Gandhi and Bhagat Singh
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*स0 भगत सिंह और महात्मा गांधी*
शहीद ए आज़म स0 भगत सिंह के 112वे जन्म दिवस पर महात्मा गांधी का स्मरण बेशक कुछ लोग अप्रासंगिक माने पर मेरी दृष्टि से यह सर्वथा उचित है । बापू का 150 वां जन्म जयंती वर्ष आगामी 2 अकटुबर को प्रारम्भ होने जा रहा है ,इस पूरे वर्ष में महात्मा गांधी व उनकी स्वनाम धन्या पत्नी कस्तूरबा की याद में अनेक कार्यक्रम, आयोजन व प्रवित्तियों को सरकारी व गैर सरकारी स्तर पर किया जाएगा । यह भी एक अजब संयोग ही है कि गांधी जयंती से ठीक चार दिन पहले ,28 सितम्बर को स0 भगत सिंह की जयंती पड़ रही है ।
सर्व विदित है कि स0 भगत सिंह एक क्रांतिकारी थे तथा वे रुस में हुई समाजवादी क्रांति व मार्क्सवाद से प्रभावित थे ,जबकि गांधी जी एक कठोर अहिंसावादी तथा आस्तिक । 'अभूतपूर्व अहिंसक महात्मा गांधी और क्रांतिकारी शहीद ए आज़म' भगत सिंह के सिद्धांतों में मतभेद होना स्वाभाविक है । वे दो समानांतर रेखाओं की तरह थे , जो आपस मे नही मिल सकते थे पर वे एक दूसरे से दूर भी नही रह सकते थे ,और न थे ।'
गांधी की अहिंसा -सत्य, प्रेम और करुणा पर आधारित थी जबकि स0 भगत सिंह भी हर मामले में हिंसा के पक्षधर न थे । वे नास्तिक थे और गांधी को आस्तिकता के दर्शन भगतसिंह की नास्तिकता में भी थे । दोनो में परस्पर विश्वाश इतना था कि वे दोनों 'परस्पर संवाद' में यकीन रखते थे और तर्क के आधार पर ही एक दूसरे को जीतना चाहते थे । दोनो का मानना था कि बम व हथियार कभी भी क्रांति का पर्याय नही हो सकते । दोनो ब्रिटिश शासन का मुकाबला अपने -२ ढंग से करना चाहते थे , मंजिल एक थी परन्तु रास्ते अलग-२ थे । दोनो एक दूसरे को अपने विचारों से कायल करना चाहते थे । बापू देश की नब्ज को जान चुके थे और साथ साथ दीन -हीन भारतीयों के हालात भी और यह भी की निर्दयी ,निरंकुश व अहंकारी अंग्रेज़ी सरकार का मुकाबला ,हथियारों से न होकर जनता को एकजुट कर उनकी सामूहिक विचारिक शक्ति से करना होगा । इधर भगत सिंह भी बार -२ नए प्रयोग कर रहे थे और उनका मानना था ' इंकलाब की तलवार की धार विचारों की सान पर तेज होती है ।' अपने इन्ही संवादों को पत्रों के माध्यम से '*बम की पूजा*' और ' *बम का दर्शन'* लेख लिख कर गांधी और भगत सिंह ने एक दूसरे को कायल करने का प्रयास किया । वे दोनों कहीं भी एक दूसरे के प्रति कभी भी कोई असम्मानजनक शब्दो का प्रयोग नही करते तथा 'क्रांतिकारी' और 'महात्मा जी' के सम्मानजनक शब्दो से सम्बोधित करते है । दोनो की समझ मात्र आज़ादी प्राप्ति नही थी एक व्यवस्था परिवर्तन की थी । एक का कहना था कि' अंग्रेज़ बेशक रह जाए ,अंग्रेज़ियत खत्म होनी चाहिए' जबकि दूसरे का मत भी स्पष्ट था कि ' आज़ादी का मतलब गोरे अंग्रेज़ो के जाने के बाद काले अंग्रेज़ो का शासन नही है ।'
