क्रिकेट के मैदान पर शांति का पुल
21 सितंबर को भारत और पाकिस्तान के बीच होने वाला क्रिकेट मैच सिर्फ एक खेल नहीं, बल्कि दो पड़ोसी देशों के बीच सालों से जमी बर्फ को पिघलाने का एक अवसर है। पूरे भारत में इस मैच को लेकर मिली-जुली प्रतिक्रियाएं हैं—कुछ लोग उत्साह से भरे हैं, तो कुछ चिंतित। अभी-अभी हम एक युद्ध जैसी स्थिति से निकले हैं; ऑपरेशन सिंदूर की भयावह यादें अभी ताजा हैं, जहां सीमाओं पर तनाव चरम पर पहुंच गया था। पिछले एक दशक से भी अधिक समय से दोनों देशों के बीच राजनयिक संबंध ठप पड़े हैं, और यह दूरी सिर्फ सरकारों तक सीमित नहीं, बल्कि आम लोगों के दिलों में भी घर कर गई है। लेकिन क्या हम भूल गए हैं कि ये दो देश कभी एक थे? एक ही मिट्टी से बने, एक ही इतिहास के साक्षी?
सोचिए उन अनगिनत परिवारों के बारे में, जो विभाजन की रेखा से अलग हो गए, लेकिन दिलों से जुड़े रहे। कभी खुशियों और गमों में एक-दूसरे के घर आना-जाना लगा रहता था—शादियां, त्योहार, मिलन के पल। लेकिन अब वो सब स्थगित है, जैसे कोई अनकही दीवार खड़ी हो गई हो। राजनीति की ठंडी हवाओं ने इन रिश्तों को जकड़ लिया है। मेरी गुरु, निर्मला देश पांडे, अक्सर कहा करती थीं: "हर बात का निपटारा गोली से नहीं, बोली से होना चाहिए।" कितनी सच्ची बात! हमारी जंगें, हमारे तनाव, हमारे विवाद—ये सब अपने हैं। इन्हें खत्म करने के लिए हमें राजनयिक प्रयासों की जरूरत है, दोनों तरफ से। लेकिन इसमें आम जनता का क्या कसूर? खासकर उन युवाओं का, जो सीमाओं के पार दोस्ती की उम्मीद रखते हैं, जो खेल के मैदान पर मिलकर हाथ मिलाना चाहते हैं।
वैश्विक परिस्थितियां भी हमें आईना दिखाती हैं। हिंद महासागर के किनारे बसे इन देशों के लोग जब विदेशों में मिलते हैं—अमेरिका, ब्रिटेन या दुबई में—तो कितने प्यार से गले लगते हैं। वहां कोई दुश्मनी नहीं, सिर्फ साझा संस्कृति, साझा भाषा और साझा यादें। लेकिन जैसे ही हम अपने देशों में लौटते हैं, सब बदल जाता है। क्यों? क्योंकि राजनीति और राजनयिक व्यवस्थाएं हमें मजबूर करती हैं। लोग तीर्थयात्रा पर जाना चाहते हैं—अमरनाथ से अजमेर शरीफ तक, पर्यटन के बहाने एक-दूसरे की संस्कृति को समझना चाहते हैं। लेकिन सीमाएं, वीजा और तनाव इन सपनों को कुचल देते हैं। क्या यह दुखद नहीं कि जो लोग बाहर भाई-बहन जैसे रहते हैं, वे घर आकर दुश्मन बन जाते हैं?
फिर भी, उम्मीद की एक किरण है—खेल । क्रिकेट सिर्फ एक खेल नहीं, बल्कि भावनाओं का समंदर है। 21 सितंबर का यह मैच खेल भावना से खेला जाए, तो यह दोस्ती, भाईचारे और शांति का आगाज हो सकता है। याद कीजिए उन पुराने मैचों को, जहां जीत-हार से परे, खिलाड़ी एक-दूसरे को गले लगाते थे। क्या हम फिर से वही दौर ला सकते हैं? जहां गेंद और बल्ले की भाषा बोलियों से ज्यादा जोरदार हो, जहां स्टेडियम की तालियां सीमाओं को मिटा दें। यह मैच सिर्फ स्कोरबोर्ड पर नहीं, बल्कि दिलों में जीता जाए। आखिर, शांति की शुरुआत छोटे कदमों से ही होती है—एक मैच, एक हाथ मिलाना, एक मुस्कान।
आइए, हम सब मिलकर इस मैच को शांति का पुल बनाएं। क्योंकि अंत में, हम सब एक ही परिवार के हिस्से हैं—विभाजित, लेकिन अटूट।
Ram Mohan Rai .
Panipat.
Comments
Post a Comment