Hz Boo Ali Shah Kalandar-Dr Rajender Ranjan Chaturvedi
(डाo राजेन्द् रंजन चतुर्वेदी)
पानीपत शहर के बीचो-बीच मेन बाजार के उस छोर पर एक चौंक है ।यहां खड़े होकर देखिए, किले जैसी चार दीवारों से घिरी वह विशाल और भव्य इमारत। चारों कोनों पर चार बुर्ज और बीच में हरे रंग का विशाल गुंबद । चौंक के एक दरवाजे से निकलकर आप इमारत के मुख्य द्वार पर पहुंचेंगे, जहां आपको गोल मौलवी भी टोपी, लंबी दाढ़ी और काले रंग का लंबा चोगा पहने कई लोग इंतजाम में व्यस्त से नजर आएंगे। यहीं खेल- खिलौनों, स्त्रियों के सौभाग्य प्रतीकों, किताबों,तस्वीरों, अगरबत्ती, धूप, चद्दर और बतासो की कई दुकानें हैं। मुख्य द्वार से आगे चलकर एक विशाल प्रांगण है ।जिसके बाई ओर जलाशय और चबूतरा है तथा दाहिनी ओर कई कमरे और एक ढका हुआ कुआं है ।कहते हैं इसमें एक सुरंग है जो कई मिल तक गई है। सामने जो जालीदार बरामदा दिखाई दे रहा है, बस वही है महात्मा कलंदर की दरगाह।
आज 800 वर्ष बीत गए और इतिहास ने कितनी ही बार करवटें बदली है ।कितनी
सल्तनतें बदल गईं,युद्ध हुए, कितनी क्रांतियां हुई और कितनी ही बार यहां की समूची आबादी ही बदल गई परंतु महात्मा बू अली शाह कलंदर की यह दरगाह अलाउद्दीन खिलजी के जमाने में भी लोक आस्था का केंद्र थी और आज स्वतंत्र भारत में उसका महत्व तीर्थ से कम नहीं है। भारत विभाजन के समय 1947 में यहाँ की समूची मुस्लिम आबादी पाकिस्तान जा बैठी थी। उसने हिंदुस्तान से ममता के सूत्र तोड़ दिए थे और अपने पानीपत को भी भूला दिया था,परंतु बू अली शाह कलंदर उसे आज भी याद है । वे लोग अपनी हज यात्रा यात्रा को तब तक संपूर्ण नहीं मानते जब तक की कलंदर की इस दरगाह पर मत्था नहीं टेक लेते।
हिंदू धर्म के अनेक सुधारवादियो ने हिंदुओं को कई बार समझाया कि मजारों पर जाना और शव की अर्चना करना धर्म विरूद्ध है ।
मुस्लिम विचारकों ने भी मुसलमानों को बताया कि दरगाह पर मिन्नते करना इस्लामी परंपरा के अनुसार तर्कसंगत नहीं,परंतु उनकी वे अक्ल की बातें न हिंदुओं के दिल में उतर सकी और न ही मुसलमानों के। कलंदर बाबा की इस दरगाह पर हिंदू और मुसलमान समान भाव से अपनी दुख -दर्द तथा अपनी अभिलाषाओं को लेकर दुआ मांगने आते हैं और कुछ समय के लिए ही सही अपने उन दायरों को भुला देते हैं और अनायास ही बता देते हैं कि अंततः इंसान सब जगह एक ही सा है। बुद्धिजीवी बार-बार बहस करते हैं तर्क देते हैं कि चमत्कार की बातें केवल वहम है परंतु लोकमानस को जैसे बुद्धिजीवियों की इस बहस से कोई सरोकार नहीं। बुद्धिजीवियों को जो बातें असंभव प्रतीत हो तो बेशक न माने परंतु लोक के पास अपनी कल्पना और अपना विश्वास है और यह लोकमानस
पानीपत की लोक संरचना से संबंधित कितनी ही किंवदंतियों बड़े चाव से कही और सुनी जाती हैं।
सच बात तो यह है कि पानीपत के लोक मानस का अध्ययन कलंदर बाबा के संदर्भ को छोड़कर किया ही नहीं जा सकता। लोकमानस बड़े-बड़े सम्राटों ,बादशाहो,
