INNER VOICE-USA
*Inner voice-3*[3/11, 8:31 AM] Ram Mohan Rai: *Inner voice-3*
(Nityanootan broadcast service)
सूर्य तो हमेशा प्रदीप्तमान है । जब भारत मे सुबह होती है तो अमेरिका में शाम । यहां, आज शाम ढले ही एक तिब्बती परिवार से शाम की सैर के दौरान मुलाकात हुई और उसके माध्यम से तीन प्रातः स्मरणीय विभूतियों दीदी निर्मला देशपाण्डे जी ,परम पावन दलाई लामा जी व परमपूजनीय प्रभु जी का न केवल स्मरण हुआ अपितु इस परिवार के माध्यम से उनका सहज आशीर्वाद भी मिला ।
तिब्बती मूल की अमेरिकन सुश्री यांगचें अपनी दादी व एक बालक के साथ उन्हें घुमाने लायी थी । मैं भी अपनी पत्नी श्रीमती कृष्णा कांता व नाती के साथ घूमने निकला था । अपनी आदत के अनुसार ज्योही मुझे एशियाई भावकृति के लोग दिखे तो मैने उनका अभिवादन किया व अपना परिचय देकर उनसे उनके बारे में जानकारी चाही । वे हम से मिलकर बेहद प्रसन्न हुए तथा उन्होंने बताया कि वे तिब्बत से है तथा अब अपने परिवार सहित यहीं सिएटल , वाशिंगटन में रह रहे है । तिब्बत का नाम आये व परम पावन दलाई लामा जी का स्तुतिगान न हो ,ऐसा नामुमकिन है । फेसबुक का मुझे तो बहुत फायदा मिला है । मैने तुरन्त अपना एकाउंट खोला व उन दो बहुमूल्य चित्रों को खोज निकाला जिसमे गुरु जी दलाई लामा जी , परमपूजनीय प्रभु जी व दीदी निर्मला देशपाण्डे जी अखिल भारत रचनात्मक समाज के चेन्नई व ऋषिकेश सम्मेलनों में पधारे थे । सौभाग्यवश ,मैं भी उन चित्रों में दाएं-बाएं दृष्टिगोचर था । परम पावन दलाई लामा जी के चित्र को देखते ही वह परिवार अभिभूत होकर उसने हाथ जोड़ कर प्रणाम करने लगा । यांगचें की दादी ने भावविभोर होकर उन क्षणों को याद किया जब वे तिब्बत पर चीन के कब्जे के बाद भारत शरणार्थी बन कर आये थे व भारत सरकार व जनता ने खुले दिल से अपनी हर प्रकार की मदद उन्हें दी थी तथा उनका स्वागत व सहयोग किया था । इस अवसर पर मैंने भी उन्हें स्व0 निर्मला दीदी के तिब्बत के मुक्ति संघर्ष में योगदान की जानकारी दी व परमपूज्य प्रभु जी की आध्यात्मिक साधना का गुणगान किया । इन क्षणों में सभी आत्मविभोर थे व एक दुसरे को कृतज्ञ भाव से देख रहे थे । अंत मे , गांधी ग्लोबल फैमिली व अन्य संगठनों द्वारा किये जा रहे *बा -बापू 150* वर्ष के कार्यो
की भी जानकारी देने का भी मौका मिला । अंत मे फिर मिलने की कामना के साथ विदाई ली । यह दुनियां बहुत छोटी है यदि आपके पास विराट महापुरुषों का आशीर्वाद व सानिध्य हो ।
Ram Mohan Rai
Seattle, Washington (USA)
15.05.2019*Inner voice-3*
Nityanootan broadcast service
*********
2019 के संसदीय आम चुनाव के बाद मेरे एक परिवारिक मित्र ने मुझे लिखा कि *भाई साहब नई सरकार आने पर आप भी कुछ कहो* ,मेरा उन्हें जवाब था कि *सरकार तो पुरानी ही है* । मेरे एक अन्य युवा मित्र ने चुनाव में अपनी पार्टी की हार को देखते हुए अपने *फेसबुक की डी पी ही बदल कर एक ब्लैक घेरा जो अफसोस का सूचक है* उसे लगा लिया । एक अन्य मित्र जो कि एक प्रौढ़ व परिपक्व लगते है और पेशे से वकील भी है ने *अपनी एक फोटो जिसमे वे हार के गम में रो रहे है ,लगाई है* । एक ने तो फोन करके मुझे सलाह दी कि *भाई साहब अब आप अमेरिका से न लौटे, अब यहां सब कुछ लूट चुका है* । एक ने तो कहा कि *अब राजनीति में सब कुछ खत्म हो चुका है* । दूसरी तरफ अनेक ऐसे मित्र है जो अपनी जीत की खुशी में आमादा हो कर कांग्रेस ,लेफ्ट व विपक्षियों का आखिरी मर्सिया पढ़ रहे है । मैं एक पेशेवर वकील के नाते कह सकता हूं कि *अपने केस की तैयारी में मेहनत में कोई कमी नही होनी चाहिये ,जीत हार होती रहती है* ।
मैं बेशक अब किसी राजनीतिक पार्टी का सदस्य नही हूं परन्तु लगभग हर पार्टी में मेरे अनेक मित्र है, जिनसे न केवल व्यक्तिगत अपितु पारिवारिक व सामाजिक सम्बन्ध है । अनेक ऐसे दोस्त है जिनके साथ वैचारिक काम कर प्रेरणा लेते थे ,आज वे सत्ता पार्टी अथवा विपक्ष के अन्य दलों में उच्च स्थान पर है । मैने इस चुनाव में अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता से हट कर ,उन्हें अपनी शुभकामनाएं भी दी । कुछ विजयी हुए और कुछ को पराजय का मुँह देखना पड़ा परन्तु यह अपनी जगह है और सम्बन्ध अपने स्थान पर । मेरे माता-पिता एक निष्ठावान कांग्रेस जन थे इसके विपरीत मैं उनकी प्रतिबद्धता से हट कर वाम विचारधारा के प्रति आकर्षित रहा परन्तु परिवार में बहस-मुबहसा तो रहा परन्तु वैसे सद्भावना बनी रही । वर्ष 1982 में मुझे पानीपत विधानसभा से वामपंथी पार्टियों ने अपना प्रत्याशी घोषित किया ,बेशक तकनीकी आधार पर नामांकन ही रद्द होने की वजह से चुनाव न लड़ सका । *उस दौरान मेरी मां से किसी ने पूछा कि आप अपने बेटे को साथ दोगी या पार्टी का ? उनका तुरत जवाब था कि उनकी पार्टी का निशान *गाय बछड़ा* ( कांग्रेस का उस समय चुनाव चिन्ह) है और नारा है *गाय को बछड़ा प्यारा है ,यही निशान हमारा है* । इस चुनाव में भी जिधर बछड़ा होगा उधर ही गाय जाएगी ।
अस्तु ,इस चुनाव में सभी पार्टियों ने अपने हर प्रकार के विषैले ,नुकीले और कटु तीर एक दूसरे पर चलाए । *पप्पू, फेंकू, चौकीदार चोर है , साला -जीजा चोर है , मैं चौकीदार हूं आदि आदि* । हर ने अपनी बात बहुत ही युक्तियुक्त रखी और अब फैसला जनता ने दे दिया है ।
मेरा एक छोटा परन्तु गम्भीर सवाल है कि *क्या लोकतंत्र में चुनाव जनता लड़ती है और सत्ता पर कोन काबिज़ होगा अथवा विपक्ष में कौन बैठेगा ,क्या इसका फैसला जनता ही करती है या जाति, धर्म , गोत्र ,क्षेत्र, धनबल ,बाहुबल , प्रचार ,माफिया तिकड़म , तकनीक व ढंग की भी कोई भूमिका होती है* ? मेरी याददाश्त में बहुत ऐसे लोग है जो एक विशेष दल की विचारधारा से 75 साल से भी ज्यादा समय से जुड़े है ,अनेक ऐसे है जिन्हें अपने पुरखो से यह मिली है परन्तु सत्ता में आने के बाद भी पार्टी में मात्र वे एक स्वयंसेवक ही है ,जबकि अनेक वे लोग है जिन्हें जुम्मा-२ चार दिन हुए और वे सत्ता की मलाई खा रहे है । एक कार्यकर्ता अपना पूरा जीवन खपा देता है परन्तु अंत मे वह अपने परिवार से तरिस्कृत होकर मरता है कि उसने क्या किया?
चुनावो का सर्वेक्षण एक आम वोटर की नज़र से करते हुए मेरा विचार है कि यह चुनाव किन्ही मुद्दों ,विचारधारा एवम सिद्धान्त का विषय न होकर सुविधा ,भावनाओ एवम अहं का चुनाव रहा जिसमे तंत्र ,धन व बाहु बल का भरपूर प्रयोग हुआ । सत्तापक्ष विगत पांच वर्षों से अपनी चुनावी नीतियां बनाने में सफल रहा वही विपक्ष अंत समय तक दुविधाओं के द्वंद में रहा । पार्टियां नाम की तो फलां -२ थी परन्तु खुद को जातियों व परिवारवाद से बाहर न निकाल पाई । कुल छः स्थान ज्यादा करने के चक्कर मे अपने भविष्य के मित्रो का कत्ल करने के लिये ही अमादा रही और अब खमियाजा भुगत रही है । कन्हैया कुमार का कहना सही है कि उनके पास तो खोने को कुछ नही है पर उनका क्या जिन्हें उम्मीद थी और कुछ पा न सके ।
चुनाव के बाद प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी के वक्तव्य कि उनके लिये संविधान सर्वोपरि है तथा अब वे बिना किसी पक्षपात व द्वेषपूर्ण काम करेंगे । श्री राहुल गांधी ने शालीनतापूर्वक अपनी व अपनी पार्टी की पराजय स्वीकार की है वहीँ युवा नेता श्री कन्हैया कुमार ने इसे लोकतंत्र का महापर्व कह कर मतभेद बेशक हो पर मनभेद न होने की बात की है , को ही लेना चाहिये । हमे प्रधानमंत्री जी की इस बात से भी सीख लेनी चाहिये कि कभी समय था कि उनकी पार्टी के दो ही सदस्य थे और अब वे सत्ता को दोहरा रहे है । जो लोग विजयी हुए उन्हें बधाई और जो पराजय की वजह से निराश अथवा उदास है उन्हें सांत्वना कि हिम्मत न हारे ,हर रात के बाद सुबह होती है । सीपीएम के वरिष्ठ नेता व मेरे मित्र श्री मो0 सलीम के शब्दों में *I am defeated not deleted* ( हारे है जरूर हम पर मरे नही है )
भगवान कृष्ण को गीता उपदेश के बाद अर्जुन ने यही तो कहा था *अर्जुनस्य प्रतिज्ञई द्वयम न दैन्य न पलायन* ( अर्जुन की दो ही प्रतिज्ञाएँ है कि न तो कायरता दिखाऊंगा और न ही भागूंगा ।
राम मोहन राय
Seattle, Washington (USA)
25.05.2019
[3/11, 8:32 AM] Ram Mohan Rai: *Inner voice-3*
Nityanootan broadcast service
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2019 के संसदीय आम चुनाव के बाद मेरे एक परिवारिक मित्र ने मुझे लिखा कि *भाई साहब नई सरकार आने पर आप भी कुछ कहो* ,मेरा उन्हें जवाब था कि *सरकार तो पुरानी ही है* । मेरे एक अन्य युवा मित्र ने चुनाव में अपनी पार्टी की हार को देखते हुए अपने *फेसबुक की डी पी ही बदल कर एक ब्लैक घेरा जो अफसोस का सूचक है* उसे लगा लिया । एक अन्य मित्र जो कि एक प्रौढ़ व परिपक्व लगते है और पेशे से वकील भी है ने *अपनी एक फोटो जिसमे वे हार के गम में रो रहे है ,लगाई है* । एक ने तो फोन करके मुझे सलाह दी कि *भाई साहब अब आप अमेरिका से न लौटे, अब यहां सब कुछ लूट चुका है* । एक ने तो कहा कि *अब राजनीति में सब कुछ खत्म हो चुका है* । दूसरी तरफ अनेक ऐसे मित्र है जो अपनी जीत की खुशी में आमादा हो कर कांग्रेस ,लेफ्ट व विपक्षियों का आखिरी मर्सिया पढ़ रहे है । मैं एक पेशेवर वकील के नाते कह सकता हूं कि *अपने केस की तैयारी में मेहनत में कोई कमी नही होनी चाहिये ,जीत हार होती रहती है* ।
मैं बेशक अब किसी राजनीतिक पार्टी का सदस्य नही हूं परन्तु लगभग हर पार्टी में मेरे अनेक मित्र है, जिनसे न केवल व्यक्तिगत अपितु पारिवारिक व सामाजिक सम्बन्ध है । अनेक ऐसे दोस्त है जिनके साथ वैचारिक काम कर प्रेरणा लेते थे ,आज वे सत्ता पार्टी अथवा विपक्ष के अन्य दलों में उच्च स्थान पर है । मैने इस चुनाव में अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता से हट कर ,उन्हें अपनी शुभकामनाएं भी दी । कुछ विजयी हुए और कुछ को पराजय का मुँह देखना पड़ा परन्तु यह अपनी जगह है और सम्बन्ध अपने स्थान पर । मेरे माता-पिता एक निष्ठावान कांग्रेस जन थे इसके विपरीत मैं उनकी प्रतिबद्धता से हट कर वाम विचारधारा के प्रति आकर्षित रहा परन्तु परिवार में बहस-मुबहसा तो रहा परन्तु वैसे सद्भावना बनी रही । वर्ष 1982 में मुझे पानीपत विधानसभा से वामपंथी पार्टियों ने अपना प्रत्याशी घोषित किया ,बेशक तकनीकी आधार पर नामांकन ही रद्द होने की वजह से चुनाव न लड़ सका । *उस दौरान मेरी मां से किसी ने पूछा कि आप अपने बेटे को साथ दोगी या पार्टी का ? उनका तुरत जवाब था कि उनकी पार्टी का निशान *गाय बछड़ा* ( कांग्रेस का उस समय चुनाव चिन्ह) है और नारा है *गाय को बछड़ा प्यारा है ,यही निशान हमारा है* । इस चुनाव में भी जिधर बछड़ा होगा उधर ही गाय जाएगी ।
अस्तु ,इस चुनाव में सभी पार्टियों ने अपने हर प्रकार के विषैले ,नुकीले और कटु तीर एक दूसरे पर चलाए । *पप्पू, फेंकू, चौकीदार चोर है , साला -जीजा चोर है , मैं चौकीदार हूं आदि आदि* । हर ने अपनी बात बहुत ही युक्तियुक्त रखी और अब फैसला जनता ने दे दिया है ।
मेरा एक छोटा परन्तु गम्भीर सवाल है कि *क्या लोकतंत्र में चुनाव जनता लड़ती है और सत्ता पर कोन काबिज़ होगा अथवा विपक्ष में कौन बैठेगा ,क्या इसका फैसला जनता ही करती है या जाति, धर्म , गोत्र ,क्षेत्र, धनबल ,बाहुबल , प्रचार ,माफिया तिकड़म , तकनीक व ढंग की भी कोई भूमिका होती है* ? मेरी याददाश्त में बहुत ऐसे लोग है जो एक विशेष दल की विचारधारा से 75 साल से भी ज्यादा समय से जुड़े है ,अनेक ऐसे है जिन्हें अपने पुरखो से यह मिली है परन्तु सत्ता में आने के बाद भी पार्टी में मात्र वे एक स्वयंसेवक ही है ,जबकि अनेक वे लोग है जिन्हें जुम्मा-२ चार दिन हुए और वे सत्ता की मलाई खा रहे है । एक कार्यकर्ता अपना पूरा जीवन खपा देता है परन्तु अंत मे वह अपने परिवार से तरिस्कृत होकर मरता है कि उसने क्या किया?
