पानीपत के बुज़ुर्ग

*पानीपत के बुज़ुर्ग*        
          संतो की दूर दृष्टि होती हैं साथ साथ वे त्रिकाल दर्शी भी होते है । हम सामान्य जन अपने जीवन की उठापटक में ही समय बिताते है  जबकि वे हमारे प्रारब्ध को जानते हुए हमारा मार्गदर्शन करते है ।
     पानीपत जहां में मेरा जन्म हुआ ऐतिहासिक महत्व का है साथ साथ उसके औद्योगिक विकास ने इसे नए आयाम भी दिए है और अब इसकी पहचान एक निर्यातक क्षेत्र के रूप में भी विश्व पटल पर जाना जाता है । 
      पानीपत का कुल क्षेत्रफल 1,268 किलोमीटर है अर्थात 490 वर्गमील । दिल्ली से उत्तर की तरफ चलने पर 90 किलोमीटर सड़क मार्ग पर यह पहला बड़ा कस्बा है । सन 1857 से पहले तक यह जिला मुख्यालय भी हुआ करता था ,परंतु यहां के लोगों ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी के विरुद्ध क्रांति में बढ़ चढ़ कर भाग लिया जिस वजह से यहां से बदल कर करनाल को जिला मुख्यालय बना दिया और पानीपत को उसका उपमंडल। वर्ष 1991 में पानीपत को दोबारा जिला बनाया गया  और इसके साथ 190 गांवों को जोड़ा गया जिसमें से चार बड़े गांव समालखा, इसराना, मडलोडा  और बापौली  उन्हे उप तहसील। 
    पर इसकी इससे अलग एक रूहानियत पहचान भी है । लड़ाई का मैदान तो इसलिए भी रहा क्योंकि खैबर दर्रे से दिल्ली तक, राजधानी के करीब एक ही खुली जगह थी जहां यमुना की नजदीकी होने के कारण पानी भी उपलब्ध था वह पानीपत ही था और इसीलिए इसे लड़ाई के मैदान के तौर पर चुना गया । यहां यह बात भी काबिले गौर है कि पानीपत के लोगों का इन किसी भी लड़ाई से कभी भी कोई ताल्लुक वास्ता नहीं रहा है । असलियत तो यह है कि ये पानीपत में लड़ाइयां थी न की पानीपत की । इन तमाम लड़ाइयों से आज़ीज़ होकर यहां के लोग तीन व्यवसायों में काम नहीं करते थे । एक-फौज,  दूसरे - पुलिस और तीसरे-  शराब का कारोबार ।
       हम सब जानते है कि वर्तमान ज़िला पानीपत एक मुस्लिम बाहुल्य था । भारत विभाजन से पूर्व यहां कि कुल तीस हजार आबादी में से सत्तर फीसदी आबादी मुस्लिम थी । इनमें से भी अधिकांश मुस्लिम अंसारी थे । ये लोग पढ़े लिखे थे और अन्य दूसरी मुस्लिम रियास्तो में उच्च पदों पर आसीन थे । यहां रहने वाले सामान्य जन हथकरघा और उसके साथ जुड़े काम से जुड़े थे । खेस, चादरे, कम्बल और दूसरा कपड़ा बहुत ही बेहतरीन तरीके से तैयार किया जाता था ,जिसकी मांग दूर दूर तक थी ।  घरों की देखभाल, खेतीबाड़ी और दूसरा स्थानीय कारोबार औरते ही  करती थी इसलिए घर की पहचान मर्दों से न होकर उन्हीं से थी यानी " फला बी का घर" (अमुक महिला का घर)। घर की औरते ही इक्के पर बैठ कर सारी व्यवस्थाएं करती थी । ऐसा कोई अकस्मात नहीं था, यह एक ऐसा परिवेश था जो उन्हे एक परंपरा से प्राप्त हुआ था ।
     पूरे इलाके में आध्यात्मिक माहौल था । लगभग 1300 साल पहले इराक से धर्म प्रचार करते हुए लगभग पांच संतो जिनके नाम हज़रत रोशन अली शाह ,  शेख़ कालू पीर, पंचपीरा  रहमतुल्ला, शेख़ अबू इशहाक और सैय्यद अली सरवर थे धर्म प्रचार और इंसानियत का संदेश देते इन्होंने अपना पड़ाव यहां डाला और उन्हें यह स्थान इतना पसंद आया कि वे यहीं बस गए और अपनी हयात तक यहीं रहे । और इसके बाद तो दुनियां भर से संत - फकीरों के आने का सिलसिला जारी रहा ।    
