The day when the lamp of the country was extinguished - May 27, 1964
मैं उस समय सिर्फ सात साल का बच्चा था, लेकिन पारिवारिक पृष्ठभूमि और माहौल की वजह से अपनी उम्र से कहीं ज्यादा समझदार। उन दिनों संचार का एकमात्र साधन रेडियो हुआ करता था, और दोपहर बाद खबर आई—"पंडित जवाहरलाल नेहरू नहीं रहे।"
यह खबर सुनते ही जैसे पूरे शहर की सांसें थम गईं। हमारे घर से लेकर आस-पड़ोस तक एक गहरा सन्नाटा छा गया। उस दिन किसी के घर में चूल्हा नहीं जला, न ही रोटी बनी। मानो पूरा देश एक साथ अन्न-जल त्यागकर अपने प्यारे नेता को अंतिम विदाई दे रहा हो।
शहर में कांग्रेस की ओर से एक मौन जुलूस निकाला गया। मेरी माँ के साथ मैं भी उसमें शामिल हुआ। वह दृश्य आज भी मेरी आँखों के सामने है—लोगों के चेहरों पर असीम दुःख, आँखें नम, और हृदय भारी। हमारी बड़ी बहन अरुणा दीदी और परिवार के मित्र माईदयाल जी सैनी की पत्नी राममूर्ति तथा उनका बेटा राजकुमार जोर-जोर से रो रहे थे। राजकुमार भी मेरी ही उम्र का था, सात साल का एक मासूम बच्चा, जो सिसकते हुए कह रहा था—"अब हमारा देश फिर से गुलाम हो जाएगा।"
उस छोटे से बच्चे के मुंह से निकले ये शब्द सुनकर लगा कि नेहरू जी ने न सिर्फ देश को आज़ादी दिलाई, बल्कि हर भारतीय के दिल में स्वाभिमान और स्वतंत्रता की अलख जगा दी थी। उनका जाना केवल एक नेता का अवसान नहीं था, बल्कि एक युग का अंत था।
जवाहरलाल नेहरू सिर्फ एक प्रधानमंत्री नहीं थे, वे भारत के सपनों के प्रतीक थे। उन्होंने आधुनिक भारत की नींव रखी—विज्ञान, शिक्षा, औद्योगिक विकास और लोकतंत्र को मजबूत करने में उनका योगदान अतुलनीय था। वे बच्चों से इतना प्यार करते थे कि उन्हें "चाचा नेहरू" कहकर पुकारा जाता था।
27 मई, 1964 का वह दिन मेरे मन-मस्तिष्क पर अमिट रूप से अंकित है। आज भी जब याद आता है, तो लगता है कि उस दिन देश ने न सिर्फ एक नेता खोया, बल्कि एक पिता, एक मार्गदर्शक और एक सपने देखने वाला विजनरी खो दिया।
"लोगों की जिंदगी में कुछ पल ऐसे होते हैं जो कभी नहीं मरते। नेहरू जी का जाना वैसा ही एक पल था—जो हमेशा याद रहेगा।"
आज भी जब 27 मई आता है, तो वह बचपन का दुःख फिर से ताजा हो जाता है। लेकिन साथ ही यह विश्वास भी कि जवाहरलाल नेहरू जैसे महानायकों के विचार और सपने हमेशा हमारे साथ रहेंगे।
"श्रद्धांजलि उस महान सपूत को, जिसने भारत को नई दिशा दी।"
— जय हिन्द!
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