kumbh-2019

मेरी कुम्भ यात्रा -1
(दि0 29-30 जनवरी, 2019
🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
*को कहि सकई प्रयाग प्रभाऊ कलुष पुंज कुंजर मगराऊ*
मेरे बचपन से इलाहाबाद मेरे आकर्षण का केंद्र रहा है । आर्य समाजी पृष्ठभूमि के कारण इसका धार्मिक महत्व तो मेरे लिये गौण रहा परन्तु कुम्भ को जैसा मुझे समझाया गया कि यहाँ प्रत्येक छै साल व बारह साल में देश-विदेश से करोड़ो लोग जुटते है तथा गंगा में स्नान कर अपनी मुक्ति की कामना करते है । आर्य समाज के ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में ऋषि दयानंद सरस्वती ने मुक्ति को भी परिभाषित किया है व स्वर्गादी विषयो को भी । तीर्थ की भी परिभाषा की है  "वेदादि सत्य - शास्त्रों का पढ़ना -पढ़ाना, धार्मिक विद्वानों का संग, परोपकार , धर्मानुष्ठान, योगाभ्यास ,निरवैर , निष्कपट सत्यभाषण, सत्य का मानना, सत्य करना , ब्रह्मचर्य, आचार्य, अतिथि, माता ,पिता की सेवा ,परमेश्वर की स्तुति -प्रार्थना-उपासना, शांति ,जितेन्द्रियता ,सुशीलता ,धर्मयुक्तपुरुषार्थ, ज्ञान-विज्ञान आदि शुभगुण -कर्म दुखों से तारनेवाले होने से तीर्थ है।" मेरी माँ मुझे जो उनका प्रेरक प्रसंग बताया करती वह रहा स्वामी दयानंद द्वारा कुम्भ पर *पाखंड खंडिनी पताका* को लेकर धर्मोपदेश करने का ,कि किस तरह करोड़ो की भीड़ में एक निर्भीक सन्यासी ने ऐसे स्नान व तीर्थो का विरोध किया था । क्या गजब की सहिष्णुता थी कि विरोध को भी लोग सहन कर रहे है , क्या आज के माहौल में वे कुछ कह सकते थे ।हमे पढ़ाया गया सिख धर्म के प्रवर्तक गुरु नानक देव जी महाराज का वाकया जिसमे वे गंगा स्नान करते हुए अपने गांव की तरफ ही जल चढ़ाने लगे कि जब यह जल सूर्य को जा सकता है तो उनके गांव के सूखे खेतो को भी सिंचित कर सकता है । संत कबीर ,संत रविदास जैसे महान संत इसी गंगा नदी के किनारे रहते ही तो अपना महान सन्देश दे रहे थे जिन्हें न स्वर्ग की कामना थी और न ही मोक्ष की व न ही कोई और । वे बड़ी दृढ़ता से अंध श्रद्धा का विरोध करते थे पर मजाल है किसी ने उन्हें धर्म अथवा राष्ट्र द्रोही कहा हो । हमे शंकराचार्य के पंडाल में भी जाने का अवसर मिला जहाँ पूरे देश से संत समाज *परम धर्म संसद* में एकत्रित था । जगद्गुरु ज्योतिष्मठ शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती जी के उत्तराधिकारी श्री स्वामी अविमुक्तेश्वरा नंद सरस्वती जी ने बाकायदा दिल्ली स्थित भारतीय संसद की तरह पंडाल सजाया था जिसमे 543 प्रतिननिधियो के बैठने की व्यवस्था थी ।जैसी की भारतीय संसद में हर सांसद के लिये अलग -२ आसन लगे होते है । स्वयं अविमुक्तेशरा नंद जी परम धर्म संसद के सभापति के आसन पर विराजमान होकर उसका विधिवत संचालन कर रहे थे ।  संसद की तरह बकायदा विधेयक सभापति की अनुमति से रखे जाते थे ,चर्चा होती थी ,मतदान की शैली भी वैसी ही जैसी संसद की और फिर उसे पारित किया जाता था । दर्जनों विधेयकों को चर्चा के बाद पारित किया गया जिनमे हिन्दू पर्सनल कानून , धर्मानंतरण निषेध ,राम जन्म भूमि मंदिर निर्माण आदि प्रमुख थे । मेरे लिये आकर्षक यह रहा कि वहाँ प्रवयक्षेक के रूप में नौ आसन लगे थे जिनमें मुस्लिम ,सिख ,ईसाई ,बौद्ध , जैन के साथ- चार्वाक( नास्तिक मत) का भी था । स्वामी जी कहना था कि इनमें से कोई भी अपनी राय देना चाहे अथवा विरोध करना चाहे तो उसका भी स्वागत है । यह एक साहसिक कदम है जिसका स्वागत होना चाहिये । उनके पंडाल में भी सभी पंथ ,विचारों तथा देशो के प्रतिनिधि देखने को मिले । हम लोग अपने तीर्थ पुरुष आदरणीय डॉ एस एन सुब्बाराव जी के साथ गए थे । भाई जी ने वहां न केवल अपना लोकप्रिय कार्यक्रम *भारत की संतान* प्रस्तुत किया वही अगले दिन की संसद कार्यवाही तो *सर्वधर्म प्रार्थना* से ही शुरू हुई । कुम्भ में लोग बौद्ध , जैन, बहाई या सिख प्रार्थना को तो बर्दाश्त कर लेंगे ,ऐसा तो लगता था पर क्या शंकराचार्य के मंच से कुरआन व बाइबिल पाठ भी करेंगे ,ऐसा नही लगता था परन्तु यह सब बहुत ही श्रद्धा पूर्वक श्रवण किया गया । *अनेकता में एकता* का घोष भाई जी ही इस मेले में कर सकते थे ।  इसके बाद हम पूरे कुम्भ मेले में खूब घूमे न केवल दिन में अपितु देर रात को भी त्रिवेणी स्नान किया । 
