सुन भाई चाचा ,हां भतीजा
राजनितीक परिवार
भतिजा बनाम खुद की औलाद -1
अभी अभी आपने महाराष्ट्र का महाभारत देखा है चाचा भतिजा की चालें देखी है भारतीय राजनिती में ये कोई नया खेल नहीं है नई बात यही रही कि भतिजा चाचा की राजनिती को कोई खास नुकसान नहीं पहुंचा पाया
इसका कारण यह रहा कि शरद पंवार बहुत मजबूत मराठा क्षत्रप है उनकी पार्टी पर ही नहीं मराठा वोटो पर गहरी पकड़ है 1967 से बड़ी राजनिती करने वाले शरद पंवार के अलावा शायद मुलायम सिंह यादव ही आज सक्रीय है पंवार ने आज भी अपने पिता के परिवार को एक रखा हुआ है उनके इकलोती संतान बेटघ सुप्रिया सुले है जो उसी बारामती से सांसद है जहां की विधानसभा से अजित पंवार विधायक है इस घटनाकर्म से सबसे ज्यादा दुख सुप्रिया सुले को ही हुआ जिन्हें पार्टी टूटने से भी ज्यादा दुख परिवार के टूटने का लग रहा था ये सुप्रिया काअपने भाई के प्रति पंवार का भतिजे के प्रति मोह ही था की ना तो उन्होनें अजित पंवार के खिलाफ कुछ कहा ना ही उन्हें पार्टी से निकाला उल्टे अजित पंवार के पार्टी में आने से सुप्रिया सुले सबसे ज्यादा खुश हुई
चाचा भतिजे के मनमुठाव में आइये सबसे पहले महाराष्ट्र की इसी उठपटाव के एक पात्र उधव ठाकरे को लेते है बाल ठाकरे ने महाराष्ट्र ने मराठा राजनिती की शुरुआत की उन्होनें महाराजा शिवाजी के नाम पर शिवसेना बनाई कुछ लोग इसे भगवान शिव के नाम पर बनाई हुई मानते है पर ये असल में मराठा वीर शिवाजी के नाम पर है शुरु में शिवसेना उत्तर भारतीयों की बंबई में बढती संख्या का विरोध करने वाला एक गैर राजनितीक संगठन था बाद में बहुत बाद में भी ये सिर्फ बंबई महानगर पालिका अब मुंबई महानगर पालिका के चुनाव लड़ने वाला संगठन बना यहां तक की भाजपा के साथ गठबंधन होने के बावजूद चुनाव उन्होनें भाजपा के चुनाव चिन्ह पर लड़ा
बाल ठाकरे का रूतबा उनका कद इतना बड़ा था खासतौर से हिंदूत्व के सवाल पर की संघ संचालक मोहन भागवत से पहले सबसे ज्यादा प्रभावशाली संघ प्रमूठ बाला साहेब देवरस भी बाला साहेब ठाकरे की हाजिरी भरते थे नागपूर के बड़े मंहत देवरस बंबई के मठाधिश बाल ठाकरे के सामने छोटे पड़ते थे तब आर एस एस भी इतना व्यापक नहीं था संघ में हेडगवार व गुरूजी के नाम से प्रसिद्ध गोलवलकर के बाद उन से भी ज्यादा प्रसिद्ध बाला साहेब देवरस थे
इन तीनों ने हेडगवार , गोलवलकर व देवरस ने संघ की स्थापना के बाद 94 साल में से लगभग 68-70 साल संघ की प्रमूखता इन तीनों के पास ही रही पर संघ अगर मोहन भागवय को छोड़ दिया जाये तो सबसे ज्यादा देवरस के समय में ही फलाफूला बाला साहब देवरस का प्रभाव संघ पर कितना ज्यादा था इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है की परिवार की राजनिती या वंश की राजनिती के सख्त खिलाफ संघ का कामकाज बाला साहब देवरस के बाद उनके छोटे भाई भाऊ साहब देवरस देखते थे भाऊ साहब संघ की राजनिती भी देखते थे बाला साहब देवरस के बाद वैसे तो संघ में नंबर दो तीन या उसके बाद कई पदाधिकारी थे मसलन प्रोफेसर राजेन्द्र सिंह उर्फ रज्जू भैया व शेशाद्री भी थे पर जो पावर जो ताकत भाऊ साहब देवरस के पास थी वो किसी अन्य के पास नहीं थी
राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ या भाजपा के पदाधिकारी इसे स्वीकार नहीं करेंगें पर सण यही है कि उस समय संघ में नंबर दो खुद संघ प्रमूख बाला साहब देवरस के छोटे भाई भाऊ साहब देवरस थे ये संघ की परिपाटी के बिल्कुल अलग था तब संघ एक परिवार द्वारा संचालित लगता था इसे भाग्य की एक विडंबना ही कहना उपयुक्त होगा कि भाऊ साहब देवरस का निधन बाला साहेब देवरस से पहले हो गया नहीं तो यह तय लग रहा था कि बाला साहब देवरस के बाद अगला संघ प्रमूख उनका छोटा भाई भाऊ साहब देवरस ही होते तब परिवार विरोधी संघ या शादी ना करने के अघौषित विधान वाले संघ का चौथा प्रमूख ही खुद उसी के परिवार वाला बन जाता
संघ की कार्यप्रणाली ना जानने वालों के लिए बताना चाहूंगा की संघ की कार्यप्रणाली ऐन माफिया की तरह चलती है अमेरिका की प्रसिद्ध अपराधी संगठन माफिया की कार्यप्रणाली इस तरह की है कि माफिया का जो भी प्रमूख या डान बनता है वो अगले माफिया प्रमूख का नाम एक स्लिप पर लिखकर एक बंद लिफाफे में एक अलमारी में रख देता है तब अगर माफिया प्रमूख की किसी भी वजह से मौत हो जाये तो वो लिफाफा खोला जाता है और उसमें लिखा व्यक्ती ही अगला माफिया चिफ होता है ऐसा नहीं है कि
माफिया चिफ बीच में रिटायर नहीं हो सकता पर ऐसा होने पर वो लिफाफा नष्ट कर दिया जाता है और रिटायर होने वाला माफिया डोन खुद अगले माफिया चिफ कघ घौसणा करता है
बिल्कुल यही संघ यानी आर एस एस में होता है संघ प्रमूख ही मौत के बाद लिफाफे के मार्फत या खुद द्वारा की गई घौषणा से अगला संघ प्रमूख निर्धारित करता है वो माफिया की तरह संघ के संगठन में काम करने वाला नंबर दो भी हो सकता है नंबर तीन चार दस बीस सौ या बिना नंबर का भी हो सकता है हालांकी माफिया कघ तरह संघ में भी अगला प्रमूख आगे के दस में से चुना जाता है पर ये नियम या सिद्धांत नहीं है निवर्तमान संघ प्रमूख लिफाफे के मार्फत या खुद की घौषणा से संगठन में नंबर सौ या उसके बाद के पद पर कार्य करने वाले को भी अपने बाद संघ प्रमूख बना सकता है और उसे कोई चैलेंज नहीं कर सकता है क्यों की यही संघ का विधान है
संघ के बारे में इतना कुछ बताने का मतलब सिर्फ ये था कि अगर भाऊ साहब देवरस जिंदा रहते तो वे अगले संघ प्रमूख हो सकते थे तब संघ का परिवारीक विरोध वाला नियम तीसरे ही मौके पर धरासाही हो जाता पर
मेरी आज की पोस्ट का मुख्य केंद्र तो संघ है ही नहीं संघ पर मैं ऐसी दस भागों की पोस्ट लिख सकतख हूं जिसमें संघ ने इन घौषित नियमों को भी तोड़ा है पर वो आज का विषय नहीं है यहां पर बाला साहब देवरस के बारे में इतना लिखने का मतलब सिर्फ ये है कि संघ का आज तक का सबसे ताकतवर प्रमुख भी बाला साहब ठाकरे से दबता था
उस समय ज्यादातर हिंदू परिवार एक परिवार जिसमें ज्यादातर एक या दो दादा उनके पांच सात बेटे व उनके आगे के बेटों का संयुक्त परिवार होता था जिसमें पर्मुख दादा या ताऊ या चाचा राजनिती करता या देसी भाषा में कहूं तो चौधर करता था पर साथ में वो अगले अपनी विरासत के लिए भाई के बेटे को ही रखता था जिससे परिवार में भी एकता रहती थी व एक संदेश भी जाता था कि खुद की औलाद को आगे नहीं बढा रहा अपने बाद नेता अपने भतिजे को बना रहा है अपना साम्राज्य भतिजे को सौंप के जाने वाला है