चुनावो का सर्वेक्षण एक आम वोटर की नज़र से करते हुए मेरा विचार है कि यह चुनाव किन्ही मुद्दों ,विचारधारा एवम सिद्धान्त का विषय न होकर सुविधा ,भावनाओ एवम अहं का चुनाव रहा जिसमे तंत्र ,धन व बाहु बल का भरपूर प्रयोग हुआ । सत्तापक्ष विगत पांच वर्षों से अपनी चुनावी नीतियां बनाने में सफल रहा वही विपक्ष अंत समय तक दुविधाओं के द्वंद में रहा । पार्टियां नाम की तो फलां -२ थी परन्तु खुद को जातियों व परिवारवाद से बाहर न निकाल पाई । कुल छः स्थान ज्यादा करने के चक्कर मे अपने भविष्य के मित्रो का कत्ल करने के लिये ही अमादा रही और अब खमियाजा भुगत रही है । कन्हैया कुमार का कहना सही है कि उनके पास तो खोने को कुछ नही है पर उनका क्या जिन्हें उम्मीद थी और कुछ पा न सके ।
चुनाव के बाद प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी के वक्तव्य कि उनके लिये संविधान सर्वोपरि है तथा अब वे बिना किसी पक्षपात व द्वेषपूर्ण काम करेंगे । श्री राहुल गांधी ने शालीनतापूर्वक अपनी व अपनी पार्टी की पराजय स्वीकार की है वहीँ युवा नेता श्री कन्हैया कुमार ने इसे लोकतंत्र का महापर्व कह कर मतभेद बेशक हो पर मनभेद न होने की बात की है , को ही लेना चाहिये । हमे प्रधानमंत्री जी की इस बात से भी सीख लेनी चाहिये कि कभी समय था कि उनकी पार्टी के दो ही सदस्य थे और अब वे सत्ता को दोहरा रहे है । जो लोग विजयी हुए उन्हें बधाई और जो पराजय की वजह से निराश अथवा उदास है उन्हें सांत्वना कि हिम्मत न हारे ,हर रात के बाद सुबह होती है । सीपीएम के वरिष्ठ नेता व मेरे मित्र श्री मो0 सलीम के शब्दों में *I am defeated not deleted* ( हारे है जरूर हम पर मरे नही है )
भगवान कृष्ण को गीता उपदेश के बाद अर्जुन ने यही तो कहा था *अर्जुनस्य प्रतिज्ञई द्वयम न दैन्य न पलायन* ( अर्जुन की दो ही प्रतिज्ञाएँ है कि न तो कायरता दिखाऊंगा और न ही भागूंगा ।
राम मोहन राय
Seattle, Washington (USA)
25.05.2019
[3/11, 8:32 AM] Ram Mohan Rai: *Inner voice-4*
(Nityanootan broadcast service)
*वर्ष 1952 में ,भारत की स्वतंत्रता के बाद ,26 जनवरी ,1950 को संविधान लागू होने के बाद पहले चुनाव हुए । स्वभाविक था कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रबल नेता प0 जवाहरलाल नेहरू ही एक मात्र नेता थे जो अपने संसदीय क्षेत्र फूलपुर से चुनाव लगभग 5 लाख वोटों से जीते वहीं उनके धुर विरोधी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता व स्वतंत्रता आंदोलन के एक अन्य दिग्गज श्रीपाद अमृत डांगे ,बम्बई निर्वाचन क्षेत्र से कांग्रेस को हरा कर संख्या के आधार पर दूसरे नम्बर पर लगभग 3 लाख वोटों से जीते ।कुल 489 सीटों में से कांग्रेस ने लोकसभा में 364 सीटे प्राप्त कर सत्ता की कमान संभाली वहीं निर्दलीय दूसरे स्थान पर रहे ।कम्युनिस्ट पार्टी ने 16 , सोशलिस्ट पार्टी ने 12, भारतीय जनसंघ ने कुल 3 स्थान प्राप्त किये। पांच साल बाद सन 1957 का चुनाव काफी तीखा व रोचक रहा । सोशलिस्ट पार्टी ने डॉ राम मनोहर लोहिया , जय प्रकाश नारायण व अन्य नेताओं के नेतृत्व में काफी दम खम से चुनाव लड़ा । डॉ लोहिया खुद प0 नेहरू के मुकाबले में ,उनके क्षेत्र फूलपुर से चुनाव लड़े । श्री जय प्रकाश नारायण ने प्रचार की कमान संभाली । उनके निशाने पर नेहरू , उनकी नीतियां व कार्यप्रणाली थी ।स्वतन्त्रता आंदोलन के कांग्रेस समाजवादी पार्टी से उपजी सोशलिस्ट पार्टी को देश मे उनके प्रचार अभियान से तथा प0 नेहरू के खिलाफ जनआक्रोश से पूरी उम्मीद थी कि वे इस बार तो नेहरू के नेतृत्व की कांग्रेस को न केवल पूरे देश मे पछाड़ेगे । इस चुनाव की यह भी रही कि न तो सरदार पटेल अब कांग्रेस के पास थे व उसके एक बड़े नेता राजाजी राजगोपालाचार्य ने कांग्रेस के एक बड़े तबके के साथ स्वतंत्र पार्टी का गठन कर लिया था ।। अब नए जोश में नए नाम प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के मंसूबो पर पानी फिर गया जब कुल 494 सीटों पर हुए चुनावो में कांग्रेस को पिछली बार से भी सात ज्यादा सीटें यानी कुल 371 स्थानों पर सफलता मिली । जीत का मंसूबा पालने वाली प्रसपा को पिछली बार से चार कम यानी कुल नौ स्थान मिले । भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने पिछली बार से 10 स्थान व भारतीय जनसंघ ने एक स्थान ज्यादा प्राप्त किया । प्रजा सोशलिस्ट पार्टी में तो इस पराजय से इस तरह निराशा व हताशा का माहौल बना कि श्री जय प्रकाश नारायण ने राजनीति से यह कह कर विदाई ले ली कि *जनता को वोट देने की तमीज़ नही है* ।
चुनाव इसी तरह उतार चढ़ाव के टेढ़े मेढे रास्ते पर चलता रहा । नेहरू जी की समाजवादी घरेलू पंचवर्षीय योजनाओं व सोवियत संघ समर्थक परराष्ट्र नीति ने कांग्रेस के अनेक शीर्ष नेताओं को उनके खिलाफ कर दिया । सन 1962 के चीन- भारत युद्ध ने तो उन्हें काफी कमजोर कर दिया था और अंततः 27 मई ,1964 को वे हम सबसे विदा हो गए और पार्टी में ही उनके विरोधियों ने समझा कि अब नेहरू युग से मुक्ति हुई । सन 1967 का चुनाव उनकी सुपुत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने पार्टी में ही शीर्ष नेताओं के दवाब व अंतर्विरोध के बावजूद लड़ा । यह चुनाव नेहरू की नीतियों तथा उनके विरोध का था ।अंदरूनी कलह के बीच ,लोकसभा की कुल 520 स्थानों में कांग्रेस को 283 व कांग्रेस की नीतियों की प्रखर विरोधी दक्षिणपंथी स्वतन्त्र पार्टी को 44 स्थान मिले । नेहरू की नीतियों को ओर आगे बढ़ाते हुए श्रीमती इंदिरा गांधी ने राजाओ के प्रिवी पर्सेस की समाप्ति व 14 बैंको के राष्ट्रीयकरण का ऐतिहासिक फैसला कर
न केवल अपनी अपितु विरोधी दलों में हलचल मचा दी अब इंदिरा जी वामपंथ की सबसे पसंदीदा नेता थी इसके विपरीत मोरारजी देसाई ,सादिक अली , आचार्य कृपलानी, निरजलिंगप्पा ,के कामराज व अनेक शीर्ष नेता उनके विरोध में थे व हरियाणा के फरीदाबाद में आयोजित कांग्रेस महाधिवेशन में उन्हें निष्कासित कर सबक सिखाना चाहते थे । कांग्रेस का विभाजन हुआ व सन 1971 के आम चुनाव में कांग्रेस को कुल 518 स्थानों में से 352 स्थान मिले वही मोरारजी देसाई की कांग्रेस को मात्र 16 स्थान । स्मरण रहे इस चुनाव में पहली बार धांधली व भ्र्ष्टाचार के आरोप उछले । भारतीय जनसंघ ने श्रीमती इंदिरा गांधी और उनकी
पार्टी पर चुनाव में अनियमितता के आरोप लगाए । आरोप यहां तक था कि कांग्रेस ने रूस से एक ऐसा पाउडर मंगवाया है जो हर बैलट पेपर पर लगा है जिसपर कोई भी किसी भी निशान पर मोहर लगाएगा ,कुछ समय बाद वह मोहर मिट जाएगी और पहले से ही कांग्रेस के गाय बछड़े के निशान पर लगी मोहर का निशान उभर जाएगा । यह कुछ ऐसा सा ही इल्जाम था जैसा आजकल ई वी एम के बारे में लगाये जा रहे है । पर इसके साथ-2 , श्रीमती इंदिरा गांधी समेत अनेक चुनाव परिणाम चैलेंज भी हुए और खुद इंदिरा जी का चुनाव खारिज हुआ ।। इसके साथ-2 पूरे देश मे गुजरात से शुरू हुआ भ्र्ष्टाचार के विरुद्ध अब जे पी के नेतृत्व में देशव्यापी हो चुका था । *गली गली में शोर है -इंदिरा गांधी चोर है* का नारा मुखर रहा और अन्ततः आपातकाल लगा ।
लुब्बोलवाब यह कि अब चुनाव में धांधली व बूथ कैप्चरिंग आम बात थी । सन 1977 का लोकसभा चुनाव में सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी को पूरा यकीन था कि इस बार देश मे अनुशासन की इतनी लहर है कि जीत तो उनकी ही होगी । पर कागजो में सर्वे कुछ और था और जनता में कुछ और । यही हुआ न केवल सत्ताधारी पार्टी हारी वही उसकी नेता श्रीमती इंदिरा गांधी भी खुद अपनी परम्परागत सीट रायबरेली से 55,000 वोट से हार गई । जनता पार्टी के नाम पर गैर कांग्रेसी सरकार का पहला प्रयोग कांग्रेसी श्री मोरारजी देसाई के नेतृत्व में हुआ पर दो ही साल में कांग्रेस वापिस लौटी । वर्ष 1980 का चुनाव ,नई आशाएं लेकर आया था ,परन्तु इतिहास ने करवट बदली व सन 1984 में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा जी की निर्मम हत्या हुई और श्री राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने । सन 1985 का चुनाव कांग्रेस ने इंदिरा जी की हत्या के प्रति संवेदना लहर से जीता और कुल 540 स्थानों में से 411 स्थान पर विजय हासिल की ।
सन 2004 में, लोकसभा चुनावों में पहली बार पूरी तरह से ई वी एम का इस्तेमाल हुआ । इसकी तकनीकी निष्पक्षता को लेकर सभी विरोधी दलों ने सवाल उठाये ,कुछ ऐसे ही जैसे आज के विरोधी दल उठा रहे है । इस चुनाव में कांग्रेस के नेतृत्व में सरकार बनी और प्रधानमंत्री बने डॉ मनमोहन सिंह । इसी उठापटक में इस सरकार ने दो टर्म यानी 10 साल तक शासन किया । अब सन 2014 से बीजेपी के नेतृत्व में एन डी ए की सरकार है । सवाल वे ही है कि ई वी एम ईमानदार नही है । हारने वाले दल अपनी पराजय की ठीकरा इसी पर उतार रहे है । पर सवाल यह भी है कि दिल्ली , पंजाब,केरल,राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, बंगाल सभी चुनावो में तो ई वी एम ही तो था फिर यह आरोप क्यो ?
