My friend-Sanjaya Garg


 बहुत बरसों बाद हुआ कि संजय अपनी गाड़ी ड्राइव कर रहा था और मैं उनके साथ बैठा था । मुझे वह समय याद आ रहा था जब वह अपने लम्ब्रेटा स्कूटर पर मुझे पीछे बिठा कर पूरे सहारनपुर के चक्कर लगाता था । मैंने उन्हें वे दिन याद करवाये तो वह भी तरोताज़ा हो गया ।

   यह बात सन 1977-80 की है। जब मुझे अपने बहन-बहनोई के प्रयासों से जे वी जैन कॉलेज ,सहारनपुर में लॉ पढ़ने का मौका मिला था । और मुझे सिर्फ पढ़ने का ही नही छात्र राजनीति का भी शौक था । मुझे पढ़ाया गया था कि जागरूक युवा या तो स्टूडेंट्स फेडरेशन में अथवा सिविल सेवा में ही सक्रिय होता है । और हम थे पहले वाले काम में ।

         


कॉलेज में प्रवेश लेते ही दोस्तों की खोज भी शुरू हो गयी और वहीं मुलाक़ात संजय से हुई । वह एक प्रतिष्ठित स्वतंत्रता सेनानी परिवार से था । उनके दादा लाला बद्रीदास एवम दादी दोनों ही महात्मा गांधी एवम उनके विचारों से प्रभावित थे । उनके ताऊ श्री प्रेमनाथ गर्ग एक कांग्रेसी स्वतंत्रता सैनिक , ट्रेड यूनियन नेता के अतिरिक्त दीवानी अदालत में वकील भी थे । उनकी ताई श्रीमती पुष्पा गर्ग भी मेरठ के एक लब्धप्रतिष्ठित साहित्यिक परिवार से सम्बंधित थी । पिता श्री मनमोहन नाथ, बेशक एक व्यवसायी थे परन्तु थे राष्ट्रीय भावों से ओतप्रोत एवम जागरूक । और माता सुधालता का तो कहना ही क्या । एक सुशिक्षित , व्यवहार कुशल एवम स्नेही महिला । उनके दो अन्य भाई राजीव व मनोज तथा एक छोटी बहन सविता भी पूरी तरह से अपने पारिवारिक माहौल में रचे बसे थे । इस तमाम बातों के रंग में ही सरोबार संजय था ।

       


मुझे यह तो याद नही की हमारी पहली मुलाकात कहाँ और कब हुई पर सरसरी जानकारी पर ही मैं उनके घर पहुंच गया था और वहीं उनके परिवार से परिचय हुआ । हम जल्दी से जल्दी एक वैचारिक ग्रुप स्टूडेंट्स फेडरेशन के नाम से शुरू करना चाहते थे और उस ग्रुप का अगवा संजय बना । दोस्ती की बुनियाद बनी गीत का यह मुखड़ा " उन्हें सुनने की आदत थी मुझे कहने का था चस्का ।"  यह कोई क्षण नही रहता जब हम किसी न किसी विषय पर बात न करते हो । और फिर आ गया 23 मार्च , शहीद भगत सिंह ,राजगुरु व सुखदेव का बलिदान दिवस । हम सब ने इस दिन को इस्लामिया गर्ल्स इंटर कॉलेज के प्रांगण में मनाया और यही हमारी मुलाक़ात शहीद भगत सिंह के छोटे भाई स0 कुलतार सिंह के बेटे किरणजीत सिंह से हुई । हमारा कारवां लगातार बढ़ता जा रहा था । ऐसा कोई दिन नही रहता था जब हम कोई न कोई अवसर न ढूंढ लेते हों । अब हमारे साथी बने राशिद जमील , अशोक ,अबरार अहमद, पवन । सरक्षक थे संजय के ताऊ जी श्री प्रेमनाथ गर्ग ,  राज कुमार वोहरा, राव मुख्तयार अली खान , मिर्ज़ा यूसुफ, प्रो0 एस डी शर्मा , बलवंत राणा ,  प्रो0 आकिल आदि ।

         


