शहीद खुशदेव सिंह
*मेरा बनियान बदल भाई- शहीद खुशदेव सिंह*
( शहादत दिवस पर विनम्र श्रद्धांजलि)
खुशदेव सिंह मेरा बहुत अच्छा दोस्त था। सन 1983 में ऑल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन के एक सत्याग्रह में मैं और वह अपने 100 साथियों के साथ बुडैल जेल, चंडीगढ़ में लगभग 19 दिन साथ रहे। हमारी वहां दिनचर्या भी अजब थी। हमारे लिए वह जेल न होकर वैचारिक स्कूल था। जहां द्वंदात्मक भौतिकवाद, ऐतिहासिक भौतिकवाद, पूंजीवादी एवं सामाजिक अर्थशास्त्र का तुलनात्मक अध्ययन विश्व एवं राष्ट्रीय परिपेक्ष में राजनीतिक समझ को विकसित करना था। जिसके लिए सुबह 9 बजे से शाम 5 बजे तक हमारी क्लासेज चलती। हम खुद ही टीचर थे और खुद ही विद्यार्थी। जिसकी जिस विषय में अधिक समझ हो वह अन्यों को वह पढ़ाने का काम करता । लक्ष्मण सिंह शेखावत, बलविंदर सिंह, काशीराम पिलानिया, स्वर्ण सिंह, नवतेज सिंह, कश्मीर सिंह, बी मदन मोहन, दिवेश्वर चमोला, यशपाल छोकर, गुरिंदरपाल सिंह सभी ऐसे साथी थे जो वैचारिक रूप से परिपक्व थे। इन्हीं में मैं और खुशदेव सिंह भी थे।
खुशदेव और मैंने कानून की शिक्षा पास करके वकालत शुरू की थी। जेल के भी अजब नियम थे। सभी को उनकी शिक्षा के अनुसार सामान भी मिलता था। बीड़ी, सरसों का तेल, दूध ,चाय और दूसरा सामान जेल में कैटेगरी के अनुसार मिलता था और हम दोनों सहित कई साथी अपने शैक्षणिक स्तर के अनुसार ऊपर से कुछ ज्यादा प्राप्त करने की हैसियत रखते थे। पर हम सब चीजों को इकट्ठा कर लेते और आपस में मिल बांटकर इस्तेमाल करते। जैसे मैं अपने हिस्से की बीड़ी लेता जरूर था, पर क्योंकि पीता नहीं था, इसलिए पीने वाले साथियों को दे दिया करता था। एक दूसरे की हम तेल मालिश भी करते थे और चाय भी मिल बांट कर पीते थे। हर कैदी को 3 रोटियां मिलती थी और रोटी का साइज भी बड़े अखबार जितना होता था। हम ठहरे शहरी निम्न मध्यम वर्ग के लोग। हमारा तो एक या डेढ रोटी से पेट भर जाता, पर हमारे बलिंद्र सिंह जैसे भी अनेक साथी थे ,जो शरीर तो पतले- दुबले थे, पर खान-पान में भरपूर। चंडीगढ़ के ही एक वकील श्री जे.सी. वर्मा (निवर्तमान न्यायाधीश, पंजाब हरियाणा हाईकोर्ट/ राजस्थान हाईकोर्ट) तो हमसे बहुत ही स्नेह रखते। इसी प्रेमवश वे हर दूसरे तीसरे दिन हमसे मिलने आते और साथ लाते केले और ढेर सारा गुड़। जेल में आकर वे हमारे साथ घंटों बतियाते। वे बहुत मृदुभाषी एवं सरल व्यक्तित्व के धनी हैं। उनकी बातों में प्रेम एवं मैत्री टपकती।
वैसे तो हम सभीआपस में बहुत अच्छे साथी रहे। जिस बैरक में हम रहते थे, उसमें कुल 50 सीमेंटेड चबूतरे थे। हमें दो कंबल मिलते थे। एक बिछा लेते और एक ओढ़ लेते। पर हम ठहरे सौ सत्याग्रही। जेल अधिकारियों का कहना था कि आपको दो बैरकों में रखा जाएगा । पर हमारी और जेल प्रशासन की सहमति बनी कि सब एक ही बैरक में रहेंगे और दो चबूतरों के बीच की जगह तीसरा साथी अपना आसन लगा लेगा और इसी क्रम में नंबर एक चबूतरे पर खुश्देव सिंह था और उसके नीचे वाले स्थान पर मैं । हम क्योंकि हम पेशा थे। हममें खूब बनती। हम न केवल कानून के विषय में बात करते, अपितु अपनी पारिवारिक बातों को भी सांझा करते। मजे की बात यह थी कि बेशक खुश्देव मुझसे कद में कुछ ऊंचा था, पर डीलडौल में वह मेरे जैसा ही था। हम कपड़े भी इकट्ठे धोते और सुखाते भी एक जगह थे। 1 दिन अकस्मात ही