  परमार्थ निकेतन ,ऋषिकेश के पंडाल जो गंगा नदी पर ही था उसका तो भव्य आकर्षण देखते ही बनता था । पूरा निर्माण ,पर्यावरण की दृष्टि से किया गया था । निर्माण सादा था परन्तु था भव्य । स्वामी चिदानंद जी महाराज स्वयं एक रचनात्मक बौद्धिकता के संत है । उन्होंने यहां *गांधी विचार को परिलक्षित करते हुए स्वच्छता* को केंद्रित किया । महात्मा गांधी द्वारा सन 1932 में स्थापित हरिजन सेवक संघ के संयुक्त तत्वावधान में * *गांधी, गांव व गंगा* पर उनका कार्य है । दि 0 16 जनवरी को उनके द्वारा एक कार्यक्रम में देश के राष्ट्रपति श्री रामनाथ कोविंद जी इसे अपना समर्थन व संदेश देने आए थे ।अन्य सभी आकर्षण के रहते यहां प्रदर्शित टॉयलेट कैफ़े बरबस ही सभी लोगो को अपनी ओर खींच रहा था । टॉयलेट सीट्स पर शीशा मढा था ,उस पर बैठिए और खाने-पीने का आनंद लीजिये । मेरे आत्मीय मित्र श्री *जयेश भाई पटेल* इस अद्भुत प्रयोग के सूत्रधार है । न केवल वे अपितु उनके पिता *पद्मश्री श्री ईश्वर भाई पटेल* ने देश-विदेश में लाखों शौचालय बना कर कीर्तिमान स्थापित किये है । अहमदाबाद में पर्यावरण सफाई संस्थान इसका एक साक्षात दर्शन है ,जहाँ हमे ईश्वर भाई के तो दर्शन नही होते परन्तु उनकी कार्यो के माध्यम से हमारा उनसे मिलना होता है । महाभारत में पितामह भीष्ण का कथन है "
हमारे नीतिकारों का कथन है *सर्वत्र जयमिच्छेत पुत्रात - शिष्या  त पराजयं* अर्थात हम सर्वत्र विजयी होने की कामना करें किंतु पुत्र और शिष्य से पराजय ही होने में जो सुख है ,वह दिग्विजय होने से भी शतगुणा अधिक है । श्री जयेश भाई ने भी अपने स्व0 पिता के नक्शेकदम पर चल कर उसे आगे बढ़ाया है ।
कुम्भ के परमार्थ निकेतन शिविर में इसी का दर्शन भेद छिपा है । निकेतन की कार्यकर्ता बहन नन्दिनी एक कुशल संगठनकर्ता ही नही अपितु एक स्नेह से परिपूर्ण सहृदयी  साथी भी  है । जयेश भाई ने उन्ही के माध्यम से मान्यवर श्री सुब्बाराव जी व हम सब की बैठक वहां करवाई थी । स्वागत सत्कार का ढंग किसे कहते है यह तो कोई उनसे सीखे ।
कुम्भ मेला तो सभी स्नेहीजन का मिलने का एक स्थान है । अतीत में ऐसे ही अवसरों पर आपसी विमर्श व शास्त्रार्थ का यह केंद्र हुआ करता । विरोधी विचार के लोग यहां मिलते और चर्चा करते । अद्भुत सहयोग ही था जब हम सुब्बाराव जी के साथ वहां पहुंचे तो हमारे आने से पूर्व ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अग्रणी नेता श्री इंद्रेश कुमार जी वहां उपस्थित थे ।  30 जनवरी ,1948 को आज ही इस दिन व ठीक इसी समय 5. 17  बजे सांय: दिल्ली के बिड़ला हाउस में पूज्य बापूजी की हत्या हुई थी । स्वामी चिदानंद जी का कहना था क्यों न  गंगा आरती के बाद सर्वधर्म प्रार्थना के साथ महात्मा गांधी को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की जाए । आरती ,सर्वधर्म प्रार्थना व भजन के बाद भाई जी सुब्बाराव जी , स्वामी चिदानंद व इंद्रेश कुमार जी ने बहुत ही भावपूर्ण शब्दो मे  अपने श्रद्धा सुमन अर्पित किये । ऐसा क्यों होता है कि सामान्य स्वयंसेवक तो महात्मा गांधी की हत्या को महिमण्डित करता है जबकि शीर्षस्थ नेतागण  उनकी प्रशंसा करते नही अघाते । उमीद करनी चाहिये कि  सभी को सन्मति मिलेगी । संत तुकडो जी महाराज का भजन *हर देश मे तू हर वेश में तू* भजन जब भाई जी ने सस्वर गाया तो सभी झूम उठे ।
      पूरा कुम्भ मेला की चहल पहल इतनी अद्भुत व अनुपम रही जो अवर्णिनीय है । साधु -संतों और  त्यागियों का ऐसा वैभव देखने को ही बनता था । एक -२ पंडाल ,खूब पैसा खर्च करके बनाया गया था और दुनियां को त्याग की शिक्षा देने वाले यह साधु  सोने-चांदी के आसनों पर विराजमान थे । सब कुछ तो यहाँ था परन्तु कोई चर्चा ,संवाद व शास्रार्थ यहां नही था । अब न तो कोई नानक ,कबीर,  रैदास सरीखा संत मिला और न ही दयानंद जैसा कोई निर्भीक सन्यासी ।