धनवानोंऔर कलावंतों को उसी प्रकार भुला देता है जैसे रेत पर खींची गई रेखा हवा चलने के साथ ही मिट जाती है परंतु जिसे वह अपना समझता है अपने लिए वह दिल में जगह देता है।
भले ही इतिहासकारों की नजर में वह कितना ही बड़ा आदमी क्यों न हो इस प्रकार दुनिया के बहुत बड़े इलाके में साम्राज्य स्थापित कर लेना शायद इतनी बड़ी बात नहीं होती जितनी बड़ी बात है लोकमानस में अपनी जगह बना लेना। महात्मा बू अली शाह कलंदर ऐसी संतों में थे जो लोकमानस की आस्था का केंद्र बने
बू अली शाह कलंदर को कलंदरिया संप्रदाय का प्रवर्तक माना जाता है । कई विद्वानों के मतानुसार यह संप्रदाय चिश्ती संप्रदाय के अंतर्गत है।इस संप्रदाय के अनुयाई बंदर- भालू नचा कर भीख मांगा करते हैं ,जिनसे साधारण जनता आतंकित भी हो जाती है। स्वामी वाहिद काजमी के अनुसार कलंदरी दरवेशों में अनेक ऐसी प्रथाएं पाई जाती है जो प्राय: नाथपंथी, सन्यासी व योगियों में पाई जाती है- मसलन दाढ़ी- मूछ व
केशों के अलावा भोहे भी मुंडाना ,हाथ व कानों में लोहे के कड़े धारण करना, सिर पर काला रुमाल बांधना तथा कमंडल व दंड धारण करना।
स्वयं में मगन रहने वाले वे लोग प्राय: बहुत अल्हड़ स्वभाव के होते थे । भारतवर्ष के सूफ़ी संप्रदायों के इतिहास को देखने से पता चलता है कि कालक्रम से उन संप्रदायों के अंतर्गत भिन्न-भिन्न उपसंप्रदायों की सृष्टि हुई। बाशरा संप्रदाय वे थे जो शरीयत को मान कर चलते थे लेकिन बेसरा संप्रदायों को इस बात की चिंता नहीं थी कि शरीयत से उनके आचार- विचार का मेल है या नहीं। मेल हो तो ठीक और नहीं हो तो उन्हें इस बात की फुर्सत नहीं कि वे उसे मेल बैठावें। कलंदरी संप्रदाय को बेसरा संप्रदाय के अंतर्गत गिना जाता है जबकि कई विद्वान कलंदर संप्रदाय को संप्रदाय नहीं मानते।
कलंदर शब्द साधना की एक उच्च अवस्था की संज्ञा है। आचार्य परशुराम चतुर्वेदी के अनुसार,' कलंदर शब्द के अर्थ के संबंध में बहुत कुछ मतभेद जान पड़ता है। कुछ लोग इसे ईश्वर के लिए प्रयुक्त सीरियक भाषा का शब्द बतलाते हैं। दूसरों का कहना है कि यह शब्द फारसी के कलांतर (प्रधान पुरुष) अथवा कलंतर ( रूखा पुरुष) से मिलता है। एक अनुमान के अनुसार कलंदर शब्द तुर्की करिंद व कलंदरी से बना है। जो बाजो के लिए प्रयुक्त होता है और कुछ लोग उसका संबंध तुर्कीपाल शब्द के साथ जोड़ते हैं जो विशुद्ध अथवा पवित्र का समानार्थक है।' मौलवी मोहम्मद रफी के 'जामि- उल- लुगात' के अनुसार कलंदर व उससे बना कलंदरी शब्द फारसी से है इसका अर्थ है मुक्तपुरुष अथवा मुक्तावस्था।
शाह कलंदर, बादशाह ग्यासुद्दीन तुगलक के समकालीन थे। सन 1190 में पानीपत में उनका जन्म हुआ। उनका पूरा नाम था शेख शरफुद्दीन कुन्नियत अबू अली कलंदर। आपके पिताजी फौजी खिदमत में थे, उन्हें सालार खिताब मिला था। जिसकी वजह से सालार फखरुद्दीन के नाम से मशहूर थे। उनकी मां बीबी हाफिजा जमाला थी। 'जामियल उलूम' में