Ram Mohan Rai
Seattle, Washington (USA)
28.05.2019
[3/11, 8:32 AM] Ram Mohan Rai: *Inner voice* -5
(Nityanootan broadcast service)
प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने लोकसभा चुनावों में अपनी ऐतिहासिक विजय के बाद ,बीजेपी कार्यालय ,दिल्ली में अपने कार्यकर्ताओं को सम्बोधित करते हुए कहा कि यह पहला चुनाव है जब महंगाई ,भ्र्ष्टाचार ,बेरोजगारी कोई मुद्दा नही रहा । इसका अर्थ क्या है क्या यह सब मुद्दे हल हो गए ? इस से इतर ,बीजेपी का वर्ष 2014 का घोषणापत्र की सभी बातें पूरी हो गयी ? इन मुद्दों को मैं तो बिल्कुल भी नही उठाना चाहता क्योकि यह तो शासक दल के ही चहेते मुद्दे है और इन्हें उठाना एक उकसावे के इलावा कुछ नही है ,फिर भी क्या राम मंदिर बन गया ? , क्या अनुच्छेद 370 समाप्त हो गया या देश मे समान सिविल संहिता लागू हो गयी ? तो क्या कला धन वापिस आगया ? क्या यह चुनाव नोटबन्दी व जी एस टी के समर्थन में था या गौरी लंकेश ,कलबुर्गी , दाभोलकर,रोहित वेमुला ,अख़लाक़ जैसे निरपराध लोगो की हत्या को सही ठहराने के हक में ? क्या यह चुनाव सही में *गांधी बनाम गोडसे* रहा ? क्या जनता ने *सबका साथ सबका विकास*/ के हक में वोट डाले ?नही न । फिर चुनाव किसके हक में व किसके विरोध में रहा? ये सब मेरे प्रश्न है ,आपके कुछ ऐसे ही और या कुछ अलग या फिर मेरे सवालों के जवाब देते हुए कुछ अलग प्रश्न हो सकते है । मेरे जेहन में जो कुछ भी उठा ,उसे मैंने उगल दिया । लोकतंत्र ने मुझे सहमति -असहमति और अपने सवाल उठाने का मौलिक अधिकार दिया है जिसे मैं इस्तेमाल कर रहा हूं ।
इस चुनाव में बीजेपी की सफल टीम के अतिरिक्त कोई एक नेता ढंग से अपने मुद्दे उठाता हुआ लड़ा तो वह एक मात्र राहुल गांधी ही है । बचपन मे सब पप्पू होते है ,अपनी माँ की गोद से कोई सीख कर नही आता । पर अब यह पप्पू पूरी तरह से परिपक्वता से अपनी बात रखता हुआ ,पाया गया । जिसका कोई जवाब ,किसी के पास भी नही था ,प्रधानमंत्री जी व उनकी टीम के पास भी नही । वह किन के पास नही गया । विद्यार्थियों ,युवाओं ,मछुआरों , महिलाओं , किसानों, आदिवासियों सभी के पास तो , उनकी बात समझ कर अपनी बात रखी । महात्मा गांधी की बात को उसने कहा कि वह प्यार से जीतना चाहता है । उसकी बहन प्रियंका उसके साथ आई पर बहुत देरी से । बहन के पास भाषण शैली भी थी , आकर्षण भी व मुस्कराहट भी पर वह गम्भीरता नही थी जो उसके भाई में थी । राहुल ने गुजरात में लगभग जीत हासिल की ही थी । राजस्थान,मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ में उसने अपने करिश्मे को दिखाया और अब लगने लगा कि अब दिल्ली दूर नही ।पर साल भर भी पूरा नही हुआ , राजस्थान , मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ में वायदे के मुताबिक किसानों के कर्जे भी माफ हुए पर बात बनी नही । मैं यहाँ दो बातों का जिक्र करना चाहूंगा । एक-सन 1942 में जब पूरा देश आज़ादी के आंदोलन की चरम सीमा पर था तो हमारे कम्युनिस्ट भाई , जर्मनी के फासिज्म विरोध के नाम पर सोवियत संघ के कहने पर आज़ादी के आंदोलन से पीछे हटे दूसरे आपातकाल के दौरान सन 1976 में जब इंदिरा गांधी अपनी नीतियों पर आगे बढ़ रही थी तो राहुल गांधी के चाचा संजय गांधी का भारत छोड़ो आंदोलन में कम्युनिस्ट पार्टी की भूमिका पर उन्हें कोसना । इन दोनों का क्या मेल था ,यह समझ से आज भी बाहर है ? दूसरे यू पी ए -1 की सरकार से (सब काम अच्छा चलते) के खिलाफ अमेरिका से आणविक समझौते के विरुद्ध कम्युनिस्ट पार्टी के अविश्वास प्रस्ताव का और अब राहुल गांधी द्वारा एकदम कम्युनिस्टों के गढ़ केरल के वायनाड से चुनाव लड़ने का कदम भी समझ से बाहर है । कम्युनिस्टों का जनाधार बेशक सिमट रहा हो पर इनका कैडर बेमिसाल है । मेरे विचार से इन दोनों कामो में दोनो पार्टियो को कुछ भी तो नही मिला हां एक दूसरे से दूरियां जरूर बढ़ी है । कम्युनिस्ट पार्टी के वरिष्ठ दिवंगत नेता का0 मुकिम फ़ारूक़ी का कथन बिल्कुल सही है * *गर कम्युनिस्ट पार्टी गलती करती है तो वह ही भुगतती है पर गर कांग्रेस गलती करती है तो मुल्क़ भुगतता है* ।
प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी को पुनः उद्धरित करना चाहूंगा कि यह चुनाव मुद्दे आधारित नही था । प्रधानमंत्री जी ने पुलवामा अटैक के बाद दक्षिण भारत मे एक जनसभा को सम्बोधित करते हुए सही कहा था कि क्या आपका एक-२ वोट शहीद जवानों के नाम हो सकता है । यह ही वह आह्वान था जिसने उत्तर भारत के भावुक हिन्दू मतदाताओं को उद्वेलित किया । चुनाव आयोग की लाख चेतावनी हो पर पुलवामा अटैक व बालाघाट में सैनिक कायवाही ने न चाह कर भी बहुसंख्यक समाज के मतदाताओं को लुभाया और उन्होंने इस पक्ष में तमाम अन्य मुद्दों को नज़रन्दाज़ कर मतदान किया । ऐसा गैरवाजिब भी नही था हर सरकार ऐसी उपलब्धियों को भुनाती है । क्या इंदिरा जी ने वर्ष 1971 में भारत - पाकिस्तान युद्ध व बांग्लादेश की मुक्ति को अपनी विजय यात्रा में शामिल नही किया था ? राहुल गांधी इस राष्ट्रवाद अभियान को समझने में असफल रहे और बाकी विपक्षी दल गठबंधन बना कर राहुल को रोकने में कामयाब ।
राहुल बेशक कांग्रेस अध्यक्ष पद से हट जाएं पर याद रहे कि वर्तमान दौर में कांग्रेस का नेतृत्व करने में वे ही एक सार्थक नेता है । राहुल -प0 मोती लाल नेहरू, प0 जवाहरलाल नेहरु ,इंदिरा गांधी और अपने पिता राजीव गांधी की विरासत का नायक है जिन्होंने न केवल देश की आज़ादी का संघर्ष लड़ कर आज़ादी को लाने में सहयोग किया वहीं स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात उसको बचाने में हर प्रकार का बलिदान दिया । उसका परिवारवाद ,मुलायम ,माया ,धूमल ,बादल ,देवीलाल ,भजनलाल ,नायडू ,रेड्डी, करुणानिधि आदि-२ के परिवारवाद से सर्वथा भिन्न है ।
बेशक डॉ सुब्रह्मण्यम स्वामी से हम सहमत हो या नही परन्तु इस बात में उनकी पूरी सच्चाई है कि यदि पुलवामा अटैक नही होता तो बीजेपी को मात्र 160-180 सीट ही मिलती ।
एक बात और वेस्ट बंगाल में ममता बनर्जी ने स्वयं को कांग्रेस से अलग कर तृण मूल कांग्रेस इस मुद्दे बनाई थी कि वे चाहती थी कि सोनिया गांधी कांग्रेस अध्यक्ष बने । महाराष्ट्र में श्री शरद पवार ने कांग्रेस इस लिये छोड़ कर राष्ट्रवादी कांग्रेस बनाई कि सोनिया गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष क्यों बनाया ? जगन मोहन रेड्डी को तो कांग्रेस ने ही चापलूस नेताओ की वजह से अलग किया ।ऐसे उदाहरण हर प्रदेश में है । कांग्रेस कैडर की पार्टी नही बन सकती और न ही इसे इस तरफ बढ़ना चाहिये पर हां उसे जन पार्टी बन कर कैडर बेस्ड कम्युनिस्टों से तालमेल कायम करना होगा । यहाँ कम्युनिस्ट एक दूसरे को देख कर खुश नही । उनमें से कईयों को मोदी के जीतने का दुख नही परन्तु यदि कन्हैया कुमार जीत जाता उसका जरूर होता ।
कांग्रेस अध्यक्ष तो नेहरु - गांधी परिवार का ही रहेगा और आज के हालात में राहुल से बेहतर कोई नही है । किसी भी अन्य नेता की दावेदारी उसकी स्थिति हास्यास्पद ही बनाएगी।
Ram Mohan Rai
Seattle,Washington (USA)
29.05.2019
[3/11, 8:32 AM] Ram Mohan Rai: *Inner voice-6*
(Nityanootan broadcast service)
मेरे पिता सीता राम( मास्टर सीता राम जी सैनी) के महाप्रयाण का जब समय आया तो वे बोले कि ' राम-राम' बोलो पर हमारा आर्य समाजी संस्कारो का मन राम को मर्यादा पुरुषोत्तम एक महान आदर्श व्यक्ति तो मानता रहा परन्तु अवतार पुरुष भगवान राम नही ,इसलिये राम -२ का जाप करने में हिचकिचाहट दिखाई और कहा कि आप का तो नाम ही सीता राम है तो वे बोले चल छोड़ *सीता राम सीता राम* बोल । हमने उनकी आज्ञा का पालन किया और वे अपनी अंतिम यात्रा को चल पड़े । हमारा परिवार कोई सनातनी परिवार नही रहा परन्तु इसके बावजूद भी वह *राम प्रेमी* था । हमारी सात पुश्तों में मेरा नाम राम मोहन, मेरे पिता सीता राम, उनके पिता बख्तावर राम, उनके पिता जय राम ,उनके पिता श्योराम, उनके पिता राम सिंह व उनके पिता का नाम जागो राम था । मेरे बुजुर्ग साधारण किसान थे जिनकी यात्रा होशियारपुर(अब पंजाब) से शुरू होकर बुलन्दशहर (उत्तरप्रदेश) से होती हुई तत्कालीन रोहतक (पंजाब-हरियाणा) ज़िला के गांव बलि कुतुबपुर तक पहुंची । लोक ,कुल व ग्राम देवता ही उनके आराध्य रहे होंगे । बहुत कोशिशों के बावजूद भी तीर्थ स्थलों पर हमारा कोई पुरोहित नही मिला और फिर उनकी बही में हमारी कुल परम्परा का वृतांत तो मुश्किल ही था यानी बेशक आर्य समाज तो पिछले 100 वर्ष से आई मानी जा सकती है इसकी वजह से आडंबर व धार्मिक कर्मकांड अभी समाप्त हुए हो पर वे तो पहले से ही नदारद थे । पर *राम नाम* किसी भी धार्मिक भाव से न होकर लोकभाव से था । राम नाम हमारे जीवन का अंग था । जन्म से मृत्यु तक का संग ,एक प्रिय नाम । उसके किसी भी चित्र व मूर्ति की पूजा तो कही भी नही रही । नाम मे राम ,अभिवादन में राम -२ और अंत मे राम नाम सत्य ।
लोक व्यवहार में तो सम्बोधन में राम-राम रहा परन्तु आर्य समाजी व्यवहार में वह भी नदारद । आर्य समाजी सम्बोधन में नमस्ते को ही प्रमुखता देते है किसी भी तरह से अन्य को नही । आर्य समाज ,खैल बाजार ,पानीपत में एक बुज़ुर्ग कार्यकर्ता महाशय थारू राम जी थे, वे तो इतने कट्टर थे कि जब भी कोई उन्हें राम-राम कहता तो वे नाराजगी से उसका जवाब न देते । कुछ बच्चे उन्हें तंग करने के लिये कहते - बाबा ,राम राम तो वे झल्ला कर उन्हें डांटते पर राम-राम का जवाब राम-राम से कभी नही देते ।
बहुत पहले तक पंजाब ,हरियाणा पूर्वी उत्तरप्रदेश ,राजस्थान के कुछ हिस्सों में अभिवादन मात्र राम-राम ही रहा है जबकि अन्य क्षेत्रों में नमस्ते ,नमस्कार ,प्रणाम, नमस्कारम ,नमस्कारा , वनक़्क़म आदि -२ है । अब धार्मिक क्षेत्रो में हर सम्प्रदाय के अपने -२ सम्बोधन है । जैन ,जै जिनेन्द्र कहेंगे तो अन्य अपने-२ । ऐसी हम अपने आस्थानुसार कहेंगे । गुजरात आदि में जय श्री कृष्ण ही लोग अभिवादन में कहेंगे ,पर इसका कोई भी सम्बन्ध किसी भी राजनीति से नही है । परन्तु अफसोस है कि *राम* नाम का उपयोग राजनीति के लिये हुआ है । राम मंदिर पर राजनीति और अब *जय श्री राम* को लेकर राजनीति ।
*राम नाम मुद मंगलकारी, विघ्न हरे सब बाधा सारी* राम का नाम तो शांति व आनंद का देने वाला होना चाहिये पर किसी को चिढ़ाने के लिये इसका दुरुपयोग नही होना चाहिए । क्या राजनीति के लिये और क्या नारे कम है जो अब राम का नारे का इस्तेमाल करने की जरूरत पड़ी ?
जब कोई राम की राजनीति करेगा तो विरोध की राजनीति हमारे अन्य राष्ट्रीय सूचकों की होगी और इससे वे कमजोर ही होंगे मजबूत नही । मैने अनेक लोगो को देखा कि वे एक कॉपी लेकर राम -२ लिखते रहते है तथा बाद में एक जगह जमा करवाते है जो राम नाम बैंक कहलवाता है ।
मेरे इस कथन पर अनेक मित्र कहेंगे कि क्या भारत मे जय श्री राम भी नही कह सकते ? जरूर कह सकते है परन्तु अपने आनंद व शांति के लिये दूसरे को चिढ़ाने व अपनी राजनीति के लिये नही । दीदी निर्मला देशपाण्डे जी कहा करती थी कि भगवान राम को आदमी की इस फितरत का पता था इसीलिये उन्होंने आदमी की बजाय भालू ,वानर व अन्य वन्य जीवों पर यकीन करके उनकी फौज बनाई क्योकि उन्हें लगता था कि आदमी कलियुग में उसके नाम का दुरुपयोग करके अपना हित साधन करेगा ।
राम मोहन राय
Seattle, Washington (USA)
05.06.2019
[3/11, 8:32 AM] Ram Mohan Rai: Inner Voice-7 (Nityanootan Broadcast service) अमेरिका में जहां आजकल मुझे रहने का मौका मिल रहा है महिलाओं की जनसंख्या पुरुषो के मुकाबले .8 प्रतिशत ज्यादा जिसका असर बाजार के लगभग सारे कारोबार , स्वास्थ व शिक्षा क्षेत्र में देखने को मिलता है । आबादी के लिहाज से अमेरिका तीसरा बड़ा मुल्क है । महिलाओं की स्थिति भी हर प्रकार से अच्छी है । वे न केवल शारीरिक दृष्टि से अपितु बौद्धिक स्तर पर भी सम्पन्न है ।
कल मैं यहां के एक प्रसिद्ध ग्रीन लेक पार्क में घूमने के लिये गया ,वहाँ मैंने देखा कि बड़ी संख्या में महिलाएं सैर कर रही है ,दौड़ लगा रही है तथा तैराकी व अन्य व्यायाम कर रही है । पहरावे की दृष्टि से वे कुल मिला कर अपने कुल दो -तीन मुख्य वस्त्रों में ही है । एक स्थान पर एक महिला अपने एक पुरुष मित्र के साथ नृत्य का अभ्यास कर रही थी । यदि ऐसा हमारे देश मे हो रहा होता तो पूरा जमघट्टा व किलकारियों का शोर होता पर इस तरफ आ -जा रहे सेंकडो लोगो मे से किसी का भी ध्यान नही था । पहनावे की समझ से इस देश मे पाश्चात्य पहरावा ही है ,समझते है न इस तरह के कपड़ो के बारे में ।
इसका मतलब यह नही है कि यहां महिलाओं के प्रति यौन उत्पीड़न अथवा अपराध नही है परन्तु त्वरित न्याय व्यवस्था तथा समाज की इनके प्रति जागरूकता इसके पनपने को बढ़ावा नही देती । यदि कोई भी व्यक्ति ऐसे किसी अपराध को करता पाया जाता है तो सजा के अलावा उम्रभर उस पर लगा कलंक भी है जो उसके रिकार्ड्स में आजीवन दर्ज रहेगा और जहाँ भी वह जाएगा वह रिकॉर्ड भी साथ -२ जाकर उसका परिचय सर्व साधारण को देगा ।
महिलाओं को न तो कोई विशेषाधिकार व न ही कोई आरक्षण इसके विपरीत उन्हें समान अधिकार है । अनेक घरों के बाहर मैने प्ले कार्ड लगे देखे जिसमे अंग्रेज़ी में लिखा था कि महिला अधिकार ही मानवाधिकार है और हम उसे सम्मान देते है ।
