स्वामी आनंद रंक बंधु

स्वामी आनंद रंक बंधु हमारे शहर पानीपत के एक प्रतिष्ठित बुज़ुर्ग ही नही अपितु एक उत्कृष्ट सामाजिक कार्यकर्ता ,लेखक , कवि ,चिंतक व विचारक भी थे ।उन्हें "स्वामी "इसलिये कहते थे क्योकि वे एक कबीर चोरे के गद्दीनशी थे व  "रंकबन्धु" उनका तखलुस था ।वे गांधी विचार से प्रेरित थे परिणामस्वरूप उन्होंने अपने पूरे जीवन को इसी विचार के प्रचार -प्रसार के लिये समर्पित किया था अंततः वे संत विनोबा भावे के भूदान आंदोलन मे एक कुलवक्ति कार्यकर्ता के रूप मे शामिल हो गए ।तत्कालीन पंजाब के वर्तमान हरयाणा मे स्वामी जी के ही कार्यो का परिणाम था कि भूदान की जमीन का सही बटवारा व व्यवस्था हो सकी ।मेरी माँ ,जो की स्वयं भी एक सामाजिक कार्यकर्ता थी व भूदान आंदोलन से जुड़ी थी ,की वजह से हमारे पूरे परिवार का स्वामी जी के परिवार से घनिष्ठ सम्बन्ध रहा । स्वामी जी मेरी माँ को अपनी बहन मानते थे इसीलिये वे  हमारे 'मामा'थे ।वास्तव मे वे इस सम्बोधन को पूर्ण सार्थक करते थे यानी 'डबल माँ' ।अपने बचपन से ही मैं उनके पास जाता तथा अपनी आदत के मुताबिक एक अध्यापक की भांति वे मुझे अच्छी-2 प्रेरणादायक कहानियां सुना कर सर्वोदय विचार से अवगत कराते ।उनका विनम्र व्यवहार ,आकर्षक व्यक्तित्व व मधुर वचन सदा ही मेरा उनके प्रति स्नेह तथा आदर का कारण रहा ।उनसे मैने पाया कि एक अच्छे शिक्षक के लिय विद्यार्थियो का एक पूरा जमघट्ट नही एक भी शिष्य काफी है ।मेरे माता ,पिता के बाद वे मेरे पहले आचार्य थे जिन्होंने मुझे संस्कार ,विचार तथा जीवन का उद्देश्य दिया ।

स्वामी जी की प्रेरणा से ही उस समय 10-12 साल के मुझ बालक को अनेक बाल साहित्य की पुस्तके पढ़ने का मौका और यही वह आधार था जिसने पढ़ने का शौक दिया ।इंदिरा प्रियदर्शनी नेहरू की 'मेरे पापू' पुस्तक ने एक दिशा देने का काम किया कि किस प्रकार बालिका इंदिरा ने 'वानर'सेना बना कर स्वतन्त्रता सेनानियो की मदद करने की योजना बनाई ।यही वह विचार था जिसने हमे "भारतीय बाल कांग्रेस" बनाने को प्रेरित किया परन्तु स्वामी जी के कहने पर इसका नाम "कांग्रेस"के स्थान पर सभा'
किया गया ।स्वामी जी ने उसका घोषणापत्र तैयार करने मे हमारी मदद की तथा एक इश्तिहार के रूप मे छपवाया ।स्वामी जी के निवास पर ही प0 ओम प्रकाश त्रीखा,दादा गणेशी लाल,बाबा नागार्जुन ,सतपाल मित्तल ,चौ0 निरंजन सिंह जैसे गांधी सेवको से मिलने का अवसर मिला ।उनका घर ही वह स्थान था जहां से "जय जगत" उदघोष की पहली बार गूंज सुनने को मिली ।

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