Buzurgaan-e -Panipat (Shri Jinendra Varni ji Maharaj)

*श्री जिनेन्द्र वर्णी- जीवन दर्शन* 

अध्यात्मयोगी, परम तपस्वी, अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी बाल ब्रह्म परम श्रद्धेय गुरुदेव श्री जिनेन्द्र वाणी जी के  जीवन की झांकी तथा संस्मरण प्रस्तुत करते हुए मुझे अपार हर्ष का अनुभव हो रहा है। उनका जीवन दर्पण जन-जन के लिए एक आदर्श प्रेरणा स्रोत था प्राणी मात्र उनके जीवन से अपने जीवन प्रेरणा पाकर अलौकिक पथ पर अग्रसर हो सके। ऐसी हमारी हार्दिक भावना है।

प्रारंभिक जीवन:-
 श्री जिनेन्द्रवर्णी जी का जन्म 14 मई 1922 को पानीपत के सुप्रसिद्ध विद्वान श्री जयभगवान, एडवोकेट के घर हुआ था। अध्यात्म व त्याग की अमूल्य सम्पत्ति इनको पैतृक रूप में हो प्राप्त हुई थी। बचपन में ही आपका शरीर क्षयरोग से ग्रस्त हो गया। इस असाध्य रोग को दूर करने के लिए डॉक्टरों ने मांस, अंडे, कॉड लीवर ऑयल और इसके इन्जेक्शन लेने को कहा, परन्तु शरीर रक्षा के लिए, प्राणीवध से बनी अभक्ष्य वस्तुओं का सेवन करना स्वीकार नहीं किया। इस प्रकार प्रारम्भ से ही शरीर के प्रति निरासक्त थे। जब मात्र की रक्षा का भाव आपके हृदय में परिपूर्ण था। आज के युग में इसकी नितान्त आवश्यकता है। क्षयरोग के कारण आप एक फेफड़ा निकाल दिया गया। आप आजीवन एक फेफड़े को लिए हुए ही आत्मिक बाल को संजोए हुए मोक्ष मार्ग की यात्रा पर अग्रसर रहे उस समय आप केवल 16 वर्ष के थे।

प्रारम्भ से ही बुद्धि कुशाग्र और दृष्टिकोण वैज्ञानिक था। ज्येष्ठ पुत्र होने के कारण छोटे भाइयों को व्यापार में लगाया और स्वयं निरासक्त होकर आत्मकल्याण के पथ पर अग्रसर हुए।

अध्यात्म के पथ पर:
     सन् 1949 में पर्युषण पर्व पर आपने पिता श्री जयभगवान जी का प्रवचन सुनकर हृदय धर्मपथ की ओर झुक गया। विवाहित जीवन स्वीकार नहीं किया। 1950 में पानीपत के प्रसिद्ध विद्वान पं. रूपचंद जैन गार्गेय की प्रेरणा से स्वतन्त्र रूप से स्वयं शास्त्र स्वाध्याय की । आप ग्रन्थ को जब तक तीन बार अवलोकन नहीं कर लेते थे तब तक संतुष्ट नहीं होते थे। स्वाध्याय की इसी विशेषता के कारण ही आगे जाकर 'जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष' जैसी अमूल्य निधि का प्रादुर्भाव हुआ। 1954-55 में आप सोनगढ़ गए। वहाँ से आकर वैराग्य की तीव्र भावना जागृत हुई। इसी कारण 1957 में आप अणुव्रत कर गृहत्यागी हो गए और मंदिर में ही रहने लगे। 1961 में आपने ईशरी में क्षुल्लक दीक्षा ग्रहण की। 1949 से लेकर 1965 तक 15 वर्ष तक आपने जिनवाणी का गहन अध्ययन करते हुए जो नोट्स लिए उनका वजन 40 किलो के लगभग हुआ। इन्हीं नोट्स के आधार पर श्री जिनेन्द्र सिद्धांत कोष के चार भागों का प्रादुर्भाव हुआ।

