My beloved sister
आज हमने अपनी बड़ी बहन अरुणा को पानीपत से दूसरी बार विदाई दी । वह मेरे से कुल तीन साल बड़ी थी । उसे अपने इस बड़पन्न का सदा अहसास था । छोटी सी मुन्नी भी मेरा एक गुड्डे की ख्याल रखती । बेशक मैं उससे नही संभलता फिर भी वह अपनी हरकत से बाज़ नही आती । मेरे पिता बताते थे कि एक बार तो वह मुझे अपनी गोदी में उठा कर पहली मंजिल से नीचे लाने की कोशिश करते हुए पकड़ी गई थी । मेरी मां कहती कि जानते हो कि तुम्हारे बाल घुंघराले क्यों है ,क्योंकि वह तुम्हारे बालों को हमेशा संवारती और सजाती थी । मुझे वह दिन भी याद है कि जब वह मुझे पहली बार स्कूल छोड़ने गई थी । वह हमेशा मेरे साथ इस तरह रहती कि मानो दो शरीर एक जान।
अपनी सहेलियों के साथ खेलते हुए मुझे भी अपने साथ खिलाती जैसे मैं भी उसकी एक छोटी सहेली हूं । हम साथ बाज़ार जाते , साथ और दूसरे काम करते। हमारी मां तो एक सामाजिक कार्यकर्ता थी उसे हर समय दूसरे काम लगे रहते । कहना पिता जी का कि उसे तो झोला उठा कर चले जाने के इलावा कोई काम नहीं है । वह पांच सात की छोटी से बालिका अंगीठी जला कर खाना बनाती और सहयोगी बनता उसका पिता और भाई । इस कलावधि में हम दोनों ही खाना बनाने में पारंगत हो गए ।
मुझे वह दिन याद है की जब कुल 18 वर्ष पूरे होने पर ही उसकी शादी सहारनपुर जिले के भगवानपुर कस्बे के एक अत्यंत पिछड़े गांव के एक युवा वकील श्री विजय पाल सैनी के साथ उसकी शादी तय हुई । वकील साहब सहारनपुर में रह कर वकालत करते थे जब कि उनके पिता श्री चौहल सिंह से एक अध्यापक थे। परिवार पढ़ा लिखा था और यह ही एक बड़ी खासियत थी । मेरे माता पिता ने मेरी बहन अरुणा, जिसे वे प्यार से मुन्नी कहते थे, को बहुत ही लाड प्यार से पाला पोसा था । और अब वह दिन आया कि जब वह अपने सपनो के घर अपनी ससुराल गई थी । उस दिन मेरे पिता फफक फफक कर रोए थे । उनके लिए उनकी बेटी की विदाई कोई सामान्य घटना नहीं थी । मेरी बहन भी अपने को रोक नहीं पा रही थी । आनन फानन में बिना किसी तैयारी के मुझे भी उसके साथ कुछ दिन के लिए भेज दिया गया था । शायद इस लिए भी कि नए वातावरण में वह शुरुआत में कुछ उदास नहीं हो । हम एक कार में बैठ कर उसकी ससुराल गांव में गए। 30 जून ,1974 का दिन था और वह बरसात का मौसम था । भगवानपुर से हबीब पुर निवादा का मार्ग बहुत ही दुर्गम था । कहीं कहीं ही सड़क थी और वह भी अधिकांश कच्ची और फिर एक मौसमी बरसाती नदी थी जो अपने पूरे शबाब पर थी । और हम चले थे उसे पार करने एक झोटा बुग्गी पर बैठ कर । पशु तो पशु हो , वह नदी के बीच में रुक गया और बड़ी मुश्किल से वह चला । गांव में भी उनका मकान तो पक्का था परंतु शौचालय की सुविधा आदि की न थी । हमारी बोली में भी अंतर था पर मेरी बहन ने ऐसी विपरीत परिस्थितियों में बिना किसी शिकायत के लगभग 50 वर्ष बिताए । बेशक हमारे बहनोई उन्हें सहारनपुर ले आए तथा हर प्रकार की सुख सुविधा प्रदान की ,परंतु उसने अपने पति के परिवार तथा गांव से कभी नाता नहीं तोड़ा ।
सहारनपुर रहते हुए इस परिवार में दो बच्चे , बेटी शिखा और बेटा अनुज उत्पन्न हुए। मेरी बहन ने हर दम प्रयास किया कि उन्हें अच्छी से अच्छी शिक्षा मिले । और इस दौरान वह दौर भी आया जब मैने भी सहारनपुर में ही एक कॉलेज में लॉ में दाखिला प्राप्त किया । मैं उनके पास ही रहा । इसी दौरान मैं वहां सामाजिक राजनीतिक कार्यों में भी सक्रिय रहा और इन सभी कार्यों में मेरे बहनोई और बहन का हमेशा समस्त सहयोग रहा और मुझे यह कहते हुए कोई हिचक नहीं है कि मेरे निर्माण में मेरी बहन का बहुत ही बड़ा योगदान है । मेरे हर दुःख सुख में वह एक चट्टान की तरह खड़ी रही ।
