राजनीति और हम

भारत मे लोकसभा के चुनाव है और हम इस बीच अमेरिका चले आये । सवाल वाजिब रहेगा कि क्या एक जागरूक मतदाता का भी फ़र्ज़ नही निभा पाए? हमे भी लगता है कि एक पढ़े लिखे वोटर के नाते यह काम तो होना चाहिए ही था । हमारे परिवार में राजनैतिक परिपक्व माहौल होने की वजह से चुनाव में एक उत्सव सा माहौल रहता था । घर पर ही इलाके का कांग्रेस दफ्तर बनता । माँ न केवल वार्ड की इंचार्ज रहती वहीँ महिला कांग्रेस की नेत्री होने के नाते पूरी विधान सभा व लोकसभा क्षेत्र में अपने दायित्व व भूमिका को पूरा निभाती । पिता जी बेशक सक्रिय राजनीति में नही रहे परन्तु माता जी की वजह से हमेशा उनके सहयोगी रहते । पूरे वार्ड में एक ही पोलिंग स्टेशन हुआ करता और वहाँ पिता जी ही कांग्रेस के पोलिंग एजेंट होते । काम इतना बखूबी करते कि पूरी मतदाता सूची को हिंदी से उर्दू में अपने हाथ से उतार कर ,घर-२ सर्वे करते उसका परिणाम यह रहता कि उन्हें हर वोटर का नाम याद रहता । उस समय महिलाएं अपने पति का नाम गलती से भी नही लेती थी पर क्योकि पिता जी सब को जानते थे इसलिये वे घूंघट में भी महिला वोटर को देखते ही उसके पति का नाम बता देते थे । हमारे पड़ोस में ही एक महिला रहती थी उन्हें आंख से बहुत ही कम दिखाई देता था । सब उन्हें प्यार व सम्मान से प्रेम बुआ कह कर सम्बोधित करते थे । हर इलेक्शन में मैं एक 8-10 साल का बालक उनके सहयोगी के तौर पर उनके साथ जाता और उनके निर्देश पर बैलट पेपर पर मोहर लगता । इस प्रकार से यदि देखे तो अपनी उम्र की शुरुआत में ही ,मैं अपरोक्ष वोट देने लगा था । 
     घर मे सुबह उठते ही हम सभी भाई अपने माता-पिता के चरण स्पर्श कर उनसे आशीष प्राप्त करते । मेरा आग्रह रहता कि मुझे आशीर्वाद मिले कि मैं राजनीति में ऊंचा स्थान प्राप्त करू । शुरू से ही न केवल राजनीति विज्ञान में विशेषता रही वहीं सामान्य ज्ञान भी अच्छा रहा । जब मैं आठवी में पढ़ता था तो हमारे मोहल्ले के कुछ छात्र जो एम ए ( राजनीति विज्ञान) में पढ़ रहे थे ,वे करंट पॉलिटिक्स के बारे में मुझसे जानकारी लेने के लिए आते थे । चुनावो के दिनों में मैं भी अपने हम उम्र बच्चों को लेकर जुलूस निकलते व एक पार्टी विशेष के लिये प्रचार करते । सन 1977 का चुनाव रहेगा जब कांग्रेस पार्टी व उसकी नेता श्रीमती इंदिरा गांधी के लिये दुर्दिन के दिन थे । पर उस दौर में भी मेरा समूचा परिवार उनके साथ खड़ा था । उसी दौर में मैं आल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन के सम्पर्क में आया और सन 1980 में पानीपत विधान सभा क्षेत्र से का0 रामदित्ता के चुनाव का पूरा इंचार्ज बना । वर्ष 1984 में ,कम्युनिस्ट पार्टी ने मुझे पानीपत विधान सभा क्षेत्र से अपना उमीदवार बनाया परन्तु तकनीकी कारणों से मेरा नामांकन रद्द हो गया ।
      इसके बाद भी मेरा रुझान भी सक्रिय राजनीति में रहा । स्कूल एवम कॉलेज काल मे अपने समय का  यूनिवर्सिटी स्तर तक सर्वोत्तम  वक्ता रहा हूं । दीदी निर्मला देशपाण्डे जी के सम्पर्क में रहने की वजह से देश की सभी पार्टियों के अनेक बड़े नेताओं से मुलाकात रही व व्यक्तिगत सम्पर्क बनाने का सुअवसर भी मिला ।  लोगो के स्तर पर भी जनता में एक संगठनकर्ता के रूप में काम किया व  जनता के बीच खूब जनप्रिय रहे । बचपन से ही अभिलाषा रही कि हम भी कभी सांसद अथवा विधायक बनेंगे पर बनना तो दूर उसके नजदीक भी नही आने दिया गया । हमसे जूनियर व हमारे अनेक विद्यार्थी विधायक ,मंत्री व राज्यपाल के पद पर आसीन है और दूसरी तरफ हम है कि जब वे इन पदों तक नही पहुचते तो हम उनके निकट है और जब उनको पद प्रतिष्ठा मिल जाती है तो उनके ताम झाम में हम फिट नही हो पाते ।हमारे देश मे बेशक लोकतंत्र है परन्तु इसकी जटिलताएं इतनी है कि जिसमे गोटी आसानी से फिट नही होती । जाति ,गोत्र ,धर्म व सबसे ज्यादा महत्व पैसे का है । जिस देश की आबादी  में पुरुषों का 82 प्रतिशत व महिलाओ की 92 प्रतिशत  वयस्को की मासिक आय दस हजार  रुपये से कम हो तो यह संख्या तो एकदम सामाजिक - राजनीतिक जीवन से कटी समझिये । क्या इस आबादी में कोई भी चुनाव लड़ने की सोच सकता है । बाकी बची 10-12 प्रतिशत लोगो मे कितने लोग है जो धन्ना सेठो के  समर्थित उमीदवारों का मुकाबला कर पायेंगे । बेशक चुनाव आयोग ने 70 लाख की खर्च सीमा नियत की है पर क्या उमीदवार यहीं तक सीमित रहते है । अनेक प्रत्याशी तो 100-200 करोड़ रुपये से भी ज्यादा रकम मतदाताओं को हर प्रकार से लुभाने में खर्च करते है । विजयी लोगो मे गिनती के ही ऐसे लोग होते है जिनका ताल्लुक किसी धन अथवा पशुबल पति से न हो । किसी भी निर्वाचित व्यक्ति की चुनाव से पहले व निर्वाचित होने के बाद कि ही तफसील कर लीजिए ,देखेंगे कहाँ से कहाँ वे लोग पहुचे है । ऐसे हालात में कोई साधारण व्यक्ति कैसे चुनावी राजनीति में अपनी हिम्मत जुटा सकता है । मेरे जैसे अनेक लोग रहेंगे जो अपने सामने ही अपने सपनो की हत्या होते देखेंगे । 1975 से 1977 तक के जेपी  व हाल के आम आदमी पार्टी के आंदोलन ने कुछ हिम्मत बढ़ाई थी पर उसके अंत ने भी लोगो को निराश ही किया है । राजनीति अब एक अच्छा व्यवसाय है जिसमे विगत कई दशकों से तो प्रतिष्ठित नेता तथा उनकी सन्तति ही स्थापित हुई है ।
राम मोहन राय
19.04.2019

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