राम मोहन राय
(Nityanootan broadcast service)

मेरी कुम्भ यात्रा -2
(29.01.2019) 
इलाहाबाद में *हमारे मेज़बान डॉ दिवाकर त्रिपाठी ,उनकी पत्नी श्रीमती अलका , दोनो पुत्रियां आयुष्मती मालविका व देववाणी* सभी तो बहुत ही विनम्र ,सहज व सरल स्वभाव से सुभोषित हैं । डॉ त्रिपाठी तो हमारे दो दिनों के प्रवास के दौरान समूचे समय हमारे साथ हरदम रहे । हमारी इच्छा को वे स्वत: ही समझ जाते थे और फिर उसी की मुताबिक  हमारी सेवा - भाव मे जुट जाते थे । उनके आदरणीय गुरु श्री डॉ विश्वनाथ त्रिपाठी जी के सानिध्य में ही उनका घर है । घर वास्तव में घर ,जहां प्रेम और सद्भावना का दर्शन है और अतिथि परायणता तो न केवल प्रशंसीनय ही  अपितु अनुकरणीय भी है।
महात्मा गांधी का यह वाक्य इस परिवार पर सटीक उतरता है- *सुसंस्कृत घर जैसी कोई पाठशाला नही और ईमानदार तथा सदाचारी माता-पिता जैसे कोई शिक्षक नही ।*
 हमारा उन्होंने कार्यक्रम तय किया कि देर रात पर इलाहाबाद -प्रयागराज कुम्भ में खूब घूमे परन्तु रुके उनके घर पर । दिन में आश्रमो में भोजन-प्रशाद ले पर रात्रि भोज ,घर पर । शंकराचार्य जी के पंडाल से फारिग होते ही वे हमें कुम्भ मेला के दर्शन करवाते हुए गंगा तट पर ले गये ।पर यह क्या जैसे छोटे बच्चे अपनी मां को देख कर मचल जाता है वैसे ही *मां गंगा* को देखते ही हमारी वैसी ही हालत हो गयी । रात्रि के 8 बजने को आये थे , ठंडी हवाएं सांये -२ चल रही थी पर हम बच्चे कहां रुकने वाले थे । संजय राय , विशाल और मैने कपड़े उतारे और रस्सी पकड़ कर उतर गए मां की गोद मे । प्रयागराज के घाट हरिद्वार अथवा वाराणसी के घाटों की तरह पक्के नही है ,यहां सभी खुले व कच्चे तट है । विशाल एवम आकर्षक । हमने भी मचल-२ कर खूब स्नान किया । और फिर तृप्त होकर वहीं मिल रही मसालेदार चाय पी ।  लौटते इलाहाबाद किले से सटे  हुए *लेटे हुए हनुमान जी के मंदिर* भी गए ।मंगलवार होने की वजह से खूब भीड़ थी । हम ठहरे मूर्ति दर्शन में अनास्थावान, परन्तु संजय राय का कहना था कि अब जब मंदिर आ ही गए है तो दर्शन तो जरूर करके ही जाएंगे । काफी देर के बाद नम्बर आया । वहां का लड्डू प्रशाद पाकर बेहद ही आनंद आया ।
 डॉ त्रिपाठी तो जैसे हमारे मनोभाव जान रहे थे फिर हमें ले गए एक चाट- आलू टिक्की व गोलगप्पे की रेहड़ी पर । वहाँ पहुच कर तो लगा कि यात्रा अब सफल हुई । मेरे अज़ीज़ नीरज ग्रोवर का कथन है कि यदि किसी यात्रा के दौरान राम मोहन राय ,कही बीच रास्ते से गायब हो जाएं तो समझना कि गोलगप्पे की कोई दुकान उन्हें पा गयी है और वे उसका आनंद ले रही है ।
हमारा उन्होंने कार्यक्रम तय किया कि देर रात पर इलाहाबाद -प्रयागराज कुम्भ में खूब घूमे परन्तु रुके उनके घर पर । दिन में आश्रमो में भोजन-प्रशाद ले पर रात्रि भोज ,घर पर । शंकराचार्यजी के पंडाल से फारिग होते ही वे हमें कुम्भ मेला के दर्शन करवाते हुए गंगा तट पर ले गये । इसी मां गंगा के बारे में इसके महान सपूत प0 जवाहरलाल नेहरु ने अपनी वसीयत में लिखा ," मैने सुबह की रोशनी में। गंगा को मुस्कराते , उछलते कूदते देखा है, और देखा है शाम के साये में उदास , काली -सी चादर ओढ़े हुए , भेद भरी, जाड़ो में सिमटी -सी, आहिस्ते-२ बहती हुई सुन्दर धारा और बरसात में दहाड़ती - गरजती हुई , समुंदर की तरह चौड़ा लिये , और सागर को बरबाद करने की शक्ति लिये हुए  । यही गंगा मेरे लिये निशानी है भारत की प्राचीनता की , यादगार की ,जो बहती आई है वर्तमान तक और बहती चली जा रही है भविष्य के महासागर की ऒर।"
 पर यह क्या जैसे छोटे बच्चे अपनी मां को देख कर मचल जाता है वैसे ही *मां गंगा* को देखते ही हमारी वैसी ही हालत हो गयी । रात्रि के 8 बजने को आये थे , ठंडी हवाएं सांये -२ चल रही थी पर हम बच्चे कहां रुकने वाले थे । संजय राय , विशाल और मैने कपड़े उतारे और रस्सी पकड़ कर उतर गए मां की गोद मे । प्रयागराज के घाट हरिद्वार अथवा वाराणसी के घाटों की तरह पक्के नही है ,यहां सभी खुले व कच्चे तट है । विशाल एवम आकर्षक । हमने भी मचल-२ कर खूब स्नान किया । और फिर तृप्त होकर वहीं मिल रही मसालेदार चाय पी ।  लौटते इलाहाबाद किले से सटे  हुए *लेटे हुए हनुमान जी के मंदिर* भी गए ।मंगलवार होने की वजह से खूब भीड़ थी । हम ठहरे मूर्ति दर्शन में अनास्थावान, परन्तु संजय राय का कहना था कि अब जब मंदिर आ ही गए है तो दर्शन तो जरूर करके ही जाएंगे । काफी देर के बाद नम्बर आया । वहां का लड्डू प्रशाद पाकर बेहद ही आनंद आया ।
 डॉ त्रिपाठी तो जैसे हमारे मनोभाव जान रहे थे फिर हमें ले गए एक चाट- आलू टिक्की व गोलगप्पे की रेहड़ी पर । वहाँ पहुच कर तो लगा कि यात्रा अब सफल हुई । मेरे अज़ीज़ नीरज ग्रोवर का कथन है कि यदि किसी यात्रा के दौरान राम मोहन राय ,कही बीच रास्ते से गायब हो जाएं तो समझना कि गोलगप्पे की कोई दुकान उन्हें पा गयी है और वे उसका आनंद ले रही है । हमने अपने मेज़बान से दो स्थान पर तो अवश्य ही ले चलने का आग्रह किया था एक- अल्फ्रेड पार्क और दूसरा आनंद भवन । व्यवस्था बनाने में डॉ दिवाकर त्रिपाठी बहुत ही उम्दा इंसान साबित हुए । देर रात को हम उनके घर पहुंचे जहां उनकी पत्नी व बड़ी बेटी भोजन ,डाइनिंग टेबल पर सजा कर परोसने की तैयारी में थी वहीं छोटी बेटी *देववाणी* तबले पर अभ्यास कर रही थी । उसी के साथ ,हमारे इंडोनेशियाई सहयात्री मित्र इंद्रा   ने एक भजन हिंदी में सुनाया और फिर आपसी पारिवारिक परिचय हुआ । 
ऐसे अतिथि परायण -संस्कार परिवार के लिये कोटिश शुभकामनाएं व आशीर्वाद ।

