पंजाब की पवित्र धरती पर : चमकौर साहिब और फतेहगढ़ साहिब की हृदयस्पर्शी यात्रा (तीर्थयात्रा – 19 नवंबर 2025)आज सुबह-सुबह ही मन में एक अजीब-सी बेचैनी थी। सिख इतिहास की वो गाथाएँ जो बचपन से सुनता आया हूँ, आज उन्हें अपनी आँखों से देखने का दिन था। पंजाब की इस पावन भूमि पर खड़े होकर गुरु गोबिंद सिंह जी महाराज और उनके साहिबजादों की वीरता व बलिदान को साक्षात महसूस करने का सुअवसर मिला। यह यात्रा केवल तीर्थयात्रा नहीं थी — यह एक भावनात्मक यात्रा थी, जो आत्मा को झकझोर कर रख देती है।●चमकौर साहिब – जहाँ 40 मुक्तों ने अमरत्व प्राप्त कियासबसे पहले हम चमकौर साहिब पहुँचे। यहाँ की हवा में ही एक अलग-सी गंभीरता महसूस होती है। हम सबसे पहले पहुँचे गुरुद्वारा श्री तारी साहिब (जिसे ताली साहिब भी कहा जाता है)। यहीं पर गुरु गोबिंद सिंह जी ने आनंदपुर साहिब छोड़ते समय अपनी तलवार को ज़मीन पर टेककर प्रण लिया था कि अब पीछे नहीं हटेंगे। यहाँ खड़े होकर मन स्वतः ही नतमस्तक हो गया।●इसके बाद हम गए गुरुद्वारा श्री कत्लगढ़ साहिब। यह वही कच्ची गढ़ी है जहाँ दिसंबर 1705 में गुरु गोबिंद सिंह जी महाराज अपने दो बड़े साहिबजादे — बाबा अजीत सिंह जी (18 वर्ष) और बाबा जुझार सिंह जी (14 वर्ष) तथा मात्र 40 सिख योद्धाओं के साथ दस लाख की मुग़ल सेना से दो-दो हाथ किए थे।साहिब जी ने स्वयं अपने दोनों बड़े साहिबजादों को युद्ध के लिए भेजा और दोनों ने अद्भुत वीरता दिखाते हुए शहादत प्राप्त की। जब सिखों की संख्या बहुत कम रह गई तो पंच प्यारे ने गुरु जी को आदेश दिया कि वे गढ़ी से निकल जाएँ और पंथ को संभालें। रात के अंधेरे में गुरु साहिब, भाई मन्नी सिंह, भाई दया सिंह व भाई धर्म सिंह जी सहित केवल पाँच सिख ही जीवित निकल सके। शेष 40 सिखों ने प्राण त्याग दिए। वे 40 सिख आज "चाली मुक्ते" के नाम से अमर हैं।यहाँ की दीवारें आज भी जैसे चीखती हुई प्रतीत होती हैं। कत्लगढ़ साहिब में खड़े होकर जब मैंने वो गाथा सुनी तो आँखें भर आईं। एक पिता ने अपने जवान बेटों को स्वयं युद्धभूमि में भेजा, सिर्फ़ धर्म की रक्षा के लिए। यह वीरता नहीं, उससे कहीं ऊपर का त्याग है।●फतेहगढ़ साहिब – जहाँ मासूमों ने भी इतिहास रच दियाचमकौर साहिब से निकलकर हम सिरहिंद पहुँचे और पहुँचे गुरुद्वारा फतेहगढ़ साहिब। यहाँ आते ही हृदय भारी हो गया।यह वही स्थान है जहाँ औरंगजेब के आदेश पर उसके क्रूर गवर्नर वज़ीर ख़ान ने गुरु गोबिंद सिंह जी के छोटे साहिबजादे — बाबा जोरावर सिंह जी (9 वर्ष) और बाबा फतेह सिंह जी (7 वर्ष) को ठंडी दिसंबर की रात में जिंदा दीवार में चिनवा दिया था। सिर्फ़ इसलिए कि दो मासूम बच्चे ने कहा — "हम अपने धर्म को नहीं छोड़ सकते।"