इसका अर्थ यह नही कि महिला भिखारी , होमलेस अथवा यौन उत्पीड़ित नही है । देश मे महिला यौन कर्मी भी और भारत की तरह इस काम पर पाबंदी है परन्तु व्यवस्था की मार उन पर है । तमाम अच्छी बातों के इलावा यह सवाल वाजिब है कि दुनियां के सबसे पुराने लोकतंत्र में अभी तक कोई महिला राष्ट्रपति नही बनी है । इसके बारे में यहां के लोगो का कहना है कि लोकतंत्र में भागीदारी लगातार बढ़ रही है । वे हिलेरी क्लिंटन की हार को एक महिला की हार नही मानते उनका मानना है कि कोई और स्त्री होती तो वह नही हारती । इस बार राष्ट्रपति चुनावो में डेमोक्रेटिक पार्टी की ओर से दो महिलाएं,,पद की होड़ में है इत्तिफाक से ये दोनों भारतीय मूल की है ।
अमेरीकन जन जीवन में महिलाओं की भूमिका को नकारा नही जा सकता । यह उनकी उपलब्धि भी है और भागीदारी भी ।
राम मोहन राय
Seattle, Washington( USA)
06.06.2019
[3/11, 8:32 AM] Ram Mohan Rai: *Inner voice*-8
(Nityanootan broadcast service)
लेक यूनियन ,सिएटल(वाशिंगटन-अमेरिका) से कल बस में बैठ कर अपनी बेटी के घर नॉर्थगेट तक आने का अवसर मिला । एक बड़ी बस जो तीन हिस्सों में थी पहले हिस्सा विकलांग व्यक्तियों के लिये आरक्षित था ,दूसरा आयु में वरिष्ठ जन के लिये तीसरा आम लोगो के लिये । यहां यह अच्छी बात है कि विकलांग व्यक्ति बैटरी से चलित चेयर अथवा बग्गी पर अपनी सुविधा से बिना किसी दूसरे की सहायता के चलते है । बस ज्योही किसी स्टॉप पर किसी विकलांग की गाड़ी को देखती है । बस का ड्राइवर का पास वाला गेट खुलता है ,बस का गेट वाला हिस्सा बस स्टॉप पर खड़े होने वाले स्थान पर उसके समानांतर नीचे आता है व फिर वह चेयर आराम से बस में चढ़ जाती है । बस का ड्राइवर भी अपनी सीट से उठता है ,चेयर के आरक्षित स्थान पर जा कर उसे व्यवस्थित करता है ,बेल्ट लगाता है उसे बस में लगे हुक से जोड़ता है और फिर अपनी सीट पर आकर ड्राइव करता है । यह स्थिति उस महिला के साथ भी है जो अपने शिशु को बग्गी में बिठा कर निकली है ,उसका भी इसी तरह से सहयोग करना ड्राइवर का बस चलाने के इलावा काम है । स्वाभाविक है कम आबादी तथा प्रायः हर किसी के पास अपनी सवारी गाड़ी होने की वजह से बसो में भीड़-भीड़ कम है परंतु तो भी जनसंख्या अनुपात में कम नही है । बस अपने स्टॉप पर ही रुकती है ।
एक रोचक किस्सा रखना चाहूंगा । मेरी पत्नी श्रीमती कृष्णा कांता भी मेरे दोनो नातिन व नाती के साथ थे ,वे तीनों बच्चों की नैनी की कार से आये थे व मैं बस से । मुझे बताया गया थी कि 40 नम्बर की स्पीड राइडर बस
लेनी है वह ही नॉर्थगेट तक जाएगी । हम ज्योंही यूनियन लेक से निकले तभी 40 नम्बर बस सड़क पर जाती दिखी और रेड लाइट पर रुकी । मेरी पत्नी ने जिसे देख कर जोर से कहा जल्दी जाओ ,अभी बस खड़ी है आप जाकर पकड़ लो । एक बार तो मेरा मन किया कि जाकर पकड़ूँ पर फिर ध्यान आया कि यहां बस सवारी देख कर न तो रुकती है और न ही बस स्टॉप के इलावा कही भी इस पर चढ़ा जा सकता है ।
यहां की बस सर्विस में मैने पाया कि विकलांग ,बच्चों तथा वृद्ध लोगो के लिये आराम का सफर बस का ही है । एक बात और अपनी कार में भी 14 साल के बच्चे को ड्राइवर सीट के साथ वाली सीट पर आगे बिठाने व बैठने की मनाही है । कद में तीन फीट तक का बालक पिछली तीन वाली सीट पर बच्चों के बैठने वाली विशेष सीट पर ही बैठेगा और उसे भी बेल्ट इत्यादि लगाकर सुरक्षित करना होगा ,कई बार इसमे उसे असुविधा होती है परन्तु बस में तो बग्गी / स्ट्रॉलर आसानी से चढ़ उतर सकता है । बुजुर्गों के देखते ही सीट पर पहले से बैठी कम उम्र की सवारी अपनी जगह से उठ कर उन्हें बैठने का आग्रह करती है ।
ड्राइवर भी बस चलाने के अतिरिक्त उन लोगो को पैसे लेकर टिकट बेचने का काम भी करता है जिनके पास बस पास नही है वैसे अमूमन सभी लोग पास रखते है जो एक ही पास बस ,ट्रैन(मेट्रो) आदि में इस्तेमाल किया जा सकता है ।
पब्लिक ट्रांसपोर्ट सिस्टम पर्यावरण रक्षक भी है । अमेरिका में अपनी गाड़ियों की बहुतयात है । और ऐसी गाड़ियों के लिये विशेष आरक्षित सड़के है जिसमे एक से अधिक सवारियां बैठी हो ।
घुमन्तु यात्रियों के लिए भी बस सुविधाजनक व ज्ञानवर्धक है । कम किराए पर पूरी यात्रा ।
राम मोहन राय
Seattle, Washington,(USA)
08.06.2019
[3/11, 8:37 AM] Ram Mohan Rai: *Inner Voice*-10
(Nityanootan broadcast service)
भारत मे बलात्कार , चार बड़े अपराधों में से एक है । छह महीने की बच्ची से लेकर 80 वर्ष की महिला तक इस अपराध की शिकार है । मेरे एक मित्र ने महिलाओं की कुछ तस्वीरें दिखा कर बताना चाहा कि महिलाओं से अपराध की वजह ऐसे कपड़े व कम कपड़े है जिनसे इनका शरीर पुरुषों को आकर्षित करता है और वे बलात्कार की शिकार होती है । दूसरे एक मित्र ने कहा कि देश में नैतिक शिक्षा लगातार समाप्त हो रही है जिसकी वजह से यह पतन है ।
आजकल मैं जिस देश अमेरिका में रह रहा हूँ वहाँ आपने कैसे कपड़े पहने है उस पर किसी का कोई ध्यान नही जाता । कल मुझे सीएटल की यूनियन लेक पर जाने का अवसर मिला । मौसम खुला था इस लेक के तट पर सेंकडो की तादाद में हर उम्र की महिलाएं अर्धनग्नावस्था में सूर्य स्नान का आनंद ले रही थी और मजाल है कि कोई भी उनकी तरफ गलत नजरो से देख रहा हो । इत्तिफाक से वही मुझे मेरे हम उम्र तीन भारतीय मिले जो अपने बच्चों के पास मेरी तरह ही छुटियां मनाने आये थे । ऐसा दृश्य देख कर वे बेहद शर्मिंदा महसूस कर बोलने लगे देखो क्या अश्लील दृश्य है ,ऐसी ही पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव ने हमारे देश भारत की भी हवा दूषित कर दी है । उनकी इस वार्ता से मैं समझने में असमर्थ रहा कि यहां के ऐसे वातावरण से भारत की संस्कृति कैसे बिगड़ गयी जबकि यहां तो इसका कोई विपरीत प्रभाव नही दिख रहा । ऐसा नही है कि यहां बलात्कार के अपराध नही है पर वे किसी भी कम कपड़ो व नग्न रहने से नही है । यहां की सोच साफ है कि यह एक दूषित मानसिकता है जो महिला को उपयोग की वस्तु समझने से है तथा उसे एक यौनी अथवा विलास की वस्तु समझने से अलग कुछ नही है । यहाँ लड़के-लड़की स्वछंद घूमते है और यदि हमारे यहाँ दो भाई-बहन भी साथ जा रहे है तो हम उनके गलत अर्थ निकालने लगते है क्योकि हमारा मानना है कि स्त्री-पुरुष का तो बस एक ही रिश्ता है और अगर वे साथ-२ आ जा रहे है तो जरूर इनके बीच कोई शारीरिक सम्बन्ध होंगे । मैंने यहाँ अनैतिक शब्द कहने से परहेज किया है । क्योंकि अनैतिक की क्या परिभाषा है इसकी कोई व्याख्या नही ? पर क्या कोई भी लड़की अथवा महिला अपने घर -परिवार में सुरक्षित है ? राष्ट्रीय महिला आयोग के एक सर्वे में मानना है कि बालिकाओं के साथ होंने वाले अस्सी प्रतिशत मामलों में घर के आत्मीय जन ही दोषी होते है ।
यहां सवाल कपड़ो ,संस्कृति ,सम्बन्धो व बलात्कार का है । हमारे यहां घूंघट करे ,बुरका पहने व छोटी -२ बालिकाएं भी इस घृणित कृत्य की शिकार है । मुझे याद है कि मैने अपनी वकालत शुरू की ही थी और उसके साथ -२ सामाजिक कार्यो में भी सक्रिय था । हमारे घर के पास हो एक छोटा सा मंदिर था, वहीं एक तीन साल की बालिका के साथ एक साठ वर्षीय धनाढ्य ने बलात्कार किया । हमने एक अन्य राजनैतिक नेत्री के सहयोग से पुलिस में केस दर्ज करवाया तथा सक्रियता से पैरवी कर दोषी की जमानत तक नही होने दी । गवाही वाले दिन , अल सुबह लड़की का पिता एक गणमान्य व्यक्ति को लेकर आया और कहने लगा कि उनकी दोषीपक्ष से 80 हजार रुपये लेकर समझौता हो गया है , वे आपकी फीस भी देंगे आप ब्यान बदलवा दे । मैने उनको धिक्कारा और बाद में एक अन्य वकील को खड़ा करके उन्होंने अपने बयान तुड़वा लिए । पीड़ित पक्ष के साथ बाद तक खड़ा होता नही दिखता और उसे लड़की जात पर कलंक का भय दिखा कर हतोत्साहित करता है और इस तरह ही बढ़ते है मुल्जिमो के हौसले ।
अगर कम कपड़ो से बलात्कार होते तो अमेरिका अथवा अन्य पश्चिमी देशों में इसकी घटनाएं सब से ज्यादा होती । और यदि नैतिक व धार्मिक हीनता से
ही इसे बढ़ावा मिलता तो तथाकथित संत,पुजारी ,मौलवी ,पादरी बलात्कार के मुकदमो में मुलजिम न हो कर जेल की हवा न खाते । जैसे मैंने कहा कि पाश्चात्य देशों में भी ऐसे अपराध है पर इतने नही जितने हमारे जैसे देशों में जहां लड़की को कंजक, महिला को देवी अथवा माँ कह कर पूजा जाता है । नशेड़ी तथा मानसिक रोगी ही अमेरिका सहित पाश्चात्य देशों में ऐसे अपराधी है । यह प्रश्न बार -२ उठाया जाता है कि अमेरिका जैसे देशों में यौन स्वच्छन्दता है जो बिल्कुल सही है । लड़के-लड़की हाथो में हाथ डाले ,एक दूसरे के गले मे बाहें डाले व एक दूसरे का चुम्बन लेते खूब मिलेंगे, पर ऐसा हर किसी के साथ नही । इसके बावजूद भी यौनाचार की संख्या नगण्य है । दोगला चरित्र व जीवन यहां धिक्कार के योग्य है जबकि हम ऐसे लोगो को सांसद ,मंत्री व
राजनेता तक बनाए हुए है । यहां एक भी राजनेता स्वीकार्य नही जो अपनी ब्याहता स्त्री के किसी अन्य के साथ सम्बंध रखे परन्तु हमारी भू भारती पर अनेक राजनेता यह कह कर पल्लू झाड़ देते है कि यह उनका पारिवारिक मसला है ।
जब तक महिला को उसे विशेष दर्जे को छोड़ कर समानाधिकार नही मिलेंगे तब तक यह शोषण चलता रहेगा फिर चाहे नैतिकता की दुहाई दे या कम कपड़ो की । नजरें तो मेरी गन्दी है और मैं ही कह रहा हूं कि वह मुझे प्रलोभित करती है । नजरें सुधारो तभी शीशा मैला नही साफ दिखेगा ।
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राम मोहन राय
Seattle, Washington, (USA)
13.06.2019*Inner voice*-9
(Nityanootan broadcast service)
पश्चिम बंगाल में जो नारों पर राजनीति चल रही है वह भयानक ही नही अपितु निन्दनीय भी है । हमे इसके भयानक परिणामों के प्रति सावधान रहना होगा । बंगाली मूलतः एक अति संवेदनशील ,कवि हृदय व अपनी भाषा ,संस्कृति व साहित्य के प्रति निष्ठावान होता है । धर्म व साम्प्रदायिकता उसके लिये इतनी महत्वपूर्ण नही होती । इसके एक बड़ा उदाहरण अंग्रेज़ी शासन द्वारा सन 1905 में सम्प्रदाय के आधार पर बंगाल का विभाजन जिसे *बंग भंग* के नाम से जाना जाता है ,है । इस विभाजन के विरोध में बंगाल के समूचे लोग ही सड़को पर उतर आए थे । खुद गुरुदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर ने इस विरोध का नेतृत्व किया तथा अपनी कविताओं के माध्यम से उसकी अभिव्यक्ति की । आखिरकार बंगाल की जनता ने अंग्रेज़ी सरकार को अपना विभाजनकारी निर्णय वापिस लेने के लिये मजबूर किया ।
बेशक सन 1947 में भारत विभाजन के समय ,अंग्रेज़ अपनी चाल में कामयाब हुए और उसने बंगाल का फिर विभाजन किया और उसे पूर्वी पाकिस्तान का नाम दिया । धर्म के नाम पर दो देश तो बन गए परन्तु बंगाली अस्मिता व भाषा के नाम पर पूर्वी बंगाल(पूर्वी पाकिस्तान) में छात्रों व युवाओं के जनांदोलन ने एक नई लहर अपने 52 विद्यार्थियो की शहादत देकर शरू की जिसकी परिणीति *बांग्लादेश* का उदय से हुई ।
पश्चिम बंगाल भी उसी बंगाली अस्मिता व सम्मान के संरक्षकों का एक हिस्सा है । *काली पूजा* को मानने वाले इस भूभाग में नास्तिकता के समर्थक कम्युनिस्टों ने लगभग 35 साल तक एक छत्र राज किया पर वे इसके बावजूद भी काली बाड़ी व उत्सव के प्रभाव को रोक न सके और अंतत्वोगत्वा स्वयं उसका हिस्सा बने । काली पूजा किसी एक धर्म का विषय न होकर बंगाल के आराध्य बिंदु है । जहाँ पूजा के दिनों में जहाँ हिन्दू बकरे की बलि झटके से करता है वही मुस्लिम हलाल कर ,इस काली पूजा उत्सव का हिस्सा बनता है । बंगाली ,बंगाली पहले है और कुछ बाद में ।
राजनीति के स्वार्थ में किसी भी दल को प0 बंगाल में नारे बाजी की किन्ही विघटनकारी कुत्सित योजनाओं से बचना चाहिये । राजसत्ता एक समय के लिये प्राप्त की जा सकती है परन्तु यदि जहर भर दिया गया तो उसके दूरगामी गम्भीर परिणाम होंगे ।
राम मोहन राय
Seattle, Washington,( USA)
09.06.2019
[3/11, 8:38 AM] Ram Mohan Rai: **Today inner voice*
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(Nityanootan broadcast service)
मेरे जैसे आदमी के लिये यह कभी भी फर्क नही रहा कि अब हम कहाँ रह रहे है । मैं हमेशा इन उदात्त पंक्तियां जो इस गीत की रही है जिसमे कहा है *हर देश मे तू ,हर वेश में तू ,तेरे नाम अनेक तू एक ही है* से आकर्षित रहा हूं । धर्म ,जाति ,क्षेत्र अथवा रंग भेद ने कभी भी प्रभावित नही किया । इसलिये अमेरिका में भी मेरी जीवनचर्या पर कोई खास फर्क नही है । गत दिवस ,सिएटल (वाशिंगटन) के साइंस म्यूजियम में एक पुणे निवासी भारतीय परिवार से अकस्मात मुलाकात हुई । पिता श्री ,यहाँ रह रहे अपने बेटे व उसके परिवार के पास रहने आये थे । उनकी पुत्रवधु ने एकदम उल्टा सवाल पूछा कि क्या यहाँ रह कर इंडिया वापिस जाने का मन करता है ? मैने उसके सवाल को अपने ढंग से समझा कि क्या यहाँ मन लग गया ? मैने उन्हें जवाब दिया कि अमेरिका तो अपनी ही धरती है । हमारे दादा गुरु जोतीबा फुले ने अपनी प्रसिद्ध वैचारिक पुस्तक *गुलामगिरी* को यहीं के पूर्व राष्ट्रपति अब्राहिम लिंकन को समर्पित किया था । जोतीबा का मानना था कि अमेरिका में गुलाम प्रथा के खिलाफ लड़ा गया संघर्ष के हिस्से के रूप में ही *भारत के दलित - पिछड़े की लड़ाई है* । वहीँ दूसरी तरफ हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के शिष्य मार्टिन लूथर किंग जूनियर इसी धरती के थे अतः हम दोनों देशों में प्रेरणा का आदान-प्रदान हमारे संघर्षों को एक मजबूत कड़ी देता है । इत्तिफाक की बात यह भी है कि इनमें से तीन नेताओं ने अपनी इन्हीं लड़ाइयों के यौद्धा के रूप में शहादत पाई और दुर्भाग्य यह है कि यहां इन्हें सफलता मिली है और सामाजिक समरसता के क्षेत्र में हमे अभी लम्बी लड़ाई लड़नी है ।बाबा साहब अंबेडकर ने इसी धरती के लोकतंत्र को अपने देश के लिये अनुरूप माना तथा *स्वतंत्रता ,समता व भ्रातृत्व को अपना आदर्श* ।