इसी तरह के बाला साहब ठाकरे थे थो अपने उत्तराधिकारी के तौर पर अपने भतिजे राज ठाकरे को तेयार कर रहे थे बाला साहब की तरह राज ठाकरे भी उग्र हिंदूत्व को मानने वाले थे उग्र भाषण और उग्र बोडी लैंग्वेज उनका भी प्रिय हथियार था वो भी बाला साहब की तरह अखबारों में उग्र स्तंब व तीखे कार्टून जारी करते थे तब
उधव ठाकरे का राजनिती की तरफ बिल्कूल भी ध्यान नहीं था उनकी पत्नी रश्मी ठाकरे भी तब फिल्मों की तरफ ज्यादा आकर्षित थी उन्होने कुछ फिल्मों में सहनिर्माता के तौर पर भी काम किया उधव मीडिया प्रमुख तो बनना चाहते थे पर राजनिती में उतरना नहीं चाहते थे पर उस समय बाला साहब का बंबई पर दबदबा तो था पर राजनिती में नहीं
राजनिती में उनका आरम्भ 1995 से हुआ जब भाजपा के सहयोग से शिवसेना पहली बार महाराष्ट्र में सत्तारूढ हुई मनोहर जोशी पहले मुख्यमंत्री बने बाद में उन्हें हटाकर बाला साहब ने नारायण राणे को भी बनाया
यहां और तो बहुत कुछ हुआ भी पर सबसे बड़ा काम ये हुआ कि रिमोट से शासन करने वाले बाला साहब के परिवार को सत्ता की ताकत का अहसास हुआ तब बेटे उधव का भी उस ताकत की तरफ आकर्षण सुरू हुआ वो भी बाला साहब और राज ठाकरे के साथ राजनिती का ककहरा सिखने लगे
शुरु में बाला साहब ठाकरे सामान्य रहे पर धिरे धिरे बेटे उधव का राजनिती में आगे बढने का चाव बढते देखते रहे पश्र तब भी उनका मन राज ठाकरे के ही साथ था बाला साहब की सोच थी की उधव कुछ समय बाद राजनिती से उबकर खुद ही अलग हो जायेंगें पर ऐसा नहीं हुआ उधव से भी ज्यादा उनकी पत्नी रश्मी को राजनिती में दखल अच्छा लगने लगा और वो चाहने लगी की बाला साहब के बाद उनके बेटे उधव शिवसेना की राजनिती के प्रमुख बनें अब परिवार में बाकायदा जोड़तोड़ की राजनिती होने लगी
अब बाला साहब ठाकरे की सोच में पड़ने लगे एक तरफ बेटा उधव था तो दुसरी तरब उनका बचपन से ही तैयार किया गया शिष्य एकलव्य राज ठाकरे
बाला साहब ने दोनों में राजनिती के क्षेत्र बांटने की बहुतैरी कौशिश की पर राजनिती की ताकत सत्ता की ताकत अब परिवार ने देख ली थी ऊपर से अपार बजट वाली मुंबई महानगर पालिका
ताकत और पैसे ने परिवार में एक दुसरे पर विश्वास को तोड़ डाला अब तो राज व उधव में एक दुसरे से आगे निकलने की होढ बढने लगी अब बुढे होते बाला साहब को भी कोई निर्णय लेना जरूरी हो गया तो
आखिर में खुद के खून ने जीतना ही था और बाला साहब ठाकरे ने उधव को कार्यकारी अध्यक्ष बना कर अपने मंसुबे जारी कर दिये की जब बेटे की बात आती है तो हमेसा भतिजा ही हारता है
आथ के लिए बस इतना ही
अभी बलदेव राम मिर्धा नाथूराम मिर्धा बनाम राम निवास मिर्धा उसके आगे रिछपाल मिर्धा बनाम हरेंद्र मिर्धा बनाम भानुप्रकास मिर्धा रामदेव सिंह महरिया सुभाष महरिया प्रकाश सिंह बादल सुखबीर बादल बनाम मनप्रीत बादल मुलायम सिंह यादल शिवपाल बनाम अखिलैश यादव
और और भी बहुत से कथायें बाकी है
#भतिजाचाचा
