Swami Agnivesh
*महर्षि दयानंद का पथगामी-स्वामी अग्निवेश*
विनम्र श्रद्धांजलि
योगीराज महर्षि अरविंद ने महर्षि दयानंद सरस्वती के संबंध में अपने उद्गार प्रकट करते हुए कहा था ,*उन विशेष महत्वशाली व्यक्तियों की पंगत में जिन्हें आने वाली संतति भारत के पुनरुद्धार करने वालों में अग्रणी करके गिनेगी, एक व्यक्ति है जो अपनी अनूठी और अपनी अनुपम विशेषता के कारण स्पष्ट औरों से जुदा खड़ा हुआ दृष्टिगोचर होता है, वह अपने ढंग का निराला है। यह ऐसा है जैसे कोई बहुत समय तक एक पर्वत श्रृंखला के बीच घूमता है जिसमें के पर्वत यद्यपि कम और अधिक ऊंचाई के हैं, पर वह सब दूर तक एक जैसे आकार- प्रकार वाले और हरियाली आच्छादित है, उनकी अधिक से अधिक बढ़ी- चढ़ी और ध्यान आकर्षित करने वाली ऊंचाई भी आंखों को खलती नहीं है। किंतु उन सबके बीच में एक पहाड़ है जो उसे स्पष्ट जुदा ही दिखाई देता है। मानो निरा बल ही मूर्तिमान होकर पहाड़ के रूप में खड़ा हो गया है। खुले और सुदृढ़ ठोस चट्टान का एक समुदाय विशाल रूप में ऊंचा उठा हुआ है, हरियाली से भरी हुई इसकी चोटी पर खड़ा एक सनोवर का वृक्ष आकाश से बातें कर रहा है, शुद्ध, प्रबल और उपजाऊ शक्ति वाले जल का एक सुविशाल जलप्रपात मानो उसके इस शक्ति पुंज में से ही फूट फूट कर निकल रहा है,जो कि इस सारी घाटी भर के लिये पानी का ही क्या किन्तु स्वयं स्वास्थ्य और जीवन का ही झरना है। यह है छाप जो मेरे मन पर दयानंद के व्यक्तित्व की पड़ती है*।
महर्षि दयानंद सरस्वती और उनके विचारों, कार्यों एवं दर्शन पर निर्मित आर्य समाज ने अपने संपूर्ण ऐतिहासिक आंदोलन में न केवल आध्यात्मिक चेतना का काम किया ,वहीं धार्मिक पुनरुद्धार एवं सामाजिक जागरण का भी काम किया। दयानंद अद्भुत थे। उन्होंने अपने निर्भीकता एवं सिद्धांतों के प्रति निष्ठा के कारण कभी समझौता नहीं किया ।ऐसे अनेक अवसर आए जब उन्हें तरह-तरह के प्रलोभन दिए गए और डर दिखाया गया और मार्ग से विचलित करने की कोशिश की गई, परंतु वे अपने सत्य मार्ग पर अडिग रहें। उन पर कीचड़ फेंका गया, पत्थर बरसाए गए , सर्प जैसे जहरीले जीव उन पर डाले गए और अनेकों बार तो भांति- भांति का विष दिया गया, परंतु इन तमाम बातों के बावजूद भी वे न तो झुके तथा न ही उन्होंने अपने कदम पीछे हटाए ।
स्वामी दयानंद सरस्वती वेद को ईश्वरीय ज्ञान मानते थे और वे उसी रूप में लोगों का आह्वान करते कि आओ वेदों की तरह वापस मुड़ो। जब वे ऐसा कहते तो उनकी स्पष्ट धारणा रहती कि विश्व का कल्याण मात्र वैदिक ज्ञान से ही होगा।
