पानीपत की गलियां-13 (चरखी से Salarjung गेट)

पानीपत की गलियां-13
पानीपत की गलियों का सफ़र: सलारजंग गेट तक की ऐतिहासिक सैर

आज सुबह-सुबह, जब सूरज की पहली किरणें पानीपत की पुरानी दीवारों पर पड़ रही थीं, मैंने फैसला किया कि शहर की उन गलियों की सैर करूँ जो सदियों से इतिहास की गवाह रही हैं। मेरा सफ़र शुरू हुआ चरखी से, जहाँ ज्ञान हलवाई की पुरानी दुकान थी  जो अपनी मिठास बिखेरती थी। यहाँ से मैं सलारजंग की ओर रवाना हुआ, पैदल, धीरे-धीरे, हर कदम पर अतीत की खुशबू को सूँघते हुए। पानीपत की ये गलियाँ सिर्फ़ रास्ते नहीं, बल्कि जीती-जागती कहानियाँ हैं – व्यापार, संस्कृति, संघर्ष और परिवर्तन की। आइए, इस सफ़र में मेरे साथ चलें।

शुरुआत: ज्ञान हलवाई से सलारजंग गेट तक:
सफ़र की शुरुआत हुई चरखी यानी ज्ञान हलवाई की दुकान से। यहाँ की गर्म जलेबियाँ और रसगुल्ले अब भी मुंह में पानी ला देते हैं। दुकान के बाहर खड़े होकर मैंने देखा कि कैसे पुराने कम्बल व्यापारी श्री ईश्वर चंद्र जैन का मकान अब भी अपनी भव्यता बनाए हुए है। ठीक सामने श्री देवकीनंदन गर्ग का घर, उसके सामने ही हलवाई की दुकान शुरू होती है। यह दुकान पानीपत की मशहूर मिठाई की दुकानों में से एक रही है – यहाँ की बर्फी और पेड़े तो जैसे सदियों पुरानी परंपरा का प्रतीक हैं।

कुछ कदम आगे बढ़ते ही हिंदू सत्संग मंदिर दिखाई दिया। मंदिर की घंटियों की ध्वनि हवा में घुली हुई थी, और सामने वाली गली ने मुझे अपनी ओर खींच लिया। यह गली घूमती-फिरती कायस्थ मोहल्ले से गुजरती है। एक तरफ़  घेर अराइयान, और दूसरी तरफ़ घाटी बार की ओर जाती सड़क। गली के मुहाने पर एक पुराना दरवाज़ा लगा हुआ है – सुरक्षा की दृष्टि से हर रात बंद कर दिया जाता था। यह दरवाज़ा अब भी खड़ा है, जैसे शहर की रक्षा का प्रतीक। उसी नुक्कड़ पर दौलत हलवाई की दुकान थी, जहाँ की चाट और पकौड़ियाँ बचपन की यादें ताज़ा कर देती हैं। ठीक सामने बाबूराम बिशन स्वरूप की कम्बल आढ़त की दुकान – इसका विशाल दरवाज़ा कभी व्यापारियों की भीड़ से गुलज़ार रहता था। लेकिन अब? अब ये सब स्मृतियों में कैद हैं। जगह-जगह मार्केट बन गई है, चमचमाती दुकानें, लेकिन पुरानी आत्मा कहीं खो सी गई है।

 आगे की सैर: पशुओं के चारे की दुकानों से शिंगला मार्केट तक:
थोड़ी दूर चलते हुए चारे और पशुओं के खाद्य पदार्थों की दुकानें आईं। घोड़ों के लिए चना, गायों के लिए भूसा – ये दुकानें पानीपत के ग्रामीण अतीत की याद दिलाती हैं। कुछ आगे बढ़कर सिंगला मार्केट पहुँचा। पहले यह शिंगला परिवार की निजी संपत्ति थी, अब यहाँ एक पूरी मार्केट बस गई है। लेकिन खुशी की बात यह कि पानीपत के मशहूर अमृतसरी समोसे और मिठाइयाँ यहीं मिलती हैं। गरमागरम समोसे, चटपटी चटनी – मैं रुककर एक प्लेट ले ही लिया। स्वाद वही पुराना, लेकिन दुकानें नई।

