[3/12, 11:01 AM] Ram Mohan Rai: *Inner voice-4*(Nityanootan broadcast service) *वर्ष 1952 में ,भारत की स्वतंत्रता के बाद ,26 जनवरी ,1950 को संविधान लागू होने के बाद पहले चुनाव हुए । स्वभाविक था कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रबल नेता प0 जवाहरलाल नेहरू ही एक मात्र नेता थे जो अपने संसदीय क्षेत्र फूलपुर से चुनाव लगभग 5 लाख वोटों से जीते वहीं उनके धुर विरोधी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता व स्वतंत्रता आंदोलन के एक अन्य दिग्गज श्रीपाद अमृत डांगे ,बम्बई निर्वाचन क्षेत्र से कांग्रेस को हरा कर संख्या के आधार पर दूसरे नम्बर पर लगभग 3 लाख वोटों से जीते ।कुल 489 सीटों में से कांग्रेस ने लोकसभा में 364 सीटे प्राप्त कर सत्ता की कमान संभाली वहीं निर्दलीय दूसरे स्थान पर रहे ।कम्युनिस्ट पार्टी ने 16 , सोशलिस्ट पार्टी ने 12, भारतीय जनसंघ ने कुल 3 स्थान प्राप्त किये। पांच साल बाद सन 1957 का चुनाव काफी तीखा व रोचक रहा । सोशलिस्ट पार्टी ने डॉ राम मनोहर लोहिया , जय प्रकाश नारायण व अन्य नेताओं के नेतृत्व में काफी दम खम से चुनाव लड़ा । डॉ लोहिया खुद प0 नेहरू के मुकाबले में ,उनके क्षेत्र फूलपुर से चुनाव लड़े । श्री जय प्रकाश नारायण ने प्रचार की कमान संभाली । उनके निशाने पर नेहरू , उनकी नीतियां व कार्यप्रणाली थी ।स्वतन्त्रता आंदोलन के कांग्रेस समाजवादी पार्टी से उपजी सोशलिस्ट पार्टी को देश मे उनके प्रचार अभियान से तथा प0 नेहरू के खिलाफ जनआक्रोश से पूरी उम्मीद थी कि वे इस बार तो नेहरू के नेतृत्व की कांग्रेस को न केवल पूरे देश मे पछाड़ेगे । इस चुनाव की यह भी रही कि न तो सरदार पटेल अब कांग्रेस के पास थे व उसके एक बड़े नेता राजाजी राजगोपालाचार्य ने कांग्रेस के एक बड़े तबके के साथ स्वतंत्र पार्टी का गठन कर लिया था ।। अब नए जोश में नए नाम प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के मंसूबो पर पानी फिर गया जब कुल 494 सीटों पर हुए चुनावो में कांग्रेस को पिछली बार से भी सात ज्यादा सीटें यानी कुल 371 स्थानों पर सफलता मिली । जीत का मंसूबा पालने वाली प्रसपा को पिछली बार से चार कम यानी कुल नौ स्थान मिले । भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने पिछली बार से 10 स्थान व भारतीय जनसंघ ने एक स्थान ज्यादा प्राप्त किया । प्रजा सोशलिस्ट पार्टी में तो इस पराजय से इस तरह निराशा व हताशा का माहौल बना कि श्री जय प्रकाश नारायण ने राजनीति से यह कह कर विदाई ले ली कि *जनता को वोट देने की तमीज़ नही है* । चुनाव इसी तरह उतार चढ़ाव के टेढ़े मेढे रास्ते पर चलता रहा । नेहरू जी की समाजवादी घरेलू पंचवर्षीय योजनाओं व सोवियत संघ समर्थक परराष्ट्र नीति ने कांग्रेस के अनेक शीर्ष नेताओं को उनके खिलाफ कर दिया । सन 1962 के चीन- भारत युद्ध ने तो उन्हें काफी कमजोर कर दिया था और अंततः 27 मई ,1964 को वे हम सबसे विदा हो गए और पार्टी में ही उनके विरोधियों ने समझा कि अब नेहरू युग से मुक्ति हुई । सन 1967 का चुनाव उनकी सुपुत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने पार्टी में ही शीर्ष नेताओं के दवाब व अंतर्विरोध के बावजूद लड़ा । यह चुनाव नेहरू की नीतियों तथा उनके विरोध का था ।