अमृतमयी प्रवचन- 
   पानीपत, रोहतक, नसीराबाद, महारनपुर, इन्दौर, ईशरी, वाराणसी, भोपाल आदि विभिन्न स्थानों पर आपके अनेक
 चातुर्मास हुए। ये स्थान आपकी चरणधूलि से पवित्र हुए और यहाँ के भव्य प्राणियों के हृदय आपको अमृतमयी वाणी से सिंचित हुए। आपके मुख से निस्सृत प्रत्येक वाक्य अपने आप में एक सिद्धांत एवं आदर्श था। श्रोताओं के हृदयों को मंत्रमुग्ध कर उनको सत्यजीवन की प्रेरणा देने वाला था। जो भी सच्चे हृदय से आपके प्रवचन सुनता था वह नतमस्तक हो आपका अनुगामी हो जाता था । अध्यात्म भावनाओं से ओतप्रोत आपके वचन जीवन में शान्ति और समता को जगाने वाले होते थे। सहारनपुर में होने वाले आपके प्रवचनों का संग्रह "शान्तिपथ प्रदर्शन" आज भी अध्येता को शांति गंगा में आप्लावित कर देता है। इन्दौर में हुए प्रवचनों का संग्रह "न्याय दर्पण" है जिसमें स्यादवाद सिद्धान्त को सरल भाषा में समझाया गया है। नसीराबाद में दिए हुए शिक्षण का संकलन "जैन सिद्धान्त शिक्षण" पुस्तक के रूप में प्रकट हुआ। भोपाल में दिए गए प्रवचनों का संग्रह "कर्म रहस्य" पुस्तक में निबद्ध है। वाराणसी में भदैनी स्थित सुपार्श्वनाथ के मंदिर में आपके जीवन के अंतिम 12 वर्ष विशेष साधना का समय था। वहाँ पर अधिकांश एकांत व मौन जीवन बिताते थे। उस अवधि में भी आपने "महायात्रा", "सत्यदर्शन", "उपनिषद संग्रह" जैसे उपयोगी ग्रंथों को लिखा व अपने भक्तों को पठन-पाठन कराकर अमृत जीवन की प्रेरणा दी। रोहतक में रहते हुए आपने जहाँ "भक्तामर स्त्रोत", "तत्वार्थ सूत्र जैन सिद्धांत शिक्षण" को पढ़ाया वहां "धवला" जैसे सिद्धांत ग्रंथों को भी सरल ढंग से समझाने की आपकी विचित्र शैली थी।

अपूर्व श्रुतज्ञानी:-
     द्रव्यानुयोग, करणानुयोग और चरणानुयोग सभी विषयों को आबालवृद्ध हृदयगम कर अपने को कृतकृत्य समझते थे। उनके ज्ञान की व्यापकता, सहजता और उदारता को देखते हुए आचार्य श्री विद्यासागर जी ने कहा था कि वे वर्तमान समय में ज्ञान की दृष्टि से गौतमगणधर केवली के समान है। उनका ज्ञान इतना महान है कि उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश के उपलक्ष्य में आयोजित स्वागत समारोह में उपस्थित मुनि वृन्द, ने भी कहा था कि "पद में हम बड़े हैं परन्तु ज्ञान में वर्णी जी श्रेष्ठ हैं"। अनेक संस्थाएं मिलकर भी "जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष" जैसे ग्रंथ को नहीं बना सकती जिन्हें कृश काया में रहते हुए अकेले वर्णी जी ने संपन्न कर दिखाया।

कृशतन दृढ़मन:-
 आपका तन भले ही कृश था परन्तु मन दृढ़ था। दृढ़ संकल्प पूर्वक अनवरत 18 घंटे तक लेखन पठन पाठन करना तपस्या पूर्वक जीवन बिताना अल्प आहार लेना और अंत में सल्लेखना जैसे कठिनव्रत को धारण करना यह आपके दृढ़ संकल्प शक्ति के द्योतक हैं।