खंडन- मंडन, शास्त्रार्थ एवं संवाद उनके वे उपयोगी अस्त्र थे जिनका उन्होंने सर्वथा प्रयोग किया। अपनी बात को कहने में किसी भी प्रकार की कुटिलता , विद्वेष एवं प्रतिद्वंद्विता का उपयोग उन्होंने कभी नहीं किया। इसलिए मुस्लिम विद्वान सर सैय्यद अहमद खान, ईसाई पादरी नॉर्थब्रुक, थियोसोफिकल सोसायटी की प्रवर्तक एनी बेसेंट, समाज सुधारक एवं दलित चिंतक ज्योतिबा फूले जैसे महान व्यक्तियों के साथ उनके न केवल सुमधुर संबंध थे, अपितु अनेक धार्मिक विषयों पर संवाद भी थे। स्वामी दयानंद एक धार्मिक सामाजिक नेता होने के साथ-साथ एक प्रखर राजनीतिकवेत्ता भी थे । जिन्होंने कहा कि विदेशी राज चाहे माता के समान हितकारी भी हो, परंतु स्वदेशी राज सर्वोपरि उत्तम होता है। वे राष्ट्रभाषा हिंदी के हिमायती थे। वे उसके साथ-साथ अन्य भाषाओं के प्रति भी सम्मान रखते थे । वे जाति का आधार जन्म को नहीं, अपितु गुण, कर्म और स्वभाव को मानते थे ।
स्वामी दयानंद के बाद मुनिवर गुरुदत्त विद्यार्थी, स्वामी श्रद्धानंद, महात्मा हंसराज तथा अन्य विद्वदजन ने आर्य समाज को नेतृत्व दिया। लाला लाजपत राय जैसे लोगों ने ऋषि दयानंद की प्रेरणा से ही अपने जीवन की आहुति स्वतंत्रता की बलिवेदी पर अर्पण की।
शिक्षा पद्धति, सामाजिक कार्य , राजनीतिक चेतना, वैदिक धर्म का प्रचार , स्त्री एवं दलित पुनरुद्धार जैसी अनेक अलग-अलग प्रवृतियां थी जिन का सूत्रपात महर्षि दयानंद ने किया था। ये ऐसे सूत्र थे जिनको जोड़ने से एक दयानंद बनता था। महर्षि दयानंद के निर्वाण के बाद अनेकानेक लोगों ने आर्य समाज के कार्यों को अपना जीवन समर्पित किया ।
वे एक- एक प्रवृत्ति के सूत्रधार बने। परंतु दयानंद तो इन तमाम प्रवृत्तियों के एकाकार थे।
वर्ष 1968 में दयानंद की यज्ञशाला से एक दिव्य ज्योति जो दो आकार स्वामी इंद्रवेश और स्वामी अग्निवेश के रूप में प्रकट हुई । ये दोनों मित्र महर्षि दयानंद की उन तमाम प्रवृत्तियों को एक साथ लेकर चलने का संकल्प रखते थे। इन दोनों युवकों ने उस समय के हरियाणा में एक नवचेतना का संचार किया। जिससे कोई भी तो बचा नहीं रहा। आर्य राष्ट्र का निर्माण करने की प्रतिबद्धता की उद्घोषणा समाज के प्रत्येक वर्ग को आंदोलित करती थी।
मेरी आयु उस समय 11- 12 वर्ष की थी। मेरे माता-पिता दोनों दृढ़ प्रतिज्ञ आर्य समाजी थे। जिन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में और बाद में आर्य समाज की शिक्षा, स्त्री शक्ति जागरण एवं दलितोद्वार के कार्यक्रम में बढ़ चढ़कर भाग लिया। यद्यपि मैं उस समय छोटा बालक था ,परंतु परिवार की संचेतना ने मुझे जागरूक बनाया था ।स्वामी इंद्रवेश और स्वामी अग्निवेश का सिंहनाद सुनकर हमारा परिवार भी उससे अछूता न रहा । आर्य सभा और उसके द्वारा आर्य राष्ट्र का निर्माण और वैदिक समाजवाद ऐसे मुद्दे थे जिनसे हम सब प्रभावित थे।उस छोटी आयु में ही मुझे स्वामी अग्निवेश के दर्शन करने, उनके विचार सुनने तथा उनसे प्रेरणा प्राप्त करने का अवसर मिला और बाद में तो मैं उनका दीवाना हो गया।