भतिजा बनाम खुद की औलाद -1
अभी अभी आपने महाराष्ट्र का महाभारत देखा है चाचा भतिजा की चालें देखी है भारतीय राजनिती में ये कोई नया खेल नहीं है नई बात यही रही कि भतिजा चाचा की राजनिती को कोई खास नुकसान नहीं पहुंचा पाया
इसका कारण यह रहा कि शरद पंवार बहुत मजबूत मराठा क्षत्रप है उनकी पार्टी पर ही नहीं मराठा वोटो पर गहरी पकड़ है 1967 से बड़ी राजनिती करने वाले शरद पंवार के अलावा शायद मुलायम सिंह यादव ही आज सक्रीय है पंवार ने आज भी अपने पिता के परिवार को एक रखा हुआ है उनके इकलोती संतान बेटघ सुप्रिया सुले है जो उसी बारामती से सांसद है जहां की विधानसभा से अजित पंवार विधायक है इस घटनाकर्म से सबसे ज्यादा दुख सुप्रिया सुले को ही हुआ जिन्हें पार्टी टूटने से भी ज्यादा दुख परिवार के टूटने का लग रहा था ये सुप्रिया काअपने भाई के प्रति पंवार का भतिजे के प्रति मोह ही था की ना तो उन्होनें अजित पंवार के खिलाफ कुछ कहा ना ही उन्हें पार्टी से निकाला उल्टे अजित पंवार के पार्टी में आने से सुप्रिया सुले सबसे ज्यादा खुश हुई
चाचा भतिजे के मनमुठाव में आइये सबसे पहले महाराष्ट्र की इसी उठपटाव के एक पात्र उधव ठाकरे को लेते है बाल ठाकरे ने महाराष्ट्र ने मराठा राजनिती की शुरुआत की उन्होनें महाराजा शिवाजी के नाम पर शिवसेना बनाई कुछ लोग इसे भगवान शिव के नाम पर बनाई हुई मानते है पर ये असल में मराठा वीर शिवाजी के नाम पर है शुरु में शिवसेना उत्तर भारतीयों की बंबई में बढती संख्या का विरोध करने वाला एक गैर राजनितीक संगठन था बाद में बहुत बाद में भी ये सिर्फ बंबई महानगर पालिका अब मुंबई महानगर पालिका के चुनाव लड़ने वाला संगठन बना यहां तक की भाजपा के साथ गठबंधन होने के बावजूद चुनाव उन्होनें भाजपा के चुनाव चिन्ह पर लड़ा
बाल ठाकरे का रूतबा उनका कद इतना बड़ा था खासतौर से हिंदूत्व के सवाल पर की संघ संचालक मोहन भागवत से पहले सबसे ज्यादा प्रभावशाली संघ प्रमूठ बाला साहेब देवरस भी बाला साहेब ठाकरे की हाजिरी भरते थे नागपूर के बड़े मंहत देवरस बंबई के मठाधिश बाल ठाकरे के सामने छोटे पड़ते थे तब आर एस एस भी इतना व्यापक नहीं था संघ में हेडगवार व गुरूजी के नाम से प्रसिद्ध गोलवलकर के बाद उन से भी ज्यादा प्रसिद्ध बाला साहेब देवरस थे
इन तीनों ने हेडगवार , गोलवलकर व देवरस ने संघ की स्थापना के बाद 94 साल में से लगभग 68-70 साल संघ की प्रमूखता इन तीनों के पास ही रही पर संघ अगर मोहन भागवय को छोड़ दिया जाये तो सबसे ज्यादा देवरस के समय में ही फलाफूला बाला साहब देवरस का प्रभाव संघ पर कितना ज्यादा था इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है की परिवार की राजनिती या वंश की राजनिती के सख्त खिलाफ संघ का कामकाज बाला साहब देवरस के बाद उनके छोटे भाई भाऊ साहब देवरस देखते थे भाऊ साहब संघ की राजनिती भी देखते थे बाला साहब देवरस के बाद वैसे तो संघ में नंबर दो तीन या उसके बाद कई पदाधिकारी थे मसलन प्रोफेसर राजेन्द्र सिंह उर्फ रज्जू भैया व शेशाद्री भी थे पर जो पावर जो ताकत भाऊ साहब देवरस के पास थी वो किसी अन्य के पास नहीं थी
राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ या भाजपा के पदाधिकारी इसे स्वीकार नहीं करेंगें पर सण यही है कि उस समय संघ में नंबर दो खुद संघ प्रमूख बाला साहब देवरस के छोटे भाई भाऊ साहब देवरस थे ये संघ की परिपाटी के बिल्कुल अलग था तब संघ एक परिवार द्वारा संचालित लगता था इसे भाग्य की एक विडंबना ही कहना उपयुक्त होगा कि भाऊ साहब देवरस का निधन बाला साहेब देवरस से पहले हो गया नहीं तो यह तय लग रहा था कि बाला साहब देवरस के बाद अगला संघ प्रमूख उनका छोटा भाई भाऊ साहब देवरस ही होते तब परिवार विरोधी संघ या शादी ना करने के अघौषित विधान वाले संघ का चौथा प्रमूख ही खुद उसी के परिवार वाला बन जाता
संघ की कार्यप्रणाली ना जानने वालों के लिए बताना चाहूंगा की संघ की कार्यप्रणाली ऐन माफिया की तरह चलती है अमेरिका की प्रसिद्ध अपराधी संगठन माफिया की कार्यप्रणाली इस तरह की है कि माफिया का जो भी प्रमूख या डान बनता है वो अगले माफिया प्रमूख का नाम एक स्लिप पर लिखकर एक बंद लिफाफे में एक अलमारी में रख देता है तब अगर माफिया प्रमूख की किसी भी वजह से मौत हो जाये तो वो लिफाफा खोला जाता है और उसमें लिखा व्यक्ती ही अगला माफिया चिफ होता है ऐसा नहीं है कि
माफिया चिफ बीच में रिटायर नहीं हो सकता पर ऐसा होने पर वो लिफाफा नष्ट कर दिया जाता है और रिटायर होने वाला माफिया डोन खुद अगले माफिया चिफ कघ घौसणा करता है
बिल्कुल यही संघ यानी आर एस एस में होता है संघ प्रमूख ही मौत के बाद लिफाफे के मार्फत या खुद द्वारा की गई घौषणा से अगला संघ प्रमूख निर्धारित करता है वो माफिया की तरह संघ के संगठन में काम करने वाला नंबर दो भी हो सकता है नंबर तीन चार दस बीस सौ या बिना नंबर का भी हो सकता है हालांकी माफिया कघ तरह संघ में भी अगला प्रमूख आगे के दस में से चुना जाता है पर ये नियम या सिद्धांत नहीं है निवर्तमान संघ प्रमूख लिफाफे के मार्फत या खुद की घौषणा से संगठन में नंबर सौ या उसके बाद के पद पर कार्य करने वाले को भी अपने बाद संघ प्रमूख बना सकता है और उसे कोई चैलेंज नहीं कर सकता है क्यों की यही संघ का विधान है
संघ के बारे में इतना कुछ बताने का मतलब सिर्फ ये था कि अगर भाऊ साहब देवरस जिंदा रहते तो वे अगले संघ प्रमूख हो सकते थे तब संघ का परिवारीक विरोध वाला नियम तीसरे ही मौके पर धरासाही हो जाता पर
मेरी आज की पोस्ट का मुख्य केंद्र तो संघ है ही नहीं संघ पर मैं ऐसी दस भागों की पोस्ट लिख सकतख हूं जिसमें संघ ने इन घौषित नियमों को भी तोड़ा है पर वो आज का विषय नहीं है यहां पर बाला साहब देवरस के बारे में इतना लिखने का मतलब सिर्फ ये है कि संघ का आज तक का सबसे ताकतवर प्रमुख भी बाला साहब ठाकरे से दबता था
उस समय ज्यादातर हिंदू परिवार एक परिवार जिसमें ज्यादातर एक या दो दादा उनके पांच सात बेटे व उनके आगे के बेटों का संयुक्त परिवार होता था जिसमें पर्मुख दादा या ताऊ या चाचा राजनिती करता या देसी भाषा में कहूं तो चौधर करता था पर साथ में वो अगले अपनी विरासत के लिए भाई के बेटे को ही रखता था जिससे परिवार में भी एकता रहती थी व एक संदेश भी जाता था कि खुद की औलाद को आगे नहीं बढा रहा अपने बाद नेता अपने भतिजे को बना रहा है अपना साम्राज्य भतिजे को सौंप के जाने वाला है