     सन 1267 के आसपास बादशाह बलबन के समय में इराक़ से ही सरफुद्दीन नौमानी तशरीफ फर्मा हुए और यहीं उन्होने अपना मुकाम बनाया । वे फ़ारसी, अरबी , संस्कृत एवम ब्रज भाषा के जानकार थे और उन्होंने अपने उपदेशों को इन्हीं भाषाओं के माध्यम से छंदों एवम कविताओं में दिया ।  सरफुद्दीन नौमानी ने अनेक वर्षों तक यहीं रह कर तप - साधना की तथा बताया कि ईश्वर को प्राप्त  करने का रास्ता गुरु( शाह ) के माध्यम से ही है । इसलिए सच्चे गुरु का मिलना जरूरी है । उन्होने कहा है -
   "सरफू चूड़ी लाख की टके टके की बेच, जे गल लागे शाह के लाख टके की एक"।
सरफुद्दीन फरमाते है कि हाथ में लाख की बनी  पहनी चूड़ी का मूल्य एक तीन पैसे का है परंतु यदि यही हाथ सतगुरु के गले लग जाए तो यही तीन पैसे की  मामूली चूड़ी अमूल्य हो जाती है ।
     अपनी इसी तप-साधना और ईश्वर भक्ति के कारण वे बाद में बू अली शाह कलंदर के नाम से जाने लगे अर्थात जिसमे सम्पूर्ण गुरु की तरह खुशबू है । उन्हीं के समय में पानीपत में लगभग 80 ऐसे आलिम संत थे जो हर समय अपनी साधना में लगे रहते थे । जिनमें प्रमुख रूप से हजरत मखदूम साहब आदि प्रमुख थे । सुलतान ग्यासुद्दीन बलबन के कोई बेटा नही था जिसकी वजह से वह बेहद चिंतित था । उन्होंने कलंदर साहब से अपनी औलाद के लिए दुआ की गुजारिश की । इस पर उनका कहना था कि एक नही दो बेटे होंगे परंतु बड़ा बेटा उन्हें बतौर शागिर्द देना होगा । सुलतान के दो बेटे हुए और उन्होने अपने वायदा के मुताबिक बड़ा बेटा कलंदर साहब को दे दिया । कलंदरी शागिर्दी में चेला गुरु के अनुरूप ही था । परंपरा के अनुसार उन्होने  अपनी कब्र अपने जीवन काल में ही बनवा ली थी परंतु इसी बीच शागिर्द का इंतकाल हो गया । उस्ताद ने भी अपने इस आज्ञाकारी शिष्य को अपनी आरामगाह देकर खुद उसके पैरों की तरफ अपनी कब्र खुदवाई । पूरी दुनियां में यह एक अजीब मिसाल है कि शिष्य सिर पर है जबकि गुरु पैरों की तरफ है । ऐसा मानना है कि पूरी दुनियां में साढ़े तीन कलंदर हुए है । एक पानीपत में ,दूसरे सिंध में शहबाज कलंदर , तीसरे चिकमगलूर (कर्नाटक) में दादा हयात कलंदर और चोटी इराक में एक महिला राबिया कलंदर हुई है जिसे आधा माना गया है ।
     ये सभी संत स्वयं को सतगुरु का आशिक कहते थे तथा अपने मुर्शीद को अपनी माशूका। वे तमाम जिंदगी शहर में नंग - धरंग घूमते थे क्योंकि उनका मानना था कि शरीर और रूह अलग अलग है और वे अपनी माशूका यानी सतगुरु से रूहानी रूप से मिलना चाहते है ।  फारसी में आशिक तथा माशूक के मिलन की रात को आरिस कहते है । ये संत भी उस दिन का इंतजार करते है जब वे अपनी माशूका से मिलेंगे यानी आत्मा का उस शाह से मिलन अर्थात इस शरीर से मुक्ति । इस मुक्ति को ही उनके सहभागी खुशी और आनंद का दिन मानते थे यानी उर्स के रूप में मनाते थे ।