प्रमुख शिष्यवर्ग एवं प्रमुख ग्रंथ:-
    आपके मधुर वचनों से विशेष रूप से प्रभावित होकर शिष्यत्व ग्रहण करने वाले और अनुगामी बनने वाले  ब्र. कु. कौशल पानीपत, ब्र.डा.कु. मनोरमा जैन (रोहतक) ब्र. अरिहन्त कुमार जैन (रोहतक), ब्र.डॉ.कु. निर्मला जैन (वाराणसी)। इनके अतिरिक्त सुरेश कुमार जैन पानीपत, सुरजजैन गाजियाबाद, महेन्द्र जैन पानीपत, शांतिलाल जैन, नसीराबाद, पं. राजमल जी जैन, भोपाल। ये आज भी धर्मपूर्वक अपना आध्यात्मिक जीवन बिता रहे हैं।

आपके प्रमुख ग्रन्थ हैं :- शान्ति पथ प्रदर्शन, न्याय दर्पण, कर्म सिद्धांत, कर्म रहस्य, वर्णीदर्शन, समणसुत्तं, महायात्रा, पदार्थ विज्ञान, कुन्दकुन्ददर्शन, सत्यदर्शन, अध्यात्म लेखमाला, प्रभुवाणी जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष- पांच भाग, सर्वधर्म समभाव, जैन सिद्धांत शिक्षण ।

"समणसुत्तं" की रचना:
     आपके जीवन की अनुपम कृति "समणसुत्तं" रही   जो आपने संत विनोबा भावे जी की प्रेरणा से लिखा । यह ग्रंथ जैन धर्म के सभी मतों में सर्व मान्य है । इसकी पूर्णता पर  जैन धर्म के सभी संत मुनियों ने एक पत्र विनोबा जी को लिखा जो निम्नलिखित है :-
मुनियों का पत्र विनोबा जी के नाम
*****
 ANUVRAT VIHAR

वीर-निर्माण तिथि २४-१-२५०१

भद्रपरिणामी, धर्मानुरागी श्री आचार्य विनोबाजी

आपके समभावपूर्ण चिन्तन और सामयिक सुझाव को ध्यान में रखकर 'जैन- धर्म-सार' और उसका नया रूप 'जिणधम्म' की संकलना हुई, उसमें श्री जिनेन्द्रकुमार वर्णीजी और अनेक विद्वानों का योग रहा। सर्व-सेवा-संघ तथा श्री राधाकृष्ण बजाज के अथक परिश्रम और प्रयत्न से संगीति की समायोजना हुई। संगीति में भाग लेने वाले सभी आचार्यों, मुनियों और विद्वानों ने आपके चिन्तन का अनुमोदन किया और समग्र जैन-समाज सम्मत 'समणसुत्तं' नामक एक ग्रंथ की निष्पत्ति हुई, जो भगवान् महावीर के 25 सौवें निर्वाण-वर्ष के अवसर पर एक बड़ी उपलब्धि के रूप में स्वीकार किया गया। दिनांक 29- 30 नवंबर 1974 को संगीति हुई, जिसमें ग्रंथ का पारायण किया गया। आचार्यों, मुनियों और विद्वानों के परामर्श, समीक्षाएँ और समालोचनात्मक दृष्टिकोण प्राप्त हुए। अन्त में ग्रन्थ के परिशोधन का भार मुनियों पर छोड़ा गया और वर्णीजी का योग साथ में रखा गया। एक सप्ताह की अवधि में मुनियों ने बार-बार बैठकर चिन्तनपूर्वक ग्रंथ का परिशोधन किया। इसमें हमें पूरा सन्तोष हुआ है। अब हम चाहते हैं कि इस ग्रन्थ का आप गहराई से निरीक्षण करें और धम्मपद की भाँति इसके क्रम की योजना करें और भी जो सुझाव हों, वे आप दें। हम सबको इससे बड़ी प्रसन्नता होगी।

