्छा थी कि सभा का अपना प्रेस लगाया जाए, इसके लिए उन्होंने योजना भी बनाई जो किसी कारण पूर्ण नहीं हो सकी।
वैदिक धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए उन्होंने भारत देश से बाहर भी प्रयत्न किए और बर्मा,हिन्देशिया, दक्षिण अफ्रीका, नेपाल आदि देशों में आर्य समाज के प्रचारक भेजें ।धर्म प्रचार स्कूल, कॉलेजों की स्थापना के साथ साथ इन्होंने सेवा व कल्याणकारी कार्यों को स्थाई रूप देने का प्रयास भी किया ।इस कार्य के लिए ₹85000 एकत्रित कर लखपत राय सेवा संघ की स्थापना की। यह संस्था लम्बे समय तक सेवा कार्य करती रही। इसी प्रकार पंडित रलाराम स्मारक निधि, पंडित जगत सिंह परिवार सहायता- निधि के द्वारा अनेक महत्वपूर्ण कार्य किए गए। विधवाओं के पुनर्वास हेतु विधवा सहायक निधि, अनाथ बच्चों के लिए आर्य अनाथालय ,मुल्तान की स्थापना आदि कार्य इनकी लोकोपकारी प्रकृति का परिचय देते हैं ।
यही वे कार्य थे जिन्होंने इन्हें हंसराज से महात्मा हंसराज बना दिया। इनका त्याग व तपस्या पूर्ण जीवन तथा आर्य समाज के प्रति तड़प की भावना का ही परिणाम है कि आज डीएवी आंदोलन देश- विदेश में शिक्षा प्रसार का सर्वोत्तम संस्थान बन गया है। इसी प्रकार आर्य प्रादेशिक प्रतिनिधि सभा सेवा व परोपकार का पर्याय बन गई है। इनका अमूल्य योगदान सदैव धर्म के दीवानों को प्रेरणा देता रहेगा ।
महात्मा जी कुंभ और अर्धकुंभ के अवसर पर हरिद्वार आदि तीर्थ स्थानों पर जाकर स्वयं प्रचार कार्य में बढ़ चढ़कर भाग लेते थे। हरिद्वार में उन्होने मोहन आश्रम की स्थापना की थी। सन कुंभ, महात्मा जी के लिये अंतिम कुंभ था। जब महात्मा जी प्रचारार्थ वहां गए। कुंभ के अंतिम दिनों में हरिद्वार में हैजा फूटा, हाहाकार मच गया। सब ने महात्मा जी से कहा कि लौट आए ।किंतु महात्मा जी ने कहा जब तक मोहन आश्रम में आए सभी अतिथि वापस नहीं चले जाते मैं तब तक यहीं रहूंगा। वही रहते हुए आप लोगों की सेवा करते रहे व धर्म -प्रचार के कार्य को आगे बढ़ाते रहें। परंतु इसी दौरान उनको अनेक रोगों ने घेर लिया ,जिससे पेट पीड़ा मुख्य रोग था ।
वह रुग्णावस्था में लाहौर पहुंचे,अनेक डॉक्टरों से परामर्श लिया गया ।सबने रोग की भयंकरता बताई किंतु यह भी कहा कि रोग असाध्य नहीं है ।लाला बलराज तथा जोधराज दोनों सुपुत्र ,पुत्रवधुएँ सब सेवा सुश्रुषा करने लगे, डॉक्टर चिकित्सा करते रहे।
5 नवंबर को पंडित मेहरचंद से महात्मा जी ने कहा, अच्छी निभ गई है अच्छी गुजर गई है। कुछ तो कर्तव्य पूर्ण हुआ ही है ।
अपने अंतिम समय का अहसास होने पर महात्माजी ने श्री खुशहाल चंद जी को बुलाकर वेद- प्रचार का कार्य जारी रखने तथा अपना दाह- संस्कार वैदिक रीति से, संस्कार विधि के अनुसार करने की इच्छा प्रकट की।
15 नवंबर 1988 को रात्रि को महात्माजी का
श्वास उखाड़ने लगा और अंतिम घड़ी आती हुई तो आपने श्री खुशहाल चंद जी को 'ओम विश्वानि देव' मंत्र 21 बार बोलने के लिए कहा। मंत्र पूर्ण होने पर आपने एक हिचकी ली और अपनी इहलीला समाप्त की।
वह इस नश्वर संसार से स्वयं तो चले गए परंतु विरासत के रूप में डीएवी का विशाल आंदोलन छोड़ गए। यही आन्दोलन प्रगति करता हुआ भारत का भाग्य विधाता बन रहा है ।क्योंकि डीएवी के लाखों-करोड़ों छात्र देश के विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न उत्तरदायित्व निभा रहे हैं ।
यही प्रकृति का नियम है, एक दीपक स्वयं जलकर भी अनेक दीप जला जाता है।
( डॉ धर्मदेव विद्यार्थी द्वारा लिखित पुस्तक डी ए वी के कर्णधार पुस्तक से साभार)
(Nityanootan Broadcast Service)
19.04.2020
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