उसने मेरा बनियान पहन लिया और मैंने उसका और हमें पता ही नहीं चला । पर जब उतारा तो पीछे लगे कंपनी के नाम से पता चला कि हमने एक दूसरे का बनियान बदल लिया है। हम दोनों खूब हंसे और बोले कि पहले लोग पगड़ी बदल कर भाई बनते थे ,आज से हम बनियान बदल भाई बन गए हैं।
जेल से आने के बाद वह अपने काम में लग गया और मैं अपने काम में। यह वह समय था जब पंजाब में आतंकवाद चरम सीमा पर था और उसकी छाया हरियाणा में भी दृष्टिगोचर हो रही थी। दोनों तरफ सांप्रदायिक उन्माद खड़काने की कोशिशें थी। एक तरफ ये हिंदूवादी ताकतें त्रिशूल बांट रही थीं और दूसरी तरफ खालिस्तान के नारे बुलंद थे। तीसरा रास्ता वह था जिस पर हम व खुशदेव सिंह चल रहे थे, 'न हिंदू राज न खालिस्तान, जुग- जुग जिए हिंदुस्तान।'
खुश्देव का पूरा परिवार कम्युनिस्ट आंदोलन को समर्पित था। उनके पिता डॉक्टर हरनाम सिंह कम्युनिस्ट आंदोलन के अग्रणी नेता थे। पंजाब से सटे अंबाला जिले के शाहाबाद कस्बे में वे अपनी मेडिकल प्रैक्टिस के साथ-साथ मजदूरों और किसानों को लामबद्ध करने का काम कर रहे थे और ऐसे लोगों के दुश्मन तो तथाकथित हिंदू और खालिस्तानी दोनों ही थे। डॉक्टर हरनाम सिंह और उनका परिवार एक जज्बे के साथ राष्ट्रीय एकता एवं सांप्रदायिक सद्भाव के लिए कार्यरत था । आज ही के दिन 9 अप्रैल 1988 को शाहबाद में उनके पिता डॉक्टर हरनाम सिंह (तत्कालीन विधायक, शाहाबाद) की बोलती सदा- सदा के लिए बंद करने के लिए खालिस्तान समर्थक आतंकवादियों ने ए- के-47 जैसे हथियारों के साथ उन पर जानलेवा हमला किया। वे आतंकवादी उन्हें डरा धमका रहे थे कि या तो खालिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाए अथवा वे उन्हें गोलियों से भून देंगे और इसी क्रम में मेरा दोस्त खुशदेव सिंह, उनकी पत्नी गुरप्रीत कौर, पत्नी के भाई गुरदीप सिंह आगे आए और न ही हिंदू राज ,न ही खालिस्तान, जुग- जुग जिए हिंदुस्तान और भारत माता की जय के नारे लगाते हुए आतंकवादियों से भिड़ गए। इसी कशमकश में इन तीनों वीरों की शहादत हुई। डॉ हरनाम सिंह तो बच गए, परंतु उनकी वीरांगना पत्नी ने एक आतंकवादी को अपने मजबूत हाथों से पकड़ लिया। इस घटना के अनेक वर्षों तक डॉक्टर हरनाम सिंह और उनकी पत्नी जीवित रहे। अपने पुत्र एवं निकटस्थ रिश्तेदार की याद को ताजा रखते हुए उन्होंने राष्ट्रीय एकता, सांप्रदायिक सद्भाव और अपने विचारों की प्रतिबद्धता को और मुखर ढंग से प्रतिपादित किया।
जब- जब मैं अपने बनियान बदल भाई खुशदेव सिंह को याद करता हूं तो पूरा घटनाक्रम एक फिल्म की तरह सामने आता है। खुशदेव सिंह हमारे दिल में हमेशा जिंदा रहेगा। उसके परिवार ने इस देश की एकता और अखंडता के लिए जो शहादत दी है, वह सदैव स्मरणीय रहेगी । खुश्देव सिंह के प्रिय नारे,' न हिंदू राज न खालिस्तान, जुग- जुग जिए हिंदुस्तान, को गाकर हम उन्हें नमन करते हैं और विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।
राम मोहन राय,
पानीपत/09.04.2021
नित्य नूतन वार्ता
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