यहाँ भी अनेक कमियाँ है । भूख ,बीमारी व बेकारी का सर्वथा उन्मूलन नही है अर्थात खुले शब्दो मे वे सभी दुर्गुण व अभाव है जो एक पूंजीवादी व्यवस्था में हो सकते है परन्तु निचले स्तर पर लोकतांत्रिक संस्थाओं की जीवटता एक प्रमुख सकरात्मक गुण है । एक उदाहरण ,मकान जायदाद के दाम उस क्षेत्र में संचालित स्कूलों व हॉस्पिटल से तय होते है । दूसरे , काले -गोरे के भेद को नकारा गया है । अनेक ऐसे दम्पति देखने को मिले जिनके विपरीत रंग थे । पहनने - खानपान की पूरी आजादी है । सार्वजनिक स्थानों में भी किसी को भी यह लेना - देना नही कि आप कैसी वेशभूषा में हो ।लड़के-लड़की के जन्म ,परवरिश ,शिक्षा-दीक्षा ,रोजगार व अवसरों में कोई भेदभाव नही है । भारतीय समझ *खाओ मन भाता -पहनो जग भाता* पूरी तरह ध्वस्त है । यहां खाओ भी मन भाता और पहनो भी मन भाता है ।
Ram Mohan Rai
Seattle, Washington ( USA)
10.05.2019
(Nityanootan broadcast service)
सूर्य तो हमेशा प्रदीप्तमान है । जब भारत मे सुबह होती है तो अमेरिका में शाम । यहां, आज शाम ढले ही एक तिब्बती परिवार से शाम की सैर के दौरान मुलाकात हुई और उसके माध्यम से तीन प्रातः स्मरणीय विभूतियों दीदी निर्मला देशपाण्डे जी ,परम पावन दलाई लामा जी व परमपूजनीय प्रभु जी का न केवल स्मरण हुआ अपितु इस परिवार के माध्यम से उनका सहज आशीर्वाद भी मिला ।
तिब्बती मूल की अमेरिकन सुश्री यांगचें अपनी दादी व एक बालक के साथ उन्हें घुमाने लायी थी । मैं भी अपनी पत्नी श्रीमती कृष्णा कांता व नाती के साथ घूमने निकला था । अपनी आदत के अनुसार ज्योही मुझे एशियाई भावकृति के लोग दिखे तो मैने उनका अभिवादन किया व अपना परिचय देकर उनसे उनके बारे में जानकारी चाही । वे हम से मिलकर बेहद प्रसन्न हुए तथा उन्होंने बताया कि वे तिब्बत से है तथा अब अपने परिवार सहित यहीं सिएटल , वाशिंगटन में रह रहे है । तिब्बत का नाम आये व परम पावन दलाई लामा जी का स्तुतिगान न हो ,ऐसा नामुमकिन है । फेसबुक का मुझे तो बहुत फायदा मिला है । मैने तुरन्त अपना एकाउंट खोला व उन दो बहुमूल्य चित्रों को खोज निकाला जिसमे गुरु जी दलाई लामा जी , परमपूजनीय प्रभु जी व दीदी निर्मला देशपाण्डे जी अखिल भारत रचनात्मक समाज के चेन्नई व ऋषिकेश सम्मेलनों में पधारे थे । सौभाग्यवश ,मैं भी उन चित्रों में दाएं-बाएं दृष्टिगोचर था । परम पावन दलाई लामा जी के चित्र को देखते ही वह परिवार अभिभूत होकर उसने हाथ जोड़ कर प्रणाम करने लगा । यांगचें की दादी ने भावविभोर होकर उन क्षणों को याद किया जब वे तिब्बत पर चीन के कब्जे के बाद भारत शरणार्थी बन कर आये थे व भारत सरकार व जनता ने खुले दिल से अपनी हर प्रकार की मदद उन्हें दी थी तथा उनका स्वागत व सहयोग किया था । इस अवसर पर मैंने भी उन्हें स्व0 निर्मला दीदी के तिब्बत के मुक्ति संघर्ष में योगदान की जानकारी दी व परमपूज्य प्रभु जी की आध्यात्मिक साधना का गुणगान किया । इन क्षणों में सभी आत्मविभोर थे व एक दुसरे को कृतज्ञ भाव से देख रहे थे । अंत मे , गांधी ग्लोबल फैमिली व अन्य संगठनों द्वारा किये जा रहे *बा -बापू 150* वर्ष के कार्यो
की भी जानकारी देने का भी मौका मिला । अंत मे फिर मिलने की कामना के साथ विदाई ली । यह दुनियां बहुत छोटी है यदि आपके पास विराट महापुरुषों का आशीर्वाद व सानिध्य हो ।
Ram Mohan Rai
Seattle, Washington (USA)
15.05.2019*Inner voice-3*
Nityanootan broadcast service
*********
2019 के संसदीय आम चुनाव के बाद मेरे एक परिवारिक मित्र ने मुझे लिखा कि *भाई साहब नई सरकार आने पर आप भी कुछ कहो* ,मेरा उन्हें जवाब था कि *सरकार तो पुरानी ही है* । मेरे एक अन्य युवा मित्र ने चुनाव में अपनी पार्टी की हार को देखते हुए अपने *फेसबुक की डी पी ही बदल कर एक ब्लैक घेरा जो अफसोस का सूचक है* उसे लगा लिया । एक अन्य मित्र जो कि एक प्रौढ़ व परिपक्व लगते है और पेशे से वकील भी है ने *अपनी एक फोटो जिसमे वे हार के गम में रो रहे है ,लगाई है* । एक ने तो फोन करके मुझे सलाह दी कि *भाई साहब अब आप अमेरिका से न लौटे, अब यहां सब कुछ लूट चुका है* । एक ने तो कहा कि *अब राजनीति में सब कुछ खत्म हो चुका है* । दूसरी तरफ अनेक ऐसे मित्र है जो अपनी जीत की खुशी में आमादा हो कर कांग्रेस ,लेफ्ट व विपक्षियों का आखिरी मर्सिया पढ़ रहे है । मैं एक पेशेवर वकील के नाते कह सकता हूं कि *अपने केस की तैयारी में मेहनत में कोई कमी नही होनी चाहिये ,जीत हार होती रहती है* ।
मैं बेशक अब किसी राजनीतिक पार्टी का सदस्य नही हूं परन्तु लगभग हर पार्टी में मेरे अनेक मित्र है, जिनसे न केवल व्यक्तिगत अपितु पारिवारिक व सामाजिक सम्बन्ध है । अनेक ऐसे दोस्त है जिनके साथ वैचारिक काम कर प्रेरणा लेते थे ,आज वे सत्ता पार्टी अथवा विपक्ष के अन्य दलों में उच्च स्थान पर है । मैने इस चुनाव में अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता से हट कर ,उन्हें अपनी शुभकामनाएं भी दी । कुछ विजयी हुए और कुछ को पराजय का मुँह देखना पड़ा परन्तु यह अपनी जगह है और सम्बन्ध अपने स्थान पर । मेरे माता-पिता एक निष्ठावान कांग्रेस जन थे इसके विपरीत मैं उनकी प्रतिबद्धता से हट कर वाम विचारधारा के प्रति आकर्षित रहा परन्तु परिवार में बहस-मुबहसा तो रहा परन्तु वैसे सद्भावना बनी रही । वर्ष 1982 में मुझे पानीपत विधानसभा से वामपंथी पार्टियों ने अपना प्रत्याशी घोषित किया ,बेशक तकनीकी आधार पर नामांकन ही रद्द होने की वजह से चुनाव न लड़ सका । *उस दौरान मेरी मां से किसी ने पूछा कि आप अपने बेटे को साथ दोगी या पार्टी का ? उनका तुरत जवाब था कि उनकी पार्टी का निशान *गाय बछड़ा* ( कांग्रेस का उस समय चुनाव चिन्ह) है और नारा है *गाय को बछड़ा प्यारा है ,यही निशान हमारा है* । इस चुनाव में भी जिधर बछड़ा होगा उधर ही गाय जाएगी ।
अस्तु ,इस चुनाव में सभी पार्टियों ने अपने हर प्रकार के विषैले ,नुकीले और कटु तीर एक दूसरे पर चलाए । *पप्पू, फेंकू, चौकीदार चोर है , साला -जीजा चोर है , मैं चौकीदार हूं आदि आदि* । हर ने अपनी बात बहुत ही युक्तियुक्त रखी और अब फैसला जनता ने दे दिया है ।
मेरा एक छोटा परन्तु गम्भीर सवाल है कि *क्या लोकतंत्र में चुनाव जनता लड़ती है और सत्ता पर कोन काबिज़ होगा अथवा विपक्ष में कौन बैठेगा ,क्या इसका फैसला जनता ही करती है या जाति, धर्म , गोत्र ,क्षेत्र, धनबल ,बाहुबल , प्रचार ,माफिया तिकड़म , तकनीक व ढंग की भी कोई भूमिका होती है* ? मेरी याददाश्त में बहुत ऐसे लोग है जो एक विशेष दल की विचारधारा से 75 साल से भी ज्यादा समय से जुड़े है ,अनेक ऐसे है जिन्हें अपने पुरखो से यह मिली है परन्तु सत्ता में आने के बाद भी पार्टी में मात्र वे एक स्वयंसेवक ही है ,जबकि अनेक वे लोग है जिन्हें जुम्मा-२ चार दिन हुए और वे सत्ता की मलाई खा रहे है । एक कार्यकर्ता अपना पूरा जीवन खपा देता है परन्तु अंत मे वह अपने परिवार से तरिस्कृत होकर मरता है कि उसने क्या किया?
चुनावो का सर्वेक्षण एक आम वोटर की नज़र से करते हुए मेरा विचार है कि यह चुनाव किन्ही मुद्दों ,विचारधारा एवम सिद्धान्त का विषय न होकर सुविधा ,भावनाओ एवम अहं का चुनाव रहा जिसमे तंत्र ,धन व बाहु बल का भरपूर प्रयोग हुआ । सत्तापक्ष विगत पांच वर्षों से अपनी चुनावी नीतियां बनाने में सफल रहा वही विपक्ष अंत समय तक दुविधाओं के द्वंद में रहा । पार्टियां नाम की तो फलां -२ थी परन्तु खुद को जातियों व परिवारवाद से बाहर न निकाल पाई । कुल छः स्थान ज्यादा करने के चक्कर मे अपने भविष्य के मित्रो का कत्ल करने के लिये ही अमादा रही और अब खमियाजा भुगत रही है । कन्हैया कुमार का कहना सही है कि उनके पास तो खोने को कुछ नही है पर उनका क्या जिन्हें उम्मीद थी और कुछ पा न सके ।
चुनाव के बाद प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी के वक्तव्य कि उनके लिये संविधान सर्वोपरि है तथा अब वे बिना किसी पक्षपात व द्वेषपूर्ण काम करेंगे । श्री राहुल गांधी ने शालीनतापूर्वक अपनी व अपनी पार्टी की पराजय स्वीकार की है वहीँ युवा नेता श्री कन्हैया कुमार ने इसे लोकतंत्र का महापर्व कह कर मतभेद बेशक हो पर मनभेद न होने की बात की है , को ही लेना चाहिये । हमे प्रधानमंत्री जी की इस बात से भी सीख लेनी चाहिये कि कभी समय था कि उनकी पार्टी के दो ही सदस्य थे और अब वे सत्ता को दोहरा रहे है । जो लोग विजयी हुए उन्हें बधाई और जो पराजय की वजह से निराश अथवा उदास है उन्हें सांत्वना कि हिम्मत न हारे ,हर रात के बाद सुबह होती है । सीपीएम के वरिष्ठ नेता व मेरे मित्र श्री मो0 सलीम के शब्दों में *I am defeated not deleted* ( हारे है जरूर हम पर मरे नही है )
भगवान कृष्ण को गीता उपदेश के बाद अर्जुन ने यही तो कहा था *अर्जुनस्य प्रतिज्ञई द्वयम न दैन्य न पलायन* ( अर्जुन की दो ही प्रतिज्ञाएँ है कि न तो कायरता दिखाऊंगा और न ही भागूंगा ।
राम मोहन राय
Seattle, Washington (USA)
*Inner voice-3*
Nityanootan broadcast service
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2019 के संसदीय आम चुनाव के बाद मेरे एक परिवारिक मित्र ने मुझे लिखा कि *भाई साहब नई सरकार आने पर आप भी कुछ कहो* ,मेरा उन्हें जवाब था कि *सरकार तो पुरानी ही है* । मेरे एक अन्य युवा मित्र ने चुनाव में अपनी पार्टी की हार को देखते हुए अपने *फेसबुक की डी पी ही बदल कर एक ब्लैक घेरा जो अफसोस का सूचक है* उसे लगा लिया । एक अन्य मित्र जो कि एक प्रौढ़ व परिपक्व लगते है और पेशे से वकील भी है ने *अपनी एक फोटो जिसमे वे हार के गम में रो रहे है ,लगाई है* । एक ने तो फोन करके मुझे सलाह दी कि *भाई साहब अब आप अमेरिका से न लौटे, अब यहां सब कुछ लूट चुका है* । एक ने तो कहा कि *अब राजनीति में सब कुछ खत्म हो चुका है* । दूसरी तरफ अनेक ऐसे मित्र है जो अपनी जीत की खुशी में आमादा हो कर कांग्रेस ,लेफ्ट व विपक्षियों का आखिरी मर्सिया पढ़ रहे है । मैं एक पेशेवर वकील के नाते कह सकता हूं कि *अपने केस की तैयारी में मेहनत में कोई कमी नही होनी चाहिये ,जीत हार होती रहती है* ।
मैं बेशक अब किसी राजनीतिक पार्टी का सदस्य नही हूं परन्तु लगभग हर पार्टी में मेरे अनेक मित्र है, जिनसे न केवल व्यक्तिगत अपितु पारिवारिक व सामाजिक सम्बन्ध है । अनेक ऐसे दोस्त है जिनके साथ वैचारिक काम कर प्रेरणा लेते थे ,आज वे सत्ता पार्टी अथवा विपक्ष के अन्य दलों में उच्च स्थान पर है । मैने इस चुनाव में अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता से हट कर ,उन्हें अपनी शुभकामनाएं भी दी । कुछ विजयी हुए और कुछ को पराजय का मुँह देखना पड़ा परन्तु यह अपनी जगह है और सम्बन्ध अपने स्थान पर । मेरे माता-पिता एक निष्ठावान कांग्रेस जन थे इसके विपरीत मैं उनकी प्रतिबद्धता से हट कर वाम विचारधारा के प्रति आकर्षित रहा परन्तु परिवार में बहस-मुबहसा तो रहा परन्तु वैसे सद्भावना बनी रही । वर्ष 1982 में मुझे पानीपत विधानसभा से वामपंथी पार्टियों ने अपना प्रत्याशी घोषित किया ,बेशक तकनीकी आधार पर नामांकन ही रद्द होने की वजह से चुनाव न लड़ सका । *उस दौरान मेरी मां से किसी ने पूछा कि आप अपने बेटे को साथ दोगी या पार्टी का ? उनका तुरत जवाब था कि उनकी पार्टी का निशान *गाय बछड़ा* ( कांग्रेस का उस समय चुनाव चिन्ह) है और नारा है *गाय को बछड़ा प्यारा है ,यही निशान हमारा है* । इस चुनाव में भी जिधर बछड़ा होगा उधर ही गाय जाएगी ।
अस्तु ,इस चुनाव में सभी पार्टियों ने अपने हर प्रकार के विषैले ,नुकीले और कटु तीर एक दूसरे पर चलाए । *पप्पू, फेंकू, चौकीदार चोर है , साला -जीजा चोर है , मैं चौकीदार हूं आदि आदि* । हर ने अपनी बात बहुत ही युक्तियुक्त रखी और अब फैसला जनता ने दे दिया है ।
मेरा एक छोटा परन्तु गम्भीर सवाल है कि *क्या लोकतंत्र में चुनाव जनता लड़ती है और सत्ता पर कोन काबिज़ होगा अथवा विपक्ष में कौन बैठेगा ,क्या इसका फैसला जनता ही करती है या जाति, धर्म , गोत्र ,क्षेत्र, धनबल ,बाहुबल , प्रचार ,माफिया तिकड़म , तकनीक व ढंग की भी कोई भूमिका होती है* ? मेरी याददाश्त में बहुत ऐसे लोग है जो एक विशेष दल की विचारधारा से 75 साल से भी ज्यादा समय से जुड़े है ,अनेक ऐसे है जिन्हें अपने पुरखो से यह मिली है परन्तु सत्ता में आने के बाद भी पार्टी में मात्र वे एक स्वयंसेवक ही है ,जबकि अनेक वे लोग है जिन्हें जुम्मा-२ चार दिन हुए और वे सत्ता की मलाई खा रहे है । एक कार्यकर्ता अपना पूरा जीवन खपा देता है परन्तु अंत मे वह अपने परिवार से तरिस्कृत होकर मरता है कि उसने क्या किया?
