Suhana Safar-32(My Germany visit in 1987)
[बर्लिन की सैर
द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति पर जब राईस्टांग पर सोवियत संघ की लाल फौजों ने लाल झंडा लगा दिया, उसी दौरान मित्र राष्ट्रों की फौज ने पूरे जर्मनी पर कब्जा कर लिया। फ्रांस, अमेरिका, इंग्लैंड, सोवियत संघ की फौजों ने पूरे नगर पर अधिकार कर लिया बाद में वारसा समझौते के बाद पूरे शहर चार भागों में बंट गया। सोवियत संघ की फौजों के अधिकार में बर्लिन का भाग पूर्वी बर्लिन, जर्मन जनवादी गणतंत्र के हिस्से में आया। बकाया बड़ा भाग पश्चिमी बर्लिन कहलाया। समझौते की शर्तों के अनुसार यह पूर्णत: पश्चिम जर्मनी का भाग न होगा। परंतु अंशत: उसी का उस पर अधिकार रहेगा। स्मरण रहे कि संयुक्त जर्मनी की राजधानी बर्लिन हुआ करती थी। विभाजन के बाद संघीय जर्मनी ने तो अपनी राजधानी सुदूर पश्चिम में 'बोन' शहर में ले गए। वहीं जर्मन जनवादी गणतंत्र ने अपनी बालन को दो भागों में बांट दिया। बाजार, गलियां, सड़कें यहां तक कि मकान भी दो हिस्सों में बंट गए। दोनों देशों का बंटवारा कोई नदी, बीहड़, रेगिस्तान अथवा मैदान नहीं करते, अपितु एक दीवार करती है जो पूरे शहर के एक हिस्से से दूसरे हिस्से तक विभाजन कर देती है।
' नो मैन एरिया' के नाम पर मात्र सात 7- 8 चौड़ी दीवार के पार सड़क है। दीवार भी बड़ी मुश्किल से 10- 12 फुट से ऊंची न होगी ।किसी भी ऊंची इमारत से आप दोनों बर्लिन की इमारत को बेहद खूबसूरती से निहार सकते हैं । 340 मीटर ऊंचा टीवी टावर के रैस्ट्रा तो दीवार के विभाजन का एहसास ही नहीं होता।'गेटवे ऑफ़ बर्लिन' का तो नजारा ही दूसरा है। यह वह गेट है जो बर्लिन की मुख्य सड़क को विभाजित करता है। यह एक ऐतिहासिक तथा स्मरणीय स्थान है। इस गेट पर आने पर वहां के इंचार्ज ने जो कि एक फौजी था,ने बड़े विस्तार से इस दीवार के बारे मे बताया कि क्यों कटीली तार की जगह यह दीवार बनाई ।किस तरह से पूंजीवादी जर्मनी के तस्कर, वेश्याएं तथा गुंडे तत्व समाजवादी जर्मनी में घुसपैठ कर एक नियोजित अर्थव्यवस्था के देश को तहस-नहस करने की साजिश में लगे थे ।आज भी संघीय जर्मनी के अतिवादी लोग इस दीवार को तोड़ने की नापाक कोशिश करते हैं। गंदे- गंदे अश्लील नारे लिखकर जर्मन जनवादी गणतंत्र के रक्षकों को उत्प्रेरित करने की कोशिश करते हैं।
हमें जानकर बेहद प्रसन्नता हुई कि हमारे प्रतिनिधि मंडल का स्वागत उस हॉल में किया गया जो कभी हिटलर द्वारा युद्ध के प्रचार स्थान के रूप में प्रयोग किया जाता था। परंतु अब वही स्थान शांति और विश्व मैत्री का केंद्र है।
जर्मन जनवादी गणतंत्र- भारत मैत्री लीग का भी वही कार्यालय है ।श्री लीथर गूंथर जोकि इस लीग के अध्यक्ष हैं तथा पानीपत भी आ चुके हैं, मुझ से परिचित थे। मेरा नाम आते ही उन्होंने 'पानीपत' कहकर संबोधित किया। ऐसा महान तथा प्रिय मित्र द्वारा अपने नगर का नाम सुनकर मैं गदगद हो उठा। वे हमें बेहद प्यार से मिले तथा पानीपत नगर को तथा उसके आतिथ्य को बार-बार स्मरण करते रहे।बर्लिन का कला केंद्र जो कि विश्व प्रसिद्ध ओपेरा तथा नाट्यशाला है, बेहतरीन ढंग से सजाया गया है। जहां हम कंसर्ट का कार्यक्रम सुनने गए जो कि यूरोपीय संगीत होता है विशेषता यह कि बीच में चाहे कितना भी मधुर संगीत हो कोई चूसकता नहीं और और एक धुन के खात्मे पर आधे घंटे तक श्रोता लगातार जोर जोर से तालियां बजाकर संगीतज्ञों का उत्साहवर्धन करते हैं।