हमारे व्यक्तिगत मैत्री अब पारिवारिक संबंधों में प्रवेश कर चुकी थी और यह संबंध थे सामाजिक, राजनैतिक वैचारिक मजबूती के आधार पर। दिन भर 24 घंटों में से हम लगभग 16- 17 घंटे साथ रहते। जैसे एक पक्षी एक डाल से दूसरी डाल पर फुदकता फिरता है, उसी तरह से हम भी एक घर से दूसरे घर दूसरे से अन्य मित्र के घर जाते रहते और यह संपर्क संबंध केवल मात्र उनको अपने साथ जोड़ने के होते। हम दोनों लंच- डिनर भी साथ ही करते। कभी अम्माजी के हाथ का बनाया खाना, कभी हमारी बहन के हाथ की बनी चीजें। अम्माजी अब हम दोनों की मां थी और दोनों बहनों के हम दो भाई। उनके पापा भी कई बार कहते कि अब उनके चार नहीं राममोहन समेत पांच बच्चे हैं। ऐसा  वातावरण पाने वाले कुछ विरले ही लोग होते हैं। उनमें से मैं भी रहा हूं ।

       एक दिन एक बहुत ही मजेदार घटना घटी। शाम को 3 बजे हम कॉलेज से घर जा रहे थे तो रास्ते में पड़ने वाली जिला कलेक्टर के बाहर खेत मजदूर यूनियन का उनकी मांगों को लेकर प्रदर्शन चल रहा था और उसे राजकुमार वोहरा संबोधित कर रहे थे। हमारी तो यह पसंदीदा चीज थी। हम वहां पहुंचे और हमने मजदूरों के हक में स्टूडेंट फेडरेशन की तरफ से समर्थन भाषण दे दिया। प्रदर्शन के बाद  गिरफ्तारियां भी होनी थी। राजकुमार वोहरा मुझे देखकर बोले, क्या तुम भी गिरफ्तारी दोगे? मैं मना नहीं कर सका। संजय को किताबें पकड़ाई और उस टोली में शामिल हो गया जो गिरफ्तारी के लिए बस में  चढ़ रहे थे और लो हम भी हो गए गिरफ्तार। सीधा पहुंचा दिए गए जिला जेल सहारनपुर में। हम सब लगभग 100 लोग एक बैरक में बंद थे। जेल भी पुराने ढर्रे की थी। चबूतरे बने थे और बैरक के बीचो- बीच ही 100 लोगों के लिए एक पाखाना था और लोग तो सुबह-सुबह हाजत से निपट गए। हम तो थे बैड टी  पीने वाले। वहाँ बैड टी  कौन देता। 10 बजे खाने के साथ ही चाय मिलती  और फिर हम शौच को जाते। सोचिए कितने नारकीय हालात थे। 2 दिन बाद संजय मुझसे मिलने आया। मेरी आंखों से टप -टप आंसू बह रहे थे। उसने मुझे एक जगह ले जाकर कहा, यह रोना-धोना बंद करो, जेल में आए हो किसी रेस्टोरेंट में नहीं। मजबूत बनो जेल काटो। ये वाक्य मेरे लिए दिशा सूचक बन गए। 28 दिन बाद जेल में खेत मजदूरों के साथ रहा पर रोते हुए नहीं पार्टी क्लास के एक शिक्षक के रूप में । 

        उत्तर प्रदेश सरकार के फैसले के अनुसार कॉलेज में यूनियन के चुनाव पर तो पाबंदी लगी थी ,परंतु फैकेल्टी के चुनाव हो सकते थे। स्टूडेंट फेडरेशन ने फैसला लिया कि चुनाव लड़ा जाए। उस समय हम एलएलबी सेकंड ईयर में थे। संजय शुरू से ही जोड़-तोड़ व  राजनीतिक गणित का माहिर था। यह उसी का फैसला था कि लॉ फैकेल्टी के चुनाव में राशिद  उपाध्यक्ष के पद पर और मैं सचिव के पद पर चुनाव लडूं। यद्यपि लॉ  के विद्यार्थियों में हमारी बिरादरी के विद्यार्थियों की संख्या काफी थी। पर हम तो ठहरे राममोहन राय और हम अपनी बिरादरी का परिचय देकर चुनाव लड़ना भी नहीं चाहते थे। पर  संजय के कुशल नेतृत्व में तमाम विपरीत परिस्थितियों ने हमें चुनाव जितवा दिया। हमारी बिरादरी के विद्यार्थियों ने हमारे खिलाफ वोट दिए। पर जब उन्हें एक बार हमारे बहनोई के कॉलेज आने से पता चला कि मैं तो उनकी बिरादरी का ही हूं तो उन्हें पछतावा हुआ। पर हम किसी बिरादरी के उम्मीदवार नहीं थे, अपितु एक वैचारिक छात्र संगठन ऑल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन के उम्मीदवार थे।