माता गुजरी जी भी यहीं ठंडे बुर्ज में शहीद हो गईं थीं। जब दीवार ऊँची होती गई और बच्चों का चेहरे दिखना बंद हो गए, तब भी उनके मुख से केवल एक ही नारा गूँजा था — "वाहेगुरु जी का खालसा, वाहेगुरु जी की फतेह !"यहाँ खड़े होकर मैंने बहुत देर तक कुछ बोलने की हिम्मत नहीं की। सिर्फ़ आँसू बहते रहे। इतनी छोटी उम्र में इतना बड़ा त्याग... यह कल्पना से परे है। आज भी फतेहगढ़ साहिब में हर साल दिसंबर में लाखों श्रद्धालु आते हैं और उन मासूम शहीदों को नमन करते हैं। ●लौटते समय...लौटते समय कार में पूरी तरह खामोश था। आज मैंने किताबों में पढ़ी हुई बातों को अपनी आँखों से देखा, अपने दिल से महसूस किया। यह यात्रा केवल धार्मिक नहीं थी — यह एक सबक थी। सबक कि धर्म की रक्षा के लिए कितनी भी बड़ी कुर्बानी देनी पड़े, वह छोटी है। सबक कि साहस उम्र नहीं, विश्वास देखता है। 7 और 9 साल के बच्चों ने जो कर दिखाया, उसे देखकर आज की हमारी छोटी-छोटी मुश्किलें बहुत तुच्छ लगने लगती हैं।शायद यही कारण है कि सिख पंथ आज भी सिर ऊँचा करके जीते हैं क्योंकि उनकी जड़ों में ऐसे बलिदानियों का खून है।बोलो जी — वाहेगुरु जी का खालसा, वाहेगुरु जी की फतेह ! जो बोले सो निहाल, सत श्री अकाल !इस पवित्र यात्रा के लिए वाहेगुरु का लाख-लाख शुक्र। 🙏🏻Ram Mohan Rai, 18.11.2025
(तीर्थयात्रा – 19 नवंबर 2025)
आज सुबह-सुबह ही मन में एक अजीब-सी बेचैनी थी। सिख इतिहास की वो गाथाएँ जो बचपन से सुनता आया हूँ, आज उन्हें अपनी आँखों से देखने का दिन था। पंजाब की इस पावन भूमि पर खड़े होकर गुरु गोबिंद सिंह जी महाराज और उनके साहिबजादों की वीरता व बलिदान को साक्षात महसूस करने का सुअवसर मिला। यह यात्रा केवल तीर्थयात्रा नहीं थी — यह एक भावनात्मक यात्रा थी, जो आत्मा को झकझोर कर रख देती है।
●चमकौर साहिब – जहाँ 40 मुक्तों ने अमरत्व प्राप्त किया
सबसे पहले हम चमकौर साहिब पहुँचे। यहाँ की हवा में ही एक अलग-सी गंभीरता महसूस होती है। हम सबसे पहले पहुँचे गुरुद्वारा श्री तारी साहिब (जिसे ताली साहिब भी कहा जाता है)। यहीं पर गुरु गोबिंद सिंह जी ने आनंदपुर साहिब छोड़ते समय अपनी तलवार को ज़मीन पर टेककर प्रण लिया था कि अब पीछे नहीं हटेंगे। यहाँ खड़े होकर मन स्वतः ही नतमस्तक हो गया।
●इसके बाद हम गए गुरुद्वारा श्री कत्लगढ़ साहिब। यह वही कच्ची गढ़ी है जहाँ दिसंबर 1705 में गुरु गोबिंद सिंह जी महाराज अपने दो बड़े साहिबजादे — बाबा अजीत सिंह जी (18 वर्ष) और बाबा जुझार सिंह जी (14 वर्ष) तथा मात्र 40 सिख योद्धाओं के साथ दस लाख की मुग़ल सेना से दो-दो हाथ किए थे।
