Roshan Ali Shah
nityanootan.com
16.06.2017
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हर बार की तरह इस बार की ईद भी खुशनुमा यादगार रही । पर एक अफसोस रहा पिछले 40 -50 सालों से रमज़ान के दिनों में एक रोज़ा इफ्तारी , हमारे शहर पानीपत की दरगाह रोशन अली शाह के खादिम जनाब अताउल्ला साहब जब तक खुद ज़िंदा रहे तब तक वे स्वयं व उनके इंतकाल के बाद उनके परिवार के लोग , हमारे घर पर इफ्तारी करते थे , इस बार मेरी पत्नी के अपने मायके उदयपुर में जाने की वजह से न हो सकी । मरहूम जनाब मोहम्मद अताउल्ला साबरी साहब मेरे वालिद स्व0 मास्टर सीता राम सैनी के बहुत ही नजदीकी दोस्त थे । उनकी मुलाकात मेरे पिता से साल 1964 में हुई थी जब वे काम के सिलसिले में कश्मीर से पानीपत आये थे । वे एक बहुत ही हुनरमंद कारीगर थे । शॉल , खेस और कम्बल बुनने में उनका कोई सानी नही था और इसके साथ -२ वे इस्लाम के खूब जानकर तथा रूहानियत के ऊंचे पायदान पर थे ।वर्ष 1965 में भारत -पाकिस्तान के बीच पहली जंग लड़ी गयी । हर शहर में ब्लैक आउट होता था ,लोग बम गिरने पर क्या क्या बचाव हो इस का भी प्रबन्ध करते थे । जंग तो दो मुल्क़ों की बीच थी परन्तु हिंदुस्तानी मुसलमानों को भी शक के घेरे में रखा जाता था । अताउल्लाह साहब ठहरे एक मुसलमान और वो भी कश्मीरी ,अतः उनका भी शक के घेरे में आना लाज़मी था । पर उनकी देशभक्ति और ईमानदारी की सभी मौहल्ले वाले कसम उठाने को तैयार थे । इसी दौरान वे मेरे पिता जी के नजदीकी दोस्त बन गए । साथ रहते , रात को इकठ्ठे पहरा देते और अफवाहों से दुसरो को सतर्क करते ।
समय गुजरने के साथ २, अपनी रूहानियत की वजह से अब वे हर समय अपनी धुन में रहने लगे थे । शहर में सिविल अस्पताल के परिसर में एक जर्जर मस्जिद एवम दरगाह थी अब उन्होंने अपना वहीं ठिकाना बना लिया था । इबादत करते हुए अपना समय वहीं बिताने लगे और साथ -२ दरगाह की सेवा । यह उनकी ही मेहनत और इबादत का फल है कि अब उस मस्जिद का पुनरूद्धार हुआ है वही दरगाह भी अपने मूल नाम " दरगाह हज़रत रोशन अली शाह " के नाम से जाने जाने लगी । इसके अकीदतमंद न केवल मुसलमान बल्कि हजारो हिन्दू भी है । हर वीरवार (जुम्मेरात) को श्रद्धालुओ की लाइन देखते ही बनती है । हर साल उर्स होता है उसमें भी शहर व बाहर के बड़ी संख्या में श्रद्धालु भाग लेते है । साल 1965 के बाद हर साल रमज़ान के दिनों में एक रोज़ा इफ्तारी हमारे घर जरूर होती और ईद पर हम सब उनके घर बधाई देने जाते । मेरे पिता जी के गुजरने के बाद अताउल्ला साहब हमारा ऐसे ख्याल रखते जैसे मेरे पिता उन्हें हमारी जिम्मेवारी की बात कह कर गए हो । हर हफ्ते हमारे घर आते और खैरियत पूछते और हमारी सलामती की दुआ पढ़ कर चले जाते । यह सिलसिला बीसों साल चलता रहा । आखिर वे एक दिन रिक्शा पर बैठ के हमारे घर आये और बोले अब और आना नही होगा , चलने फिरने में कमजोरी होने लगी है । बाद में हम उनके पास जाते और घंटो बैठ कर पानीपत के बुजुर्गों के बारे में सुनते । पानीपत की हर दरगाह और मस्जिद के बारे में बताते । वे ज्ञान के भंडार थे । मेरे पिता जी ने प्रसिद्ध विद्वान डॉ राजेन्द्र रंजन चतुर्वेदी को उनके पास ही " बुजरगाने पानीपत" की जानकारी के लिये भेजा था । पर अब उनका स्वास्थ्य दिन प्रतिदिन गिरने लगा था । अनेक डॉक्टर्स को दिखाया ,कई अस्पतालों में भर्ती करवाया पर साल 2008 में इस मुसाफिर को जाने से रोक न सके । दरगाह शरीफ में ही उन्हें दफनाया गया ।
उनके गुज़र जाने के बाद उनके भांजे आफताब आलम 'कश्मीरी' ने दरगाह की जिम्मेवारी सम्भाली जिसे अब वह बेहतर ढंग से अंजाम दे रहा है । रमज़ान व ईद पर आने -जाने का सिलसिला लगातार जारी रखा गया । जब भी ज्यादा दिन उनके घर जाने में हो जाते है तो वह कहता है " आपके पिता जी के जाने के बाद बाबा जी (अताउल्ला साहब) ने आपका ख्याल रखा और अब बाबा जी के जाने के बाद आपने उनका ख्याल रखना है "। मैं इस प्यार भरे अपनत्व का ख्याल रखने की कोशिश तो करता हूं पर इस बार रमज़ान और ईद पर चूक गया । मुझे उम्मीद है कि जब भी मैं उनके घर जाकर " ईद मुबारक" की आवाज़ लगाऊंगा तो बिना किसी तानाकशी व शिकायत के वह मुझे गले लगा लेगा और जवाब देगा " खैर मुबारक"।
राम मोहन राय
(Nityanootan broadcast service)
17.06.2018
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