अंदरूनी कलह के बीच ,लोकसभा की कुल 520 स्थानों में कांग्रेस को 283 व कांग्रेस की नीतियों की प्रखर विरोधी दक्षिणपंथी स्वतन्त्र पार्टी को 44 स्थान मिले । नेहरू की नीतियों को ओर आगे बढ़ाते हुए श्रीमती इंदिरा गांधी ने राजाओ के प्रिवी पर्सेस की समाप्ति व 14 बैंको के राष्ट्रीयकरण का ऐतिहासिक फैसला कर न केवल अपनी अपितु विरोधी दलों में हलचल मचा दी अब इंदिरा जी वामपंथ की सबसे पसंदीदा नेता थी इसके विपरीत मोरारजी देसाई ,सादिक अली , आचार्य कृपलानी, निरजलिंगप्पा ,के कामराज व अनेक शीर्ष नेता उनके विरोध में थे व हरियाणा के फरीदाबाद में आयोजित कांग्रेस महाधिवेशन में उन्हें निष्कासित कर सबक सिखाना चाहते थे । कांग्रेस का विभाजन हुआ व सन 1971 के आम चुनाव में कांग्रेस को कुल 518 स्थानों में से 352 स्थान मिले वही मोरारजी देसाई की कांग्रेस को मात्र 16 स्थान । स्मरण रहे इस चुनाव में पहली बार धांधली व भ्र्ष्टाचार के आरोप उछले । भारतीय जनसंघ ने श्रीमती इंदिरा गांधी और उनकी पार्टी पर चुनाव में अनियमितता के आरोप लगाए । आरोप यहां तक था कि कांग्रेस ने रूस से एक ऐसा पाउडर मंगवाया है जो हर बैलट पेपर पर लगा है जिसपर कोई भी किसी भी निशान पर मोहर लगाएगा ,कुछ समय बाद वह मोहर मिट जाएगी और पहले से ही कांग्रेस के गाय बछड़े के निशान पर लगी मोहर का निशान उभर जाएगा । यह कुछ ऐसा सा ही इल्जाम था जैसा आजकल ई वी एम के बारे में लगाये जा रहे है । पर इसके साथ-2 , श्रीमती इंदिरा गांधी समेत अनेक चुनाव परिणाम चैलेंज भी हुए और खुद इंदिरा जी का चुनाव खारिज हुआ ।। इसके साथ-2 पूरे देश मे गुजरात से शुरू हुआ भ्र्ष्टाचार के विरुद्ध अब जे पी के नेतृत्व में देशव्यापी हो चुका था । *गली गली में शोर है -इंदिरा गांधी चोर है* का नारा मुखर रहा और अन्ततः आपातकाल लगा ।लुब्बोलवाब यह कि अब चुनाव में धांधली व बूथ कैप्चरिंग आम बात थी । सन 1977 का लोकसभा चुनाव में सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी को पूरा यकीन था कि इस बार देश मे अनुशासन की इतनी लहर है कि जीत तो उनकी ही होगी । पर कागजो में सर्वे कुछ और था और जनता में कुछ और । यही हुआ न केवल सत्ताधारी पार्टी हारी वही उसकी नेता श्रीमती इंदिरा गांधी भी खुद अपनी परम्परागत सीट रायबरेली से 55,000 वोट से हार गई । जनता पार्टी के नाम पर गैर कांग्रेसी सरकार का पहला प्रयोग कांग्रेसी श्री मोरारजी देसाई के नेतृत्व में हुआ पर दो ही साल में कांग्रेस वापिस लौटी । वर्ष 1980 का चुनाव ,नई आशाएं लेकर आया था ,परन्तु इतिहास ने करवट बदली व सन 1984 में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा जी की निर्मम हत्या हुई और श्री राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने । सन 1985 का चुनाव कांग्रेस ने इंदिरा जी की हत्या के प्रति संवेदना लहर से जीता और कुल 540 स्थानों में से 411 स्थान पर विजय हासिल की ।सन 2004 में, लोकसभा चुनावों में पहली बार पूरी तरह से ई वी एम का इस्तेमाल हुआ । इसकी तकनीकी निष्पक्षता को लेकर सभी विरोधी दलों ने सवाल उठाये ,कुछ ऐसे ही जैसे आज के विरोधी दल उठा रहे है । इस चुनाव में कांग्रेस के नेतृत्व में सरकार बनी और प्रधानमंत्री बने डॉ मनमोहन सिंह । इसी उठापटक में इस सरकार ने दो टर्म यानी 10 साल तक शासन किया । अब सन 2014 से बीजेपी के नेतृत्व में एन डी ए की सरकार है । सवाल वे ही है कि ई वी एम ईमानदार नही है । हारने वाले दल अपनी पराजय की ठीकरा इसी पर उतार रहे है । पर सवाल यह भी है कि दिल्ली , पंजाब,केरल,राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, बंगाल सभी चुनावो में तो ई वी एम ही तो था फिर यह आरोप क्यो ?Ram Mohan RaiSeattle, Washington (USA)28.05.2019[3/12, 11:01 AM] Ram