साहिब जी ने स्वयं अपने दोनों बड़े साहिबजादों को युद्ध के लिए भेजा और दोनों ने अद्भुत वीरता दिखाते हुए शहादत प्राप्त की। जब सिखों की संख्या बहुत कम रह गई तो पंच प्यारे ने गुरु जी को आदेश दिया कि वे गढ़ी से निकल जाएँ और पंथ को संभालें। रात के अंधेरे में गुरु साहिब, भाई मन्नी सिंह, भाई दया सिंह व भाई धर्म सिंह जी सहित केवल पाँच सिख ही जीवित निकल सके। शेष 40 सिखों ने प्राण त्याग दिए। वे 40 सिख आज "चाली मुक्ते" के नाम से अमर हैं।
यहाँ की दीवारें आज भी जैसे चीखती हुई प्रतीत होती हैं। कत्लगढ़ साहिब में खड़े होकर जब मैंने वो गाथा सुनी तो आँखें भर आईं। एक पिता ने अपने जवान बेटों को स्वयं युद्धभूमि में भेजा, सिर्फ़ धर्म की रक्षा के लिए। यह वीरता नहीं, उससे कहीं ऊपर का त्याग है।
●फतेहगढ़ साहिब – जहाँ मासूमों ने भी इतिहास रच दिया
चमकौर साहिब से निकलकर हम सिरहिंद पहुँचे और पहुँचे गुरुद्वारा फतेहगढ़ साहिब। यहाँ आते ही हृदय भारी हो गया।
यह वही स्थान है जहाँ औरंगजेब के आदेश पर उसके क्रूर गवर्नर वज़ीर ख़ान ने गुरु गोबिंद सिंह जी के छोटे साहिबजादे — बाबा जोरावर सिंह जी (9 वर्ष) और बाबा फतेह सिंह जी (7 वर्ष) को ठंडी दिसंबर की रात में जिंदा दीवार में चिनवा दिया था। सिर्फ़ इसलिए कि दो मासूम बच्चे ने कहा — "हम अपने धर्म को नहीं छोड़ सकते।"
माता गुजरी जी भी यहीं ठंडे बुर्ज में शहीद हो गईं थीं। जब दीवार ऊँची होती गई और बच्चों का चेहरे दिखना बंद हो गए, तब भी उनके मुख से केवल एक ही नारा गूँजा था —
"वाहेगुरु जी का खालसा, वाहेगुरु जी की फतेह !"
यहाँ खड़े होकर मैंने बहुत देर तक कुछ बोलने की हिम्मत नहीं की। सिर्फ़ आँसू बहते रहे। इतनी छोटी उम्र में इतना बड़ा त्याग... यह कल्पना से परे है। आज भी फतेहगढ़ साहिब में हर साल दिसंबर में लाखों श्रद्धालु आते हैं और उन मासूम शहीदों को नमन करते हैं।
●लौटते समय...
लौटते समय कार में पूरी तरह खामोश था। आज मैंने किताबों में पढ़ी हुई बातों को अपनी आँखों से देखा, अपने दिल से महसूस किया। यह यात्रा केवल धार्मिक नहीं थी — यह एक सबक थी। सबक कि धर्म की रक्षा के लिए कितनी भी बड़ी कुर्बानी देनी पड़े, वह छोटी है। सबक कि साहस उम्र नहीं, विश्वास देखता है। 7 और 9 साल के बच्चों ने जो कर दिखाया, उसे देखकर आज की हमारी छोटी-छोटी मुश्किलें बहुत तुच्छ लगने लगती हैं।
शायद यही कारण है कि सिख पंथ आज भी सिर ऊँचा करके जीते हैं क्योंकि उनकी जड़ों में ऐसे बलिदानियों का खून है।
बोलो जी —
वाहेगुरु जी का खालसा, वाहेगुरु जी की फतेह !
जो बोले सो निहाल, सत श्री अकाल !
इस पवित्र यात्रा के लिए वाहेगुरु का लाख-लाख शुक्र। 🙏🏻
Ram Mohan Rai,
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