चुनावो का सर्वेक्षण एक आम वोटर की नज़र से करते हुए मेरा विचार है कि यह चुनाव किन्ही मुद्दों ,विचारधारा एवम सिद्धान्त का विषय न होकर सुविधा ,भावनाओ एवम अहं का चुनाव रहा जिसमे तंत्र ,धन व बाहु बल का भरपूर प्रयोग हुआ । सत्तापक्ष विगत पांच वर्षों से अपनी चुनावी नीतियां बनाने में सफल रहा वही विपक्ष अंत समय तक दुविधाओं के द्वंद में रहा । पार्टियां नाम की तो फलां -२ थी परन्तु खुद को जातियों व परिवारवाद से बाहर न निकाल पाई । कुल छः स्थान ज्यादा करने के चक्कर मे अपने भविष्य के मित्रो का कत्ल करने के लिये ही अमादा रही और अब खमियाजा भुगत रही है । कन्हैया कुमार का कहना सही है कि उनके पास तो खोने को कुछ नही है पर उनका क्या जिन्हें उम्मीद थी और कुछ पा न सके ।
चुनाव के बाद प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी के वक्तव्य कि उनके लिये संविधान सर्वोपरि है तथा अब वे बिना किसी पक्षपात व द्वेषपूर्ण काम करेंगे । श्री राहुल गांधी ने शालीनतापूर्वक अपनी व अपनी पार्टी की पराजय स्वीकार की है वहीँ युवा नेता श्री कन्हैया कुमार ने इसे लोकतंत्र का महापर्व कह कर मतभेद बेशक हो पर मनभेद न होने की बात की है , को ही लेना चाहिये । हमे प्रधानमंत्री जी की इस बात से भी सीख लेनी चाहिये कि कभी समय था कि उनकी पार्टी के दो ही सदस्य थे और अब वे सत्ता को दोहरा रहे है । जो लोग विजयी हुए उन्हें बधाई और जो पराजय की वजह से निराश अथवा उदास है उन्हें सांत्वना कि हिम्मत न हारे ,हर रात के बाद सुबह होती है । सीपीएम के वरिष्ठ नेता व मेरे मित्र श्री मो0 सलीम के शब्दों में *I am defeated not deleted* ( हारे है जरूर हम पर मरे नही है )
भगवान कृष्ण को गीता उपदेश के बाद अर्जुन ने यही तो कहा था *अर्जुनस्य प्रतिज्ञई द्वयम न दैन्य न पलायन* ( अर्जुन की दो ही प्रतिज्ञाएँ है कि न तो कायरता दिखाऊंगा और न ही भागूंगा ।
राम मोहन राय
Seattle, Washington (USA)
25.05.2019
[3/11, 8:32 AM] Ram Mohan Rai: *Inner voice-4*
(Nityanootan broadcast service)
*वर्ष 1952 में ,भारत की स्वतंत्रता के बाद ,26 जनवरी ,1950 को संविधान लागू होने के बाद पहले चुनाव हुए । स्वभाविक था कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रबल नेता प0 जवाहरलाल नेहरू ही एक मात्र नेता थे जो अपने संसदीय क्षेत्र फूलपुर से चुनाव लगभग 5 लाख वोटों से जीते वहीं उनके धुर विरोधी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता व स्वतंत्रता आंदोलन के एक अन्य दिग्गज श्रीपाद अमृत डांगे ,बम्बई निर्वाचन क्षेत्र से कांग्रेस को हरा कर संख्या के आधार पर दूसरे नम्बर पर लगभग 3 लाख वोटों से जीते ।कुल 489 सीटों में से कांग्रेस ने लोकसभा में 364 सीटे प्राप्त कर सत्ता की कमान संभाली वहीं निर्दलीय दूसरे स्थान पर रहे ।कम्युनिस्ट पार्टी ने 16 , सोशलिस्ट पार्टी ने 12, भारतीय जनसंघ ने कुल 3 स्थान प्राप्त किये। पांच साल बाद सन 1957 का चुनाव काफी तीखा व रोचक रहा । सोशलिस्ट पार्टी ने डॉ राम मनोहर लोहिया , जय प्रकाश नारायण व अन्य नेताओं के नेतृत्व में काफी दम खम से चुनाव लड़ा । डॉ लोहिया खुद प0 नेहरू के मुकाबले में ,उनके क्षेत्र फूलपुर से चुनाव लड़े । श्री जय प्रकाश नारायण ने प्रचार की कमान संभाली । उनके निशाने पर नेहरू , उनकी नीतियां व कार्यप्रणाली थी ।स्वतन्त्रता आंदोलन के कांग्रेस समाजवादी पार्टी से उपजी सोशलिस्ट पार्टी को देश मे उनके प्रचार अभियान से तथा प0 नेहरू के खिलाफ जनआक्रोश से पूरी उम्मीद थी कि वे इस बार तो नेहरू के नेतृत्व की कांग्रेस को न केवल पूरे देश मे पछाड़ेगे । इस चुनाव की यह भी रही कि न तो सरदार पटेल अब कांग्रेस के पास थे व उसके एक बड़े नेता राजाजी राजगोपालाचार्य ने कांग्रेस के एक बड़े तबके के साथ स्वतंत्र पार्टी का गठन कर लिया था ।। अब नए जोश में नए नाम प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के मंसूबो पर पानी फिर गया जब कुल 494 सीटों पर हुए चुनावो में कांग्रेस को पिछली बार से भी सात ज्यादा सीटें यानी कुल 371 स्थानों पर सफलता मिली । जीत का मंसूबा पालने वाली प्रसपा को पिछली बार से चार कम यानी कुल नौ स्थान मिले । भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने पिछली बार से 10 स्थान व भारतीय जनसंघ ने एक स्थान ज्यादा प्राप्त किया । प्रजा सोशलिस्ट पार्टी में तो इस पराजय से इस तरह निराशा व हताशा का माहौल बना कि श्री जय प्रकाश नारायण ने राजनीति से यह कह कर विदाई ले ली कि *जनता को वोट देने की तमीज़ नही है* ।
चुनाव इसी तरह उतार चढ़ाव के टेढ़े मेढे रास्ते पर चलता रहा । नेहरू जी की समाजवादी घरेलू पंचवर्षीय योजनाओं व सोवियत संघ समर्थक परराष्ट्र नीति ने कांग्रेस के अनेक शीर्ष नेताओं को उनके खिलाफ कर दिया । सन 1962 के चीन- भारत युद्ध ने तो उन्हें काफी कमजोर कर दिया था और अंततः 27 मई ,1964 को वे हम सबसे विदा हो गए और पार्टी में ही उनके विरोधियों ने समझा कि अब नेहरू युग से मुक्ति हुई । सन 1967 का चुनाव उनकी सुपुत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने पार्टी में ही शीर्ष नेताओं के दवाब व अंतर्विरोध के बावजूद लड़ा । यह चुनाव नेहरू की नीतियों तथा उनके विरोध का था ।अंदरूनी कलह के बीच ,लोकसभा की कुल 520 स्थानों में कांग्रेस को 283 व कांग्रेस की नीतियों की प्रखर विरोधी दक्षिणपंथी स्वतन्त्र पार्टी को 44 स्थान मिले । नेहरू की नीतियों को ओर आगे बढ़ाते हुए श्रीमती इंदिरा गांधी ने राजाओ के प्रिवी पर्सेस की समाप्ति व 14 बैंको के राष्ट्रीयकरण का ऐतिहासिक फैसला कर
न केवल अपनी अपितु विरोधी दलों में हलचल मचा दी अब इंदिरा जी वामपंथ की सबसे पसंदीदा नेता थी इसके विपरीत मोरारजी देसाई ,सादिक अली , आचार्य कृपलानी, निरजलिंगप्पा ,के कामराज व अनेक शीर्ष नेता उनके विरोध में थे व हरियाणा के फरीदाबाद में आयोजित कांग्रेस महाधिवेशन में उन्हें निष्कासित कर सबक सिखाना चाहते थे । कांग्रेस का विभाजन हुआ व सन 1971 के आम चुनाव में कांग्रेस को कुल 518 स्थानों में से 352 स्थान मिले वही मोरारजी देसाई की कांग्रेस को मात्र 16 स्थान । स्मरण रहे इस चुनाव में पहली बार धांधली व भ्र्ष्टाचार के आरोप उछले । भारतीय जनसंघ ने श्रीमती इंदिरा गांधी और उनकी
पार्टी पर चुनाव में अनियमितता के आरोप लगाए । आरोप यहां तक था कि कांग्रेस ने रूस से एक ऐसा पाउडर मंगवाया है जो हर बैलट पेपर पर लगा है जिसपर कोई भी किसी भी निशान पर मोहर लगाएगा ,कुछ समय बाद वह मोहर मिट जाएगी और पहले से ही कांग्रेस के गाय बछड़े के निशान पर लगी मोहर का निशान उभर जाएगा । यह कुछ ऐसा सा ही इल्जाम था जैसा आजकल ई वी एम के बारे में लगाये जा रहे है । पर इसके साथ-2 , श्रीमती इंदिरा गांधी समेत अनेक चुनाव परिणाम चैलेंज भी हुए और खुद इंदिरा जी का चुनाव खारिज हुआ ।। इसके साथ-2 पूरे देश मे गुजरात से शुरू हुआ भ्र्ष्टाचार के विरुद्ध अब जे पी के नेतृत्व में देशव्यापी हो चुका था । *गली गली में शोर है -इंदिरा गांधी चोर है* का नारा मुखर रहा और अन्ततः आपातकाल लगा ।
लुब्बोलवाब यह कि अब चुनाव में धांधली व बूथ कैप्चरिंग आम बात थी । सन 1977 का लोकसभा चुनाव में सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी को पूरा यकीन था कि इस बार देश मे अनुशासन की इतनी लहर है कि जीत तो उनकी ही होगी । पर कागजो में सर्वे कुछ और था और जनता में कुछ और । यही हुआ न केवल सत्ताधारी पार्टी हारी वही उसकी नेता श्रीमती इंदिरा गांधी भी खुद अपनी परम्परागत सीट रायबरेली से 55,000 वोट से हार गई । जनता पार्टी के नाम पर गैर कांग्रेसी सरकार का पहला प्रयोग कांग्रेसी श्री मोरारजी देसाई के नेतृत्व में हुआ पर दो ही साल में कांग्रेस वापिस लौटी । वर्ष 1980 का चुनाव ,नई आशाएं लेकर आया था ,परन्तु इतिहास ने करवट बदली व सन 1984 में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा जी की निर्मम हत्या हुई और श्री राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने । सन 1985 का चुनाव कांग्रेस ने इंदिरा जी की हत्या के प्रति संवेदना लहर से जीता और कुल 540 स्थानों में से 411 स्थान पर विजय हासिल की ।
सन 2004 में, लोकसभा चुनावों में पहली बार पूरी तरह से ई वी एम का इस्तेमाल हुआ । इसकी तकनीकी निष्पक्षता को लेकर सभी विरोधी दलों ने सवाल उठाये ,कुछ ऐसे ही जैसे आज के विरोधी दल उठा रहे है । इस चुनाव में कांग्रेस के नेतृत्व में सरकार बनी और प्रधानमंत्री बने डॉ मनमोहन सिंह । इसी उठापटक में इस सरकार ने दो टर्म यानी 10 साल तक शासन किया । अब सन 2014 से बीजेपी के नेतृत्व में एन डी ए की सरकार है । सवाल वे ही है कि ई वी एम ईमानदार नही है । हारने वाले दल अपनी पराजय की ठीकरा इसी पर उतार रहे है । पर सवाल यह भी है कि दिल्ली , पंजाब,केरल,राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, बंगाल सभी चुनावो में तो ई वी एम ही तो था फिर यह आरोप क्यो ?
