आर्य समाज और मेरी मां

*मां की गोद मे*
(*आर्य समाज*)
गणतंत्र दिवस के शुभ अवसर पर ,आर्य समाज, खैल बाजार ,पानीपत के प्रबंधन ने दिवस  समारोह  में  मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित किया । यह मेरे अति हर्ष का विषय था । इस समाज से मेरा विगत अनेक दशकों से सम्बन्ध है । मेरी स्व0 माता सीता रानी सैनी ,इस समाज  के संस्थापको में से एक थी । उनका कहना था कि मैं उस समय गर्भ में था जब इसकी शुरुआत हुई थी । यदि इस रूप में माने तो मेरे जन्म से भी पूर्व इस संस्था से मेरे ताल्लुक़ात है । यह आर्य समाज मेरे घर से कुल 2 किलोमीटर की दूरी पर है  ऊँचाई - नीचाई को तय करते गए टेडी -मेढ़ी गलियों को  पार करके । मेरी माता मुझे इन्ही गलियों से लेजाया करती और मैं 3-4 साल का बच्चा कभी उनकी उंगली पकड़ कर तो कभी उनके पीछे भागते -दौड़ते हुए यहाँ पहुचता था । रास्ते मे हलवाई हट्टा भी आता था ,जहाँ हलवाइयों की दुकानों पर सजी मिठाइयां , समोसे व गोलगप्पे मुझे लुभाते थे ।जब भी हम यहां से गुजरते तो मैं मां से जिद करता कि वे मुझे कुछ दिलवाए , कभी वह कुछ दिलवा भी देती कभी मुझे सबक सिखाने के लिये मना भी करती । मैं जमीन पर लेट जाता पर वह चलती जाती और जब मैं देखता की वह दूर चली गयी है तो मैं खुद उठता वह तेज दौड़ लगा कर उसके पास पहुँचता । आज उन्ही रास्ते से होकर मैं पैदल ही आर्य समाज पहुंचा पर इस बार न ज़िद थी और न उसको पाने के लिये दौड़ ,क्योकि आज माँ भी मेरे साथ न थी । पर आज ऐसा लग रहा था कि माँ  आगे चल रही है और मैं पीछे -पीछे  ।
 अगर मैं यूं कहूं कि मेरी शिशु अवस्था से किशोरावस्था का पूरा समय, मेरी माँ के साथ इसी आर्य समाज के वातावरण व सानिध्य में गुजरा तो कोई अतिशयोक्ति नही होगी । उस समय एक ही *इश्क* हुआ करता और वह यह कि आर्य समाज में जाना है ,वहाँ के कार्यक्रमो में भाग लेना है । संध्या- यज्ञ के वेद मन्त्र तो मुझे 7-8 साल की ही उम्र में  कंठस्थ हो गए थे । मेरी मां मुझे बताती थी कि जब मेरा जन्म हुआ तो इस आर्य समाज की उनकी साथी उस समय हॉस्पिटल में मौजूद थी तथा मेरे जन्म होने पर उनकी अत्यंत प्रिय आर्य समाजी बहन श्रीमति धर्म देवी भाटिया ने " त्वम वेदों असित" कह कर मुझे सोने की शलखा में शहद लगा कर मेरी जिह्वा पर ॐ लिख कर घुट्टी दी थी । मुझे अपनी मां से भी ज्यादा गोदी इसी समाज की माताओं से मिली है। मेरे जन्म के साथ -२ , श्रीमती सरला देवी  और धर्म देवी भाटिया को भी सन्तानोपत्ति हुई थी । मेरी मां के सामाजिक कार्यो में व्यस्त रहने पर वे ही मूझे सम्भालती थी और समय रहने पर अपना दूध भी पिलाती थी । मेरे  ननिहाल में मेरी माँ अपने पांच भाइयों की इकलोती बहन थी ,अर्थात मेरे कोई मौसी( मासी)नही थी । परन्तु यहां इतनी मासियां थी जिनमे राधा बहन जी , सरला मासी , दोनो धर्म देवी , सावित्री मासी , शीला वंती मासी , सुहागवंती मासी - ये सभी ऐसी थी कि  जो सात अलग -२ शरीर ,एक जान थी । आर्य समाज ,खैल बाजार ,पानीपत  उन लोगो द्वारा स्थापित की गई थी जो सन 1947 में भारत-पाकिस्तान के विभाजन के बाद पाकिस्तान से विस्थापित होकर आये थे । यही वे लोग थे जिन्हें क्लेम में कई स्कूलों की जायदाद मिली थी । ये सभी लोग हालात के कारण आर्थिक रूप से कमजोर थे । जायदाद के मालिकाना हक तो इनके थे परन्तु इन्हें व्यवस्थित करने के लिये धन नही था । जिसका फायदा स्थानीय आर्य समाजियों ने उठाया और फिर जब उन्होंने जायदाद पर भी कब्ज़ा कर लिया तो इन्हें आर्य समाज मंदिर तक से बेदखल कर दिया । वाक्या ऐसा बताया जाता है कि संयुक्त आर्य समाज के वार्षिक चुनाव का समय प्रातः 9 बजे तय था और जब ये पुरुषार्थी भाई समयानुसार मंदिर में पहुंचे तो चुनाव हो चुका था व वहाँ ताला जड़ दिया गया था । यह घटना सन 1957 की है । यह इन लोगो का दूसरा विस्थापन था । इनकी हिम्मत ने इन्हें रास्ता दिखाया और महाशय बागमल