मार्केट के सामने गंजो गढ़ी वाली गली है। पहले यहाँ अराई,  दर्जी,  नाई और मुस्लिम बिरादरी के मेहनतकश लोग रहते थे – लोहार, बढ़ई, मजदूर। गली पार करते ही घेर अराइयान       की ओर निकलती है। यहाँ की संकरी गलियाँ, पुराने मकान, और हवा में घुली मिट्टी की खुशबू – सब कुछ प्राचीन पानीपत की झलक देता है।

 तिराहों का जाल:  घेर अराइयान से सालारजंग गेट तक:
गली पार करके मैं एक तिराहे पर पहुँचा। एक रास्ता घिराइयाँ, घाटी बार और हजरत बू अली शाह कलंदर की दरगाह की ओर सीधा जाता है। दरगाह ! वह जगह जहाँ सूफी संत की दरगाह अब भी शांति का संदेश देती है। यहाँ से आगे बढ़ते ही दूसरा तिराहा – एक रास्ता अंसार चौक की ओर, दूसरा सालारजंग गेट की तरफ।

पहले यह जगह सुनसान थी, सिर्फ़ एक मस्जिद हुआ करती थी। अब पुरुषार्थी सिख भाइयों ने इसे गुरुद्वारे में बदल दिया है – गुरुद्वारा रामगढ़िया। गुरुद्वारे की पवित्रता और लंगर की खुशबू हवा में फैली हुई है। सामने मार्केट बन गई है, गुरुद्वारे के साथ-साथ सालारगंज गेट तक दुकानों की कतार – चाट-पकौड़ों की दुकानें, होम्योपैथिक दवाइयाँ, किराना, कपड़े, कॉस्मेटिक्स। सब कुछ उपलब्ध, जैसे शहर की धड़कन यहीं धड़कती हो।

सलारजंग से पहले आमने-सामने दो गलियाँ हैं। एक घूमकर मोहल्ला अंसार में हकीम वाले मकान की ओर जाती थी, अब सुखदेव नगर में बदल गई है। सामने वाली गली, जहाँ पहले मकबरे थे, अब पुरानी हाउसिंग बोर्ड कॉलोनी में समा गई है। और ठीक सामने – बुलंद सालारजंग गेट!

 सालारजंग गेट – पानीपत का प्रवेश द्वार:
यह गेट कोई साधारण दरवाज़ा नहीं, बल्कि एक बुलंद इमारत है। 18वीं शताब्दी में हैदराबाद के नवाब सालारजंग  की याद में बनवाया था। ऊँची दीवारें, नक्काशीदार मेहराबें – यह पानीपत शहर की असली शुरुआत का प्रतीक है। यहीं से पुराना पानीपत शुरू होता था, जहाँ व्यापारी, योद्धा और यायावर आते-जाते थे। गेट के नीचे खड़े होकर मैंने सोचा – तीन युद्धों की धरती, कम्बल उद्योग की राजधानी, और अब आधुनिक मार्केट्स का केंद्र।

 छोटा सफ़र, बड़ी यादें:
क्या यह सफ़र बहुत लंबा था? बिल्कुल नहीं – बस आधा किलोमीटर। लेकिन इसकी खासियत ऐतिहासिक है। जगह-जगह बढ़ते कदम, तरह-तरह की दुकानें – हलवाई की मिठास, कम्बल की गर्माहट, समोसों की चटपटाहट, गुरुद्वारे की शांति, और गेट की भव्यता। ये सब नए और प्राचीन पानीपत की याद दिलाते हैं। परिवर्तन आया है, मार्केट्स ने पुरानी दुकानों को निगल लिया है, लेकिन गलियों की आत्मा वही है। अगर आप पानीपत आएँ, तो पैदल चलें इन गलियों में। हर मोड़ पर एक कहानी इंतज़ार कर रही है। 
Ram Mohan Rai, 
Panipat/05.11.2025

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