राम मोहन राय
(Nityanootan broadcast service)
05.02.2019

*मेरी कुम्भ यात्रा -3*

(दि0 29-30 जनवरी,2019)

हमारे मेजबान डॉ दिवाकर त्रिपाठी हमारे दो दिवसीय इलाहाबाद प्रवास में वे सब जगह घुमाना चाहते थे ,जहां हमारी इच्छा थी । रात्रि को ही कुम्भ त्रिवेणी स्नान के बाद वे हमें ऐसी जगह ले गए जहाँ जा कर हम अभिभूत ही नही थे अपितु भावुक भी थे,  वह था एक पार्क जो सन 1870 में प्रिंस अल्फ्रेड की याद में बनाया गया था । लगभग 133 एकड़ में फैले इस विशाल पार्क के अनेक द्वार है । मेरे मित्र बता  रहे थे कि इसका एक चक्कर लगभग पांच किलोमीटर का है । इसमें चक्कर लगाने ,इसमे सैर करने और इसका प्राकृतिक आनंद लेने का सौभाग्य तो इल्लाहबादियो ( अब प्रयाग वासियो) का ही है ,हमारे जैसे तो इसको कुछ देर देख ही सकते है ।
      यह पार्क बहुत ही खूबसूरत व आकर्षक है पर हम जैसे लोगो के लिये यह कोई पिकनिक स्पॉट न हो कर इस तीर्थ में तीर्थराज है ।यहीं वह स्थान है जहाँ अमर शहीद प0 चंद्र शेखर आज़ाद ने अपना जीवन भारत माता को अर्पित किया था । चंद्र शेखर, वो ही 15 साल का बालक जिसे सन 1921 में असहयोग आंदोलन में भाग लेने पर अंग्रेज़ सरकार ने भारत माता की जय के नारे लगाने पर 15 बेंत की सजा सुनाई थी । वो ही चंद्र शेखर जिसने अपनी माँ का नाम भारत माता और खुद का नाम आज़ाद बताया था । जिसकी पीठ पर हर बेंत पड़ने पर उसकी खाल खिंचती थी और उस पीड़ा से बेपरवाह हुए , वह हर बार भारत माता की जय बोलता था । उसके लिये यह जय घोष कोई राजनीतिक नारा नही था अपितु देश की आज़ादी ,अस्मिता व सम्मान का सूचक था ।
हां वही चंद्र शेखर आज़ाद जिन्होंने  आठ सितम्बर ,1925 को दिल्ली के फिरोज़ शाह कोटला में देश भर के सभी क्रान्तिकारियो को एकत्रित कर *हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी* की स्थापना की थी तथा जो इस आर्मी के सर्वप्रथम *कमान्डर इन चीफ* बनाये गए थे । जिनके नेतृत्व में     इन्कलाब जिन्दाबाद,साम्राज्यवाद   मुर्दाबाद के  ओजस्वी नारे लगाते हुए हठीले व गर्वीले नौजवान भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव, राम प्रशाद बिस्मिल ,अशफ़ाक़ुल्ला खान ,बी के दत्त, अजय घोष,यशपाल ,शिववर्मा ,प0 किशोरीलाल, क्रांति कुमार , ठाकुर रोशन सिंह  , राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी, मनमन्नाथ गुप्त , दुर्गा भाभी , भगवती चरण वोहरा ,शालिग्राम शुक्ल , गंगा प्रशाद कटियार , भगवान दास माहौर ,रुद्र नारायण , सदाशिव मलकापुर ,विश्वनाथ वैशम्पायन जैसे अनेक क्रांतिकारी भारत मां की बलिवेदी पर अपने प्राण कुर्बान करने के लिये  एक दूसरे की होड़ में रहते थे। हां वही 
चंद्र शेखर आज़ाद जो पूरे क्रांतिकारी आंदोलन के योजनाकार थे । जो कोई आतंकवादी न होकर एक क्रांतिकारी थे जिन्होंने *समाजवाद* को अंगीकृत किया जिसका उद्देश्य बना कर एक ऐसे भारत का निर्माण करना चाहते थे जो विषमता ,शोषण व अन्याय से मुक्त होगा । वे और उनके सभी साथी सन 1917 में रूस में हुई महान अक्टुबर समाजवादी क्रांति से प्रेरित थे । जो न केवल  क्रांतिकारी मात्र थे अपितु आज़ादी के राष्ट्रीय आंदोलन के कुशल रणनीतिकार भी थे । उनके सम्पर्क में प0 मोतीलाल नेहरू और उनके सुपुत्र प0 जवाहरलाल नेहरू सरीखे देशभक्त भी थे ,जिनसे उनकी चर्चा भी रहती थी और जो बेशक विपरीत विचारधारा के रहते हुए एक -दूसरे के सहयोगी थे ,क्योंकि उनका मानना था कि उन सभी का मकसद तो *मां भारती* को गुलामी की बेड़ियों से आज़ाद करवाना ही है ।
27 फरवरी को इसी स्थान पर
 इस महान क्रान्तिकारी ने विवशता से मरने की बजाय अपनी मृत्यु का  स्वयंवर  किया और आज़ाद रहते हुए शहीद हो गए । यह शहर इलाहाबाद  गवाह है कि अगले दिन आज़ाद की अस्थियों को चुन कर एक विशाल जुलूस इसी इलाहाबाद में निकला ।
 वर्ष 1970 में इसी अल्फ्रेड पार्क का नाम चंद्र शेखर आज़ाद पार्क रखा गया । इस भव्य पार्क के प्रत्येक द्वार का नाम शहीद आज़ाद के साथियो के नाम पर रखा गया है जो ऐसा प्रतीत होता है कि सब साथी उनके साथ उन्होंने अपने मे समेट लिए हो ।
आज यदि इलाहाबाद वालो को कोई कहे कि उन्हें अल्फ्रेड पार्क जाना है तो वे नाराज़ होकर जवाब देंगे *भैया जी हम तो चन्द्र शेखर आज़ाद पार्क मानने वाले है*। इस पार्क की स्मृतियां आज यहाँ के जन-२ के हृदय में ऐसी रच बस गयी है जिनसे उन्हें अलग नही किया  सकता। इसी पार्क में उसी स्थान पर जहाँ शहीद चन्द्र शेखर आज़ाद ने बलिदान दिया  था उनकी विशाल प्रतिमा लगी है । मूछों को ताव देते हुए यज्ञोपवीत धारण किये एक हृष्टपुष्ठ 25 वर्षीय नौजवान ,जो आज भी आज़ाद भारत के मकसद के प्रति सभी युवाओं को सचेत करता है । जो धर्म ,सम्प्रदाय , जाति ,भाषा ,क्षेत्र के किसी भी बन्धन से मुक्त रहा । *आज़ाद - जैसा नाम - वैसा काम- वैसा बलिदान* ।
ऐसे ही बलिदानियों से प्रेरित होकर राष्ट्रकवि श्री माखन लाल चतुर्वेदी ने कहा था:-
*चाह नहीं मैं सुरबाला के
                  गहनों में गूँथा जाऊँ,
चाह नहीं, प्रेमी-माला में
                  बिंध प्यारी को ललचाऊँ,
चाह नहीं, सम्राटों के शव
                  पर हे हरि, डाला जाऊँ,
चाह नहीं, देवों के सिर पर
                  चढ़ूँ भाग्य पर इठलाऊँ।
मुझे तोड़ लेना वनमाली!
                  उस पथ पर देना तुम फेंक,
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने
                  जिस पर जावें वीर अनेक*
 राम मोहन राय
(Nityanootan broadcast service)
07.02.2019
*मेरी कुम्भ यात्रा-4*