वर्ष में आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब का चुनाव हमारे शहर पानीपत में होना निश्चित हुआ। उसकी तैयारी में स्थानीय आर्य समाजो ने अपनी- अपनी भूमिका का निर्धारण किया। इत्तिफाक से मेरी माता जी जिस आर्य समाज से संबंधित थीं वह स्वामी इंद्रवेश जी की उम्मीदवारी का पक्षधर था, जबकि मेरे पिताजी जिस आर्य समाज से ताल्लुक रखते थे वह पंडित जगदेव सिंह सिद्धांती का पक्षधर था। स्वामी इंद्रदेव जी का कैंप ऑफिस जैन धर्मशाला में बना। मुझे याद है कि एक जुनून के चलते मैं वहां हर समय उपस्थित रहता और उन दोनों सन्यासियों की वाणी को सुनने के लिए तत्पर रहता । उन दो सन्यासियों में भी स्वामी अग्निवेश क्रांतिकारी स्वभाव, बर्ताव एवं विचारों के थे। जो अपनी ओजस्वी वाणी से हमेशा सांप्रदायिकता, संकीर्णता और अन्य मानवीय कमजोरियों का तर्कपूर्ण पर्दाफाश करते थे। चुनाव के दिन मेरी कोई ड्यूटी नहीं लगाई थी और कोई 10 -11 वर्ष के बालक की ड्यूटी हो भी क्या सकती है। परंतु उस समय के भाव ऐसे थे कि मैं पूरे दिन आर्य कॉलेज, पानीपत में अपनी चुनावी ड्यूटी अपनी अंतर प्रेरणा से देता रहा और जब शाम को चुनावी परिणाम आए तो उसमें स्वामी इंद्रवेश जी विजयी हुए तो मेरी खुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा।
आयु के बढ़ते- बढ़ते मैंने कॉलेज में प्रवेश लिया और उस दौरान वैज्ञानिक समाजवाद की विचारधारा से जुड़ा। उस समय भी मेरा आधार वैदिक समाजवादी ही था जिसे स्वामी अग्निवेश ने प्रतिपादित किया था । सन् 1974 से 77 तक कांग्रेस विरोध तथा आपातकाल का समय था और उस काल में भी हमारे नायक स्वामी इंद्रवेश और स्वामी अग्निवेश बने रहे।
सन 1977 में राजनीति ने करवट बदली और स्वामी जी हरियाणा विधानसभा के सदस्य बने और बाद में शिक्षा मंत्री बने। मंत्री पद के मद में वे कभी नहीं आए। वे हमेशा खड़े रहे शोषित ,कमजोर एवं मजदूरों के पक्ष में। सन 1978 में जब फरीदाबाद में भट्ठा मजदूरों के आंदोलन पर गोली चली तो स्वामी जी ने न केवल मजदूरों का पक्ष लिया ,बल्कि इसके विरोध में मंत्रिमंडल से इस्तीफा देकर बाहर निकल आए ।
स्वामी अग्निवेश ने महर्षि दयानंद की संवाद की परंपरा को जारी रखने का काम किया । इसलिए वे सदा फादर वॉल्सन थंपू ,डॉ असगर अली इंजीनियर, निर्मला देशपांडे, मौलाना अरशद मदनी, जैन सुशील मुनि जैसे उदार लोगों से उदार धर्म चर्चा करते रहे। आप वेटिकन रोम के
पोप से भी जाकर मिले और उन्हें भेंट में महर्षि दयानंद सरस्वती के अनुपम ग्रंथों को दिया। आदिवासी क्षेत्रों में जाकर स्वामी जी ने शांति स्थापना का अद्भुत काम किया और वे कभी नहीं घबराए। अपने गुरु दयानंद की तरह उन्हें वे सभी अपमान और पीड़ा सहन करनी पड़ी। पर सत्य मार्ग का वह पथिक कभी नहीं डगमगाया।
