We love you and miss you Jia
*जीया (मेवाड़ी में माँ के लिये प्रयुक्त उदबोधन/मेरी सासु माँ)* को यह वायदा करते कि वे पानीपत आएंगी, 37 वर्ष हो गए थे। जीया, श्रीमती केसर देवी पत्नी स्वर्गीय श्री गणेश लाल माली, पूर्व सांसद, उदयपुर,( राजस्थान) ने अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों को बहुत ही अच्छे ढंग से निभाया। जब वह आठ साल की बालिका थी, तभी उनका विवाह मेरे ससुर श्री गणेश लाल माली के साथ नाथद्वारा में हुआ था। लगभग अर्द्ध शताब्दी से ज्यादा वक्त तक वह उनकी जीवन संगिनी बनी रही। वर्ष 1992 में उनके पति के देहांत के बाद भी उन्होंने अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों को बदस्तूर जारी रखा। चार बेटियों और दो बेटों के परिवारों को एकजुट करने की हर सफल कोशिश की।
राजस्थान के मेवाड़ क्षेत्र में दामादों को कंवर साहब कह कर संबोधित करते हैं। एग्रीकल्चर प्रधान हरियाणा में रहने वाले मुझको तो यह मेवाड़ी कल्चर अजीब सा लगता था। पर जब भी कोई मुझे कंवर साहब कहकर संबोधित करता तो मुझे खूब खुशी होती।
प्रतिवर्ष दो बार तो अपने ससुराल उदयपुर जाने का मौका मिलता था। स्कूली छात्रों की तरह ही वकीलों की छुट्टियों की भी मौज रहती है। गर्मियों में गर्मी की एक महीने की छुट्टियां और सर्दियों में क्रिसमस की दस दिन की छुट्टियां। मैं अपनी पत्नी और बच्चों के साथ उदयपुर जाता। ऐसा व्यवहार में देखा गया है कि कंवर साहब अपनी ससुराल में ज्यादा रहते नहीं है। वे अपनी पत्नी व बच्चों को वहां छोड़ आते हैं और जब उनको लेना होता है तो लेने पहुंच जाते हैं। पर हम तो अलग तरह के कंवर साहब थे। जहां मेरी पत्नी और बच्चे अपनी पूरी छुट्टी ननिहाल में बिताते, मैं भी उनके साथ रहकर मेहमान- नवाजी का लुत्फ उठाता।
अलग-अलग व्यंजन खाने का मुझे शुरु से ही शौंक रहा है। अगर दूसरे शब्दों में कहें तो मैं चटोरा प्रवृत्ति का रहा। ससुराल में कंवर साहब के आने की खुशी में तरह-तरह के पकवान मेरी सासू मां जीया की निगरानी में बनते। वे हिदायत देती कि कंवर साहब हरियाणा के हैं। तीखा( मिर्ची) कम खाते हैं। उनके हाथ के बनी दाल बाटी, चूरमा, बाफले, राबड़ी अलग-अलग तरह से बनती और चटोरे कंवर साहब उनको जम कर खाते। एक महीने के प्रवास में चार- पांच किलो वजन तो बढ़ाकर ही लौटते। लौटते हुए तिलक होता, मान सम्मान होता और नेग भी मिलता। इसे लेने में मैं जब भी मना करता तो 'जीया' कहती कि जब तक वे जिन्दा हैं, तब तक लेना पड़ेगा ही और मैं भी उनके आशीर्वाद के रूप में उसे ग्रहण करता। चलते हुए मेरा आग्रह रहता कि जिया पानीपत कब आओगी? तो वह हमेशा जवाब देती, आऊंगी तो जरूर, पर कब, नहीं कह सकती। यही सुनते सुनते 37 वर्ष बीत गए।