अनेक मतभेदों के बावजूद वे कहीं भी एक दूसरे के दुश्मन नही थे । 'क्या गांधी जी ने कभी भी भगत सिंह के बहिष्कार अथवा निंदा का प्रयास किया ? अथवा गांधी जी किसी भी क्रान्तिकारियो के हिंसक निशाने पर रहे।' सभी जानते है कि भगत सिंह और उनकी विचारधारा के शत्रु कौन है और गांधी की हत्या किसने और किस विचारधारा ने की ।
दोनो एक दूसरे की कार्यनीतियों पर भी पैनी नज़र रखते है और जरूरत होने पर उसका इस्तेमाल भी करते है । जहाँ 'चोरा-चारी' कांड के बाद, बापू अपना असहयोग आंदोलन को वापिस लेते है वही स0 भगत सिंह व उनके साथी ' लाला लाजपतराय की हत्या का बदला लेने के लिये सांडर्स वध किया और वहाँ से भागे पर नेशनल असेंबली में बम फेंकने के बाद उन्होंने आत्मसमर्पण किया ।' लड़ाई की कार्यनीतियों में उन्होंने अपने -२ ढंग से ढंग इस्तेमाल किये । विश्व इतिहास की सबसे बड़ी भूख हड़ताल किसी और ने नही अपितु स0 भगत सिंह व उनके साथियो ने की थी जिसमे उनके एक साथी 'जतिन दास' अनशन के 63वे दिन शहीद हुए । सन 1942 में ' भारत छोड़ो' आंदोलन में उन्ही अहिंसक बापू ने 'करो या मरो' का नारा दिया ।
दोनो विश्व इतिहास के महान अध्येता है और भारतीय परिपेक्ष में ' साम्प्रदायिकता, अस्पृश्यता ,जातिपाती ' को राष्ट्रविरोधी मानते है । स0 भगत सिंह के अनेक लेख 'धर्म और हमारा स्वतन्त्रता आंदोलन', ' सत्याग्रह और हड़ताले', ' साम्प्रदायिक दंगे और उनका इलाज', ' अछूत का सवाल' , 'विद्यार्थी और राजनीति ' ,' षड्यंत्र क्यो होते है और कैसे रूक सकते है ?' , जैसे अनेक लेख लिखे । यह लेख उस समय लिखे गए जब देश मे 'हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग ' की राजनीति अपने शुरुआती दौर में थी । स0 भगत सिंह ,भविष्य के खतरों को भांप गए थे और भावी पीढ़ी को हर तरह से सचेत करना चाहते थे । महात्मा गांधी ने दूसरे माध्यम से सर्व धर्म समभाव अश्पृश्यता निवारण तथा रचनात्मक कार्यो के लिये न केवल अनेक संगठनों का निर्माण किया वही अपने पत्रों ' हरिजन' , 'यंग इंडिया' तथा ' नव जीवन' मे लगातार लेख प्रकाशित किये । उनका मानना था कि इन सभी के रहते भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का कोई मूल्य नही है ।
महात्मा गांधी पर यह आक्षेप रहा है कि यदि वे चाहते तो इरविन समझौते के तहत स0 भगत सिंह और उनके साथियो की फांसी रुकवा सकते थे । इसे समझने के लिये चालाक अंग्रेज़ी शासन की चालों को भी समझना होगा । उन्होंने बहुत ही चालाकी से सजा की घोषणा व फांसी की तिथि 23 मार्च,1931 तय यह जानते हुए कि 26 मार्च की करांची में अखिल भारतीय कांग्रेस समिति की कार्यसमिति की बैठक है और 29 मार्च को कांग्रेस का खुला अधिवेशन है । वे एक तीर से दो निशाने चाहते थे , एक कांग्रेस