दूर के ढोल सुहावने

 


दूर के ढोल सुहावने होते है , यह कहावत आजकल अमेरिका पर मुकम्मल उतर रही है । जो लोग वहां नही गए उनके लिये वह किसी भी स्वर्गीय कल्पनाओं से परे न है । साधन संपन्न लोगों के लिए हर सुविधा सब जगह ही मिलती है पर सवाल तो आम लोगों का है जिन्हें न केवल भारत मे अपितु अमेरिका समेत सभी स्थानों पर अभावग्रस्त रह कर उनके लिये लड़ाई लड़नी पड़ती है । भूख ,बेकारी और बीमारी के खिलाफ संघर्ष आज सबसे बड़ी चुनौती है जो यहां भी है और वहाँ भी ।

      चार साल पहले डोनाल्ड ट्रंप अंध राष्ट्रवाद के नारे को लेकर राष्ट्रपति बने थे उसने बहुत बड़ी संख्या में अंध भक्त उन्हें मुहैय्या करवाये थे । "अमेरिकन फर्स्ट" एक ऐसा प्रलोभन था जिसमे उनके समर्थक उनकी सभी जरूरतों और मांगो का हल मानते थे । पर पूंजीवाद और उसकी नीतियाँ परलोभित तो करती है परन्तु नतीजे में निराशा ही हाथ लगती है ।

     ऐसा नही की ट्रम्प ने कुछ नही किया । कई काम हुए और विशेषकर युद्धोंउन्मादी अमेरिका की छवि को तोड़ने की कोशिश की । भारत जैसे अनेक देशों के राष्ट्राध्यक्षो के साथ मैत्री कर अपने कॉरपोरेटस को भरोसा दिलवाया की उनके बिजनेस की मंडी शीघ्र ही उपलब्ध होगी पर जिस तरह से वहाँ की अफ्रीकन, एशियाई तथा अन्य देशों की मूल आबादी को दूसरे दर्जे का नागरिकता का अहसास कराया वह तो बेहद शर्मनाक था  

    राष्ट्रपति ट्रंप को लगता था कि उनके पास उनके समर्थकों की वह शक्ति है जिससे वे चुनावी नतीजों को ही बदल देंगे । परसो की घटना एक ऐसी ही असफल कोशिश थी । जर्मनी मूल के ट्रम्प को सम्भवतः हिटलर का उदाहरण होगा जिसने बेशक संसद पर कब्ज़ा  चुनाव जीत कर किया था पर उसको बरकरार अपने अंध समर्थकों तथा मिलिट्री के बलबूते किया ।

    अमेरिकी संसद पर हमले के समय उनके समर्थकों के पास अपने नेता ट्रंप के उकसावे के अतिरिक्त सब कुछ था । आधुनिक हथियार ,बम्ब ,सेल आदि-२ । अनेक लोग अग्निशमन कपड़ो को भी पहने थे । ऐसा नही की ऐसा सिर्फ उनके समर्थक ही थे , विरोधी भी इसी तरह सुसज्जित थे । दोनों तरफ से मामला पूर्वनियोजित था । यदि एक तरफा होता तो दुनियां को ट्रम्प के रूप में एक नया हिटलर का अमेरिकी अवतार मिल ही गया था ।

     हमारे देश के बेचारे लोग सदा से ही अमेरिका के नए नायक को अपने समर्थक व शुभचिंतक के रूप में देखते है । पर उन्हें सदा ही निराशा मिली है । पूंजीवाद के लिये उनके हित सर्वोच्च है । दोस्ती ,गले लगना और नमस्ते आदि- उनके लिए सिर्फ और सिर्फ नाटक ही है ।

   महान लोकतंत्र, संसदीय व्यवस्था ,सबका साथ-सबका विश्वास कुछ ऐसी जुमलेबाजी है जो पूंजीवादी-दक्षिणपंथ के लिये सत्ता प्राप्त के साधन जब तक है जब तक वे उनके मुफीद है वरना उसे बरकरार रखने में उनकी कोई रुचि नही है ।

     अमेरिका कोई समाजवादी सोवियत रूस नही है जो आपके साथ हर मुसीबत और स्थितियों में मददगार होगा । ऐसा दोस्त कोई रूस नही था बल्कि वहाँ की समाजवादी व्यवस्था थी । पूंजीवाद और समाजवाद में ही यही एक मौलिक अंतर है । जिसे अब समाजवाद नीतियों से विहीन रूस और चीन में नही ढूंढा जा सकता ।

 अमेरिका में घटा घटनाक्रम हम भारतीयों के लिये भी सबक है ।

 राम मोहन राय 

पानीपत

08.01.2021

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