फखरुद्दीन साहब के इराक से पानीपत आने का प्रसंग है। इसमें बताया गया है कि उनके पानीपत आने के 4 साल बाद शरफुद्दीन का जन्म हुआ जो बाद में कलंदर बने । ' खजीन तुल अस्सीफया,' तथा' सीरल अफताब' के अनुसार कलंदर साहब के खानदान का सिलसिला ईमाम आजम अबू हनीफ तक पहुंचता है। 'सरफुल मुताकिब' नामक पुस्तक के अनुसार शरफुद्दीन जन्म के बाद रोते ही रहे।तीसरे दिन शेख फखरुद्दीन ने मकान के दरवाजे पर एक चर्म पोश दरवेश को देखा और सलाम किया। दरवेश ने सलाम का जवाब देते हुए फरमाया-" मुबारक हो ,लड़का हुआ है, मैं उसी को देखने के लिए मुंतजीर खड़ा हूं।" फखरुद्दीन साहब दरवेश को अंदर को अंदर ले गए, दरवेश ने बच्चे को देखा तथा उसका चुम्बन करके आयत पढ़ी -' फ इन्न्या तू लू फसम्म
वजहिल्लाह 'अर्थात जिस तरफ मुंह करके देख लो उधर ही अल्लाह है। यह आयत सुनते ही बच्चे की आंख खुल गई और दूध पीने लगा। दरवेश ने भविष्यवाणी की कि यह बच्चा आशिके खुदा होगा।
'शरफुल मुनाकिब' के अनुसार शरफुद्दीन के उस्ताद सिराजुद्दीन मक्की थे। कुछ लोग उन्हें महरौली वाले कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी का शिष्य बताते हैं और कुछ लोगों का मत है कि वे शेख शहाबुद्दीन आशिके खुदा खलीफा इमामुद्दीन अब्दाली के शिष्य थे जबकि उस्मान का विचार है कि आप अपने जमाने के अनेक विद्वानों की सेवा में रहे, किंतु आप की आध्यात्मिक दीक्षा (तरबीयत ) सरदनशी मुंसिफे विलायत जनाब हजरत अली बिन अली तालिब की रूह मुकद्दस से हुई। बुजुर्गाने पानीपत में उल्लेख है कि इस फकीर की तारीख में जो बात साबित हुई है वह यह है कि हजरत अमीरुल मोमिनीन अली रजी अल्लाह अन की रूह मुकद्दस से वे फैजयाब थे। इस प्रकार उन्हें इल्में शरीयत , इल्मेंं
तरिकल, इल्मेंं हकीकत तथा इल्मेंं मुआरिफत (चारों प्रकार का ज्ञान) प्राप्त हुआ। वे 40 साल तक पानीपत रहे। और फिर दिल्ली में हजरत कुतुबुद्दीन ख्वाजा बख्तियार काकी की दरगाह में हाजिर हुए। कलंदर साहब चालीस साल तक मीनार के पास शिक्षा का केंद्र बना कर बच्चों को तालीम देते रहे। वहां रहते हुए विद्वानों व बादशाहों में उनकी इज्जत बढ़ी और उन्हें न्यायाधिकार प्रदान किया गया।
परंतु दिल्ली से एक दिन वे वजीराबाद पहुंचे और कहते हैं कि उन्हें आभास हुआ कि कोई उनसे कह रहा है कि क्या तेरा जन्म इसलिए हुआ था? उन्होंने वहां जमना किनारे रात गुजारी और सुबह हुई तो जितनी किताबे थीं सबको दरिया में डाल दिया। इस प्रकार पीरी और मुरीदी छोड़कर कलंदरी (मुक्तावस्था )अपना ली। मुहर्रम की चौदहवीं में पानीपत आए और उन्होंने फतवा लिखना और किताबें पढ़ना भी भी छोड़ दिया और खुदा के आशिक हो गए।