व क्रांतिवीरों में अलगाव ,दूसरे लोगो की नजरों में महात्मा गांधी की प्रतिष्ठा में गिरावट । हम अन्य तथ्यों पर ध्यान देने के साथ -२ इस पर भी गौर करेंगे कि क्या खुद स0 भगत सिंह और उनके साथी फांसी से बचना चाहते थे ? यदि हाँ तो एक नही अनेक अवसर थे जब वे जेल से निकल सकते थे ,परन्तु उनकी सोच साफ थी कि इन तीन का बलिदान भारत की सोई तीस करोड़ जनता को झँकोर देगा और ऐसा हुआ भी । लाला लाजपतराय के कांग्रेस छोड़ कर हिन्दू महासभा में जाने से स0 भगत सिंह व उनके साथी नाराज थे व एक जनसभा में ,लाला जी की उपस्थिति में उन्होंने उनके खिलाफ पर्चे भी बांटे थे ,पर वह भगत सिंह ही नही थे क्या , जिन्होंने लाला जी को स्वतन्त्रता आंदोलन की मुख्य धारा से जोड़ने के लिये साइमन कमीशन का विरोध प्रदर्शन का नेतृत्व करने के लिये प्रेरित किया था । 'प0 नेहरू और सुभाष बाबू ' युवक किसको चुने इस
पर उनका लेख बहुत ही महत्वपूर्ण है जिसमे उन्होंने प0 नेहरू को एक वैज्ञानिक सोच का व्यवहारिक नेता कहा था । हमे यहाँ स0 भगत सिंह तथा उनके पिता स0 किशन सिंह की फांसी की सजा के बाद जेल में मुलाकात के दौरान बातचीत को भी ध्यान देना होगा ,जिसमे पिता ने जब प्रिवी कौंसिल में सजा के खिलाफ अपील की बात की तो भगत सिंह को यह बात नागवारा गुजरी और उन्होंने कहा कि यदि अपील की बात करने वाला उनके पिता के स्थान पर कोई और होता तो उसकी खैर नही थी ।
महात्मा गांधी को समझने के लिए लाहौर षड्यंत्र केस में
उनके वकील श्री प्राण नाथ मेहता के अनुसार स0 भगत सिंह को जब फांसी के लिये ले जाने के लिये बुलाने को जेलर आया तो उस समय वे लेनिन की पुस्तक ' राज्य और क्रांति ' पढ़ रहे थे । जब उन्हें चलने के लिये कहा तो उन्होंने कहा ' थोड़ा ठहरे ,एक क्रांतिकारी दूसरे क्रांतिकारी से मिल रहा है । किताब पढ़ कर उन्होंने उसे ऊपर उछाला और चल दिये । स0 भगत सिंह तथा उनके साथी ,लेनिन से प्रभावित थे और उन लेनिन को कम्युनिस्ट इंटरनेशनल , मास्को में जब ,भारतीय नेता श्री एम एन राय ने ,कम्युनिस्टों को भारत मे कांग्रेस के समानांतर स्वतन्त्रता आंदोलन शुरू करने को कहा तो लेनिन ने महात्मा गांधी की प्रशंसा करते हुए कहा कि वे साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़े जाने वाले संघर्ष के सबसे बड़े नेता है और भारत मे उनके नेतृत्व में ही लड़ाई लड़ी जानी चाहिए ।
वास्तव में विचार विभिन्नता होते हुए भी स0 भगत सिंह तथा महात्मा गांधी एक दूसरे के पूरक है ।महात्मा गांधी की 150 वीं जयंती तथा स0 भगत सिंह की 112 वें जन्म जयंती पर उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि एवम प्रणाम ।
*राम मोहन राय,*
एडवोकेट ,सुप्रीम कोर्ट
27.09.2019
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भगत सिंह ज़िंदा है !