        संजय चुनावी राजनीति बनाने मे सिद्धहस्त था। लुधियाना में ऑल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन का राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किया गया। पूरे उत्तर प्रदेश से  24 प्रतिनिधि थे। जबकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश से सिर्फ हम दो। मै और संजय।  

राष्ट्रीय परिषद के चुनाव में हमने भी ताल ठोक दी।  जीतने के लिए थे 10 वोट चाहिए थे । पर यहां फिर संजय की रणनीति काम आई और मै 10 नहीं 12 वोट लेकर राष्ट्रीय परिषद का सदस्य निर्वाचित हुआ।

          हम ऑल इंडिया  स्टूडेंट फेडरेशन का विस्तार कर रहे थे। उन्हीं दिनों रुड़की इंजीनियरिंग विश्वविद्यालय में विद्यार्थियों के मुद्दों पर असंतोष पनप रहा था। संजय अब ऑल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन, सहारनपुर के अध्यक्ष थे। यूनिवर्सिटी के इंजीनियरिंग छात्रों ने अशोक गुप्ता के नेतृत्व में हमसे सहयोग की पेशकश की और हम ( आर के गर्ग, सीनियर एडवोकेट सुप्रीम कोर्ट एवं पूर्व विधायक हरिद्वार ) एवं  राजकुमार वोहरा को लेकर यूनिवर्सिटी पहुंचे। छात्रों की एक सभा छात्रसंघ सभागार में हुई ।बस इतनी सी बात से प्रशासन कांप उठा और छात्रों की विजय हुई। अब यह खबर पूरे प्रभाग में फैल चुकी थी।

         गुरुकुल कांगड़ी में भी इसी तरह का छात्र  असंतोष था । वहाँ भी संजय और मेरे दोनों के प्रयासों से सफलता प्राप्त की गई। स्टूडेंट फेडरेशन न केवल सहारनपुर में अपितु पूरे उत्तर प्रदेश की एक मजबूत इकाई के रूप में गठित हो चुकी था।


  

        अपने विरोधियों से भी हमने संवाद और विमर्श का मार्ग खुला रखा। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, समाजवाद युवजन सभा आदि संगठन हमारे विरोधी जरूर थे, परंतु दुश्मन नहीं थे ।इसलिए यदा-कदा हम उनसे खुले मंच पर निडरता से बातचीत करते। यह वह समय था जब अनेक विरोधी विचारधारा के युवा हमारे संगठन के साथ जुड़े। हम एक तरफ तो अपने साथ लोगों को जोड़ रहे थे पर अंदर ही अंदर दूसरी तरफ हमारी विचारधारा के लोग हमारे खिलाफ खड़े हो रहे थे। इस चुनौती को भी हमने स्वीकार किया।

       