Mohan Rai: *Inner voice* -5(Nityanootan broadcast service) प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने लोकसभा चुनावों में अपनी ऐतिहासिक विजय के बाद ,बीजेपी कार्यालय ,दिल्ली में अपने कार्यकर्ताओं को सम्बोधित करते हुए कहा कि यह पहला चुनाव है जब महंगाई ,भ्र्ष्टाचार ,बेरोजगारी कोई मुद्दा नही रहा । इसका अर्थ क्या है क्या यह सब मुद्दे हल हो गए ? इस से इतर ,बीजेपी का वर्ष 2014 का घोषणापत्र की सभी बातें पूरी हो गयी ? इन मुद्दों को मैं तो बिल्कुल भी नही उठाना चाहता क्योकि यह तो शासक दल के ही चहेते मुद्दे है और इन्हें उठाना एक उकसावे के इलावा कुछ नही है ,फिर भी क्या राम मंदिर बन गया ? , क्या अनुच्छेद 370 समाप्त हो गया या देश मे समान सिविल संहिता लागू हो गयी ? तो क्या कला धन वापिस आगया ? क्या यह चुनाव नोटबन्दी व जी एस टी के समर्थन में था या गौरी लंकेश ,कलबुर्गी , दाभोलकर,रोहित वेमुला ,अख़लाक़ जैसे निरपराध लोगो की हत्या को सही ठहराने के हक में ? क्या यह चुनाव सही में *गांधी बनाम गोडसे* रहा ? क्या जनता ने *सबका साथ सबका विकास*/ के हक में वोट डाले ?नही न । फिर चुनाव किसके हक में व किसके विरोध में रहा? ये सब मेरे प्रश्न है ,आपके कुछ ऐसे ही और या कुछ अलग या फिर मेरे सवालों के जवाब देते हुए कुछ अलग प्रश्न हो सकते है । मेरे जेहन में जो कुछ भी उठा ,उसे मैंने उगल दिया । लोकतंत्र ने मुझे सहमति -असहमति और अपने सवाल उठाने का मौलिक अधिकार दिया है जिसे मैं इस्तेमाल कर रहा हूं । इस चुनाव में बीजेपी की सफल टीम के अतिरिक्त कोई एक नेता ढंग से अपने मुद्दे उठाता हुआ लड़ा तो वह एक मात्र राहुल गांधी ही है । बचपन मे सब पप्पू होते है ,अपनी माँ की गोद से कोई सीख कर नही आता । पर अब यह पप्पू पूरी तरह से परिपक्वता से अपनी बात रखता हुआ ,पाया गया । जिसका कोई जवाब ,किसी के पास भी नही था ,प्रधानमंत्री जी व उनकी टीम के पास भी नही । वह किन के पास नही गया । विद्यार्थियों ,युवाओं ,मछुआरों , महिलाओं , किसानों, आदिवासियों सभी के पास तो , उनकी बात समझ कर अपनी बात रखी । महात्मा गांधी की बात को उसने कहा कि वह प्यार से जीतना चाहता है । उसकी बहन प्रियंका उसके साथ आई पर बहुत देरी से । बहन के पास भाषण शैली भी थी , आकर्षण भी व मुस्कराहट भी पर वह गम्भीरता नही थी जो उसके भाई में थी । राहुल ने गुजरात में लगभग जीत हासिल की ही थी । राजस्थान,मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ में उसने अपने करिश्मे को दिखाया और अब लगने लगा कि अब दिल्ली दूर नही ।पर साल भर भी पूरा नही हुआ , राजस्थान , मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ में वायदे के मुताबिक किसानों के कर्जे भी माफ हुए पर बात बनी नही । मैं यहाँ दो बातों का जिक्र करना चाहूंगा । एक-सन 1942 में जब पूरा देश आज़ादी के आंदोलन की चरम सीमा पर था तो हमारे कम्युनिस्ट भाई , जर्मनी के फासिज्म विरोध के नाम पर सोवियत संघ के कहने पर आज़ादी के आंदोलन से पीछे हटे दूसरे आपातकाल के दौरान सन 1976 में जब इंदिरा गांधी अपनी नीतियों पर आगे बढ़ रही थी तो राहुल गांधी के चाचा संजय गांधी का भारत छोड़ो आंदोलन में कम्युनिस्ट पार्टी की भूमिका पर उन्हें कोसना । इन दोनों का क्या मेल था ,यह समझ से आज भी बाहर है ? दूसरे यू पी ए -1 की सरकार से (सब काम अच्छा चलते) के खिलाफ अमेरिका से आणविक समझौते के विरुद्ध कम्युनिस्ट पार्टी के अविश्वास प्रस्ताव का और अब राहुल गांधी द्वारा एकदम कम्युनिस्टों के गढ़ केरल के वायनाड से चुनाव लड़ने का कदम भी समझ से बाहर है । कम्युनिस्टों का जनाधार बेशक सिमट रहा हो पर इनका कैडर बेमिसाल है । मेरे विचार से इन दोनों कामो में दोनो पार्टियो को कुछ भी तो नही मिला हां एक दूसरे से दूरियां जरूर बढ़ी है । कम्युनिस्ट पार्टी के वरिष्ठ दिवंगत नेता का0 मुकिम फ़ारूक़ी का कथन बिल्कुल सही है * *गर कम्युनिस्ट पार्टी गलती करती है तो वह ही भुगतती है पर गर कांग्रेस गलती करती है तो मुल्क़ भुगतता है* ।