शहीद भगत सिंह ,राजगुरु व् सुखदेव को फांसी की सजा के बाद ,भगत सिंह के पिता किशन सिंह एक दया याचिका किसी वकील से तैयार करवा कर उस पर हस्ताक्षर करवाने के लिए जेल में भगत सिंह से मिले तथा बहुत ही संकुचाते हुए उन्होंने भगत सिंह से इस पर हस्ताक्षर करने को कहा ताकि उसे प्रीवी कौन्सिल में भेजा जा सके । भगत सिंह ने उसे पढ़ा तथा अपने पिता को बोले कि पिता होने की वजह से उसका सम्मान करते हुए वे कुछ नहीं कह रहे वरना यदि कोई और होता और मुझे ऐसे पेपर पर हस्ताक्षर करने को कहता तो उसकी खैर नहीं थी। पिता किशन सिंह बहुत निराशाजनक स्थिति में जेल से वापिस आये । भगत सिंह तथा उनके साथी अपनी विचार धारा तथा उसके लिए किस प्रकार बलिदान देकर कैसे कार्य किया जाए खूब जानते थे इसलिए उन्होंने ऐसे किसी भी कृत्य से परहेज रखा जो उनकी उद्देश्य पूर्ति में बाधा था।
सांडर्स वध के बाद वे उस स्थान से भागे जब कि "नैशनल असैम्बली" में बम्ब फैंक कर खड़े रहे ,ये दोनों ऐसे उदाहरण है जो उनकी रणनीति को बताते है । प्रसिद्ध साहित्यकार आचार्य चतुर सैन , नैशनल असैम्बली में बम्ब फैकने के समय , दर्शक दीर्घा में ही मौजूद थे और वह भी भगत सिंह (छद्म नाम बलवन्त सिंह) के द्वारा उपलब्ध अनुमति पत्र के आधार पर ।आचार्य चतुर सैन ने अपने एक लेख 'आखिरी सलामी 'में इस पूरे वाक्य की पँक्तिवार प्रस्तुत किया है कि किस प्रकार भगत सिंह तथा बटुकेश्वर दत्त, नैशनल असैम्बली में आये, बम्ब फैंका तथा 'इंकलाब जिंदाबाद -साम्राज्यवाद मुर्दाबाद 'के नारे लगाते हुए पर्चे फैंके। बम्ब व् पर्चे फैंक कर भगत सिंह तथा बटुकेश्वर दत्त काफी समय तक वही खड़े रह कर पुलिस द्वारा अपनी गिरफ्तारी का इंतजार करते रहे और पुलिस की भी हालत ऐसी कि डर की वजह से उन्हें गिरफ्तार करने की हिम्मत न जुटा सकी । अन्य लेखो से यह भी स्पष्ट है कि भगत सिंह व् उनके साथी कई दिनों से नैशनल असैम्बली में रेकी करने के लिए आते रहे तथा जब वे आश्वस्त हो गए तो वारदात अंजाम में लाये ।बम्ब फैकने के बाद उनके लिए यह कतई भी दिक्कत न थी कि वे वहां से भाग जाते ,परंतु उन्होंने ऐसा जानबूझ कर नहीं किया क्योकि उनको विश्वास हो गया था कि मुकदमो के माध्यम से वे अपनी बात जनसाधारण तक पंहुचा सकते है । इतिहास गवाह है कि वे अपने मुकदमे की खुद ही पैरवी करते थे तथा मुकदमे के अंजाम से भी वाकिफ थे । प्रत्यक्षदर्शियो का कहना है कि जब उन्हें फांसी की सजा सुनाई गई तो भी वे कतई विचलित नहीं हुए और इसके विपरीत ख़ुशी जाहिर कर इस फैसले का उपहास उड़ाया । भगत सिंह व् उनके साथी विश्व इतिहास के अध्येता थे तथा समाजवादी विचारधारा से प्रभावित थे। महात्मा गांधी तथा स्वयं अपने साथी सुखदेव के साथ उनका पत्र व्यवहार इस बात का सबूत है कि वे आजादी के लिए अपनी