इन तमाम बातों से मैं व्यक्तिगत रुप से स्वामी जी के प्रति आकर्षित रहा हूं और मैं समझता हूं कि स्वामी अग्निवेश ही महर्षि दयानंद के सर्वश्रेष्ठ अनुगामी थे । मेरी बात को अतिशयोक्ति न समझा जाए, परंतु जैसा मैं समझता हूं ,वैसा कहता हूं। हमने बचपन में हाथी व अंधों की कहानी पढ़ी थी। जिसमें प्रत्येक अंधे ने अपने स्पर्श अनुभव के जरिए से हाथी की आकृति का बखान किया था। परंतु वह हाथी के अंगो का वर्णन था न कि समूचे हाथी का। जब हम महर्षि दयानंद सरस्वती और आर्य समाज की बात करते हैं तो उसकी भी स्वयं परक व्याख्या अपने अनुभव के आधार पर करते हैं । कोई उन्हें वेद मर्मज्ञ बताता है, कोई क्रांतिकारी राजनेता ,कोई समाज सुधारक और अन्य कोई सब संप्रदायों को एक मंच पर लाने वाला सत्याग्रही। स्वामी दयानंद सरस्वती का स्वरूप वर्णन अगर हम इस तरह करेंगे तो यह एकाग्रही होगा ।पर वे तो संपूर्ण हैं। महर्षि दयानंद के निधन के पश्चात उनके अलग-अलग अनुयायियों ने एक- एक पक्ष को पकड़ा, परंतु यह दयानंद का संपूर्ण चरित्र नहीं है। मेरा मानना है कि स्वामी अग्निवेश ने उनके संपूर्ण जीवन संघर्षों, कार्यक्रमों एवं सिद्धांतों को सब रूपों में अंगीकृत किया था । वे एक राजनीतिक विचारक थे और उसके साथ-साथ क्रांतिकारी समाज सुधारक, वेदों एवं अन्य शास्त्रों के प्रकांड विद्वान , आदिवासी, दलितों, पिछड़े वर्गों एवं महिलाओं के अधिकारों के प्रबल पक्षधर तथा स्वतंत्र लेखक।
प्रसिद्ध गांधीवादी एवं संत विनोबा की मानस पुत्री निर्मला देशपांडे के साथ मुझे अनेक वर्षों तक कार्य करने का अनुभव मिला । वे स्वामी जी की अनन्य प्रशंसक थीं तथा मानती थी कि स्वामी अग्निवेश सर्वगुण संपन्न एक निर्भीक सन्यासी हैं। अनेकों बार ऐसी बैठकों में शामिल होने का मुझे अवसर मिला जिसमें स्वामी अग्निवेश तथा दीदी निर्मला देशपांडे अपने विचारों से तत्कालीन संदर्भ में मार्गदर्शन करते थे।
6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में बाबरी मस्जिद का विध्वंस आततायियों ने किया। उन्माद एवं हिंसा की लहर पूरे देश में फैला दी गई। ऐसे समय में भी ये दो ही व्यक्तित्व थे , जिन्होंने प्रतिरोध की अपनी आवाज को बुलंद किया। और फिर चाहे सन 2002 का गुजरात में हुआ जनसंहार हो , उस समय भी दीदी निर्मला देशपांडे और स्वामी अग्निवेश अपने साथियों का बड़ा जत्था लेकर अहमदाबाद गए और वहां उन्होंने न केवल सांप्रदायिकता के विरुद्ध अपनी आवाज बुलंद की, वहीं पीड़ित लोगों के घावों पर मरहम लगाने का काम भी किया।
क्या हम भूल सकते हैं जब पुरी के शंकराचार्य स्वामी निरंजन देव तीर्थ में देवराला (राजस्थान) में एक युवा महिला रूप कंवर को उसके पति की चिता में जबरन जला देने के आपराधिक कृत्य को सती धर्म कहकर महिमामंडन करते हुए उसे वेद-सम्मत कहा गया। उस समय भी एक अकेले स्वामी अग्निवेश ही थे ,जिन्होंने कथित जगद्गुरु को चुनौती देते हुए कहा था कि सती प्रथा वेद विरुद्ध है और वे इसके बारे में शंकराचार्य को शास्त्रार्थ की चुनौती देते है। मुझे इस बात का