लोक अनुश्रुति के अनुसार बू अली शाह कलंदर के जमाने में जमुना पानीपत शहर के बीच से प्रवाहित होती थी। बू अली ने 60 वर्ष तक खड़े होकर तप किया था। इस बीच मछलियों के काटने से उनकी टांगों में घाव हो गए थे। उस समय उन्होने यमुना से प्रार्थना की कि वे सात कदम हट जाए। तभी से यमुना पानीपत से सात कोस दूर चली गई। कहते हैं कि वे बूढ़ाखेड़ा में भी कुछ समय तक रहे थे । उनकी आध्यात्मिक साधना और बढ़ते प्रभाव को देखकर तत्कालीन मुफ्ती लोगों ने हस्ताक्षर करके हजरत ख्वाजा नसीरूद्दीन तथा ख्वाजा मसअद के सामने शिकायत पेश की कि कलंदर नमाज नहीं पढ़ता तो ख्वाजा ने काजी से कहा कि हजरत मस्त मजूब फकीर है। उस पर शरियत का कानून लागू नहीं होता। अनेक बादशाह हजरत कलंदर की सेवा में हाजिर होते थे परंतु कलंदर साहब उनकी उपेक्षा करते थे। बादशाहों के उपहार कबूल नहीं करते थे । उनका अंदाज बेहद कलंदराना था। वे कहते थे कि मेरे लिए अल्लाह ताला का खजाना बाकी है, हर शख्स अपना हिस्सा मुझसे ले जाता है पर मेरा खजाना ज्यों का त्यों बाकी रहता है । वे कहते हैं-
जुहदे तकवा चीस्त ए मर्दे फ़कीर।
लातया बूदन जे सुलतानों अमीद।।
अर्थात ए मर्दे फकीर जुहदा (इबादत) और तकवा( संयम) क्या है? जुहदा तकवा यह है कि किसी बादशाह या दौलतमंद से कोई तवक्का (संपर्क ना रखना)। कलंदराना दौलत के संबंध में उनका कहना था-
कि पुरसी चै कसनिय बचा सामान दरियम ।
आँच हींच नीरजद बुजहाँ
औदारियन।।
तुम पूछते हो कि हम कौन हैं! क्या सामान हमारे पास है! हमारे पास वह समान है कि दुनिया की कोई चीज इसकी कीमत नहीं पा सकती।
अमीर खुसरो जब अलाउद्दीन खिलजी के भेजे उपहार लेकर शाह कलंदर की सेवा में पानीपत आया उस समय कलंदर गा रहे थे-
वहीन खुसरवां वरआ फैले
अस्तरस्त।
खुसरै कसेके खलअत ए तजरिये दरबरस्त।।
अर्थात जिसने अकिंचनता का राज्य पा लिया है, उसके लिए बादशाहों के ताज जूतियों के तले बराबर है।
ग्यासुद्दीन का लड़का मुबारक खां कलंदर साहब का शिष्य था और उसके प्रति उनका प्रेम अलौकिकता की सीमा में पहुंच चुका था। एक बार मुबारक खां को पिता के आदेश से सवेरे ही कहीं यात्रा के लिए प्रस्थान करने की सूचना मिली तो उसने दोहा लिखा -
सजन सकारे जायेंगे नयन भरेंगे नीर
विधाता ऐसी रैन कर यार कदी ना होए
फारसी में उसका भावार्थ इस प्रकार लिखा-
मन शुनिदम मारे मन फरदा रवद राहे शिताब
या ईलाही ता कयामत बर
नयामद आफताब
अर्थात मैंने सुना है कि भोर की बेला में शीघ्र ही मेरा मित्र प्रिय यात्रा पर चला जाएगा। हे ईश्वर प्रलय तक सूर्योदय ही न हो।
कलंदर साहब को संगीत से गहरा प्रेम था। एक बार रोजों के दिनों में जुम्मा की रात को आपने मौलाना सिराजुद्दीन रुकबी से संगीत का आग्रह किया और इब्राहिम के लड़के को बुलवाकर ये गजल सुनी-
सारबान बा अस्तरान मस्त दर रफ्तार मस्त
मीर मस्त व ख्वाजा मस्त यार मस्त अगयार मस्त
कलंदर साहब की मातृभाषा फारसी थी तथा इलमी और कानूनी भाषा अरबी थी, आपका दोनों भाषाओं पर तो अधिकार था ही, आपने ब्रजभाषा में भी कई दोहे लिखे थे। रत्न पिंडोरवीं की पुस्तक 'हिंदी के मुसलमान
शुअरा' के अनुसार हजरत निजामुद्दीन औलिया के साथ आपका पत्रात्मक संवाद हिंदी
दोहो में ही होता था ।