नगर के बीचो बीच एक बेहद सुंदर पार्क है, जहां पर वैज्ञानिक समाजवाद के जन्मदाता कार्ल मार्क्स की बैठे हुए तथा फ्रेडरिक एंगेल्स की खड़े हुए मूर्तियां लगी है। हजारों लोग रोजाना वहां आते हैं, ताकि इन महान दार्शनिकों को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित कर सकें।
नजदीक ही बहुमंजिला डिपार्टमेंटल स्टोर जहां पर हर प्रकार की वस्तुएं मिलती हैं ।पूरी पूर्वी जर्मनी में एक बात पाई कि किसी भी वस्तु के दाम में फर्क नहीं है। हर वस्तु का दाम उसकी पुश्त पर लिखा है। उसे ज्यादा न तो कोई दुकानदार लेता है, न हीं किसी मोलतोल को तय करने की कोई जरूरत है। इसी डिपार्टमेंटल स्टोर की चौथी मंजिल पर बच्चों का सामान मिलता है। जो अपेक्षाकृत बड़ों के सामान से काफी सस्ता होता है ।बच्चों के लिए यहां विशेष प्रबंध है तथा खिलौने भी ऐसे बनाए जाते हैं, जिससे उनमें श्रम के प्रति आदर भावना जागे तथा वे इसे निम्न न माने।
बर्लिन के शिक्षक प्रशिक्षण विद्यालय में भी हमें जाने का मौका मिला। जहां पर शिक्षकों को नए वैज्ञानिक ढंग से एक नया समाज बनाने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है। उन्हें वैचारिक तौर पर तैयार किया जाता है, ताकि शिक्षा, शिक्षा के लिए नए होकर जीवन के लिए हो ।शिक्षा निरक्षरता समाप्त न करें, अपितु अविद्या का अंधकार भी समाप्त कर दे।
बर्लिन के विश्वविद्यालय उस पुराने भवन को भी देखने का मौका मिला। जहां पर प्रसिद्ध चिंतन व दार्शनिक कार्ल मार्क्स ने शिक्षा ग्रहण की थी। अब भी वह इमारत सुरक्षित रखी गई है। खुले में रखी मूर्तियां खराब न हो जाए इसलिए सर्दी में उन्हें ढक दिया जाता है। इस तरह से वे जहां नया समाज बनाने में लगे हैं, वही पुरानी सभ्यता के प्रतीकों को भी सुरक्षित रखने की पुरजोर कोशिश कर रहे हैं ।ऐसे नए व पुराने का समन्वय नगर बर्लिन है।
पीपुल्स चेंबर में उपराष्ट्रपति श्री गेटिंग से मुलाकात
28 अक्टूबर 1988 हमारे लिए बड़ा ही गौरवपूर्ण था ,उस दिन हमारी मुलाकात जर्मन जनवादी गणतंत्र के उप राष्ट्रपति महामहिम डॉ गेटिंग से थी । डॉ गेटिंग भारत में कई बार पधार चुके हैं । उनके पूर्व परिचय में बताया गया कि वह भारत और भारतीयों से बेहद प्यार करते हैं। मुलाकात का बहुत महत्वपूर्ण था, 'पीपुल्स चैंबर' जो ज. ज. ग. की राजधानी बर्लिन के बिल्कुल मध्य में था। यह मार्क्स एंगेल्स प्लाटन तथा मार्क्स एंगेल्स फोरम जोकि कार्ल मार्क्स तथा फ्रेडरिक एंगेल्स के स्मारक के मध्य में स्थित है। यह भावना आधुनिक वास्तुकला का एक अद्भुत नमूना है तथा इसका उद्घाटन भी मई 1986 में हुआ है ।'पीपुल्स चैंबर को हमारे देश की भाषा में संसद भवन कहना चाहिए ,जो कि सर्वोच्च सरकारी संस्थान है तथा संवैधानिक सत्ता का केंद्र है।