हां, आज 'जीया' ने वायदा पूरा किया। वह आई तो जरूर पर अपने बृहद शरीर में नहीं, अपितु सूक्ष्म शरीर में। गत 25 मई को उनका उदयपुर में 95 वर्ष की अवस्था में निधन हो गया। कोविड-19 की वजह से पूरी तरह से लॉक डाउन के कारण मेरी पत्नी और हम उनके अंतिम दर्शन तक नहीं कर पाए। अन्य पारिवारिक जन ने तब हमें ढाढस दिया गया कि जब भी अस्थि विसर्जन के लिए हरिद्वार जाएंगे तो आप भी हरिद्वार पहुंच जाना। यातायात के सभी साधन बंद थे। इसलिए डेढ़ माह के बाद भी यह अंतिम क्रिया विसर्जन नहीं हो पाया। अब हवाई यात्रा शुरू हो गई तो निश्चय हुआ कि उनकी अस्थियों को लेकर उनका पौत्र प्रतीक हवाई जहाज से दिल्ली आएगा और वहां से एक कनेक्टिंग फ्लाइट लेकर देहरादून पहुंचेगा और फिर सड़क मार्ग से हरिद्वार पहुंचेगा। हमें भी सूचना दी गई कि हम भी श्रावण अमावस्या को हरिद्वार पहुंचकर इस क्रिया में शामिल हों। हमने और प्रतीक ने अपने-अपने लॉक डाउन के पास भी बनवा लिए थे। प्रतीक की टिकट भी बुक हो गई थी, तभी सूचना मिली कि कांवड़ियों की वजह से हरिद्वार में अमावस्या पर कोई प्रवेश नहीं कर पाएगा। अब प्रतीक के पास कोई चारा नहीं था। वह दिल्ली तक आया और उसके बाद टैक्सी से पानीपत आया। अपने साथ वह अपनी दादी की अस्थियां भी लेकर आया। क्योंकि प्रोग्राम यह बना है कि पानीपत से ही हम सब मिलकर हरिद्वार जाएंगे। पानीपत आने की तो ऐसी कोई योजना नहीं थी और यह चमत्कार ही था कि ऐसी योजना को ही कार्यरूप देना पड़ा । शायद यह जिया का भी वादा पूरा होना था कि जिसमें वह कहती थीं कि मैं पानीपत जरूर आऊंगी। अपने अंतिम प्रयाण से पूर्व वह पानीपत आई। बेशक सूक्ष्म शरीर में ही।
*धन्यवाद जीया, हम आपको बहुत प्यार करते हैं और आपके इस वायदा निभाने के प्रति सदा कृतज्ञ रहेंगे*।
राममोहन राय
20.07. 2020
राजस्थान के मेवाड़ क्षेत्र में दामादों को कंवर साहब कह कर संबोधित करते हैं। एग्रीकल्चर प्रधान हरियाणा में रहने वाले मुझको तो यह मेवाड़ी कल्चर अजीब सा लगता था। पर जब भी कोई मुझे कंवर साहब कहकर संबोधित करता तो मुझे खूब खुशी होती।
प्रतिवर्ष दो बार तो अपने ससुराल उदयपुर जाने का मौका मिलता था। स्कूली छात्रों की तरह ही वकीलों की छुट्टियों की भी मौज रहती है। गर्मियों में गर्मी की एक महीने की छुट्टियां और सर्दियों में क्रिसमस की दस दिन की छुट्टियां। मैं अपनी पत्नी और बच्चों के साथ उदयपुर जाता। ऐसा व्यवहार में देखा गया है कि कंवर साहब अपनी ससुराल में ज्यादा रहते नहीं है। वे अपनी पत्नी व बच्चों को वहां छोड़ आते हैं और जब उनको लेना होता है तो लेने पहुंच जाते हैं। पर हम तो अलग तरह के कंवर साहब थे। जहां मेरी पत्नी और बच्चे अपनी पूरी छुट्टी ननिहाल में बिताते, मैं भी उनके साथ रहकर मेहमान- नवाजी का लुत्फ उठाता।
