शेर ए कश्मीर जनाब शेख़ अब्दुल्ला
*शेर ए कश्मीर*
(Inner Voice- Nityanootan Broadcast service(
जम्मू-कश्मीर के पहले वज़ीर ए आज़म( मुख्यमंत्री) के नाम से जम्मू में बने 'शेर-ए-कश्मीर' इंटरनेशनल सेन्टर का नाम बदलना न केवल निंदनीय है अपितु अज्ञानता से भरा कदम भी है । जो लोग जनाब शेख़ अब्दुल्ला को सिर्फ फ़ारुख अब्दुल्ला के पिता अथवा उमर अब्दुल्ला के दादा के रूप में ही जानते है उन्हें उनके बारे में बहुत कुछ जानने की जरूरत है ।
वे पहले व्यक्तित्व थे, जिन्होंने कश्मीर रियासत के महामहिम महाराजा हरी सिंह की तमाम ढुलमूल नीतियों के बावजूद कश्मीर का भारत मे विलय के लिये संघर्ष किया । पाकिस्तान ने कबालियो के नाम पर जब सन 1948 में कश्मीर के बड़े हिस्से पर कब्ज़ा करके श्रीनगर की ओर कूच किया तब वहां न तो महाराजा जी की शाही फ़ौज थी और न ही इंडियन आर्मी । उस समय यदि कोई उनसे भिड़ा तो वे थे कश्मीर के खेत मजदूर और छोटे किसान जो अपने हाथ मे लाल झंडा जिस पर किसान का हल अंकित था , शेख अब्दुल्ला की अगुवाई में लड़े और पाकिस्तान को रोका । भारतीय सेना तो बाद में आई पर तब तक आज का पाक अधिकृत कश्मीर बन चुका था । क्या उनके इस बलिदान को एकदम भुलाया जा सकेगा ।
शेख़ अब्दुल्ला तो मुस्लिम कॉन्फ्रेंस के नाम से काम करते थे परन्तु यह उनकी धर्मनिरपेक्ष सिद्धान्तों के प्रति ही समर्पण था कि उन्होंने अपनी पार्टी का नाम मुस्लिम नही अपितु नेशनल कॉन्फ्रेंस नाम दिया ।
महात्मा गांधी को जब सन 1947 के भारत विभाजन के समय आशा की किरण कश्मीर में दिखाई दी तो उसके सूर्य भी शेख़ अब्दुला का साम्प्रदायिक सद्भाव का काम ही था । वे तथा उनकी पत्नी न केवल बापू के साथ खड़े रहे वहीँ देश की आज़ादी के परचम को भी मजबूती से सम्भाले रखा । उनकी पत्नी *बेगम अकबर जहाँ ने न केवल सौहार्द का काम किया वहीं कश्मीरी औरतों को स्वावलम्बी बनाने की भी मुहिम छेड़ी । यही कारण था कि उन्हें लोग *मादरे मेहरबान* के नाम से पुकारते थे ।
जम्मू-कश्मीर रियासत के भारत में एक संधि के बाद वे वहाँ के पहले मुख्यमंत्री बने । पद सम्भालते ही उन्होंने *जमीन उसकी जो जमीन बोता है* की आज्ञप्ति जारी की । जिससे पूरी सामंती व्यवस्था ही हिल गयी । उन्होंने राजवाड़ा शाही के साथ-२ जागीरदारों को भी चुनौती दी परिणामस्वरूप उनके खिलाफ प्रखर आंदोलन हुए । न केवल कांग्रेस बल्कि प्रजा मण्डल ने भी उनका विरोध किया और उनकी सरकार बर्खास्त हुई और उन्हें जेल मिली ।
शेख़ अब्दुल्ला अपने समय मे जन-२ के नेता रहे और उनके अनुयायी तथा रियासत की जनता अपने इस लोकप्रिय नेता को शेरे कश्मीर कह कर सम्बोधित करते । शेख़ साहब ने रियासत के पूर्व सामंती झंडे को भी बदला । अब झंडा इंकलाब के लाल रंग का था जिसमे किसान के हल के निशान के अलावा जम्मू,कश्मीर और लदाख की एकता की तीन लकीरे भी अंकित थी ।
आज भी जम्मू-कश्मीर की जनता के दिलों-दिमाग मे शेरे कश्मीर जनाब शेख अब्दुल्ला के बलिदान की अमर गाथाएं अंकित है । क्या सेन्टर का नाम बदल कर उन्हें भी बदल पाओगे ?