पीपुल्स चैंबर के सामने से हमारी बस दिन में दो-तीन बार तो निकल ही जाया करती, क्योंकि हमारा नया होटल इसके बिल्कुल ही नजदीक था। इसका भवन बाहर से पूरी तरह कोका कोला रंग के शीशों से ढका है जो ऐसा प्रतीत होता है जैसे यह कोई शीश महल हो। गुजरते हुए मेरी हमेशा उत्सुकता रहा करती कि इस भवन को भीतर से देखने का भी हमें सौभाग्य मिलेगा कि नहीं। हालांकि हमारे प्रोग्राम में उपराष्ट्रपति महोदय से भेंट का तो था, परंतु उनकी भेंट कहां होगी ऐसी जानकारी नहीं थी और जब हमारी बस उस चिर प्रतिक्षित भवन के आगे रुकी तो मन में बेहद प्रसन्नता हुई।
आज उपराष्ट्रपति जी से मुलाकात है तो मेरे मन में आया क्यों न आज भारतीय वेशभूषा में जाया जाए और मैंने विशेष तौर पर उस दिन खादी का कलफ लगा सफेद कुर्ता पायजामा तथा राजस्थानी जूती तथा कंधे पर शॉल डाला। ऐसा इसलिए भी कि प्रतिनिधिमंडल में कहीं कुछ तो अलग दिखे। राजस्थान से श्रीमती भारती पाराशर सिल्की साड़ी पहने हुए थी, वही मध्य प्रदेश के विधायक श्री विनय दूबे बंद गले के कोट के साथ सुसज्जित थे।
पीपुल्स चैंबर में घुसते ही इस भवन की गरिमा व महत्व का आभास होने लगा। स्वागत कक्ष की दीवारें विभिन्न मित्ती भी चित्रों से सजी हुई थी और यह प्रेम अथवा ऐतिहासिकता से जुड़े न होकर मजदूर वर्ग के अंतरराष्ट्रीय संघर्षों में विजय को दर्शाते थे। चेंबर में सर्वत्र शांति थी तथा सभी तरफ ऐसा लग रहा था कि सभी को किसी के आने की प्रतीक्षा है और तभी हमारे प्रवेश के साथ ही चहल कदमी शुरू हो गई। शायद जिनकी प्रतीक्षा थी ,वे आ गए थे।
लिफ्ट से पांचवी मंजिल पर कॉन्फ्रेंस हॉल में महामहिम उपराष्ट्रपति से मुलाकात होनी थी। हमारे पहुंचते ही हॉल के बाहर उपराष्ट्रपति महोदय ने हमारा स्वागत किया। आंध्रप्रदेश के श्री सारंग पाणि तथा श्री वेंकटरमैया ने चंदन की माला पहनाकर डॉ गेटिंग का स्वागत किया। वास्तव में बहुत ही भावपूर्ण संयोग था। हाल के प्रवेश द्वार पर ही कई चित्र उपराष्ट्रपति महोदय के साथ लिए गए। हॉल में लगभग 20 कुर्सियां आमने-सामने लगी थी। जिन पर हमारे 16 सदस्य प्रतिनिधि मंडल के अतिरिक्त डॉ गेटिंग तथा उनके विशिष्ट सहयोगी बैठे थे। डॉ गेटिंग बड़े ही गौरव से बता रहे थे कि उन्हें हमारे स्वर्गीय प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू, श्रीमती इंदिरा गांधी तथा वर्तमान प्रधानमंत्री श्री राजीव गांधी से मुलाकात का अवसर मिला है। यहां यह लिखना प्रासंगिक होगा कि डॉक्टर गेटिंग एक सुलझे हुए राजनीतिज्ञ हैं तथा ज. ज. ग. के सर्वोच्च नेताओं में उनका एक विशिष्ट स्थान है। डॉ गेटिंग ने अपने भाषण में विश्व शांति में भारत तथा जर्मन जनवादी गणतंत्र की भूमिका पर प्रकाश डाला। दोनों देशों के बीच और अगाड़ मैत्री की को बढ़ाने की चर्चा की । भारतीय प्रतिनिधिमंडल के नेता डॉ राजेंद्र जैन ने भी प्रतिनिधि मंडल के ज.ज. ग. आने प्रयोजन के बारे में उप राष्ट्रपति महोदय को बताया ।