प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी को पुनः उद्धरित करना चाहूंगा कि यह चुनाव मुद्दे आधारित नही था । प्रधानमंत्री जी ने पुलवामा अटैक के बाद दक्षिण भारत मे एक जनसभा को सम्बोधित करते हुए सही कहा था कि क्या आपका एक-२ वोट शहीद जवानों के नाम हो सकता है । यह ही वह आह्वान था जिसने उत्तर भारत के भावुक हिन्दू मतदाताओं को उद्वेलित किया । चुनाव आयोग की लाख चेतावनी हो पर पुलवामा अटैक व बालाघाट में सैनिक कायवाही ने न चाह कर भी बहुसंख्यक समाज के मतदाताओं को लुभाया और उन्होंने इस पक्ष में तमाम अन्य मुद्दों को नज़रन्दाज़ कर मतदान किया । ऐसा गैरवाजिब भी नही था हर सरकार ऐसी उपलब्धियों को भुनाती है । क्या इंदिरा जी ने वर्ष 1971 में भारत - पाकिस्तान युद्ध व बांग्लादेश की मुक्ति को अपनी विजय यात्रा में शामिल नही किया था ? राहुल गांधी इस राष्ट्रवाद अभियान को समझने में असफल रहे और बाकी विपक्षी दल गठबंधन बना कर राहुल को रोकने में कामयाब ।राहुल बेशक कांग्रेस अध्यक्ष पद से हट जाएं पर याद रहे कि वर्तमान दौर में कांग्रेस का नेतृत्व करने में वे ही एक सार्थक नेता है । राहुल -प0 मोती लाल नेहरू, प0 जवाहरलाल नेहरु ,इंदिरा गांधी और अपने पिता राजीव गांधी की विरासत का नायक है जिन्होंने न केवल देश की आज़ादी का संघर्ष लड़ कर आज़ादी को लाने में सहयोग किया वहीं स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात उसको बचाने में हर प्रकार का बलिदान दिया । उसका परिवारवाद ,मुलायम ,माया ,धूमल ,बादल ,देवीलाल ,भजनलाल ,नायडू ,रेड्डी, करुणानिधि आदि-२ के परिवारवाद से सर्वथा भिन्न है । बेशक डॉ सुब्रह्मण्यम स्वामी से हम सहमत हो या नही परन्तु इस बात में उनकी पूरी सच्चाई है कि यदि पुलवामा अटैक नही होता तो बीजेपी को मात्र 160-180 सीट ही मिलती । एक बात और वेस्ट बंगाल में ममता बनर्जी ने स्वयं को कांग्रेस से अलग कर तृण मूल कांग्रेस इस मुद्दे बनाई थी कि वे चाहती थी कि सोनिया गांधी कांग्रेस अध्यक्ष बने । महाराष्ट्र में श्री शरद पवार ने कांग्रेस इस लिये छोड़ कर राष्ट्रवादी कांग्रेस बनाई कि सोनिया गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष क्यों बनाया ? जगन मोहन रेड्डी को तो कांग्रेस ने ही चापलूस नेताओ की वजह से अलग किया ।ऐसे उदाहरण हर प्रदेश में है । कांग्रेस कैडर की पार्टी नही बन सकती और न ही इसे इस तरफ बढ़ना चाहिये पर हां उसे जन पार्टी बन कर कैडर बेस्ड कम्युनिस्टों से तालमेल कायम करना होगा । यहाँ कम्युनिस्ट एक दूसरे को देख कर खुश नही । उनमें से कईयों को मोदी के जीतने का दुख नही परन्तु यदि कन्हैया कुमार जीत जाता उसका जरूर होता । कांग्रेस अध्यक्ष तो नेहरु - गांधी परिवार का ही रहेगा और आज के हालात में राहुल से बेहतर कोई नही है । किसी भी अन्य नेता की दावेदारी उसकी स्थिति हास्यास्पद ही बनाएगी। Ram Mohan RaiSeattle,Washington (USA)29.05.2019


 

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