संगीति की विभिन्न बैठकों के अध्यक्षगण 
 
हस्ताक्षर :विद्यानन्द मुनि 
 हस्ताक्षर : मुनि जनक विजय
हस्ताक्षर विनोबा जी: राम हरि
हस्ताक्षर: मुनि सुशील कुमार
हस्ताक्षर: मुनि श्री नथमल जी
हस्ताक्षर: जिनेन्द्र वर्णी( ग्रंथ संकलन कर्ता)
दिनांक : 12.12.1974.
"समाधान"
(विनोबा जी के पुस्तक के बारे में विचार)
मेरे जीवन में मुझे अनेक समाधान प्राप्त हुए हैं। उसमें आखिरी, अन्तिम समाधान, जो शायद सर्वोत्तम समाधान है, इसी साल प्राप्त हुआ। मैंने कई दफा जैनों से प्रार्थना की थी कि जैसे वैदिक धर्म का सार गीता में सात सौ श्लोकों में मिल गया है, बौद्धों का धम्मपद में मिल गया है, जिसके कारण ढाई हजार साल के बाद भी बुद्ध का धर्म लोगों का मालूम होता है, वैसे जैनों का होना चाहिए। यह जैनों के लिए मुश्किल बात थी, इसलिए कि उनके अनेक पन्थ हैं और ग्रन्थ भी अनेक हैं। जैसे बाइबिल या कुरान है, कितना भी बड़ा हो, एक ही है। लेकिन जैनों में श्वेताम्बर, दिगम्बर ये दो हैं, उसके अलावा तेरापन्थी, स्थानकवासी ऐसे चार मुख्य पन्थ तथा दूसरे भी पन्थ हैं और ग्रन्थ तो बीस-पच्चीस हैं। मैं बार-बार उनको कहता रहा कि आप सब लोग, मुनिजन, इकट्ठा होकर चर्चा करो और जैनों का एक उत्तम, सर्वमान्य धर्मसार पेश करो। आखिर वर्णीजी नाम का एक 'बेवकूफ' निकला और बाबा की बात उसकी जँच गयी। वे अध्ययनशील हैं, उन्होंने मेहनत कर जैन- परिभाषा का एक कोश भी लिखा है। उन्होंने जैन- बहुत धर्म-सार नाम की एक किताब प्रकाशित की, उसकी हजार प्रतियाँ निकालीं और जैन समाज में विद्वानों के पास और जैन समाज के बाहर के विद्वानों के पास भी भेज दी। विद्वानों के सुझावों पर से कुछ गाथाएँ हटाना, कुछ जोड़ना, यह सारा करके 'जिणधम्म' किताब प्रकाशित की। फिर उस पर चर्चा करने के लिए बाबा के आग्रह से एक संगीति बैठी, उसमें मुनि, आचार्य और दूसरे विद्वान्, श्रावक मिलकर लगभग तीन सौ लोग इकट्ठे हुए। बार-बार चर्चा करके फिर उसका नाम भी बदला, रूप भी बदला, आखिर सर्वानुमति से 'श्रमण-सूक्तम'-जिसे अर्धमागधी में 'समणसुत्तं' कहते हैं, बना। उसमें 756 गाथाएँ हैं। 7 का आँकड़ा जैनों को बहुत प्रिय है। 7 और 108 को गुणा करो तो 756 बनता है।
     उस सर्वसम्मति से इतनी गाथाएँ लीं और तय किया कि चैत्र शुक्ल त्रयोदशी को वर्धमान - जयन्ती आयेगी, जो इस साल 24 अप्रैल को पड़ता है, दिन वह ग्रन्थ अत्यन्त शुद्ध रीति से प्रकाशित किया जाएगा। जयंती के दिन जैन-धर्म-सार, जिसका नाम 'समणसुत्तं' है, सारे भारत को मिलेगा। और आगे के लिए जब तक जैन धर्म मौजूद है, तब तक सारे जैन लोग और दूसरे धर्म के लोग भी जब तक उनके धर्म वैदिक, बौद्ध इत्यादि जीवित रहेंगे तब तक 'जैन-धर्म-सार' पढ़ते रहेंगे। एक बहुत बड़ा कार्य हुआ है, जो हजार, पन्द्रह सौ साल में हुआ नहीं था। उसका निमित्तमात्र बाबा बना, लेकिन बाबा को पूरा विश्वास है कि यह भगवान् महावीर की कृपा है। मैं कबूल करता हूँ कि मुझ पर गीता का गहरा असर है पर उस छोड़कर महावीर से बढ़कर किसी का असर मेरे चित्त पर नहीं है। उसका कारण यह है कि महावीर ने जो आज्ञा दी है वह बाबा को पूर्ण मान्य है। आज्ञा यह कि सत्याग्राही बनो। आज जहाँ-जहाँ जो उठा सो सत्याग्राही होता है। बाबा को भी व्यक्तिगत सत्याग्राही के नाते गांधीजी ने पेश किया था, लेकिन बाबा जानता था वह कौन है, वह सत्याग्रही नहीं, सत्याग्राही है। हर मानव के पास सत्य का अंश होता है, इसलिए मानव-जन्म सार्थक होता है। तो सब धर्मों में, सब पन्थों में, सब मानवों में सत्य का जो अंश है, उसको ग्रहण करना चाहिए। हमको सत्याग्राही बनना चाहिए, यह जो शिक्षा है महावीर की, बाबा पर गीता के बाद उसी का असर है। गीता के बाद कहा, लेकिन जब देखता हूँ तो मुझे दोनों में फरक ही नहीं दिखता है।
हस्ताक्षर विनोबा जी: राम हरि 
ब्रह्म विद्या मन्दिर, पवनार (वर्धा) २५-१२-७४