'शेख शरफुद्दीन बू अली शाह कलंदर खलफ सालार फखरुद्दीन बिन सालार हसन बिन सालार अजीज बिन, अबू बकर गाजी बिन फारस बिन, अब्दुल रहमत बिन, अब्दुल रशीद बिन, मोहम्मद बिन बांक बिन इमाम नोमान हबू, अनीफा कोफी बिन, साबित बिन, नोमान बिन, अल्लाह ताला अन।'
कलंदर साहब ने मुख्य रूप से फारसी में ही साहित्य रचना की है। यूसुफ मोहम्मद शाह ने दीवाने कलंदरी में उनकी गजलों का संग्रह किया था। उसमें मसनबी ए दीवान मजकूल के कुछ शायर है और इनके अलावा भी 1700 शाअर हैं। बताया जाता है कि उनके शाअरों की संख्या 4000 है और दीवाने पानीपत के लेखक के अनुसार यह संग्रह मोहम्मद बशारत अली तले गुंबद सुल्तान शाही हैदराबाद दखन में उपलब्ध है। स्वामी वाहिद काज़मी के अनुसार दरवेशी के बाद प्रणीत आपके दो सूफी ग्रंथों की जानकारी मिलती है।
1 कंजूल असरार तथा 2 रिसाला ए इश्किया । बुजुर्ग ने पानीपत के लेखक का तर्क है कि मसनबी बू अली शाह कलंदर से मालूम होता है कि वह उस जमाने की रचना है कि जब कलंदर साहब ने तमाम फतवा ए किताब दरिया में डाल दिया का पहला शेर है -
मरहबा ए बुलबुल बागे रहन
अजगुले साबगोबाया सरवन
अर्थात ए पुराने बाग के बुलबुल खूब आई इस गुलिस्तान की कुछ बातें तो कहो । कलंदर साहब की रचनाओं के विषय है मारूफ (भक्ति), हकीकत ए सच्चाई (सत्य का अनुसंधान ), तोहिद (अनन्यता), तर्के दुनिया (सांसारिकता का त्याग), आखिरत (मृत्यु के बाद खुदा ताला से मिलना) तथा मोहब्बतें मौला (ईश्वर प्रेम) । उनके काव्य में अद्वैत तथा प्रेम की महिमा
सुनाई देती है। जिस प्रकार
अद्वैतवादी आत्मा के परमात्मा में मिल जाने को मुक्ति बतलाते हैं उसी प्रकार कलंदर साहब की वाणी है-
गस्ते वासिल चु ब दरिया आबे जू
आबे जुराबाज अज दरिया यजू
नदी का पानी जब नदी में मिल जाए फिर तू उसमें नदी के पानी को ना ढूंढ।
ईशावास्य मिदं सर्वम यतिंकच जगत्याम जगत
हर जगह उस एक ही परमात्मा की महिमा व्याप्त है, जो कुछ तू देखता है सब में वही है, शमा और परवाना भी वही है तथा फूल और बुलबुल भी वही है। कलंदर के शब्दों में-
हर चे बीनी दर हकीकत जुमल आस्ते ।
शंभोगुल परवाना बुलबुल हम अजोस्ता ।।
इसलिए वे कहते है कि-
यार रा में बी दरआईना तू दरहर आईना।
सोजो साज़ उअरस्त दरबर
तनतना।।
अर्थात दोस्त को देखना चाहता है तो देख । हर शीशे में उसी का अक्स है, आवाज भी उसी की है, दर्द भी उसी का है और संगीत का स्वर भी उसी का है।
बू अली शाह कलंदर साहब सर्वत्र अपने महबूब के कमाल का ही दर्शन करते हैं। उनका विचार अद्वैतवाद के बहुत समीप है। वे कहते हैं कि आत्मा पानी है और शरीर बुलबुला है। यदि शरीर न रहेगा फिर पानी ही पानी है। कबीर के शब्दों में-
'फूटा कुंभ जल जलही समाना' जिस प्रकार जल और जल की लहर में तात्विक भेद नहीं है। उसी प्रकार परमात्मा और जगत अभिन्न है।
आबे दारिया चू जनद मौजू दिगर।
दर हक्कित आब बाशद जल
वागर।।
पानी की लहर पानी से अलग नहीं है । वास्तव में वह सब जल ही जल है।