मैं पीर-ए-इ'श्क़ हूँ मज्नूँ मुरीद है मेरा 
वो आ'शिक़ी में ख़लीٖफ़ा रशीद है मेरा 
फ़रेफ़्ता हूँ मैं जिस पर वो है फ़िदा मुझ पर 
ये हुस्न-ए-तालि’-ओ-बख़्त-ए-सई’द है मेरा 
तुझे हो ई'द मुबारक मुझे गल्ले से लगा 
न कर हिजाब ये इनआ'म-ए-ई'द है मेरा 
कहा अयाज़ ने मा'शूक़ बन के मौला से 
मियाँ तू बंदा-ए-बे-ज़र-ख़रीद है मेरा 
तू सूरत अपनी छुपा कर मुझे सुनाता है 
नज़र ब-ख़ैर तसव्वुर मुफ़ीद है मेरा 
करम से तेरे तो नज़्दीक है किसी दिन आ 
न सोच घर से तिरे घर बई'द है मेरा 
वो कान धर के मिरा माजरा सुने तो कहूँ 
नई कहानी है क़िस्सा जदीद है मेरा 
'तुराब' किस से मुख़ातब हो कल वो कहता था 
ये तेग़-ए-इश्क़ का मारा शहीद है मेरा 
       उसी काल में हेरात से प्रसिद्ध शिक्षाविद एवम आध्यात्मिक गुरु हज़रत ख़्वाजा मलिक अंसारी दिल्ली के तत्कालीन सुलतान बलबन से मिलने के लिए आए । बेशक दिल्ली राजधानी थी परंतु बादशाहो से मिलने के इच्छुक लोगों को पानीपत में ही रुकना पड़ता था । यदि आज के शब्दों में कहो तो ये राजकीय प्रतीक्षा गृह था । मुलाकात का समय मिलने पर ही आगे बढ़ते थे । इसी व्यवस्था का पालन करते हुए ख़्वाजा मालिक अंसारी भी पानीपत में ही रुके और यहीं उनकी मुलाकात हज़रत बू अली शाह कलंदर से हुई । उनकी आध्यात्मिक चर्चा पर अलग से एक पूरी किताब है  जिसमे उनके पूर्वज ख़्वाजा अब्दुल्ला अंसारी  की रूबाइयों को फ़ारसी में प्रकाशित किया है । इस किताब का अंग्रेजी में अनुवाद सर सरदार जोगेंद्र सिंह तथा ऑर्थर जॉन आर्बेरी ने सन 1939 में किया है जिसकी प्रस्तावना महात्मा गांधी ने लिखी थी । इस किताब के 14 संस्करण प्रकाशित हुए और अब पुन: इसे प्रसिद्ध महिला नेत्री तथा योजना आयोग की पूर्व सदस्य डाo सईदा हमीद,जो खुद भी पानीपत की है तथा ख़्वाजा अब्दुल्ला अंसारी की वंशज है के परिचय के साथ प्रकाशित किया गया है ।
       यहां ये बताना बहुत जरूरी है कि हज़रत बू अली शाह कलंदर इस मुलाकात से इतना खुश हुए कि उन्होने ख़्वाजा मलिक अंसारी को परिवार सहित यहीं बसने की दुआ की और उनकी दुआओं का असर यह रहा कि सुलतान बलबन ने ख़्वाजा अब्दुल्ला अंसारी से खुश होकर पानीपत की बड़ी जागीर उन्हें तोहफे के रूप में दे दी ।  ये सभी गृहस्थ संत थे । हजरत बू अली शाह कलंदर ने भी  अब्दुल्ला अंसारी के दो बेटों की शादी अपने समकक्ष संत हजरत मखदूम साहब की दोनो बेटियों से करवाई । पानीपत के जानकार लोग इस बात को बखूबी जानते है कि आज के दिन भी यह शहर राजस्व की दृष्टि से  चार हिस्सों में बंटा है । एक- पट्टी अंसार  ख़्वाजा मलिक अंसारी की जमीनें, दो- पट्टी मखदूम जादगान संत मखदूम साहब की जमीनें,   तीन पट्टी अफगानां और चार पट्टी राजपूतान।
      इन्हीं ख़्वाजा मलिक अंसारी के परिवार में ही सन 1831 में प्रसिद्ध शायर एवम समाज सुधारक ख़्वाजा अल्ताफ हुसैन हाली का जन्म हुआ ।