इसी तरह के बाला साहब ठाकरे थे थो अपने उत्तराधिकारी के तौर पर अपने भतिजे राज ठाकरे को तेयार कर रहे थे बाला साहब की तरह राज ठाकरे भी उग्र हिंदूत्व को मानने वाले थे उग्र भाषण और उग्र बोडी लैंग्वेज उनका भी प्रिय हथियार था वो भी बाला साहब की तरह अखबारों में उग्र स्तंब व तीखे कार्टून जारी करते थे तब
उधव ठाकरे का राजनिती की तरफ बिल्कूल भी ध्यान नहीं था उनकी पत्नी रश्मी ठाकरे भी तब फिल्मों की तरफ ज्यादा आकर्षित थी उन्होने कुछ फिल्मों में सहनिर्माता के तौर पर भी काम किया उधव मीडिया प्रमुख तो बनना चाहते थे पर राजनिती में उतरना नहीं चाहते थे पर उस समय बाला साहब का बंबई पर दबदबा तो था पर राजनिती में नहीं
राजनिती में उनका आरम्भ 1995 से हुआ जब भाजपा के सहयोग से शिवसेना पहली बार महाराष्ट्र में सत्तारूढ हुई मनोहर जोशी पहले मुख्यमंत्री बने बाद में उन्हें हटाकर बाला साहब ने नारायण राणे को भी बनाया
यहां और तो बहुत कुछ हुआ भी पर सबसे बड़ा काम ये हुआ कि रिमोट से शासन करने वाले बाला साहब के परिवार को सत्ता की ताकत का अहसास हुआ तब बेटे उधव का भी उस ताकत की तरफ आकर्षण सुरू हुआ वो भी बाला साहब और राज ठाकरे के साथ राजनिती का ककहरा सिखने लगे
शुरु में बाला साहब ठाकरे सामान्य रहे पर धिरे धिरे बेटे उधव का राजनिती में आगे बढने का चाव बढते देखते रहे पश्र तब भी उनका मन राज ठाकरे के ही साथ था बाला साहब की सोच थी की उधव कुछ समय बाद राजनिती से उबकर खुद ही अलग हो जायेंगें पर ऐसा नहीं हुआ उधव से भी ज्यादा उनकी पत्नी रश्मी को राजनिती में दखल अच्छा लगने लगा और वो चाहने लगी की बाला साहब के बाद उनके बेटे उधव शिवसेना की राजनिती के प्रमुख बनें अब परिवार में बाकायदा जोड़तोड़ की राजनिती होने लगी
अब बाला साहब ठाकरे की सोच में पड़ने लगे एक तरफ बेटा उधव था तो दुसरी तरब उनका बचपन से ही तैयार किया गया शिष्य एकलव्य राज ठाकरे
बाला साहब ने दोनों में राजनिती के क्षेत्र बांटने की बहुतैरी कौशिश की पर राजनिती की ताकत सत्ता की ताकत अब परिवार ने देख ली थी ऊपर से अपार बजट वाली मुंबई महानगर पालिका
ताकत और पैसे ने परिवार में एक दुसरे पर विश्वास को तोड़ डाला अब तो राज व उधव में एक दुसरे से आगे निकलने की होढ बढने लगी अब बुढे होते बाला साहब को भी कोई निर्णय लेना जरूरी हो गया तो
आखिर में खुद के खून ने जीतना ही था और बाला साहब ठाकरे ने उधव को कार्यकारी अध्यक्ष बना कर अपने मंसुबे जारी कर दिये की जब बेटे की बात आती है तो हमेसा भतिजा ही हारता है
आथ के लिए बस इतना ही
अभी बलदेव राम मिर्धा नाथूराम मिर्धा बनाम राम निवास मिर्धा उसके आगे रिछपाल मिर्धा बनाम हरेंद्र मिर्धा बनाम भानुप्रकास मिर्धा रामदेव सिंह महरिया सुभाष महरिया प्रकाश सिंह बादल सुखबीर बादल बनाम मनप्रीत बादल मुलायम सिंह यादल शिवपाल बनाम अखिलैश यादव
और और भी बहुत से कथायें बाकी है
#भतिजाचाचा
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