देश बेशक बंट गए, पर दिल न बंटने दे
15 अगस्त, 1947 न केवल सैंकड़ों साल की दासता की बेड़ियाँ तोड़ कर नव नवोदित भारत राष्ट्र के उदय का दिन था, वहीं मानव सभ्यता के उदय के समय से साथ रहते रहे एक संस्कृति,इतिहास, सभ्यता, भाषा - बोली के लोगों के धर्म के नाम पर विभाजन का भी दिन भी था. यह दीगर सवाल है कि धर्म पहले आया या कि नस्ल, जाति और समूह.
पर एक बात साफ़ है कि अंग्रेज़ों के आने से पहले धर्म के नाम पर राष्ट्र की कोई कल्पना नहीं थी. हमारा देश ऐसा था कि यहां जो भी आया चाहे वे धर्म प्रचारक के रूप में, चाहे एक व्यापारी के तौर पर अथवा एक लुटेरे या एक आक्रांता के भेष में वह यही बस गया, बेशक कुछ अपवाद को छोड़ कर. चीनी यात्री हू एन सांग और फाईयान ऐसे दो व्यक्ति हैं जो भारत की सम्पन्नता और आध्यात्मिक संपदा को विस्तार से बताते हैं.
नेता जी सुभाष चंद्र बोस द्वारा लिखित पुस्तक "इंडियन स्ट्रगल " में वैदिक काल से सन 1942 तक के अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद के खिलाफ़ लड़े गए संघर्ष और आन्दोलन की विस्तार से जानकारी देते है. यह एक ऐसा आधिकारिक दस्तावेज़ है, जिसे किसी भी वाद से ग्रसित नहीं माना जा सकता. नेता जी ने सन 1915 से 1942 तक के युग को गांधी युग के नाम से उद्धृत किया है. नेता जी लिखते हैं कि सन 1857 का गदर(क्रांति) एक ऐसा सामुहिक संघर्ष था जिसने अंग्रेज़ की जड़े हिला दी थी. दिल्ली के तख्त पर मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर की अगुआई को न केवल मराठा हिन्दुओं ने कबूल किया वहीं सब ने मिल कर नारा दिया " खलक खुदा का, मुल्क बादशाह का" .
दुर्भाग्यवश उस क्रांति की हार हुई और उसका सबसे ज्यादा प्रभावित हुई दिल्ली की निरपराध जनता. ऊर्दू के महान शायर मौलाना अल्ताफ हुसैन हाली पानीपती उस समय दिल्ली में ही थे. उन्होंने उस मंज़र को अपनी आंखों से देखा था उनकी एक रचना ""मुनाजात ए बेवा" में खुले आम कत्ल ओ गर्द के बाद वहां जिंदा बची विधवाओं की दुर्दशा को लिखा है. यह इस बात का विवरण भी है कि इस कत्ल ए आम में जहां बादशाह के बेटों को क़त्ल किया गया वहीं दिल्ली में बसे बूढ़ों, बच्चों और औरतों को छोड़ कर तमाम जवान मर्दों को तलवार के घाट उतार दिया गया था.
इस के बाद जहां ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन का अंत हुआ वहीं महारानी विक्टोरिया के प्रत्यक्ष शासन की शुरुआत हुई. महारानी ने घोषणा कि अब हिन्दुस्तान के लोग उनकी ही रियाया
हैं. और उसके बाद वह सब कुछ हुआ जो एक विदेशी शासन जनता के अधिकारों को कुचलने के लिए कर सकता था. सोच दोनों तरफ थी. जनता की सोच थी कि विदेशी शासन चाहे माँ बाप से भी ज्यादा हितैषी हो परंतु स्वदेशी शासन सर्वोपरि उत्तम होता है और दूसरी ओर शासक की यह सोच थी कि यदि इस देश पर लम्बे समय तक निर्विघ्न राज करना है तो फूट डालो और राज करो की नीति पर चल कर इस देश में हिन्दू - मुस्लिम एकता को तोड़ना होगा. इसके कई प्रयोग हुए और उसमे से एक था सन 1905 में बंगाल का विभाजन (बँग भंग). उसी का आक्रोश था कि पूरे बंगाल की गलियों, मोहल्लों और सडकों पर इसके विरोध में ज़न सलाब था. राष्ट्रीय कवि गुरुदेव रबीन्द्रनाथ अपनी कविताओं को गलियों में गा रहे थे. अंग्रेज़ झुका और बंग भंग का फैसला वापिस लेना पड़ा. इस प्रयोग के फेल होने पर 1918-23 के दौरान उन्होने दोनों समुदायों के बीच ऐसे संगठनों को प्रोत्साहित करने के काम किया जो परोक्ष - अपरोक्ष दो राष्ट्र सिद्धांत के मानने वाले थे. पर जनता ने हर स्तर पर इन्हें अस्वीकार किया. उसका प्रमाण था 1919 का जलियांवाला कांड और 1928 में शेर ए पंजाब लाला लाजपतराय के नेतृत्व में साईमन कमिशन का विरोध.