कलंदर साहब का मुख्य सिद्धांत इश्क है। वे कहते हैं कि मैं हमेशा उससे इश्क बाजी करता हूं। क्योंकि इश्क वो जौहर है जिसकी बुनियाद पर हजरत ए आदम अल्ह वसल्लम मकसद में कामयाब हुए। उनका एक शेर है-
इश्क अव्वल इश्क आखिर इश्क विश्क शाखों इश्क नखरो इश्क गुल
उन्होने अपने शिष्य बख्तियार उद्दीन को अपने पत्र में लिखा था कि - ऐ भाई आशिक बनो, दोनों जहानों को माशूक का हुस्न समझो और खुद को भी माशूक का हुस्न मानो। माशूक ने इश्क से ही तुम्हारा यह भौतिक अस्तित्व बनाया है। ताकि आईने में अपने सौंदर्य को निखार सके तथा अपने रहस्यों का ज्ञाता बनाए रखें। इसलिए ऐ भाई खुद की तलब में जुट जाओ ,खुद को पहचानो ,जब अपने नफस को पहचान लोगे तो उसके रहस्यों को भलीभांति जान पाओगे । आशिक बन कर जब माशूक को बगल में देखोगे तो हुस्न का दीदार अपने ही दिल के आईने में कर सकोगे । यह
दुनियावी आशिक जो दुनियादारी के हुस्न पर लट्टू हो गए हैं , इश्क की भूल भुलैया में बिल्कुल खो गए हैं। उनको बिल्कुल नहीं सूझता कि इस पूरी दुनिया में हकीकी महबूब का कब्जा है, जो जिस तरह चाहता है करता है और जिस तरह चाहेगा वैसा करेगा। किसी को भी उसकी मंशा में दखल देने का कोई हक नहीं।
प्रेम की महिमा को बखानते हुए कलंदर साहब फरमाते हैं-
सरदम झिला इख्त सारकी बायद कर्द ।
यक कार अजी दो कार बायद कर्द।।
या सरबजा दोस्त मी बायद दाद।
या कता नज़र अज़ यार मी बायद कर्द।।
अर्थात इश्क में अपनी तमन्ना ही कुर्बान नहीं की जाती, सिर्फ वही मांग नहीं होती कि प्रेमी मर्जी ए महबूब को अपनी रजा बना ले, बल्कि मुतालवा ये है कि आशिक अपनी अनानियत (अहंकार ) खत्म कर दें । अपने अस्तित्व को समाप्त कर दे। वे कहते है कि तुम अपनी हस्ती शख्सियत (व्यक्तित्व) को खत्म कर दो, बस यही है कमाल। तुम महबूब में गुम हो जाओ। यही है बिसाल और बस। उनका एक शेर है-
ता तुई के यार गरदद यारे तू
चूँ न काशी यार गरदद तारे तू।
तू मबाश असला कमाली सुन्नों
बस्तू दर्दे गम तो वियासी
सन्नोंबस।
अर्थात जब तक तू अपनी तुई और अपनी खुदी को बाकी रखे हुए हैं, यार तब तक यार कैसे हो सकता है? जब तक तुम न रहोगे तब यार यार हो सकता है।
कलंदर साहब के विचार से अगर आशिक के दिलों- दिमाग में मैं का तसव्वुर (अहंकार) बाकी है तो वह सच्चा आशिक नहीं है, छल है। इश्क और मैं दो विपरीत चीजें हैं। जब तक मैं या ना बाकी है, जब तक गुरूर मौजूद है तब तक परमात्मा का ख्याल नहीं आ सकता। हकीकत समझ कि सब जगह वही है, वही है। जब दिल में इश्क पैदा होगा तभी जज्बाये हुस्न (सौंदर्य का साक्षात्कार होगा) और जब नजरों के सामने सौंदर्य देखा जाएगा तभी माशूक को पहचाना जा सकेगा और तभी सही माशूक बना जा सकता है।
कलंदर के मतानुसार आशिक का आदर्श परवाना है । वह परवाना ही है जो मंदिर और मस्जिद की शमा में फर्क नहीं जानता।
आशिक अज इमान खराबस
बाहसा अज
कुफ्र परवाना चिराग हरम हर मंदिर नदा
