My memorable trip to the Europe. 2 1.05.2025
स्वदेश की धरती पर आज पुनः कदम रखते हुए मन में एक अनोखा भाव उमड़ रहा है। यूरोप की यह 50 दिवसीय यात्रा, जो हमारी पांचवीं यात्रा थी, न केवल एक भौगोलिक यात्रा रही, बल्कि यह एक भावनात्मक, सांस्कृतिक और सामाजिक अनुभव का संगम थी। साल 1980 में, जब मैं पहली बार सोवियत यूनियन में पढ़ाई के लिए गया था, तब शायद ही मैंने सोचा था कि यह यात्राओं का सिलसिला मेरे जीवन का अभिन्न हिस्सा बन जाएगा। तब से अब तक, चाहे प्रतिनिधिमंडलों के साथ हो, पर्यटन के लिए हो, या फिर परिवार के साथ, यूरोप की धरती ने मुझे बार-बार बुलाया, और मैं हर बार उसी उत्साह के साथ वहाँ पहुँचा।
इस बार की यात्रा में हमने जर्मनी, बेल्जियम और नीदरलैंड की सैर की। नीदरलैंड हमारा मुख्य ठिकाना रहा, जहाँ हमारा सुपुत्र उत्कर्ष ने हमारी यात्रा को सुगम और सुखद बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। उसने हमारी यात्रा की आदतों को समझते हुए हर छोटी-बड़ी व्यवस्था को इतने प्रेम और समर्पण से संभाला कि हम हर पल आनंद में डूबे रहे। यह यात्रा केवल स्थानों को देखने तक सीमित नहीं रही; यह एक सांस्कृतिक और पारिवारिक मेल का उत्सव थी। हमने नए स्थानों की सैर की, अनजान रास्तों पर चले, और अनगिनत नए मित्र बनाए। हर मुलाकात, हर बातचीत, और हर मुस्कान ने इस यात्रा को और भी रंगीन बना दिया।
वापसी के आखिरी दिन तक हमारी सक्रियता बरकरार रही। मित्रों के फोन आते रहे, जो हमें भोजन के लिए, चाय के लिए, या यूं ही मिलने के लिए बुलाते रहे। चाय तो एक बहाना है, असल में यह अपनों से मिलने की, उनके साथ समय बिताने की, और उनके प्रेम को महसूस करने की चाह है। इन मुलाकातों ने हमें यह अहसास कराया कि सच्चा सुख बटोरने में नहीं, बल्कि बांटने में है।
इस यात्रा को अविस्मरणीय बनाने में उन तमाम मित्रों का योगदान है, जिन्होंने हमें अपने दिल और घर में जगह दी। उनके आतिथ्य और प्रेम ने हर पल को खास बना दिया। परमपिता परमात्मा का आभार कि उन्होंने हमें इस यात्रा के लिए शारीरिक और मानसिक सामर्थ्य प्रदान किया। माता-पिता और गुरुजनों का धन्यवाद, जिन्होंने हमें सोचने-समझने की शक्ति और संस्कार दिए। मेरी पत्नी का विशेष आभार, जो हर कदम पर मेरे साथ रही, कभी न थकी, न कभी मना किया। उनकी सहभागिता ने इस यात्रा को और भी सुंदर बना दिया। और हमारे बच्चों को, विशेष रूप से उत्कर्ष को, मेरा आशीर्वाद और शुभकामनाएं, जो हमेशा हमारी सेवा और सुख के लिए तत्पर रहते हैं।
मुंशी प्रेमचंद का वह कथन मुझे हमेशा प्रेरित करता है – “बच्चों को स्वाधीन बनाये।” यह स्वाधीनता केवल शारीरिक नहीं, बल्कि मानसिक और भावनात्मक भी है। हमारी यह यात्रा भी उसी स्वाधीनता का प्रतीक थी, जहाँ हमने न केवल नई जगहें देखीं, बल्कि अपने मन को भी नए अनुभवों से समृद्ध किया।
स्वदेश लौटते हुए मन में एक संतोष है, एक सुकून है, और एक विश्वास है कि यह यात्रा हमारे जीवन के सुनहरे पन्नों में हमेशा चमकती रहेगी।
राम मोहन राय
21 मई, 2025




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