राम मोहन राय
उदयपुर(राजस्थान)
होली पर्व, 10.03.2020
(Inner Voice- Nityanootan Broadcast service(
जम्मू-कश्मीर के पहले वज़ीर ए आज़म( मुख्यमंत्री) के नाम से जम्मू में बने 'शेर-ए-कश्मीर' इंटरनेशनल सेन्टर का नाम बदलना न केवल निंदनीय है अपितु अज्ञानता से भरा कदम भी है । जो लोग जनाब शेख़ अब्दुल्ला को सिर्फ फ़ारुख अब्दुल्ला के पिता अथवा उमर अब्दुल्ला के दादा के रूप में ही जानते है उन्हें उनके बारे में बहुत कुछ जानने की जरूरत है ।
वे पहले व्यक्तित्व थे, जिन्होंने कश्मीर रियासत के महामहिम महाराजा हरी सिंह की तमाम ढुलमूल नीतियों के बावजूद कश्मीर का भारत मे विलय के लिये संघर्ष किया । पाकिस्तान ने कबालियो के नाम पर जब सन 1948 में कश्मीर के बड़े हिस्से पर कब्ज़ा करके श्रीनगर की ओर कूच किया तब वहां न तो महाराजा जी की शाही फ़ौज थी और न ही इंडियन आर्मी । उस समय यदि कोई उनसे भिड़ा तो वे थे कश्मीर के खेत मजदूर और छोटे किसान जो अपने हाथ मे लाल झंडा जिस पर किसान का हल अंकित था , शेख अब्दुल्ला की अगुवाई में लड़े और पाकिस्तान को रोका । भारतीय सेना तो बाद में आई पर तब तक आज का पाक अधिकृत कश्मीर बन चुका था । क्या उनके इस बलिदान को एकदम भुलाया जा सकेगा ।
शेख़ अब्दुल्ला तो मुस्लिम कॉन्फ्रेंस के नाम से काम करते थे परन्तु यह उनकी धर्मनिरपेक्ष सिद्धान्तों के प्रति ही समर्पण था कि उन्होंने अपनी पार्टी का नाम मुस्लिम नही अपितु नेशनल कॉन्फ्रेंस नाम दिया ।
महात्मा गांधी को जब सन 1947 के भारत विभाजन के समय आशा की किरण कश्मीर में दिखाई दी तो उसके सूर्य भी शेख़ अब्दुला का साम्प्रदायिक सद्भाव का काम ही था । वे तथा उनकी पत्नी न केवल बापू के साथ खड़े रहे वहीँ देश की आज़ादी के परचम को भी मजबूती से सम्भाले रखा । उनकी पत्नी *बेगम अकबर जहाँ ने न केवल सौहार्द का काम किया वहीं कश्मीरी औरतों को स्वावलम्बी बनाने की भी मुहिम छेड़ी । यही कारण था कि उन्हें लोग *मादरे मेहरबान* के नाम से पुकारते थे ।
जम्मू-कश्मीर रियासत के भारत में एक संधि के बाद वे वहाँ के पहले मुख्यमंत्री बने । पद सम्भालते ही उन्होंने *जमीन उसकी जो जमीन बोता है* की आज्ञप्ति जारी की । जिससे पूरी सामंती व्यवस्था ही हिल गयी । उन्होंने राजवाड़ा शाही के साथ-२ जागीरदारों को भी चुनौती दी परिणामस्वरूप उनके खिलाफ प्रखर आंदोलन हुए । न केवल कांग्रेस बल्कि प्रजा मण्डल ने भी उनका विरोध किया और उनकी सरकार बर्खास्त हुई और उन्हें जेल मिली ।
शेख़ अब्दुल्ला अपने समय मे जन-२ के नेता रहे और उनके अनुयायी तथा रियासत की जनता अपने इस लोकप्रिय नेता को शेरे कश्मीर कह कर सम्बोधित करते । शेख़ साहब ने रियासत के पूर्व सामंती झंडे को भी बदला । अब झंडा इंकलाब के लाल रंग का था जिसमे किसान के हल के निशान के अलावा जम्मू,कश्मीर और लदाख की एकता की तीन लकीरे भी अंकित थी ।
आज भी जम्मू-कश्मीर की जनता के दिलों-दिमाग मे शेरे कश्मीर जनाब शेख अब्दुल्ला के बलिदान की अमर गाथाएं अंकित है । क्या सेन्टर का नाम बदल कर उन्हें भी बदल पाओगे ?
राम मोहन राय
उदयपुर(राजस्थान)
होली पर्व, 10.03.2020
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