प्रेम के स्वरूप का विवेचन करते हुए बू अली कहते हैं कि जहां कातिल को बस बद्दुआओं के बजाय दुआएं दी जाती हैं ऐसे मुकाम पर कोई कलम दवात ले कर क्या करेगा। कहां से कागज लाएगा कि वे किताबे इश्क की
तफसीर लिखे। नफरत का बीज ही खत्म हो जाए तो नफरत कहां से आएगी ।
कलंदर साहब का विचार है कि हमारी शरीयत में किसी से दुश्मनी रखना कुफ्र है। सीना (हृदय) को आईने की तरह स्वच्छ रखा जाए।
कुफ्रसत दर शरीयत माकीना
वासतन।
आइन मास्त सीना चूँ आईना
दासतन।।
बू अली का विचार है कि भक्ति के मार्ग में जिसका हृदय दर्पण के समान स्वच्छ है वही कण -कण में खुदा को पा सकता है -
हर के शुद बहरे इरफां आईना। जर्रा -जर्रा कतरा दानद अज़ खुदा।।
जिसका दिल साफ नहीं है , बू अली के विचारों में वह सच्चा सूफी नहीं है । वह ऐसे सूफी से कहते हैं कि तेरा दावा तो यह है कि मैं सूफी हूं किंतु तेरा दिल साफ नहीं है। श्रीमान जी, कृपा कीजिए और अपने चमत्कारों की शेखी न बघारिए।
सुफीयन गोई मदारी सीना साफ।
अज करामत हाय खुद शेखा मलाफ।।
कलंदर साहब आडंबर के विरोधी थे । उनका कहना था कि जाहिद और तक्वा यह नहीं है कि मखलूफ के खातिर सूफ़ी बनो और पुरानी गुदड़ी पहनो। शाना (कुरान शरीफ को रखने का बस्ता) भी हो और मिस्वाक (दातुन ) भी हो। नुमाइशी तस्वी (दिखावटी माला) भी हो और जुब्बा (चौगा, लंबा कुर्ता ) तथा दस्तार ( पगड़ी) भी हो। मगर दिल इस तरह गंदा रहे-
जाहिदो तक्वा नीशत कज़
बहर खलक सूफ़ी बाशी
व पोशी कहना पिलक शाना,
मिसवाक व तसवाक व रिया जुब्बा।।
परोपदेशे पांडित्यम तथा कथनी और करनी के अंतर पर प्रहार करते हुए कलंदर साहब का तेवर विद्रोही हो जाता है-
वायज गोई खुद तिमारी दर अमल।
चश्म पोशी हम चूँ शैतान दगला।।
दूसरों को बाज़ (उपदेश) और खुद अमल नहीं? मक्कार शैतान की तरह आंखें बंद कर ली है? वे कहते हैं कि औरतों और मर्दों को फंसाने के लिए जाल फैलाता है , धोखेबाजी करता है और कहता है कि मैं जमाने का सबसे बड़ा शेख हूं।
दाम अंदाजी बराये मर्दों जन।
खेशरागोई मनम शेखै जमन
मुम में फंसे ऐसे अज्ञानी व्यक्ति से वे कहते हैं कि तू खुद इंसाफ कर। देख , कि तेरा दिल धोखे से भरा है और बगल में कुरान है-
खुद बहेद इंसाफ ऐ अहले दगल।
दिल पुरस्त अज़ मक मुसहिफ दर बगल।।
कलंदर साहब का विचार है कि जिसकी वृत्तियां पाप की है, वही काफ़िर है और गलती के लिए नरक की अग्नि और संताप भोगने होंगे-
नफस काफिर तो बुअद हमराहे ता
आतिशे दोजख बुअद जां काते तो।
दौलतमंदों के संबंध में उनका विचार था कि दौलतमंदों के दिलों में रहम नहीं है, दौलतमंदो का तरीका धोखा, मक्कड़ व फरेब है। वे कहते हैं कि दुनियादारों की हालत यह है कि सोना- चांदी और माल की खातिर अगर हो सके ,तो जिगर का खून भी पी जाए। लालच लोभ के संबंध में उनकी स्पष्ट मान्यता थी कि पैसे से लालच बढ़ जाता है और पिता और पुत्र का प्यार भी समाप्त हो जाता है-
हिर्स अफूजूँ में शबद अज़
मालोज़र।
कत आ गरदद हुब्बे फर्ज दो पिदर।।
बू अली कलंदर ने संसार का अनुभव किया था। उन्होंने संसार का व्यवहार देखा और यही कहा कि:-