औपचारिक मुलाकात के बाद प्रतिनिधिमंडल के प्रत्येक सदस्य से अलग-अलग राष्ट्रपति महोदय ने हालचाल पूछा। प्रत्येक सदस्य की यह इच्छा रही कि वह अपना चित्र इस महान व्यक्ति के साथ अवश्य खिंचवा ले ,ताकि यात्रा का एक सुंदर तोहफा में अपनी मातृभूमि में अवश्य ले जाए ।अंत में प्रतिनिधिमंडल की ओर से डॉ राजेंद्र जैन ने अतिथि पुस्तिका पर अपने उद्गार लिखे तथा प्रत्येक सदस्य ने उस पर हस्ताक्षर किए।
महामहिम राष्ट्रपति महोदय के साथ भेंट के समय थोड़ा सा भी, एहसास , महोदय की सदृश्यता के कारण न हो सका कि हम ऐसे महान व्यक्ति से बातचीत कर रहे हैं। ऐसा लगता था कि मानो अपने किसी बुजुर्ग रिश्तेदार से बातें हो रही हो।
सप्ताह भर की इसी यात्रा के दौरान हमें पूर्वी जर्मनी के एक अन्य बड़े शहर ड्रेसडेन और कार्ल मार्क्सस्टड भी जाने का अवसर मिला था ।
ड्रेसडेन में अनेक ऐसे परिवारों से भी मुलाकात हुई जो नाज़ी फासिस्ट शासन के समय अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता की वजह से या तो जेल में रखे गए अथवा यातना शिविरों में । इस शहर में द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान मित्र देशों ने अंधाधुंध बमबारी की जिसकी वजह से शारीरिक एवम मानसिक पीड़ाएं यहां के लोग आज भी भुगत रहे थे । पुरुषों में यौन शक्ति एवम महिलाओं में प्रजनन क्षमता कम हो गई थी ।
ड्रेसडेन एक ऐतिहासिक शहर रहा है और यह सेक्सनी Sexony राज्य की राजधानी है। अब इसकी आबादी लगभग ग्यारह लाख है जो की जर्मनी के चार प्रमुख नगरों में से एक है । इसके विश्विद्यालय, म्यूजियम और चर्च दुनियां भर में अपनी पहचान रखते है । द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान अमेरिका और ब्रिटेन ने इस शहर पर ताबड़तोड़ बमबारी की थी और तब पच्चीस हजार नागरिक मारे गए थे । अनेक परिवार तो ऐसे थे जहां एक भी सदस्य जीवित नहीं बचा । यहां की एक अत्यंत ऐतिहासिक चर्च भी इस बमबारी में नष्ट हो गई थी । युद्ध समाप्ति के पश्चात जर्मन जनवादी गणराज्य ने इसकी पुनर्निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और नए सिरे से अनेक विश्वविद्यालयों , उद्योगों तथा सांस्कृतिक विरासत से जुड़े संस्थानों की स्थापना की है।
दो दिन ड्रेसडेन में रुक कर हम कार्ल मार्क्स स्टड पहुंचे । वर्तमान में इस शहर का नाम बदलकर चेमनिट्ज (Chemnitz) रख दिया गया है । महान क्रांतिकारी विचारक कार्ल मार्क्स की दस फीट ऊंची मूर्ति एक विशेष आकर्षण का विषय रही है ।
GDR से वापिसी के बाद हम पोलैंड की राजधानी और चैकोसलवाकिया की राजधानी होते हुए वापिस इंडिया आ गए । हवाई अड्डे पर ही मेरी पत्नी, दोनों बेटियां सुलभा और संघमित्रा और मित्र सतीश पुनानी लेने आए हुए थे।
छोटी बेटी कुल आठ माह की थी और उसकी मां ने गोद में उठाया था । एयरपोर्ट से बाहर निकलते ही वह मुझे दूर से पहचान गई और अपने दोनों हाथों को फैला कर मुझे बुलाने लगी । बहुत ही मार्मिक दृश्य था जो आज भी भूलने से भी नही भूलता ।
Ram Mohan Rai,
Berlin (German Democratic Republic)
1987
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