Ram Mohan Rai
Seattle, Washington (USA)
28.05.2019
[3/11, 8:32 AM] Ram Mohan Rai: *Inner voice* -5
(Nityanootan broadcast service)
प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने लोकसभा चुनावों में अपनी ऐतिहासिक विजय के बाद ,बीजेपी कार्यालय ,दिल्ली में अपने कार्यकर्ताओं को सम्बोधित करते हुए कहा कि यह पहला चुनाव है जब महंगाई ,भ्र्ष्टाचार ,बेरोजगारी कोई मुद्दा नही रहा । इसका अर्थ क्या है क्या यह सब मुद्दे हल हो गए ? इस से इतर ,बीजेपी का वर्ष 2014 का घोषणापत्र की सभी बातें पूरी हो गयी ? इन मुद्दों को मैं तो बिल्कुल भी नही उठाना चाहता क्योकि यह तो शासक दल के ही चहेते मुद्दे है और इन्हें उठाना एक उकसावे के इलावा कुछ नही है ,फिर भी क्या राम मंदिर बन गया ? , क्या अनुच्छेद 370 समाप्त हो गया या देश मे समान सिविल संहिता लागू हो गयी ? तो क्या कला धन वापिस आगया ? क्या यह चुनाव नोटबन्दी व जी एस टी के समर्थन में था या गौरी लंकेश ,कलबुर्गी , दाभोलकर,रोहित वेमुला ,अख़लाक़ जैसे निरपराध लोगो की हत्या को सही ठहराने के हक में ? क्या यह चुनाव सही में *गांधी बनाम गोडसे* रहा ? क्या जनता ने *सबका साथ सबका विकास*/ के हक में वोट डाले ?नही न । फिर चुनाव किसके हक में व किसके विरोध में रहा? ये सब मेरे प्रश्न है ,आपके कुछ ऐसे ही और या कुछ अलग या फिर मेरे सवालों के जवाब देते हुए कुछ अलग प्रश्न हो सकते है । मेरे जेहन में जो कुछ भी उठा ,उसे मैंने उगल दिया । लोकतंत्र ने मुझे सहमति -असहमति और अपने सवाल उठाने का मौलिक अधिकार दिया है जिसे मैं इस्तेमाल कर रहा हूं ।
इस चुनाव में बीजेपी की सफल टीम के अतिरिक्त कोई एक नेता ढंग से अपने मुद्दे उठाता हुआ लड़ा तो वह एक मात्र राहुल गांधी ही है । बचपन मे सब पप्पू होते है ,अपनी माँ की गोद से कोई सीख कर नही आता । पर अब यह पप्पू पूरी तरह से परिपक्वता से अपनी बात रखता हुआ ,पाया गया । जिसका कोई जवाब ,किसी के पास भी नही था ,प्रधानमंत्री जी व उनकी टीम के पास भी नही । वह किन के पास नही गया । विद्यार्थियों ,युवाओं ,मछुआरों , महिलाओं , किसानों, आदिवासियों सभी के पास तो , उनकी बात समझ कर अपनी बात रखी । महात्मा गांधी की बात को उसने कहा कि वह प्यार से जीतना चाहता है । उसकी बहन प्रियंका उसके साथ आई पर बहुत देरी से । बहन के पास भाषण शैली भी थी , आकर्षण भी व मुस्कराहट भी पर वह गम्भीरता नही थी जो उसके भाई में थी । राहुल ने गुजरात में लगभग जीत हासिल की ही थी । राजस्थान,मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ में उसने अपने करिश्मे को दिखाया और अब लगने लगा कि अब दिल्ली दूर नही ।पर साल भर भी पूरा नही हुआ , राजस्थान , मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ में वायदे के मुताबिक किसानों के कर्जे भी माफ हुए पर बात बनी नही । मैं यहाँ दो बातों का जिक्र करना चाहूंगा । एक-सन 1942 में जब पूरा देश आज़ादी के आंदोलन की चरम सीमा पर था तो हमारे कम्युनिस्ट भाई , जर्मनी के फासिज्म विरोध के नाम पर सोवियत संघ के कहने पर आज़ादी के आंदोलन से पीछे हटे दूसरे आपातकाल के दौरान सन 1976 में जब इंदिरा गांधी अपनी नीतियों पर आगे बढ़ रही थी तो राहुल गांधी के चाचा संजय गांधी का भारत छोड़ो आंदोलन में कम्युनिस्ट पार्टी की भूमिका पर उन्हें कोसना । इन दोनों का क्या मेल था ,यह समझ से आज भी बाहर है ? दूसरे यू पी ए -1 की सरकार से (सब काम अच्छा चलते) के खिलाफ अमेरिका से आणविक समझौते के विरुद्ध कम्युनिस्ट पार्टी के अविश्वास प्रस्ताव का और अब राहुल गांधी द्वारा एकदम कम्युनिस्टों के गढ़ केरल के वायनाड से चुनाव लड़ने का कदम भी समझ से बाहर है । कम्युनिस्टों का जनाधार बेशक सिमट रहा हो पर इनका कैडर बेमिसाल है । मेरे विचार से इन दोनों कामो में दोनो पार्टियो को कुछ भी तो नही मिला हां एक दूसरे से दूरियां जरूर बढ़ी है । कम्युनिस्ट पार्टी के वरिष्ठ दिवंगत नेता का0 मुकिम फ़ारूक़ी का कथन बिल्कुल सही है * *गर कम्युनिस्ट पार्टी गलती करती है तो वह ही भुगतती है पर गर कांग्रेस गलती करती है तो मुल्क़ भुगतता है* ।
प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी को पुनः उद्धरित करना चाहूंगा कि यह चुनाव मुद्दे आधारित नही था । प्रधानमंत्री जी ने पुलवामा अटैक के बाद दक्षिण भारत मे एक जनसभा को सम्बोधित करते हुए सही कहा था कि क्या आपका एक-२ वोट शहीद जवानों के नाम हो सकता है । यह ही वह आह्वान था जिसने उत्तर भारत के भावुक हिन्दू मतदाताओं को उद्वेलित किया । चुनाव आयोग की लाख चेतावनी हो पर पुलवामा अटैक व बालाघाट में सैनिक कायवाही ने न चाह कर भी बहुसंख्यक समाज के मतदाताओं को लुभाया और उन्होंने इस पक्ष में तमाम अन्य मुद्दों को नज़रन्दाज़ कर मतदान किया । ऐसा गैरवाजिब भी नही था हर सरकार ऐसी उपलब्धियों को भुनाती है । क्या इंदिरा जी ने वर्ष 1971 में भारत - पाकिस्तान युद्ध व बांग्लादेश की मुक्ति को अपनी विजय यात्रा में शामिल नही किया था ? राहुल गांधी इस राष्ट्रवाद अभियान को समझने में असफल रहे और बाकी विपक्षी दल गठबंधन बना कर राहुल को रोकने में कामयाब ।
राहुल बेशक कांग्रेस अध्यक्ष पद से हट जाएं पर याद रहे कि वर्तमान दौर में कांग्रेस का नेतृत्व करने में वे ही एक सार्थक नेता है । राहुल -प0 मोती लाल नेहरू, प0 जवाहरलाल नेहरु ,इंदिरा गांधी और अपने पिता राजीव गांधी की विरासत का नायक है जिन्होंने न केवल देश की आज़ादी का संघर्ष लड़ कर आज़ादी को लाने में सहयोग किया वहीं स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात उसको बचाने में हर प्रकार का बलिदान दिया । उसका परिवारवाद ,मुलायम ,माया ,धूमल ,बादल ,देवीलाल ,भजनलाल ,नायडू ,रेड्डी, करुणानिधि आदि-२ के परिवारवाद से सर्वथा भिन्न है ।
बेशक डॉ सुब्रह्मण्यम स्वामी से हम सहमत हो या नही परन्तु इस बात में उनकी पूरी सच्चाई है कि यदि पुलवामा अटैक नही होता तो बीजेपी को मात्र 160-180 सीट ही मिलती ।
एक बात और वेस्ट बंगाल में ममता बनर्जी ने स्वयं को कांग्रेस से अलग कर तृण मूल कांग्रेस इस मुद्दे बनाई थी कि वे चाहती थी कि सोनिया गांधी कांग्रेस अध्यक्ष बने । महाराष्ट्र में श्री शरद पवार ने कांग्रेस इस लिये छोड़ कर राष्ट्रवादी कांग्रेस बनाई कि सोनिया गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष क्यों बनाया ? जगन मोहन रेड्डी को तो कांग्रेस ने ही चापलूस नेताओ की वजह से अलग किया ।ऐसे उदाहरण हर प्रदेश में है । कांग्रेस कैडर की पार्टी नही बन सकती और न ही इसे इस तरफ बढ़ना चाहिये पर हां उसे जन पार्टी बन कर कैडर बेस्ड कम्युनिस्टों से तालमेल कायम करना होगा । यहाँ कम्युनिस्ट एक दूसरे को देख कर खुश नही । उनमें से कईयों को मोदी के जीतने का दुख नही परन्तु यदि कन्हैया कुमार जीत जाता उसका जरूर होता ।
कांग्रेस अध्यक्ष तो नेहरु - गांधी परिवार का ही रहेगा और आज के हालात में राहुल से बेहतर कोई नही है । किसी भी अन्य नेता की दावेदारी उसकी स्थिति हास्यास्पद ही बनाएगी।
Ram Mohan Rai
Seattle,Washington (USA)
29.05.2019
[3/11, 8:32 AM] Ram Mohan Rai: *Inner voice-6*
(Nityanootan broadcast service)
मेरे पिता सीता राम( मास्टर सीता राम जी सैनी) के महाप्रयाण का जब समय आया तो वे बोले कि ' राम-राम' बोलो पर हमारा आर्य समाजी संस्कारो का मन राम को मर्यादा पुरुषोत्तम एक महान आदर्श व्यक्ति तो मानता रहा परन्तु अवतार पुरुष भगवान राम नही ,इसलिये राम -२ का जाप करने में हिचकिचाहट दिखाई और कहा कि आप का तो नाम ही सीता राम है तो वे बोले चल छोड़ *सीता राम सीता राम* बोल । हमने उनकी आज्ञा का पालन किया और वे अपनी अंतिम यात्रा को चल पड़े । हमारा परिवार कोई सनातनी परिवार नही रहा परन्तु इसके बावजूद भी वह *राम प्रेमी* था । हमारी सात पुश्तों में मेरा नाम राम मोहन, मेरे पिता सीता राम, उनके पिता बख्तावर राम, उनके पिता जय राम ,उनके पिता श्योराम, उनके पिता राम सिंह व उनके पिता का नाम जागो राम था । मेरे बुजुर्ग साधारण किसान थे जिनकी यात्रा होशियारपुर(अब पंजाब) से शुरू होकर बुलन्दशहर (उत्तरप्रदेश) से होती हुई तत्कालीन रोहतक (पंजाब-हरियाणा) ज़िला के गांव बलि कुतुबपुर तक पहुंची । लोक ,कुल व ग्राम देवता ही उनके आराध्य रहे होंगे । बहुत कोशिशों के बावजूद भी तीर्थ स्थलों पर हमारा कोई पुरोहित नही मिला और फिर उनकी बही में हमारी कुल परम्परा का वृतांत तो मुश्किल ही था यानी बेशक आर्य समाज तो पिछले 100 वर्ष से आई मानी जा सकती है इसकी वजह से आडंबर व धार्मिक कर्मकांड अभी समाप्त हुए हो पर वे तो पहले से ही नदारद थे । पर *राम नाम* किसी भी धार्मिक भाव से न होकर लोकभाव से था । राम नाम हमारे जीवन का अंग था । जन्म से मृत्यु तक का संग ,एक प्रिय नाम । उसके किसी भी चित्र व मूर्ति की पूजा तो कही भी नही रही । नाम मे राम ,अभिवादन में राम -२ और अंत मे राम नाम सत्य ।
लोक व्यवहार में तो सम्बोधन में राम-राम रहा परन्तु आर्य समाजी व्यवहार में वह भी नदारद । आर्य समाजी सम्बोधन में नमस्ते को ही प्रमुखता देते है किसी भी तरह से अन्य को नही । आर्य समाज ,खैल बाजार ,पानीपत में एक बुज़ुर्ग कार्यकर्ता महाशय थारू राम जी थे, वे तो इतने कट्टर थे कि जब भी कोई उन्हें राम-राम कहता तो वे नाराजगी से उसका जवाब न देते । कुछ बच्चे उन्हें तंग करने के लिये कहते - बाबा ,राम राम तो वे झल्ला कर उन्हें डांटते पर राम-राम का जवाब राम-राम से कभी नही देते ।
बहुत पहले तक पंजाब ,हरियाणा पूर्वी उत्तरप्रदेश ,राजस्थान के कुछ हिस्सों में अभिवादन मात्र राम-राम ही रहा है जबकि अन्य क्षेत्रों में नमस्ते ,नमस्कार ,प्रणाम, नमस्कारम ,नमस्कारा , वनक़्क़म आदि -२ है । अब धार्मिक क्षेत्रो में हर सम्प्रदाय के अपने -२ सम्बोधन है । जैन ,जै जिनेन्द्र कहेंगे तो अन्य अपने-२ । ऐसी हम अपने आस्थानुसार कहेंगे । गुजरात आदि में जय श्री कृष्ण ही लोग अभिवादन में कहेंगे ,पर इसका कोई भी सम्बन्ध किसी भी राजनीति से नही है । परन्तु अफसोस है कि *राम* नाम का उपयोग राजनीति के लिये हुआ है । राम मंदिर पर राजनीति और अब *जय श्री राम* को लेकर राजनीति ।
*राम नाम मुद मंगलकारी, विघ्न हरे सब बाधा सारी* राम का नाम तो शांति व आनंद का देने वाला होना चाहिये पर किसी को चिढ़ाने के लिये इसका दुरुपयोग नही होना चाहिए । क्या राजनीति के लिये और क्या नारे कम है जो अब राम का नारे का इस्तेमाल करने की जरूरत पड़ी ?
