मृत्य से ले जा अमृत के प्रति

 


जन्म-मृत्यु मनुष्य के हाथ मे तो बिल्कुल भी नही है फिर चाहे उसे प्राकृतिक संयोग कहे ,अथवा ईश्वर प्रदत्त अथवा वैज्ञानिक क्रियाओं का परिणाम ।

     विगत दिवस मुझे एक ऐसे परिवार में अपनी संवेदना प्रकट करने को जाना पड़ा जहां एक 17 वर्षीय युवक ने आत्महत्या कर ली थी । परिवार के लोग बता रहे थे कि वह अपने आठ साल की उम्र से ही सांसारिक मोह से विरक्त था । अपनी आयु के बढ़ने के साथ-२ उसमें यह भाव भी विकसित हो रहा था कि जब पढ़ -लिख कर बड़े होकर कमाना ,शादी करना और फिर परिवार बनाना ही है तो जीवन का क्या मतलब ? और आखिरकार उसने अपना जीवन समाप्त करने का यह कदम उठाया । मैने उस परिवार को सांत्वना भी दी और मनोवैज्ञानिक सलाह लेने का भी परामर्श दिया ।

      पिछले तीन माह से परिवार के अनेक सदस्यों तथा कई प्रिय मित्रों को अपने से बिछुड़ते देखा ।मेरे बाल सखा शैलेन्द्र व सुंदर भी चले गए । मेरी सासु माँ, मेरे जिगरी दोस्त डॉ शंकर लाल , अमन-दोस्ती यात्रा में हमेशा हमारे सहयात्री नवाब शुऐब साहब, मेरे वैचारिक पितातुल्य स्वामी अग्निवेश तथा अब हाल ही में मेरे माँ जाये भाई राना जी । इन तमाम लोगों के विछोह ने मेरे मन व तन को पूरी तरह से झंकझोड़ दिया ।

   सन 1992 में मेरी माता का निधन हुआ था । पर वें तो लगभग तीन वर्षों से शैय्या पर थी । उनके जाने के बाद पिता जी ने तो चंद मिनटों में ही मृत्यु का वरण किया था । बेशक उनकी भरी-पूरी आयु थी । परन्तु उनकी अकस्मात मृत्यु ने हमें विचलित जरूर किया था । आज भी 23 वर्ष बीतने के बाद  ऐसा लगता है कि घर ज्यों ही पहुंचेंगे तो वे ही गेट पर हमें मिलेंगे । परन्तु उनके बाद निर्मला दीदी के जाने के बाद इस नई पीड़ा ने पिता जी की वेदना को क्षणिक कम किया था । 

     डॉ शंकर लाल जी की अकस्मात उपजी बीमारी और फिर कोरोना की मार ने उन्हें हम से अलग कर दिया । उनके जाने का अर्थ मेरे पिता-भाई से अलगाव था । स्वामी अग्निवेश जी का मुझसे विशेष स्नेह व अपेक्षाएं थी । विशेषतया विश्व आर्य समाज के काम को लेकर । बहुत चाहते हुए भी उनकी बीमारी के दौरान उनसे मुलाकात न हो सकी । पर उनके निधन से मैं काफी आहत रहा । उनकी व डॉ साहब के निधन से दोहरा आघात लगा और अब भाई के जाने से तो बिल्कुल टूट ही गया । 

      क्या मृत्यु ऐसे ही ले जाती रहेगी या इस पर विजय पाने का भी कोई रास्ता है?  मैं न तो कोई दार्शनिक हूं और न ही कोई आध्यात्मिक प्राणी । पर इन तमाम घटनाओं से दबा हुआ जरूर हूँ । क्या अंत मृत्यु ही है तो फिर यह तामझाम , खींचतान , परेशानी और आसक्ति किस लिए?

      भगवान बुद्ध ने तीन अवस्थाओं को देख कर ही मुक्ति पथ ढूंढने के लिये प्रयास किये ।ऋषि दयानंद ने अपने बचपन मे अपने चाचा व बहन की मृत्यु को देखा था । और वे निकल पड़े उससे मुक्त होने । ओशो रजनीश ने तो मृत्यु सिखाने की बात की । लब्बोलवाब यह कि सब इस मृत्यु से ही बचना चाह रहे थे ।

      हमारे लिए तो ऐसा चिंतन श्मशान वैराग्य ही है अर्थात क्षणिक । हमारे जैसे घर गृहस्थी के लोग जिन्होंने झूठे-सच्चे मुकदमों में हार-जीत कर ही घर गुजारा किया है । वे न तो बुद्ध के रास्ते पर चल सकते और न ही दयानन्द के । वे रजनीश के रास्ते पर चल कर हंसी-ठिठोली कर आनंद तो मना सकते है बाकी कुछ नही । पर जो भी हो उबरना तो होगा ही । क्योंकि मृत्यु आसान है जीवन मुश्किल । और

जीवन जीने के ढंग तो निकालने ही चाहिए । 

   जीवन के  अब तीसरे पड़ाव में है । क्योंकि यह अपने हाथ मे नही है कि मृत्यु कब व किस अवस्था मे किसी को भी कब आएगी ? परन्तु जब भी आये हम खुशी-२ उसका वरन करें । अब अपनी पारिवारिक जिम्मेवारियों से भी मुक्त है । कामना तो यह ही है कि बाकी जीवन सुखमय व सेवामय बिताये बाकी प्रभु इच्छा ।

     शंकर जो कल्याणकारी है उससे यह ही प्रार्थना है:

 ॐ त्रयम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम. उर्वारुकमिव बन्धनान मृत्योर्मुक्षीय मामृतात” 


राम मोहन राय

उत्तराखंड , 12.10.2020


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