पर विभाजनकारी ताकतें ज्यादा सक्रिय थी. सन 1936 में उत्तर प्रदेश के प्रांतीय चुनाव में कॉंग्रेस और मुस्लिम लीग मिल कर चुनाव लड़ी और जीती भी पर कॉंग्रेस अपने वायदे के मुताबिक बराबर की सत्ता लीग को नहीं दे पाई और इसी वादा खिलाफी ने मोहम्मद अली जिन्ना का जिन्न पैदा किया. और उसके बाद तो खाई पटने की बजाय बढ़ती गई.
भारत और पाकिस्तान के बटवारे का फैसला सन 1946 में हो चुका था. महात्मा गांधी इस बटवारे के विरोध में थे. उनका कहना था कि बटवारा उनकी लाश पर होगा पर स्थितियां ऐसी बनी कि विभाजन होकर रहा. गाँधी यह भी चाहते थे कि जिन्ना को प्रधानमंत्री बना कर इस बटवारे को रोका जाए पर यह भी बात सिरे नहीं चढ़ी. बेशक पाकिस्तान बनने के मात्र एक साल के भीतर ही जिन्ना का इंतकाल हो गया और बापू की शहादत हो गई.
पर इस विभाजन ने लाखों लोगों को विस्थापित कर दिया. लाखों लोग इधर से उधर और उधर से इधर आए. हजारों लोग मारे गए, अनेक औरतों की इज़्ज़त लूटी गई और अरबों रुपये की सम्पत्ति का नुकसान हुआ.पर यह तब हो रहा था जब मोहम्मद अली जिन्ना पाकिस्तान की नैशनल असेंबली में तथा भारत के प्रधानमंत्री नेहरू और गृहमंत्री सरदार पटेल यहां लोगों को आश्वस्त कर रहे थे कि बेशक मुल्क तकसीम हो गया है पर हर मज़हब के लोगों और उनकी आस्था की रक्षा की जाएगी. पर हालात इसके बिल्कुल विपरित थे. ऐसे समय में जब विभाजन के कारण लोगों पर मुसीबतों के पहाड़ टूट पड़े थे और दूसरी तरफ़ दोनों मुल्कों की राजधानियों में आजादी के जश्न मनाये जा रहे थे तो ऐसे मौके पर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी दिल्ली में न होकर कोलकात्ता में साम्प्रदायिक हिंसा के खिलाफ अनशन पर बैठे थे.
कुछ लोग कहते हैं कि जब विभाजन हो ही गया था तो सभी मुसलमानों को यहां से पाकिस्तान भेज देना चाहिए था तो इसका ज़वाब यह ही है कि विभाजन हिन्दुस्तान का नहीं सिर्फ पंजाब और बंगाल का हुआ था.
और अलग देश की मांग अंग्रेज़ों से संपुष्ट मुस्लिम लीग की थी, न की सभी मुस्लिम समुदाय की. सरहदी गांधी, मौलाना आजाद, रफी अहमद किदवई, आसिफ़ अली जैसे दिग्गज नेता बापू के साथ थे और विभाजन के खिलाफ थे.
मुझे इधर और उधर आए - गए अनेक लोगों से मिलने का मौका मिला था उन सभी का कहना था कि उनकी दूसरे तबके लोगों के साथ अच्छे समबन्ध थे पर यह तो राजनीति थी जिसने ऐसे हालात पैदा किए.
सन 1997 में मेरी गुरु माँ निर्मला देशपांडे जी के प्रयासों से मेरे शहर पानीपत से पाकिस्तान जाकर वही बस गए लोगों का एक प्रतिनिधिमंडल यहां आया. और उसके बाद उसी वर्ष पाकिस्तान से आकर पानीपत बसे लोग वहां गए. दोनों के ऐसे अनुभव रहे कि उनकी आवभगत एक दूसरे के देश से ज्यादा हुई हैं.
मुझे खुद विभिन्न अवसरों पर कुल पांच बार पाकिस्तान जाने का मौका मिला तो हर बार मैंने पाया कि वहां की जनता तो हम से दोस्ती चाहते हैं परंतु उनके हुक्मरान इसे पसन्द नहीं करते. आज जरूरी है कि जनता के स्तर पर अमन और दोस्ती की मुहिम चलाई जाए. हमारे देश के पूर्व प्रधान मंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी, डॉ मन मोहन सिंह और वर्तमान प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने ऐसे अनेक प्रयास किए जिससे आपसी समझ और समबन्ध बने पर हर बार वहां की सरकारों के रवैये से ऐसा सम्भव नहीं हुआ. पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद एक ऐसी समस्या है जिस पर रोक लगाए बिना रिश्तों में सुधार नहीं किया जा सकता. पर साथ साथ यह भी समझना होगा कि वह हमारा पड़ोसी देश है जिससे दोस्ती बेशक न हो पर पड़ोस तो रहना ही होगा. दोनों देशों की जनता का दवाब इस माहौल को बदलने में एक सफल प्रयोग हो सकता है.
दीदी निर्मला देशपांडे के शब्दों में " गोली नहीं - बोली चाहिए". दक्षिण एशिया में शांति ही विश्व शांति की स्थायी गारंटी दे सकती है.
Ram Mohan Rai.
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