पानीपत की गलियों से इलाहाबाद का सफर 

प0 जवाहरलाल नेहरू और उनकी पुत्री श्रीमती इंदिरा प्रियदर्शिनी नेहरू का मेरे जीवन दर्शन पर शुरू से ही बहुत प्रभाव था । कारण पारिवारिक था ,माता श्रीमती सीता रानी एवम पिता मास्टर सीता राम सैनी , दोनो न केवल कांग्रेस से जुड़े थे वहीं स्वतंत्रता संग्राम से निकले गांधी-नेहरू विचार के समर्थक थे । मेरे पिता भी मेरी तरह घुमक्कड़ थे । सन 1930 के कांग्रेस महाधिवेशन को देखने लाहौर गए थे और अपनी यादें हम से साझा करते थे कि किस तरह प0 नेहरू के कांग्रेस अध्यक्ष बनने पर सफेद घोड़े पर बैठ कर उनका  जुलूस लाहौर की सड़कों पर निकला था और उनकी मां स्वरूप रानी ने बाजार में एक चौबारे में खड़े होकर चांदी के सिक्कों का एक थाल भर कर उन पर न्योछावर किया था । मेरी मां के साथ अपनी शादी के बाद ,देश की आज़ादी मिलने के फौरन बाद वे जयपुर (राजस्थान) में होने वाले कांग्रेस महाधिवेशन में भी वे दोनों गए थे ,उनका वहाँ जाने का एकमात्र आकर्षण था प0 नेहरू को देखना व उनके विचारों को सुनना ।वे बताते थे कि वे वहाँ अपने एक सामाजिक मित्र श्री राम स्वरूप चंदेल के सफेद संगमरमर पत्थर के बने घर मे रुके थे ।  यह वह पीढ़ी थी जो गांधी-नेहरू के नाम पर फिदा थी । मेरे पिता तो शुरू से ही शिक्षा से जुड़ कर सामाजिक सुधार के काम मे जुड़ गए थे व रोपड़ के संत साधु सिंह जी के साथ एक पत्रिका *सैनी सेवक* का सम्पादन करते थे और इसके साथ-२ अपने साथियों महाशय भरत सिंह, महाशय लालमणि आर्य ,ज्ञानेंद्र सिंह ,महाशय मुरारी लाल, तारा चंद आर्य के साथ मिल कर शिक्षण संस्थाए बनाने में लगे थे । यह उनके ही प्रयास थे कि रेवाड़ी व रोहतक में सैनी शिक्षण संस्थानों की। शुरुआत हुई । मेरी माता को मेरे पिता का ही प्रोत्साहन था कि उन्होंने सन 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लिया । माँ पर इंदिरा जी का प्रभाव ज्यादा था । उन्होंने आजन्म खादी पहनने व हरिजन सेवा का संकल्प लिया था और *घूंघट* जैसी प्रथा को तो तिलांजलि ही दे दी थी , जो उस समय के समाज मे हमारी जन्म जात बिरादरी में तो एक परिवर्तनकारी कदम था । मेरी मां सुनाती है कि जब वे बाजार में घूंघट हटा कर निकली तो लोगो ने कानाफूसी की *यह इंदिरा की चेली हो गयी है ,लगता है मास्टर(मेरे पिता) कोई रेफुजन (पंजाबी औरत)को ले आया है* । मेरे बचपन से ही माता -पिता महात्मा गांधी ,प0 नेहरू , सुचेता कृपलानी ,अरुणा आसिफ अली से जुड़ी कहानियां सुनाया करते ।और यही कारण रहा कि उन्होंने हम सब के नाम  समाज सुधारकों व देशभक्त स्वतन्त्रता सेनानियो के नाम पर रखे । हमारे पिता ,इंदिरा जी से सम्बंधित अनेक कहानियों को हमे सुनाते ,जिसमे सब से अच्छी लगती वह बात कि जब इंदिरा जी नेहरू परिवार में हुई तो उनके दादा प0 मोती लाल नेहरू ने कहा कि यह बेटी घर का रोशन ए चिराग होगी । इंदिरा जी  के घर पर जब विदेशी कपड़ो की होली जलाई गई तो वे टुकर -२ उसे देखती रही और फिर अपनी छीपाई हुई विदेशी गुड़िया को भी उसी आग में फेंक कर जला दिया । हम सोच सकते है कि कितना मुश्किल होता है 6-8 साल  के एक बच्चे द्वारा अपनी प्यारी चीज को आग में जलाना ।