अद्भुत जीवन दर्शन :- आपका जीवन दर्शन अद्भुत था । आप सांप्रदायिकता और रूढ़िवाद दोनों से अति दूर थे। इन्हें आप परमार्थ पथ का महान शत्रु मानते थे। वे कहा करते थे कि "न मैं जैन हूँ, न अजैन, न श्वेताम्बर, न दिगम्बर, न हिन्दु, न मुसलमान अथवा मैं सब कुछ हूँ।" आप मौनी और एकांतप्रिय व्यापक आपकी दृष्टि थी। स्वास्थ्य ठीक न होने पर भी आप जिस दृढ़ता से अपने लक्ष्य पर बढ़ते गए उसका शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता। 1980 में आप आचार्य श्री विद्यासागर जी के पास दर्शनार्थ मुक्तागिरि गए। उनकी वीतराग मुद्रा व ज्ञान प्रकर्ष से प्रभावित होकर उनके चरणों में अपना जीवन अर्पण कर दिया। नवम्बर 1982 में नैनागिर में उनसे सल्लेखना व्रत के लिए प्रार्थना की। आचार्य श्री ने वर्णी भवन सागर में तीन महीने चिकित्सार्थ ठहरने की आज्ञा दी। 12 अप्रैल 1983 को शांति निकेतन, ईशरी में सल्लेखना व्रत में निष्ठ हुए। 21 अप्रैल को क्षुल्लक दीक्षा के व्रत लिए निरंतर त्याग व समता में निष्ठ रहते हुए 24 मई को प्रातः 11 बजे शांतिपूर्ण सौम्य मुद्रा में आपकी सल्लेखना पूर्ण हुई। सल्लेखना के पश्चात आचार्य श्री विद्यासागर जी ने कहा "ऐसी सल्लेखना" विरले ही होती है। ऐसे भव्य जीवन दो या तीन भव में अवश्य मुक्ति को प्राप्त होते हैं। मेरी भी ऐसे ही समाधि हो ऐसी मेरी भावना है। इसी प्रकार उनका सम्पूर्ण जीवन अतिविशिष्ट और प्राणीमात्र के लिए प्रेरणाप्रद था ।
संदर्भ लेख : बाल ब्रह्मचारिणी डाo मनोरमा जय  एवम नित्यनूतन पत्रिका का मई, 2012 का अंक  )





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