उस समय इंडो सोवियत कल्चरल सोसायटी( इस्कस) का बहुत नाम और काम था। हम भी उनके काम करना चाहते थे। परंतु उस पर काबिज लोगों को यह पसंद नहीं था । हमने इस चुनौती को स्वीकार किया और संजय की अध्यक्षता में भारत इंडो सोवियत यूथ कल्चरल सोसायटी की स्थापना कर दी। उसका एक विशाल एवं भव्य कार्यक्रम सहारनपुर में आयोजित किया गया और उसमें आए सोवियत दूतावास के सचिव एंड्रोव्स्की ।वह समय युवाओं का वामपक्षी पार्टी की तरफ उभार का समय था। पर मेरे लिए तो समय सीमित था।तीन साल बाद वकालत पास करके मैं सहारनपुर छोड़कर पानीपत आ गया। परंतु संजय के साथ मेरे रिश्ते सदा प्रगाढ़ बने रहे। हर सुख दुख में वह हमेशा शामिल रहा ।1983 में मेरे विवाह पर आया। मैं कह सकता हूं कि जिस तरह वह खुशी से नाच रहा था उसी से उसकी उमंग का पता लगाया जा सकता था।  

        सहारनपुर में संजय ने अपनी कुशाग्रता से अपना स्थान बना लिया है। बेशक वह मेरे और अपने परिवार के लोगों के लिए संजय है पर आमजन में वह संजय गर्ग के नाम से लोकप्रिय है। वे अब सक्रिय  राजनीति भी करते हैं। सहारनपुर से कई बार विधानसभा के सदस्य भी रहे हैं और उत्तर प्रदेश सरकार के मंत्री पद पर भी। पर मेरे प्रति उसका व्यवहार यथावत रहा है।   

       संजय पिछले अनेक वर्षों से चुनावी जननीति में सक्रिय हैं। विधानसभा के सात चुनाव लड़ चुके हैं। 

 परिस्थितियोंवश  अलग-अलग पार्टियों से और एक बार अपनी पार्टी बना कर। मेरी कोशिश रहती है कि हर चुनाव में उनके प्रचार के लिए जाऊं। चुनाव में जब भी जाता हूं तो उनके पक्ष में चुनावी भाषण भी देता हूं। तब मेरा परिचय हरियाणा अमुक पार्टी से व कभी अमुक पार्टी के नेता के रूप में दिया जाता है। मुझे एक मित्र ने पूछा कि भाई संजय की तो राजनीतिक मजबूरी हो सकती है।परिस्थितियोंवश विभिन्न पार्टियों से चुनाव लड़ना। पर क्या तुम्हारी भी कोई विवशता है, तो मेरा एक ही जवाब होता कि मैं तो संजय के साथ हूं। वह कभी द्रविड़ मुनेत्र कड़गम से भी खड़ा होगा तो भी मैं उस पार्टी का नेता बन उसके प्रचार में आऊंगा।  


         इन तमाम वार्ता के बावजूद भी मेरे मित्र संजय की धर्मनिरपेक्षता एवं समाजवाद के प्रति गहरी प्रतिबद्धता है। अनेक प्रलोभनों के के बावजूद उन्होंने कभी किसी सांप्रदायिकता से समझौता नहीं किया है । वह एक  ओजस्वी वक्ता हैं और वर्तमान उत्तर प्रदेश के प्रखर राजनेता है । 

     उसकी इस राजनीतिक कामयाबी में जहाँ उनकी समृद्ध पारिवारिक विरासत सहायक है वहीं उनकी पत्नी श्रीमती पूनम का भी भरपूर सहयोग है । उनके दो पुत्र सौम्य व पुण्य है जो अपने पिता के नक्शेकदम पर चलते हुए अपने-२ क्षेत्र की ऊंचाइयों को छू रहे है ।

        परंतु मुझे खुशी है कि मेरा यह मित्र मात्र अपने बलबूते पर प्रगति की सीढ़ियों पर चढ़ा है और  हम उम्मीद करते हैं कि वह ऊंचाइयों को प्राप्त करेगा। यदि संजय और अपने बारे में लिखने पर आया जाए तो एक पुस्तक भी छोटी पड़ेगी। परंतु यह लेख हमारी मित्रता को विराट स्वरूप अवश्य देगा।


(अनेक स्थानों पर मैंने अपने इस लेख में श्री संजय गर्ग को संजय ,उसके तथा था शब्दो को प्रयोग करते हुए लिखा है । ऐसा उनसे मेरे प्रगाढ़ मैत्री सम्बन्धों की वजह से है , जिसे अन्यथा न लिया जाए ।)

राम मोहन राय,

सहारनपुर / 26.10.2020

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