मेरे पिता यह भी बताते कि इंदु (इंदिरा जी के बचपन का नाम) ने अपने बचपन मे एक *वानर सेना* का गठन किया था जो स्वतन्त्रता सेनानियों की मदद के लिये उनकी डाक व अन्य गोपनीय दस्तावेज एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुचाने का काम करता । इंदिरा जी का यह काम मुझे बहुत प्रभावित करता और इससे ही प्रभावित होकर मैने भी अपने बाल सखाओं की मदद से अपने 8 साल की आयु में भारतीय बाल कांग्रेस की स्थापना की ,और मैं उसका अध्यक्ष बना । आल इंडिया कांग्रेस समिति की तर्ज़ पर हमने एक दो उपाध्यक्ष शैलेन्द्र आंगिरः व उमा शर्मा व दो महासचिव भी बनाए - पंकज लीखा व सतीश पुनानी । आल इंडिया कांग्रेस कमिटी की तर्ज़ पर हमारा भी अधिवेशन होता ,जिसमे संगठन ,कार्यो व सम्पर्को की चर्चा भी होती । उसी में चुनाव भी होते । हमारे अनेक कार्यक्रमो में स्वतंत्रता सेनानी श्री सोम दत्त वेदालंकार, डॉ माधोराम शर्मा (तत्कालीन सांसद) , श्री चमन लाल आहूजा , श्री जय सिंह राठी( विधायक),  श्री ओम प्रकाश त्रिखा, दादा गनेशी लाल , स्वामी आनंद रंक बंधु भी पधारे ।बाद में  स्वामी जी के परामर्श से ही  हमने कांग्रेस के स्थान पर सभा को जोड़ा ।
नेहरू जी व इंदिरा जी के व्यक्तित्व का आम जीवन पर कितना था इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि 27 मई ,1964 को प0 जवाहरलाल नेहरू जी के निधन का समाचार जैसे ही आकाशवाणी पर आया तो हमारी गली का एक हमारी हमउम्र लड़का राज कुमार जोर -२ से रोता हुआ पूरे मोहल्ले में घूम -२ कर बोलता रहा कि चाचा नेहरू मर गए ,अब हमारा देश दोबारा गुलाम हो जाएगा  । उस सात वर्षीय बालक को समझाया गया तब वह सम्भला और चुप हुआ । उसी की माता श्रीमती राममूर्ति जो एक अनपढ़ महिला थी इंदिरा जी के प्रधानमंत्री बनने पर इतनी खुश हुई कि उन्होंने हरियाणवी में एक गीत रचा " ए री इंद्रा गांधी मेरा नाम भारत पे राज करूंगी ।" साधारण जन में यह भावनाएं इस महान पिता -पुत्री के प्रति थी ।
मुझे बचपन से ही पढ़ने -लिखने का शौक था । उस समय एक नही कई बार मैंने प0 नेहरू द्वारा अपनी बेटी इंदु को लिखे *पिता के पुत्री के नाम पत्र* व नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित  इंदिरा गांधी की जीवनी  *इंदु* को भी पढ़ा । प0 नेहरू की पोशाक मुझे बहुत आकर्षित करती थी अतः मैं भी यदाकदा एक छोटी धोती ,कुर्ता व टोपी पहनता व अपने बाल सभा के साथियो के साथ गली में महात्मा गांधी, प0 नेहरू व इंदिरा गांधी की जय के नारे लगता जुलूस निकालता । सन 1969 में आल इंडिया कांग्रेस का हरियाणा के फरीदाबाद में महाधिवेशन हुआ । ऐसा कैसे हो सकता था कि वहाँ पूरे देश से प्रतिनिधि पहुंचे पर भारतीय बाल सभा के प्रतिनिधि न जाए ,ऐसे में निश्चय हुआ कि बाल सभा का प्रतिनिधि मंडल भी वहाँ जाएगा और मेरी इच्छा को देखती हुई मेरी माँ मुझे वहाँ ले गयी । उस समय आयु कुल 9 वर्ष की थी । खुले अधिवेशन को हमने भी वहां देखा । ज्यादा तो कुछ याद नही परन्तु इंदिरा गांधी सहित अनेक नेताओं के दर्शन करने का अवसर जरूर मिला । यह ही वह स्थान था जब ,न केवल पूरे का पूरा अधिवेशन स्थल के पंडाल में आग लगने से वह खाक हो गया पर इसके साथ-२ इंदिरा गांधी व उनके विरोधियों में भी ठन गयी । 
24 बैंकों का राष्ट्रीयकरण , राजाओं के प्रिवी पर्सज की समाप्ति व गरीबी हटाओ कार्यक्रम की शुरुआत करने का संकल्प यहीं तो प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने लिया था । इसी अधिवेशन के बाद ही तत्कालीन सिंडिकेट की शय पर तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष श्री निरजलिंगप्पा ने इंदिरा जी को  कांग्रेस से निष्कासित कर दिया था और इंदिरा जी ने अपनी नई राह चुनी थी ।