अज़ जहाँ मेहरों वफा मादूम शुद।
हाले महुर्म यक बयक मालूम शुद।।
अर्थात क्या संसार से दया और सत्य समाप्त हो गए हैं। उन्होंने लोगों की प्रवृत्तियों के संबंध में कहा है कि:-
शहवतो खावो खुरश दारी मदाम।
अज़ इबादत काहिली ओ ना तमाम।।
अर्थात इंसान हर समय कामवासना, नींद और भोजन के संबंध में करता है, उसी के लिए सदैव प्रवृत रहता है तथा ईश्वर उपासना के प्रति वह उदासीन है।
कलंदर साहब सौंदर्य के उपासक थे। दही बेचने वाली एक गुजरी की सुंदरता की अनुभूति अपने इन शब्दों में की थी कि-
ऐ गुजरी दर हुस्ने लताफत चूं ही
ई देग ए दही सर ए तो जाज ए सही
अज़ लाल ए लबत शीशे शकर भी बारद
हर गाह के बगोई दही लो जी दही
अर्थात तेरे इस सुंदर रूप पर तेरे सर पर दही का मटका ऐसा है जैसे तेरे सर पर राजमुकुट हो। जब तू जगह- जगह आवाज लगाती है, दही लो जी, दही तो तेरी वाणी से मिठास टपकती है। कलंदर साहब की काव्य संपदा बहुत विशाल है। बुजुर्ग ने पानीपत के अनुसार उसका महत्व शेखसादी के साहित्य की श्रेणी का माना जाता था और फारसी साहित्य पढ़ने वाले कलंदर के काव्य का अध्ययन करते थे एवं जमाने को उनका साहित्य बहुत पसंद था। आज वह क्लासिक फारसी जानने वाले लोग इन्हें गिने हैं । फिर भी उर्दू के लोक टीकाकारों ने उनके फारसी काव्य की टीकाएं भी की है। परंतु आज स्थिति यह है दिन प्रतिदिन उर्दू जानने वालों की संख्या भी कम होती जा रही है । हालांकि पानीपत में उर्दू जानने वाले लोग अन्य शहरों की अपेक्षा कम नहीं है। फिर भी साहित्यिक अभिरुचि का प्रश्न अपनी जगह है। यह जानकर आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि पानीपत जो मुस्लिम देशों में कलंदर के कारण से जाना जाता है वहां कलंदरी साहित्य का मर्मज्ञ खोजे से भी नहीं मिला। हालांकि दो-चार लोगों के घर कला में कलंदरी की प्रतियां जरूर पड़ी है। आवश्यकता इस बात की है कि उनके फारसी काव्य की देवनागरी लिपि में और उनके उर्दू टीका का हिंदी में रूपांतर किया जाए। कलंदरी काव्य के अध्ययन और विवेचन के लिए यह बहुत ही जरूरी है। इससे न केवल कलंदरी काव्य को पुनर्जीवन प्राप्त होगा अपितु हिंदी के निर्गुण काव्य की पृष्ठभूमि प्रकाशित होगी । तत्कालीन सामाजिक सांस्कृतिक परिस्थितियों और तत्कालीन चिंतन के इतिहास की बहुत सी अनसुलझी ग्रंथियां सुलझेंगी और इतिहास की अंधेरी गलियों में प्रकाशित हो सकेंगी। इसमें तनिक भी संदेह नहीं है कि जब कलंदर साहब का काव्य हिंदी में अनुदित होगा तो हिंदी साहित्य के इतिहास को अनेक नए तथ्य प्राप्त होंगे। इराक और ईरान से आई काव्य परंपरा आगे चलकर हिंदी में इस तरह अंतर्मुख हुई। दोनों काव्य परंपराओं ने एक दूसरे से क्या लिया और एक दूसरे को क्या दिया और जो चिंतन आगे बढ़ा उसमें उसके योगदान भक्ति आंदोलन की पृष्ठभूमि जानने के लिए कलंदर साहब का जान लेना आज जरूरी लग रहा है।
Comments
Post a Comment