के नेतृत्व में ये सभी खैल बाज़ार में एक सुनसान जगह पर पहुंचे और अपनी आदत के अनुसार पुरुषार्थ कर इसे ही साफ -सफाई कर *आर्य समाज मंदिर, खैल बाजार, विरजानंद भवन*  नाम दे दिया गया । मुझे याद है कि इसके वार्षिकोत्सव के अवसर पर मेरी मां ,अपनी इन आर्य बहनों के साथ लोगो से लंगर का सहयोग ,अपने हाथ मे दो बड़े थैले लेकर निकलती थी । जिसमे एक मे दाल और दूसरे में आटा इकठ्ठा किया जाता था । लोग एक चवन्नी से  अधिकतम दो रुपये तक का सहयोग भी करते थे । इन उत्सवों में ही मैने , आनंद स्वामी ,प0 नत्था सिंह , पृथ्वी सिंह बेधड़क , प्रकाशवीर  शास्त्री , स्वामी अग्निवेश ,राम गोपाल शालवाले , प्रो0 उत्तम चंद शरर जैसे ओजस्वी वक्ताओं के विचारों को सुना । क्या गज़ब का जज़्बा था उस समय ।
 वर्ष 1965 में मेरी मां काफी बीमार हो गयी । पानीपत में हमारा कोई नजदीकी रिश्तेदार न था । थे तो इसी आर्य समाज की बहने ,पर इनका भी क्या कहना कि 10-12 महिलाओं ने अपनी ड्यूटी सम्भाल ली । किसी ने रसोई की ,तो किसी ने कपड़े धोने व सफाई की । पर वह ड्यूटी सबसे महत्व पूर्ण थी रात - दिन 24 घण्टे , चार -२ घण्टे की देखरेख की जिम्मेवारी । जिस मासी की रात दो बजे ड्यूटी खत्म होती तो उससे पहले ही दूसरी मासी आ जाती ।आर्य समाज की यह बहने इतना ही नही सामाजिक मुद्दों पर भी जागरूक रहती । दहेज ,शराब तथा अन्य कुरीतियों के खिलाफ इनके मोर्चे कहीं न कहीं लगातार चलते ही रहते थे । महिलाओं पर अत्याचार करने वाले लोग इनके नाम से ही खौफ खाते थे । साल 1984 में राजस्थान के देवराला में एक महिला रूपकंवर को उसके मृतक पति के साथ जिंदा जला देने को *सती* के नाम से महिमण्डित किया गया । जगन्नाथ पुरी के शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद पूरी ने इसको वेद सम्मत कह कर इसका समर्थन किया ।  राष्ट्रीय महिला आयोग तथा स्वामी अग्निवेश के नेतृत्व में एक विरोध प्रदर्शन ,पुरी मठ के सामने किया गया। । इस आर्यसमाज से लगभग सात बहने ,मेरी मां के नेतृत्व में जगन्नाथपुरी गयी और मठ के सामने जाकर गर्जना करने लगी कि सती प्रथा वेद सम्मत नही है । यद्यपि उनके विद्वान स्वामी अग्निवेश ने , शंकराचार्य को चुनौती दी है फिर भी वे  पहले उनसे शास्रातत्रार्थ करे और यदि वे उनसे जीत जाए तभी उनके नेता स्वामी अग्निवेश से चर्चा करे ।मेरी मां के पास हर रोज कोई न कोई पीड़ित महिला अपनी शिकायत लेकर आती रहती थी । उनकी बात करने में इतना दम व रौब होता था कि उन्हें जवाब सुनने की आदत समाप्त हो गयी थी । घरेलू हिंसा से शिकार एक औरत आयी और वे उसके साथ अपनी साथियो के साथ चल पड़ी । पीड़ित महिला की सास ,उनसे कुछ बदतमजी से बोली ,जिसे मेरी मां सहन न कर सकी परिणामस्वरूप ब्लड प्रेशर काफी हाई हो गया और अगले दिन ही पक्षाघात का अटैक हुआ । तमाम चिकित्सीय उपचार मिलने के बाद भी उनकी हालत न सुधर सकी । अपनी अंतिम अवस्था मे वे तीन साल बिस्तर पर रही । उनकी आवाज लगभग समाप्त हो गयी थी पर फिर भी हमे जब उन्हें बुलवाना होता तो हम नारा लगाते *जो बोले सो अभय - वह जवाब देती वैदिक धर्म की जय* ।
उनकी इस अवस्था मे भी आर्य महिला समाज ,खैल बाजार की बहने उनसे मिलने आती और आख़िरकार 29 जून, 1992  को *ओम ॐ* का स्मरण करती ,वे अपनी अनंत यात्रा में निकल पड़ी। उनकी  अंतिम यात्रा में पुरुषों से भी ज्यादा महिलाओ की संख्या थी जो *वैदिक धर्म की जय, भारत माता की जय , ऋषि दयानंद की जय और महात्मा गांधी अमर रहे* के नारे लगाते चल रहे थे । उनके जाने के बाद , इस आर्य समाज से सम्बन्ध लगभग टूट सा गया था परन्तु जब समाज के प्रधान श्री आत्म प्रकाश आर्य का निमंत्रण मिला तो बेहद प्रसन्नता हुई और मैं अपनी बिछुड़ी मां की गोदी में सिमटने के लिये वहाँ जा पंहुचा ।

राम मोहन राय
(Nityanootan broadcast service)
27.01.2019

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