अब वह अपने बच्चो के पास अहमदाबाद जाकर रहने लगी थी । वहां उनके व्यवसाय में भी योगदान करती ,पर इस दौरान मेरा सदैव आग्रह रहता कि वे या तो सहारनपुर आकर रहे अथवा पानीपत आ जाएं । मेरी बहन को समाज सेवा के संस्कार अपनी मां से मिले थे । सहारनपुर में भी वह सामाजिक कार्यों में सक्रिय रहती । कारवां सामाजिक संगठन बना कर वह महिलाओं के सशक्तिकरण और समानता के लिए काम करती थी ,जिससे वहां उसकी एक अच्छी पहचान थी । सहारनपुर से निकल कर उसकी यह खासियत लुप्त सी हो गई थी । और आखिर उन्होंने पानीपत ही आने का निर्णय लिया । उसका अपने पैतृक शहर में वापिसी का फैसला अच्छा ही रहा । यहीं उन्होंने अपना मकान लिया और रहने लगे । यहां भी उसकी सक्रियता दिखाई देने लगी और कुछ दिनों में ही वह दिखने लगी । पर इसी दौरान उसकी किडनी की बीमारी भी बढ़ती गई और हालात यह हुए कि वह डायलिसिस पर आ गई। पर इसे भी उसने हिम्मत से स्वीकार किया । खुद ही अकेली पहले राजपुरा और फिर पानीपत में हॉस्पिटल में जाती और अपना ड्लेसिस करवाती । एक गज़ब की हिम्मत वाली महिला थी ।
आफ़त का पहाड़ तो जब टूटा कि वह हमारे जीजा जी के साथ दुबई घूमने के लिए गई थी । वहीं उन्हे कोविड हुआ और हमारे जीजा जी और भांजी शिखा , काल के ग्रास बन गए । ऐसे समय में भी उसकी हिम्मत अकल्पनीय थी ।
मेरे से उसके संबंध सदा आत्मीय रहे । कई बार परिवार में मतभेद होने के बावजूद भी उसने यह धूमिल नही होने दिए । सम्भवत: यह ही वह प्रभाव था कि उसकी बीमारी की सूचना मिलते ही मैं अमेरिका से दौड़ा चला आया । मेरे आने पर उसकी खुशी का कोई ठिकाना नहीं था । हर साल की तरह रक्षाबंधन पर हम दोनों ने एक दूसरे को राखी बांधी ,आरती की और मिठाई खिलाई और तस्वीरें खिंचवाई । ऐसा लग रहा था कि अब वह ठीक हो जाएगी ,पर अगले दिन से ही उसकी तबीयत बिगड़ती चली गई। उसके पुत्र अनुज और पुत्रवधु नंदिनी ने उसके अंतिम दिनों में उसके इलाज़ और सेवा में कोई कसर नहीं बकाया नही रखी परंतु नियति को कोई टाल नहीं सकता और आखिर कार दिल्ली के एक प्राइवेट हॉस्पिटल में अपने बेटे और मेरे दोनों के हाथों में ही अपनी अंतिम सांस ली ।
18 मार्च , 1953 से 12 सितम्बर ,2023 का उसकी जिंदगी का यह सफ़र बहुत ही उतार चढ़ाव से भरा रहा परंतु इस पूरी यात्रा में वह कभी निराश और थकी नही । हां अब वह अपनी दौहित्री वैष्णवी की तरक्की से भी संतुष्ट थी और पौत्री अनाया के प्रति आशावान ।
कई दिन जीवन में अजब संयोग भर देते है । और उनमें से एक दिन 12 सितम्बर भी है । उसकी दिवंगत बेटी शिखा का जन्म भी इसी दिन हुआ था और अरुणा का महाप्रयाण भी इसी दिन। ऐसा लगता है कि मानो वह उसे ही happy birthday कहने निकली हो ।
पानीपत से यह उसकी दूसरी विदाई थी । पहली शादी के बाद अपनी ससुराल के लिए और दूसरी अब अपनी अनंत यात्रा के लिए ।
मुन्नी हम तुझे हमेशा याद रखेंगे । तेरे प्यार ,हिम्मत और जज्बे के लिए ।
तेरा छोटा भाई,
राम मोहन राय,
Memories are a treasure. One cannot forget. Regards.
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