सर्वोत्तम कृति 'जीवन' को बलिदान करने के लिए तत्पर थे। शहीद भगत सिंह के बलिदान के 85 वर्ष बाद लाहौर हाइकोर्ट में एक पकिस्तानी नागरिक वकील ने एक याचिका दायर कर के भगत सिंह व् उनके साथियो को बेकसूर मान कर उन्हें बरी करने की प्रार्थना की है उनका यह भी कहना है कि भगत सिंह तथा उनके साथियो को फांसी ब्रिटिश राज द्वारा की गई राजनीतिक हत्या थी। हम इससे सहमत हो या नहीं परंतु इस बात को अवश्य करना चाहेंगे कि भगत सिंह व् उनके साथी उनकी विचार धारा व् उनके बलिदान राजनीतिक विद्वेष के जरूर शिकार रहे है । भगत सिंह स्वयं समाजवादी विचारधारा व् रूस में सन् 1917 में हुई महान अक्टूबर समाजवादी क्रांति से बेहद प्रभावित थे तथा इसी से प्रेरित हो कर उन्होंने अपने संगठन का नाम हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसियेशन रखा था। इस विचार धारा के विरोधी प्रारम्भ से ही भगत सिंह व् उनके साथियो के बलिदान को छोटा करने में लगे है । कभी यह सवाल उठा कर कि यदि महात्मा गांधी चाहते तो भगत सिंह को फांसी से बचा सकते थे अथवा अब नया सवाल कि वे बेकसूर थे आदि-2 । परंतु यह भी सवाल आज बड़ा है कि यदि वे स्वयं चाहते तो फाँसी से बच सकते थे । मजे की बात यह क़ि लाहौर हाईकोर्ट में दायर की गई याचिका में अधिकांश मुद्दे वे ही है जो सरदार भगत सिंह के पिता किशन सिंह की दया याचिका में थे जिस पर भगत सिंह ने नाराजगी व्यक्त करते हुए हस्ताक्षर करने से इंकार किया था यानी भगत सिंह इन मुद्दों से सहमत न थे पर यदि आज लाहौर हाइकोर्ट उन मुद्दों पर फैसला देते हुए कहे की भगत सिंह व् उनके साथी निर्दोष थे तो कही उनके बलिदान पर तो सवालिया निशान नहीं लग जायेगे और दूसरी और आज 85 वर्ष बाद इस मुक़दमे का भगत सिंह के जीवन से तो कोई लेना देना न होगा । कुछ दिन पहले एक और तीर फैंका गया था कि भगत सिंह , राजगुरु व् सुखदेव को फांसी से पहले गोली मार दी गई थी ।साथ साथ यह मुद्दा भी की 14 फरवरी को वेलेंटाइन डे क्यों मानते है इस दिन तो लाहौर कोर्ट ने भगत सिंह राजगुरु व् सुखदेव की सजा सुनाई थी जबकि वास्तविकता यह है सजा तो 7 अक्टूबर को सुनाई गई थी खैर किसी भी दिन से कोई और दिन तो घटित हो ही सकता है। यह सब ऐसे मुद्दे है जो भटकाव के लिए तो ठीक है परंतु भगत सिंह के दोस्तों के सामने चुनोती है। सरकारी तंत्र साम्प्रदायिक शक्तियां व् निहित स्वार्थ व् उनकी संस्थाये प्रारम्भ से ही भगत सिंह की उपेक्षा करती है जिसका वर्तमान में चंडीगढ़ एअरपोर्ट का नाम उनके नाम न करने एक अन्य टट पूंजिया राजनौतिक के नाम पर करने की योजना है । यह जरूर ठीक है कि भगत सिंह युवाओ के ह्रदय में चाहे वे भारत में हो या पाकिस्तान में सदैव जिन्दा है और रहेगे।
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