       स्कूल टाइम से ही एक अच्छे वक्ता के नाते भाषण प्रतियोगिताओं में स्कूल की तरफ से बतौर प्रतियोगी भाग लेने लगा था । मेरे अपने स्कूल ,*आर्य हायर सेकंडरी स्कूल पानीपत* में हर  14 नवम्बर (बाल दिवस)को भारत सेवक समाज की ओर से एक *बाल भाषण प्रतियोगिता*  का आयोजन होता था । उस प्रतियोगिता के लिये भी अध्यापक प0 मथुरा प्रशाद शास्त्री , श्री दीप चंद्र निर्मोही व श्रीचंद्र प्रकाश सत्यार्थी जी ,मुझे तैयारी करवाते थे । प्रतियोगिता में भाग लेने का अर्थ होता था कि स्कूल को शील्ड व मुझे प्रथम पुरस्कार । यह क्रम अनेक वर्षों तक चलता रहा । उस समय *टेबल लैंप* अक्सर पुरस्कार मिलते थे , यह देखने मे भी बड़ा होता था व किसी भी विद्यार्थी के लिये जरूरी आइटम भी । पर मैं क्या करता उस दौरान प्रतियोगिता में जीतने की वजह से एक -२ करके कुल 13 टेबल लैंप ईनाम में मिले थे । प्रतियोगिता में फर्स्ट आना अच्छा लगता पर हर बार टेबल फैन ही मिलना ज्यादा अच्छा नही , पर आयोजको को क्या पता था कि हर बार मैं ही पुरस्कृत होऊंगा , पर ईनाम तो ईनाम है । मेरे पिता के शब्दों में यदि ईनाम में थपड़ भी मिले तो वह भी शाबासी है । यह क्रम आर्य कॉलेज में भी चलता रहा । मैं कालेज का तो बेस्ट स्पीकर था ही अब सब स्थान को यूनिवर्सिटी तक प्राप्त किया । स्थानीय आई बी कॉलेज में आयोजित एक प्रतियोगिता में मुझे * *जवाहरलाल नेहरू वांग्मय*  खण्ड एक व दो मिले । उसको मैंने मन से पढ़ा और फिर आया इसे चरितार्थ करने का अवसर । स्थानीय एस डी कॉलेज में *नेहरू और समाजवाद* पर एक भाषण प्रतियोगिता हुई । मैं इसमे इस विषय पर लगभग 10
मिनट अधिक निर्धारित समय से बोला और मैं फिर फर्स्ट आया और मुझे पुरस्कार में मिली ,प0 नेहरू की आत्मकथा । यह मेरे वैचारिक संक्रमण का काल था । एक आर्य समाजी -कांग्रेसी से समाजवादी की तरफ । अब प0 नेहरू ही मेरे  प्रिय लेखक थे । अपने विद्यार्थी काल मे ही मैने उनकी लोकप्रिय पुस्तके *भारत की खोज* व *विश्व इतिहास की झलक* को पढ़ा ।
*भारत की खोज* ने ऋग्वेदादि काल से अब तक भारतीय सभ्यता ,संस्कृति एवम मूल्यों का विशद  तार्किक विश्लेषण किया था वही *विश्व इतिहास की झलक* ने मानवीय सभ्यताओं के विकास ,इतिहास तथा चरमोत्कर्ष की गाथा तरतीबवार बताई थी । इसके मूल में डार्विन के विकासवाद का सिद्धांत भी था , दुनियां भर के महान दार्शनिकों शुकरात,  चार्वाक ,शंकराचार्य का विशद विश्लेषण भी था और युद्ध और साम्राज्यवाद के विकास व उसके अनिवार्य पतन के बाद एक नई आर्थिक विश्व व्यवस्था के अभ्युदय की भी इतिहास यात्रा थी । अमेरिका में लोकतंत्र की स्थापना , यूरोप में हुई ओद्योगिक क्रांति , पेरिस कम्यून का गठन व उसकी असफलता तथा रूस में हुई महान अक्टूबर समाजवादी क्रांति की सफलता का भी सिलसिलेवार ब्यौरा इसमे दिया है । प0 नेहरू का आशावाद की वह दिन आएगा जब  दुनियां में साम्रज्यवाद  व नवउपनिवेशवाद का नाश होगा और सभी गुलाम देशो की बेडियां कटेंगी और  न्याय पर आधार्रित एक नई राजनीतिक व्यवस्था का निर्माण होगा । उन्होंने बार -२ कहा कि दुनियां की नियति युध्दों ने तय की है पर यह निश्चित है कि युद्ध किसी भी समस्या का निदान न है । इसी वैज्ञानिक विचार ने मुझे भी विश्व इतिहास को समझने जानने व समझने का मौका दिया ।
और इसके बाद ही रास्ता खुला *वैज्ञानिक समाजवाद* को भी जानने का  और फिर मैं भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के छात्र विंग *आल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन* में शामिल हो गया । मार्क्सवादी विचारधारा को जानने के लिये *अजय भवन* दिल्ली में एक महीना की क्लास भी अटेंड की । पर इससे मैं कठोर कम्युनिस्ट तो नही बना परन्तु समाजवादी कांग्रेसी के रूप में। जरूर तैयार हो रहा था -एक दृढ़ धर्मनिरपेक्ष  समाजवादी जिसके लिये भारत मे साम्प्रदायिकता ही फासिज्म थी ।
 मुझे प्रसन्नता थी कि बेशक यह अवसर मुझे कुम्भ ने प्रदान किया है पर इसके बहाने मैं अपने छोटे शहर की गलियों से अपने आइकॉन्स नेहरू व इंदिरा के शहर इलाहाबाद में आया हूं ।