गौरव है कि शंकराचार्य मठ के विरुद्ध स्वामी अग्निवेश के आह्वान पर आर्य समाज ने जो सत्याग्रह किया, उसने मेरी माता श्रीमती सीता रानी सैनी हरियाणा की महिलाओं के एक जत्थे का नेतृत्व करते हुए पहुंची थीं। कन्या भ्रूण हत्या के विरुद्ध एक राष्ट्रव्यापी आंदोलन की शुरुआत स्वामी जी के नेतृत्व में हुई । आज उसका स्वरूप कुछ भी हो परंतु उसका शुभारंभ स्वामी जी के द्वारा ही किया गया था।
स्वामी अग्निवेश जी व्यक्तिगत रूप से मेरे प्रति हमेशा स्नेही ही रहे। उसका कारण उनके प्रति मेरी निष्ठा, निर्मला देशपांडे जी का सानिध्य एवं वैचारिक सोच ही है। वर्ष 1990
में आर्य प्रतिनिधि सभा का निर्वाचन गुरुकुल गौतम नगर, दिल्ली में संपन्न हुआ। जिसमें निर्वाचन अधिकारी के रूप में सभा ने मुझे चयनित किया। स्वामी अग्निवेश जी का उस समय मुझे निर्देश था कि बेशक मेरा मोह उनके प्रति है,परंतु चुनाव निष्पक्ष होना चाहिए। ऐसी बात कोई ऐसा व्यक्ति ही कह सकता है जो सामाजिक आचरण में शुचिता एवं पारदर्शिता का भाव रखता हो। चुनाव के बाद तो मैं पूरी तरह से आर्य समाज के आंदोलन से जुड़ गया । आर्य प्रतिनिधि सभा, हरियाणा के नेतृत्व में चलाई जा रही शिक्षण संस्थाओं का जहां मैं प्रबंधक रहा, वहीं देश की पुरातन आर्य समाजों में से एक आर्य समाज, बड़ा बाजार,पानीपत का अनेक वर्षों तक मंत्री रहा। जैसा कि हम जानते हैं कि संगठन एवं संस्थाओं में प्राय: राजनीतिक उथल पुथल होती रहती है और एक समय यह भी आया कि राजनीति का मुझे भी शिकार बनाकर संस्थाओं से हटाया गया। मेरे दोष का कारण यह बताया गया कि मैं संस्थाओं में अंबेडकर, भगतसिंह और हाली से दोस्ती की बात करता हूं और यह सब आर्य समाज के सिद्धांतों के विरुद्ध है। मुझ पर एक बड़ा आरोप यह भी था कि आर्य संस्थानों में ईद की कभी न होने वाली छुट्टी को मैंने खोल दिया था और रमजान के दिनों में वहां पढ़ रहे सैकड़ों मुस्लिम विद्यार्थियों के लिए इफ्तारी का आयोजन किया। इस कथित अपराध के कारण मुझे आर्य समाज की प्रारंभिक सदस्यता से भी निष्कासित करने का फरमान सुनाया गया। जबकि मैं मानता था कि कुछ लोग आर्य समाज के संगठन से तो मुझे निकाल सकते हैं ,परंतु मुझ में से आर्य समाज को नहीं निकाल सकते। यह समाचार सुनकर स्वामी अग्निवेश जी काफी परेशान होकर पानीपत आए और उन्होंने एक बड़ी जनसभा में घोषणा की कि मेरी आर्य समाज के सिद्धांतों एवं महर्षि दयानंद के सार्वभौमिक मिशन के प्रति निष्ठा को वे बखूबी जानते हैं। इसलिए वे ऐसी किसी भी कथित कार्यवाही को सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा के अध्यक्ष के अधिकार के तौर पर निरस्त करते हैं।