     हज़रत बू अली शाह कलंदर के वंशज सन 1947 में भारत विभाजन के समय पाकिस्तान चला गया और उनकी 39 वीं पीढ़ी में सज्जादा नशीन आबिद आरिफ नोमानी और उनका परिवार लाहौर में रहता है जबकि हज़रत मखदूम साहब के वंशज बहावलपुर में रहते है ।
     आज से लगभग 1300 वर्ष पूर्व साउदी अरब से हज़रत इमाम बदरुद्दीन साहब धर्म प्रचार के लिए हिन्दुस्तान आए परंतु पानीपत से आगे न जा सके । उनका कहना था कि इस जमीं में रूहानियत की इतनी कशिश है कि वे चाहते हुए भी आगे नहीं जा सकते है । आज भी मोहल्ला इमाम साहब में उनकी मजार है ।
       हज़रत गोस अली शाह का तो किस्सा ही अजीबो गरीब है । उनके बचपन में ही वे अनाथ हो गए थे । एक हिंदू ब्राह्मण पंडित राम स्नेही तथा उनकी पत्नी ने ही उन्हें पाला पोसा। यह माता अपने एक स्तन से अपने पुत्र को दूध पिलाती तो दूसरे से इनको।  उस माता पिता ने इस बच्चे की परवरिश भी इस्लामिक मर्यादाओं से ही की थी। दुर्भाग्य से इनका का अपना पुत्र बचपन में ही गुज़र गया । अब गोस अली की बारी थी । उन्होने भी अपनी इन की एक सुयोग्य पुत्र की भांति ही सेवा की और उनके देहांत होने पर एक हिन्दू पुत्र की तरह तमाम रीति रिवाजों का पालन करते हुए दाह संस्कार किया और यमुना नदी पर जाकर तमाम मजहबी विरोध के बावजूद धोती और जनेऊ धारण कर श्राद्ध कर्म किया ।  उन्हीं गोस अली साहब की दरगाह पानीपत में ही सेक्टर 11-12 में है ।
      हज़रत गोस अली ने अपनी तमाम जिंदगी रूहानियत और इंसानियत के प्रचार के लिए लगा दी ।
      सुप्रसिद्ध सूफी संत बाबा फरीद के पौत्र हजरत शमशुद्दीन तुर्क पानीपती ने भी अपना यही मुकाम बना कर आध्यात्मिक साधना की । उनकी दरगाह भी सनौली रोड पर स्थित है । इस शहर का कोई गली मोहल्ला अथवा गांव नही है जहां किसी न किसी संत का वास नही रहा हो । इन सभी की खासियत यह रही हैं कि ये सभी दिवाली, ईद,होली और अन्य त्यौहार मिल कर मनाते थे। राम - रहीम का सांझा संदेश देते हुए शाह यानी सतगुरु को पाने की बात करते थे।
     पानीपत एक छोटा सा ही इलाका था परंतु यहां गुरु नानक देव जी महाराज पधारे और सन 1882 में आर्य समाज के प्रवर्तक स्वामी दयानंद सरस्वती भी आए । गांव चुलकाना में चुंकत ऋषि ने अनेक वर्षों तक तपस्या की और इस स्थान को सिद्ध किया ।
      उन सैंकड़ों संतो महात्माओं में से कुछ संतो के बारे में ख्याति है जिनके नाम है  इमाम कासिम, इमाम बद्रुद्दीन,इमाम गजरोनी, सैय्यद मेहमूद शाह, सारा फखरुद्दीन इराक़ी, हकाजिर जमील बीबी, ख़्वाजा शमसुद्दीन शाह विलायत, जलालुद्दीन कबीरूल अवालिया उस्मानी, ख़्वाजा कादिर साहब, इब्राहिम उस्मानी, मौलाना हलीम, ख़्वाजा शिवली उस्मानी, मौo अब्दुल कद्दस, हजo निज़ामुद्दीन, सिराजुद्दीन मक्की, सैय्येद अमीर दुलारी, मौo अमान, ख़्वाजा अब्दुल सलाम, जफरुद्दीन साहब, वली अहमद कश्मीरी, ख़्वाजा अम्मान शाह, मुबारक खान, शाह कबीर, मौo गुल हसन, सैय्यद कीवा, सुलातुल अवालिया, मौo अहमदुल्लाह उस्मानी, काज़ी सनाउल्लाह मुहद्दीस , सैय्यद दाऊद, मौo कमर अली, मौo अहमद हसन, मौo कारी रहमान फरवर कुरा जहां, मौo मुहद्दिस अंसारी, शेख अफगान बक्शी, मुहमुद्दीन दुलैर आदि है ।