राम मोहन राय
(Nityanootan broadcast service)
 09.02.2019

*मेरी कुम्भ यात्रा वृतांत -5*

( इलाहाबाद,दि0 30.01.2019)

आनंद भवन एक रिहायशी मकान ही नही जिसे हिंदुस्तान के प्रसिद्ध वकील प0 मोती लाल नेहरू ने निर्मित किया। ऐसा भी  केवल नही कि यहां उनके बेटे जवाहरलाल नेहरू की परवरिश हुई और इतना भी नही की , इसी घर मे उनकी पुत्री इंदिरा गांधी का जन्म हुआ । यह सब तो इसको गौरव देता ही है पर इससे भी ज्यादा ,मैं यह मानता हूं कि यह भारत के स्वतन्त्रता आंदोलन का साक्षी है । यह सिर्फ ईंट पत्थरों से बनी एक ऐतिहासिक इमारत ही नही है अपितु इतिहास के काल खण्डों को स्वयं में संजोए एक सजीव ऐतिहासिक धरोहर है ।
       9 जून 1888 को यह जायदाद जस्टिस सैयद महमूद  ने खरीदी थी जिसे उन्होंने 22 अक्टूबर 1894 को उन्होंने राजा जय किशनदास को बेच दिया, जिन से 7 अगस्त ,1899 को 20,000 में रुपए में इसे पंडित मोतीलाल नेहरु ने खरीदा इस प्रकार यह परिसर नेहरू परिवार का निवास बन गया और आधुनिक भारत के इतिहास से गहरा नाता जुड़ गया । सन् 1926 में पंडित मोतीलाल नेहरू ने अपना यह ऐतिहासिक निर्णय भी महात्मा गांधी को सुनाया कि वह आनंद भवन को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को दान में देना चाहते थे वह देश के स्वतंत्रता आंदोलन में अपना सर्वस्व पहले ही दांव पर लगा चुके थे । 11 अप्रैल 1930 को आनंद भवन को उस समय के कांग्रेस अध्यक्ष और पंडित मोतीलाल नेहरू के सुपुत्र पंडित जवाहरलाल नेहरू को सौंपा गया तो इसका नाम बदलकर *स्वराज भवन* रख दिया गया। । सन 1926 में पंडित मोतीलाल नेहरू ने आनंद भवन कांग्रेस को दान करने का निर्णय किया तो तभी साथ वाली भूमि पर एक नए आनंद भवन के निर्माण का काम शुरू करवा दिया जो 1927 के मध्य तक तैयार भी हो गया । इस नए निवास का नाम आनंद भवन हो गया और उसी वर्ष नेहरू परिवार पुराने आनंद भवन को छोड़कर नये आनंद भवन में रहने चला आया ।
    27 मई 1964 को पंडित जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु के बाद नेहरू परिवार का यह पैतृक निवास आनंद भवन पंडित मोतीलाल नेहरू की पोती और जवाहरलाल नेहरू की सुपुत्री श्रीमती इंदिरा गांधी को विरासत में मिला ।पारिवारिक परंपरा के अनुसार इंदिरा गांधी ने भी आनंद भवन को निजी मिल्कियत में न रखने और इसे राष्ट्र को समर्पित करने का फैसला किया ।
       1 नवंबर 1970 को आनंद भवन विधिवत जवाहरलाल नेहरू स्मारक निधि को सौंपा गया और उसके अगले ही वर्ष 1971 में उसे एक स्मारक संग्रहालय के रूप में दर्शकों के लिए खोल दिया गया । वह दिन था 14 नवंबर जो पंडित जवाहरलाल नेहरू का जयंती वर्ष है और बाल दिवस के रूप में मनाया जाता है ।
आनंद भवन -स्वराज भवन के बारे में कुछ भी लिखने से पहले बहुत कुछ सोचना पड़ता है । लेखनी स्तब्ध है और वाणी मूक । ताज्जुब होता है कि कैसे एक प्रसिद्ध सफल वकील ,महात्मा गांधी के प्रभाव में आकर न केवल वकालत छोड़ देता है व अपना बेशकीमती  मकान ही नही अपना सम्पूर्ण जीवन देशहित  के लिये त्याग देता है । यह सब बातें
मैं खुद एक वकील होने के नाते भी सोचता हूं । मेरे संज्ञान में है कि उस समय भी श्री मोती लाल नेहरू की आमदनी लाखों में थी और उन्होंने आनंद भवन की जमीन भी उस समय के लाखों      रुपयों में खरीदी था । यह महात्मा गांधी का ही करिश्माई असर था कि असहयोग आंदोलन में एक नही अनेक वकीलों ने अपनी जमी जमाई वकालत को छोड़ दिया था ,अध्यापकों ने अध्यापन को छोड़ दिया और विद्यार्थियो ने अपनी पढ़ाई को छोड़ कर आज़ादी के आंदोलन में भाग लिया । इसी दौरान लाहौर में नेशनल कॉलेज की स्थापना लाला लाजपतराय ने की थी जिनमे ऐसे ही बच्चों को राष्ट्रीय भावनाओ से ओतप्रोत कर के  शिक्षित किया जाता था । मेरी बड़ी बेटी सुलभा ने कक्षा चार में *मोती लाल नेहरू स्कूल ऑफ स्पोर्ट्स राई सोनीपत* में प्रवेश लिया तो मैं ज्यो ही इसके प्रशासनिक भवन में दाखिल हुआ तो वहाँ दो चित्र शीशे में फ्रेम किये हुए रखे थे । दोनो चित्र एक ही व्यक्ति के थे पर अलग-२ परिधान व भावों में । एक चित्र में वह व्यक्ति की घुमावदार मूछें थी ,वह सूट बूट में था व पास ही एक विदेशी छड़ी थी वही दूसरे चित्र में  उसी व्यक्ति की मूछें सफाचट थी , वह खादी की धोती- कुर्ता में था ,एक सफेद  शाल  ओढ़े था और पांव में चप्पल पहने था । दोनो चित्र एक ही व्यक्ति के थे और वह थे *प0 मोतीलाल नेहरू* ।
        आनंद भवन सर्वथा सजीव है । इसका एक -२ कमरा अपनी भव्यता की गाथा गा रहा है। कमरे ऐसे सजे है जैसे अभी कोई उठ कर गया है और थोड़ी देर में लौटेगा । *तुलसी का क्यारा* वही रखा है जहां इस घर की मालकिन माता स्वरूप रानी ने इसे प्रतिष्ठा दी थी हां उसी जगह जहाँ उनकी बहू *कमला नेहरू* इसकी पारिवारिक परम्परा व आस्था के अनुसार देखभाल करती थी  । जी हाँ उसी जगह जहां प0 मोतीलाल नेहरू ,उनके पुत्र जवाहरलाल नेहरू , उनकी पौत्री इंदिरा प्रियदर्शनी गांधी , परपौत्र संजय व राजीव गांधी के अस्थि कलश ,इसकी छांव में रखे गए थे । आज भी इसका आंगन घर के बच्चों की किलकारी से गूंजता दिखता है वही आंगन जहां विदेशी कपड़ो की होली जलाई गई थी और घर की सबसे लाडली गुड़िया इंदिरा के प्यारे खिलौने गुड़िया की भी । महात्मा गांधी कक्ष जहां बापू रुकते थे । कांग्रेस की मीटिंगों का सभागार , घर की देशी- विदेशी बर्तनों से सजी रसोई , वकील साहब की बैठक , अतिथि गृह ,  जवाहर व उनकी प्यारी बेटी इंदिरा  के कमरे सभी अपने मे छुपे इतिहास को बोलते है । कोई प्रयाग जाए और आनंद भवन - स्वराज भवन के दर्शन न कर पाए  तो यह यात्रा अधूरी ही है । इलाहाबाद, गंगा ,यमुना व सरस्वती का तो संगम स्थल है ही विचारों का भी संगम स्थल है  । अध्यात्म त्रिवेणी , विचार रूप में आनंद भवन व शहीद चंद्र शेखर आज़ाद की पुण्यस्थली का संगम ।इन्ही तीनो तीर्थो के दर्शन व स्नान कर मन गदगद है , शरीर पुलकित व विचार ऊर्जावान ।
राम मोहन राय
(Nityanootan broadcast service)
21.02.2019

Comments

Popular posts from this blog

Gandhi Global Family program on Mahatma Gandhi martyrdom day in Panipat

Aaghaz e Dosti yatra - 2024

पानीपत की बहादुर बेटी सैयदा- जो ना थकी और ना झुकी :