स्वामी जी के मेरे प्रति स्नेह के कारण ही उन्होंने तथा उनके सहयोगी स्वामी आर्यवेश ने मुझे आर्य प्रतिनिधि सभा, हरियाणा के मंत्री पद का दायित्व सौंपा। लेकिन उस दायित्व की पूर्ति के लिए मैं यथेष्ट समय नहीं दे पाया, न ही अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों की वजह से विश्वास पर खरा उतरा। फिर भी स्वामी जी की कृपा मुझ पर हमेशा बनी रही।
वर्ष 2017 में मेरे मन में विचार आया कि दिल्ली रहने की योजना बनाई जाए ,ताकि स्वामी जी के सानिध्य प्राप्ति के साथ-साथ सुप्रीम कोर्ट में भी वकालत का काम शुरू किया जाए। स्वामी जी को जब इस बात की सूचना दी तो उन्होंने अपनी प्रसन्नता का इजहार यूँ कहकर किया कि दिल्ली प्रवास के दौरान मैं उनके पास रुकूँ और उनके काम में सहयोग करूं। मेरे लिए सब कुछ अद्भुत था । मैं कुछ दिन उनके पास रुका और उनसे बहुत कुछ सीखा।
अनेक बार स्वामी जी के साथ देश के अनेक भागों में यात्रा करने का भी सुअवसर मिला । यह यात्रा महज एक पर्यटन नहीं था, अपितु ज्ञान- विज्ञान, सर्वधर्म समभाव एवं राष्ट्रीय एकात्मता को समझने का साधन था। इसी दौरान मैंने पाया कि ऐसा क्या कारण है कि कथित हिंदू लोग तो उनका विरोध करते हैं, जबकि सिख , ईसाई और मुस्लिम एवं धर्मावलंबी उनको प्यार करते हैं। ये ऐसी स्थितियां थी जो उनके गुरु दयानंद को भी भुगतनी पड़ी थी। डी0 ए0 वी0 आंदोलन के संस्थापक महात्मा हंसराज इस तथ्य को अपने एक लेख जो उस समय आर्य गजट में छपा था, में लिखते हुए कहते हैं , "अपने ग्राम में मैंने केवल एक बार किसी वृद्ध से सुना था कि लाहौर में एक ऐसा साधु आया हुआ है जो कि ईसाइयों से वेतन पाता है तथा हिंदू धर्म के विरुद्ध उपदेश करता है। उस समय मुझे यह भी ज्ञात नहीं था कि यह साधु ऋषि दयानंद है और उनका उपदेश क्या है। मेरी आयु भी उस समय छोटी थी और न ही मेरी कोई शैक्षणिक योग्यता थी।"
क्या यही कारण नहीं है कि गुजरात के अहमदाबाद, झारखंड के पांकुड़ा में तथा दिल्ली में स्वामी जी को हिंदू कठमुल्लाओं की उनके प्रति नाराजगी को झेलना पड़ा।
स्वामी अग्निवेश विश्व मानव समाज की एक अद्भुत निधि थे । अपने विचारों के प्रचार - प्रसार के लिए वे चाहते थे कि वैश्विक स्तर पर एक ऐसी आर्य समाज बने जो सभी धर्मों, जातियों एवं देशों के विचारवान लोगों को अपने में समाहित करें।
कृण्वन्तो विश्वमार्यम तथा वसुधैव कुटुंबकम के उदात्त संदेश से वे सब को जोड़ने के काम को करते हुए विश्व आर्य समाज की स्थापना करना चाहते थे ।
हम जानते हैं कि ऐसा करना आसान नहीं था । परंतु उनकी इच्छा शक्ति अपराजेय थी । उनके शिष्य व उत्तराधिकारी स्वामी आर्यवेश के नेतृत्व में हम सब मिलकर स्वामी जी के अधूरे सपनो और वैश्विक स्तर पर आर्य समाज ,समाज परिवर्तन तथा मानवाधिकार के कार्यो को जारी रख पाएंगे ऐसे संकल्प ही उस निर्भीक सन्यासी स्वामी अग्निवेश को श्रद्धांजलि है ।
राम मोहन राय,
(एडवोकेट ,सुप्रीम कोर्ट)
महासचिव ,गांधी ग्लोबल फैमिली ।
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