        आज़ादी के फौरन बाद मास्टर नंद लाल, मौलवी लकाउल्ला तथा लाला देशबंधु गुप्ता के निमंत्रण पर खुद महात्मा गांधी सांप्रदायिक सद्भाव का संदेश देने दो बार पानीपत आए ।  गांव पट्टी कल्याणा में संत विनोबा भावे ने गांधी स्मारक निधि के तत्वाधान में स्वाध्याय आश्रम की स्थापना की जहां प्रसिद्ध गांधीवादी तथा सर्वोदय कार्यकर्ता श्री ओम प्रकाश त्रिखा ने सर्वधर्म समभाव का केंद्र बनाया । उसी समय में पानीपत में विनोबा भावे जी के ही एक अन्य अनुगामी श्री सोम दत्त वेदालंकर के नेतृत्व में खादी आश्रम की स्थापना की गई जिसने इस पूरे क्षेत्र में सर्वोदय चिंतन तथा हरिजन सेवा का काम किया । इस शहर में राजनेता तो बहुत हुए परंतु अध्यात्मिक साधना के पथिक स्वामी सत्यानंद जी महाराज की परम शिष्या शकुंतला बहन जी ने स्वामी जी की उपस्थित में श्री राम शरणं की स्थापना की । के रूप में वर्ष 1967 में सर्वप्रथम स्वामी गीता नंद जी महाराज का पदार्पण हुआ और इन्होंने गीता मंदिर की स्थापना कर गीता ज्ञान प्रवाह का संचार किया । उन्हीं की तीन प्रमुख शिष्यओ साध्वी निष्ठा जी, स्वामी मुक्ता नंद जी महाराज एवम राज श्री माता जी ने क्रमश: समालखा एवम कुरुक्षेत्र मे प्रचार आश्रमों की स्थापना की । 
      उसी श्रृंखला में एक अत्यंत महत्वपूर्ण नाम श्री जिनेंद्र वर्णी जी का है । जिनका जन्म 14 मई,1922 को पानीपत के सुप्रसिद्ध विद्वान स्वo श्री जय भगवान जैन के घर हुआ । केवल 18 वर्ष की आयु में क्षय रोग से ग्रस्त हो जाने के कारण आपका एक फेफड़ा निकाल दिया गया जिसके कारण उनका शरीर सदा के लिए क्षीण तथा रुग्ण हो गया । वर्ष 1949 तक आपको धर्म के प्रति कोई रुचि नहीं थी । अगस्त,1949 के प्रयूष्ण पर्व में अपने पिता जी का प्रवचन सुनने से आपका हृदय परिवर्तन हो गया । पानीपत के ही एक अन्य सुप्रसिद्ध विद्वान पo रूप चंद गार्गीय की प्रेरणा से आपने शास्त्र - स्वाध्याय प्रारंभ की और सन 1958 तक सम्पूर्ण जैन वांग्मय पढ़ डाला। 
    संत विनोबा भावे जी ने सभी धर्म ग्रंथो के मूल तत्व को सरल भाषा में संग्रहित किया है ,परंतु जैन धर्म के ग्रंथो के सार को करने में स्वयम को असमर्थ पाया । उन्होंने जैन धर्म के सभी चार पंथों के आचार्यों से निवेदन किया कि वे एक ऐसा सर्वमान्य धर्मसार पेश करे । बाद में उनके आग्रह पर दिल्ली में दिनांक 29 और 30 नवंबर, 1974 को धर्म संगीती हुई और फिर बाद में एक सप्ताह की चर्चा के बाद जैन धर्म सार "समणसुत्तम" की रचना श्री जिनेंद्र वर्णी जी के नेतृत्व में अनेक संतो ने की । इस पर संत विनोबा भावे ने कहा " आखिर वर्णी जी नाम का एक बेवकूफ निकला और बाबा की बात उसे जच गई । वे अध्ययनशील है , उन्होंने बहुत मेहनत कर जैन परिभाषा का एक कोश भी लिखा।"  
      संत जिनेंद्र वर्णी जी ने जैन धर्म ग्रंथो पर अनेक पुस्तकें लिखी, जिनकी सम्पूर्ण विश्व में ख्याति है ।
     पानीपत के इस बुजुर्ग संत निधन (सल्लेखना) दिo 24 मई, 1983 को हुआ ।