अलग-अलग व्यंजन खाने का मुझे शुरु से ही शौंक रहा है। अगर दूसरे शब्दों में कहें तो मैं चटोरा प्रवृत्ति का रहा। ससुराल में कंवर साहब के आने की खुशी में तरह-तरह के पकवान मेरी सासू मां जीया की निगरानी में बनते। वे हिदायत देती कि कंवर साहब हरियाणा के हैं। तीखा( मिर्ची) कम खाते हैं। उनके हाथ के बनी दाल बाटी, चूरमा, बाफले, राबड़ी अलग-अलग तरह से बनती और चटोरे कंवर साहब उनको जम कर खाते। एक महीने के प्रवास में चार- पांच किलो वजन तो बढ़ाकर ही लौटते। लौटते हुए तिलक होता, मान सम्मान होता और नेग भी मिलता। इसे लेने में मैं जब भी मना करता तो 'जीया' कहती कि जब तक वे जिन्दा हैं, तब तक लेना पड़ेगा ही और मैं भी उनके आशीर्वाद के रूप में उसे ग्रहण करता। चलते हुए मेरा आग्रह रहता कि जिया पानीपत कब आओगी? तो वह हमेशा जवाब देती, आऊंगी तो जरूर, पर कब, नहीं कह सकती। यही सुनते सुनते 37 वर्ष बीत गए।
हां, आज 'जीया' ने वायदा पूरा किया। वह आई तो जरूर पर अपने बृहद शरीर में नहीं, अपितु सूक्ष्म शरीर में। गत 25 मई को उनका उदयपुर में 95 वर्ष की अवस्था में निधन हो गया। कोविड-19 की वजह से पूरी तरह से लॉक डाउन के कारण मेरी पत्नी और हम उनके अंतिम दर्शन तक नहीं कर पाए। अन्य पारिवारिक जन ने तब हमें ढाढस दिया गया कि जब भी अस्थि विसर्जन के लिए हरिद्वार जाएंगे तो आप भी हरिद्वार पहुंच जाना। यातायात के सभी साधन बंद थे। इसलिए डेढ़ माह के बाद भी यह अंतिम क्रिया विसर्जन नहीं हो पाया। अब हवाई यात्रा शुरू हो गई तो निश्चय हुआ कि उनकी अस्थियों को लेकर उनका पौत्र प्रतीक हवाई जहाज से दिल्ली आएगा और वहां से एक कनेक्टिंग फ्लाइट लेकर देहरादून पहुंचेगा और फिर सड़क मार्ग से हरिद्वार पहुंचेगा। हमें भी सूचना दी गई कि हम भी श्रावण अमावस्या को हरिद्वार पहुंचकर इस क्रिया में शामिल हों। हमने और प्रतीक ने अपने-अपने लॉक डाउन के पास भी बनवा लिए थे। प्रतीक की टिकट भी बुक हो गई थी, तभी सूचना मिली कि कांवड़ियों की वजह से हरिद्वार में अमावस्या पर कोई प्रवेश नहीं कर पाएगा। अब प्रतीक के पास कोई चारा नहीं था। वह दिल्ली तक आया और उसके बाद टैक्सी से पानीपत आया। अपने साथ वह अपनी दादी की अस्थियां भी लेकर आया। क्योंकि प्रोग्राम यह बना है कि पानीपत से ही हम सब मिलकर हरिद्वार जाएंगे। पानीपत आने की तो ऐसी कोई योजना नहीं थी और यह चमत्कार ही था कि ऐसी योजना को ही कार्यरूप देना पड़ा । शायद यह जिया का भी वादा पूरा होना था कि जिसमें वह कहती थीं कि मैं पानीपत जरूर आऊंगी। अपने अंतिम प्रयाण से पूर्व वह पानीपत आई। बेशक सूक्ष्म शरीर में ही।
*धन्यवाद जीया, हम आपको बहुत प्यार करते हैं और आपके इस वायदा निभाने के प्रति सदा कृतज्ञ रहेंगे*।
राममोहन राय
20.07. 2020
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