   वर्तमान में इसी क्षेत्र के जी टी रोड पर ही समालखा के एक गांव में निरंकारी मिशन के सतगुरु बाबा हरदेव सिंह जी महाराज ने एक विशाल संत निरंकारी अध्यात्म स्थल की स्थापना की है जहां प्रतिवर्ष लाखों श्रद्धालु इकठ्ठे होकर सेवा , सिमरन एवम संगत का संदेश प्राप्त करते है । इस वर्ष भी दिo 16 से 20 नवंबर तक विशाल संत समागम *रूहानियत और इंसानियत* विषय पर सतगुरु माता सुदीक्षा जी महाराज के सानिध्य में आयोजित किया जा रहा है जहां देश विदेश से लगभग 20 लाख श्रद्धालु एकत्रित हो रहे हैं
    यह सब अकस्मात न होकर इस धरती की अध्यात्मिक साधना की खुशबू है जिससे सभी गुरु जन आकर्षित होते है ।
Ram Mohan Rai
      बाकी शोध का विषय रहेगा उनके बारे में भी जो हजारों की संख्या में गुमनाम है ।
     
राम मोहन राय
26.10.2022.
पानीपत
 शाह कलन्दर फरमा रहे हैं कि >

आशिक अज ईमान खरा बस व हसा अज कुफ्र।
परवाना चिराग हरम हरमोदर नदान्द।

अर्थात आशिक का आदर्श तो परवाना है, जो मन्दिर और मस्जिद की शमा में फर्क नहीं देखता।

भक्तिदर्शन में अहन्ता ममता का विसर्जन और तत्सुखभाव की बात है।
अब देखिये बूअली शाह कलन्दर कह रहे हैं कि >
सरमद गिला इख्तसार मी बायद कर्द।
यक कार अजीं दो कार बायद कर्द।

या
सर बजा ए दोस्त मी बायद दाद।
या
कता नजर अज यार मी बायद कर्द।

अर्थात इश्क में अपनी तमन्ना ही कुरबान नहीं की जाती, प्रेमी मर्जी ए महबूब को अपनी रजा बना ले।मुतालबा ये है कि आशिक अपनी अनानियत [अहंकार] खत्म करदे।खुदी को मिटा दे।

बूअली शाह कलन्दर ने कहा कि > 
यार रा मे बी दर आईना तू दरदर आईना।
सोजो साज ऊ अस्त दरबर तनतना।

अर्थात दोस्त को देखना चाहता है तो देख,हर शीशे में उसी का अक्स है।आवाज भी उसी की है और दर्द भी उसी का है।
बूअली शाह कलन्दर ने कहा कि > 
ता तुई के यार गरदद यारे तू।
चूं न बाशी यार गरदद यारे तू।

तू मबाश असला कमाल ई सत्तो बस
तू दर्दे गम तो बिसाल ई सत्तो बस।

अर्थात जबतक तू अपनी तुई और अपनी खुदी को बाकी रखे हुए है
यार तब तक यार कैसे हो सकता है? जब तुम तुम न रहोगे तब यार यार हो सकता है।

कबीर ने जल को प्रतीक बना कर ईश्वर का प्रतिपादन किया था >
जल में कुंभ कुंभ में जल है,बाहर-भीतर पानी।
लेकिन जब पानीपत में आ कर कलन्दर साहब की वाणी को पढा तो मालूम हुआ कि यह प्रतीक कबीर से बहुत पहले बूअली शाह कलन्दर ने अपनाया था>

गश्त वासिल चूं ब दरिया आबे जू।आबे जूरा बाज अज दरिया मजू।
अर्थात नदी का पानी जब नद में मिल गया तो फिर नद में नदी के पानी को न ढूंड।

आबे दरिया चूं जनद मौजे दिगर।दर हकीकत आब बाशद जलवागर।
अर्थात पानी की लहर पानी से अलग नहीं है।परमात्मा और जगत अभिन्न है।

आप मुझे इजाजत दें तो कहना चाहूंगा कि यह वही विचारधारा है,जिसे हम अद्वैतवाद कहते हैं।
ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किंचिज्जगत्यां जगत्‌ ।

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