जब कोई राम की राजनीति करेगा तो विरोध की राजनीति हमारे अन्य राष्ट्रीय सूचकों की होगी और इससे वे कमजोर ही होंगे मजबूत नही । मैने अनेक लोगो को देखा कि वे एक कॉपी लेकर राम -२ लिखते रहते है तथा बाद में एक जगह जमा करवाते है जो राम नाम बैंक कहलवाता है ।
मेरे इस कथन पर अनेक मित्र कहेंगे कि क्या भारत मे जय श्री राम भी नही कह सकते ? जरूर कह सकते है परन्तु अपने आनंद व शांति के लिये दूसरे को चिढ़ाने व अपनी राजनीति के लिये नही । दीदी निर्मला देशपाण्डे जी कहा करती थी कि भगवान राम को आदमी की इस फितरत का पता था इसीलिये उन्होंने आदमी की बजाय भालू ,वानर व अन्य वन्य जीवों पर यकीन करके उनकी फौज बनाई क्योकि उन्हें लगता था कि आदमी कलियुग में उसके नाम का दुरुपयोग करके अपना हित साधन करेगा ।
राम मोहन राय
Seattle, Washington (USA)
05.06.2019
[3/11, 8:32 AM] Ram Mohan Rai: Inner Voice-7 (Nityanootan Broadcast service) अमेरिका में जहां आजकल मुझे रहने का मौका मिल रहा है महिलाओं की जनसंख्या पुरुषो के मुकाबले .8 प्रतिशत ज्यादा जिसका असर बाजार के लगभग सारे कारोबार , स्वास्थ व शिक्षा क्षेत्र में देखने को मिलता है । आबादी के लिहाज से अमेरिका तीसरा बड़ा मुल्क है । महिलाओं की स्थिति भी हर प्रकार से अच्छी है । वे न केवल शारीरिक दृष्टि से अपितु बौद्धिक स्तर पर भी सम्पन्न है ।
कल मैं यहां के एक प्रसिद्ध ग्रीन लेक पार्क में घूमने के लिये गया ,वहाँ मैंने देखा कि बड़ी संख्या में महिलाएं सैर कर रही है ,दौड़ लगा रही है तथा तैराकी व अन्य व्यायाम कर रही है । पहरावे की दृष्टि से वे कुल मिला कर अपने कुल दो -तीन मुख्य वस्त्रों में ही है । एक स्थान पर एक महिला अपने एक पुरुष मित्र के साथ नृत्य का अभ्यास कर रही थी । यदि ऐसा हमारे देश मे हो रहा होता तो पूरा जमघट्टा व किलकारियों का शोर होता पर इस तरफ आ -जा रहे सेंकडो लोगो मे से किसी का भी ध्यान नही था । पहनावे की समझ से इस देश मे पाश्चात्य पहरावा ही है ,समझते है न इस तरह के कपड़ो के बारे में ।
इसका मतलब यह नही है कि यहां महिलाओं के प्रति यौन उत्पीड़न अथवा अपराध नही है परन्तु त्वरित न्याय व्यवस्था तथा समाज की इनके प्रति जागरूकता इसके पनपने को बढ़ावा नही देती । यदि कोई भी व्यक्ति ऐसे किसी अपराध को करता पाया जाता है तो सजा के अलावा उम्रभर उस पर लगा कलंक भी है जो उसके रिकार्ड्स में आजीवन दर्ज रहेगा और जहाँ भी वह जाएगा वह रिकॉर्ड भी साथ -२ जाकर उसका परिचय सर्व साधारण को देगा ।
महिलाओं को न तो कोई विशेषाधिकार व न ही कोई आरक्षण इसके विपरीत उन्हें समान अधिकार है । अनेक घरों के बाहर मैने प्ले कार्ड लगे देखे जिसमे अंग्रेज़ी में लिखा था कि महिला अधिकार ही मानवाधिकार है और हम उसे सम्मान देते है ।
इसका अर्थ यह नही कि महिला भिखारी , होमलेस अथवा यौन उत्पीड़ित नही है । देश मे महिला यौन कर्मी भी और भारत की तरह इस काम पर पाबंदी है परन्तु व्यवस्था की मार उन पर है । तमाम अच्छी बातों के इलावा यह सवाल वाजिब है कि दुनियां के सबसे पुराने लोकतंत्र में अभी तक कोई महिला राष्ट्रपति नही बनी है । इसके बारे में यहां के लोगो का कहना है कि लोकतंत्र में भागीदारी लगातार बढ़ रही है । वे हिलेरी क्लिंटन की हार को एक महिला की हार नही मानते उनका मानना है कि कोई और स्त्री होती तो वह नही हारती । इस बार राष्ट्रपति चुनावो में डेमोक्रेटिक पार्टी की ओर से दो महिलाएं,,पद की होड़ में है इत्तिफाक से ये दोनों भारतीय मूल की है ।
अमेरीकन जन जीवन में महिलाओं की भूमिका को नकारा नही जा सकता । यह उनकी उपलब्धि भी है और भागीदारी भी ।
राम मोहन राय
Seattle, Washington( USA)
06.06.2019
[3/11, 8:32 AM] Ram Mohan Rai: *Inner voice*-8
(Nityanootan broadcast service)
लेक यूनियन ,सिएटल(वाशिंगटन-अमेरिका) से कल बस में बैठ कर अपनी बेटी के घर नॉर्थगेट तक आने का अवसर मिला । एक बड़ी बस जो तीन हिस्सों में थी पहले हिस्सा विकलांग व्यक्तियों के लिये आरक्षित था ,दूसरा आयु में वरिष्ठ जन के लिये तीसरा आम लोगो के लिये । यहां यह अच्छी बात है कि विकलांग व्यक्ति बैटरी से चलित चेयर अथवा बग्गी पर अपनी सुविधा से बिना किसी दूसरे की सहायता के चलते है । बस ज्योही किसी स्टॉप पर किसी विकलांग की गाड़ी को देखती है । बस का ड्राइवर का पास वाला गेट खुलता है ,बस का गेट वाला हिस्सा बस स्टॉप पर खड़े होने वाले स्थान पर उसके समानांतर नीचे आता है व फिर वह चेयर आराम से बस में चढ़ जाती है । बस का ड्राइवर भी अपनी सीट से उठता है ,चेयर के आरक्षित स्थान पर जा कर उसे व्यवस्थित करता है ,बेल्ट लगाता है उसे बस में लगे हुक से जोड़ता है और फिर अपनी सीट पर आकर ड्राइव करता है । यह स्थिति उस महिला के साथ भी है जो अपने शिशु को बग्गी में बिठा कर निकली है ,उसका भी इसी तरह से सहयोग करना ड्राइवर का बस चलाने के इलावा काम है । स्वाभाविक है कम आबादी तथा प्रायः हर किसी के पास अपनी सवारी गाड़ी होने की वजह से बसो में भीड़-भीड़ कम है परंतु तो भी जनसंख्या अनुपात में कम नही है । बस अपने स्टॉप पर ही रुकती है ।
एक रोचक किस्सा रखना चाहूंगा । मेरी पत्नी श्रीमती कृष्णा कांता भी मेरे दोनो नातिन व नाती के साथ थे ,वे तीनों बच्चों की नैनी की कार से आये थे व मैं बस से । मुझे बताया गया थी कि 40 नम्बर की स्पीड राइडर बस
लेनी है वह ही नॉर्थगेट तक जाएगी । हम ज्योंही यूनियन लेक से निकले तभी 40 नम्बर बस सड़क पर जाती दिखी और रेड लाइट पर रुकी । मेरी पत्नी ने जिसे देख कर जोर से कहा जल्दी जाओ ,अभी बस खड़ी है आप जाकर पकड़ लो । एक बार तो मेरा मन किया कि जाकर पकड़ूँ पर फिर ध्यान आया कि यहां बस सवारी देख कर न तो रुकती है और न ही बस स्टॉप के इलावा कही भी इस पर चढ़ा जा सकता है ।
यहां की बस सर्विस में मैने पाया कि विकलांग ,बच्चों तथा वृद्ध लोगो के लिये आराम का सफर बस का ही है । एक बात और अपनी कार में भी 14 साल के बच्चे को ड्राइवर सीट के साथ वाली सीट पर आगे बिठाने व बैठने की मनाही है । कद में तीन फीट तक का बालक पिछली तीन वाली सीट पर बच्चों के बैठने वाली विशेष सीट पर ही बैठेगा और उसे भी बेल्ट इत्यादि लगाकर सुरक्षित करना होगा ,कई बार इसमे उसे असुविधा होती है परन्तु बस में तो बग्गी / स्ट्रॉलर आसानी से चढ़ उतर सकता है । बुजुर्गों के देखते ही सीट पर पहले से बैठी कम उम्र की सवारी अपनी जगह से उठ कर उन्हें बैठने का आग्रह करती है ।
ड्राइवर भी बस चलाने के अतिरिक्त उन लोगो को पैसे लेकर टिकट बेचने का काम भी करता है जिनके पास बस पास नही है वैसे अमूमन सभी लोग पास रखते है जो एक ही पास बस ,ट्रैन(मेट्रो) आदि में इस्तेमाल किया जा सकता है ।
पब्लिक ट्रांसपोर्ट सिस्टम पर्यावरण रक्षक भी है । अमेरिका में अपनी गाड़ियों की बहुतयात है । और ऐसी गाड़ियों के लिये विशेष आरक्षित सड़के है जिसमे एक से अधिक सवारियां बैठी हो ।
घुमन्तु यात्रियों के लिए भी बस सुविधाजनक व ज्ञानवर्धक है । कम किराए पर पूरी यात्रा ।
राम मोहन राय
Seattle, Washington,(USA)
08.06.2019
[3/11, 8:37 AM] Ram Mohan Rai: *Inner Voice*-10
(Nityanootan broadcast service)
भारत मे बलात्कार , चार बड़े अपराधों में से एक है । छह महीने की बच्ची से लेकर 80 वर्ष की महिला तक इस अपराध की शिकार है । मेरे एक मित्र ने महिलाओं की कुछ तस्वीरें दिखा कर बताना चाहा कि महिलाओं से अपराध की वजह ऐसे कपड़े व कम कपड़े है जिनसे इनका शरीर पुरुषों को आकर्षित करता है और वे बलात्कार की शिकार होती है । दूसरे एक मित्र ने कहा कि देश में नैतिक शिक्षा लगातार समाप्त हो रही है जिसकी वजह से यह पतन है ।
आजकल मैं जिस देश अमेरिका में रह रहा हूँ वहाँ आपने कैसे कपड़े पहने है उस पर किसी का कोई ध्यान नही जाता । कल मुझे सीएटल की यूनियन लेक पर जाने का अवसर मिला । मौसम खुला था इस लेक के तट पर सेंकडो की तादाद में हर उम्र की महिलाएं अर्धनग्नावस्था में सूर्य स्नान का आनंद ले रही थी और मजाल है कि कोई भी उनकी तरफ गलत नजरो से देख रहा हो । इत्तिफाक से वही मुझे मेरे हम उम्र तीन भारतीय मिले जो अपने बच्चों के पास मेरी तरह ही छुटियां मनाने आये थे । ऐसा दृश्य देख कर वे बेहद शर्मिंदा महसूस कर बोलने लगे देखो क्या अश्लील दृश्य है ,ऐसी ही पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव ने हमारे देश भारत की भी हवा दूषित कर दी है । उनकी इस वार्ता से मैं समझने में असमर्थ रहा कि यहां के ऐसे वातावरण से भारत की संस्कृति कैसे बिगड़ गयी जबकि यहां तो इसका कोई विपरीत प्रभाव नही दिख रहा । ऐसा नही है कि यहां बलात्कार के अपराध नही है पर वे किसी भी कम कपड़ो व नग्न रहने से नही है । यहां की सोच साफ है कि यह एक दूषित मानसिकता है जो महिला को उपयोग की वस्तु समझने से है तथा उसे एक यौनी अथवा विलास की वस्तु समझने से अलग कुछ नही है । यहाँ लड़के-लड़की स्वछंद घूमते है और यदि हमारे यहाँ दो भाई-बहन भी साथ जा रहे है तो हम उनके गलत अर्थ निकालने लगते है क्योकि हमारा मानना है कि स्त्री-पुरुष का तो बस एक ही रिश्ता है और अगर वे साथ-२ आ जा रहे है तो जरूर इनके बीच कोई शारीरिक सम्बन्ध होंगे । मैंने यहाँ अनैतिक शब्द कहने से परहेज किया है । क्योंकि अनैतिक की क्या परिभाषा है इसकी कोई व्याख्या नही ? पर क्या कोई भी लड़की अथवा महिला अपने घर -परिवार में सुरक्षित है ? राष्ट्रीय महिला आयोग के एक सर्वे में मानना है कि बालिकाओं के साथ होंने वाले अस्सी प्रतिशत मामलों में घर के आत्मीय जन ही दोषी होते है ।
यहां सवाल कपड़ो ,संस्कृति ,सम्बन्धो व बलात्कार का है । हमारे यहां घूंघट करे ,बुरका पहने व छोटी -२ बालिकाएं भी इस घृणित कृत्य की शिकार है । मुझे याद है कि मैने अपनी वकालत शुरू की ही थी और उसके साथ -२ सामाजिक कार्यो में भी सक्रिय था । हमारे घर के पास हो एक छोटा सा मंदिर था, वहीं एक तीन साल की बालिका के साथ एक साठ वर्षीय धनाढ्य ने बलात्कार किया । हमने एक अन्य राजनैतिक नेत्री के सहयोग से पुलिस में केस दर्ज करवाया तथा सक्रियता से पैरवी कर दोषी की जमानत तक नही होने दी । गवाही वाले दिन , अल सुबह लड़की का पिता एक गणमान्य व्यक्ति को लेकर आया और कहने लगा कि उनकी दोषीपक्ष से 80 हजार रुपये लेकर समझौता हो गया है , वे आपकी फीस भी देंगे आप ब्यान बदलवा दे । मैने उनको धिक्कारा और बाद में एक अन्य वकील को खड़ा करके उन्होंने अपने बयान तुड़वा लिए । पीड़ित पक्ष के साथ बाद तक खड़ा होता नही दिखता और उसे लड़की जात पर कलंक का भय दिखा कर हतोत्साहित करता है और इस तरह ही बढ़ते है मुल्जिमो के हौसले ।
अगर कम कपड़ो से बलात्कार होते तो अमेरिका अथवा अन्य पश्चिमी देशों में इसकी घटनाएं सब से ज्यादा होती । और यदि नैतिक व धार्मिक हीनता से
ही इसे बढ़ावा मिलता तो तथाकथित संत,पुजारी ,मौलवी ,पादरी बलात्कार के मुकदमो में मुलजिम न हो कर जेल की हवा न खाते । जैसे मैंने कहा कि पाश्चात्य देशों में भी ऐसे अपराध है पर इतने नही जितने हमारे जैसे देशों में जहां लड़की को कंजक, महिला को देवी अथवा माँ कह कर पूजा जाता है । नशेड़ी तथा मानसिक रोगी ही अमेरिका सहित पाश्चात्य देशों में ऐसे अपराधी है । यह प्रश्न बार -२ उठाया जाता है कि अमेरिका जैसे देशों में यौन स्वच्छन्दता है जो बिल्कुल सही है । लड़के-लड़की हाथो में हाथ डाले ,एक दूसरे के गले मे बाहें डाले व एक दूसरे का चुम्बन लेते खूब मिलेंगे, पर ऐसा हर किसी के साथ नही । इसके बावजूद भी यौनाचार की संख्या नगण्य है । दोगला चरित्र व जीवन यहां धिक्कार के योग्य है जबकि हम ऐसे लोगो को सांसद ,मंत्री व
राजनेता तक बनाए हुए है । यहां एक भी राजनेता स्वीकार्य नही जो अपनी ब्याहता स्त्री के किसी अन्य के साथ सम्बंध रखे परन्तु हमारी भू भारती पर अनेक राजनेता यह कह कर पल्लू झाड़ देते है कि यह उनका पारिवारिक मसला है ।
जब तक महिला को उसे विशेष दर्जे को छोड़ कर समानाधिकार नही मिलेंगे तब तक यह शोषण चलता रहेगा फिर चाहे नैतिकता की दुहाई दे या कम कपड़ो की । नजरें तो मेरी गन्दी है और मैं ही कह रहा हूं कि वह मुझे प्रलोभित करती है । नजरें सुधारो तभी शीशा मैला नही साफ दिखेगा ।
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राम मोहन राय
Seattle, Washington, (USA)
13.06.2019*Inner voice*-9
(Nityanootan broadcast service)
पश्चिम बंगाल में जो नारों पर राजनीति चल रही है वह भयानक ही नही अपितु निन्दनीय भी है । हमे इसके भयानक परिणामों के प्रति सावधान रहना होगा । बंगाली मूलतः एक अति संवेदनशील ,कवि हृदय व अपनी भाषा ,संस्कृति व साहित्य के प्रति निष्ठावान होता है । धर्म व साम्प्रदायिकता उसके लिये इतनी महत्वपूर्ण नही होती । इसके एक बड़ा उदाहरण अंग्रेज़ी शासन द्वारा सन 1905 में सम्प्रदाय के आधार पर बंगाल का विभाजन जिसे *बंग भंग* के नाम से जाना जाता है ,है । इस विभाजन के विरोध में बंगाल के समूचे लोग ही सड़को पर उतर आए थे । खुद गुरुदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर ने इस विरोध का नेतृत्व किया तथा अपनी कविताओं के माध्यम से उसकी अभिव्यक्ति की । आखिरकार बंगाल की जनता ने अंग्रेज़ी सरकार को अपना विभाजनकारी निर्णय वापिस लेने के लिये मजबूर किया ।
बेशक सन 1947 में भारत विभाजन के समय ,अंग्रेज़ अपनी चाल में कामयाब हुए और उसने बंगाल का फिर विभाजन किया और उसे पूर्वी पाकिस्तान का नाम दिया । धर्म के नाम पर दो देश तो बन गए परन्तु बंगाली अस्मिता व भाषा के नाम पर पूर्वी बंगाल(पूर्वी पाकिस्तान) में छात्रों व युवाओं के जनांदोलन ने एक नई लहर अपने 52 विद्यार्थियो की शहादत देकर शरू की जिसकी परिणीति *बांग्लादेश* का उदय से हुई ।
पश्चिम बंगाल भी उसी बंगाली अस्मिता व सम्मान के संरक्षकों का एक हिस्सा है । *काली पूजा* को मानने वाले इस भूभाग में नास्तिकता के समर्थक कम्युनिस्टों ने लगभग 35 साल तक एक छत्र राज किया पर वे इसके बावजूद भी काली बाड़ी व उत्सव के प्रभाव को रोक न सके और अंतत्वोगत्वा स्वयं उसका हिस्सा बने । काली पूजा किसी एक धर्म का विषय न होकर बंगाल के आराध्य बिंदु है । जहाँ पूजा के दिनों में जहाँ हिन्दू बकरे की बलि झटके से करता है वही मुस्लिम हलाल कर ,इस काली पूजा उत्सव का हिस्सा बनता है । बंगाली ,बंगाली पहले है और कुछ बाद में ।
राजनीति के स्वार्थ में किसी भी दल को प0 बंगाल में नारे बाजी की किन्ही विघटनकारी कुत्सित योजनाओं से बचना चाहिये । राजसत्ता एक समय के लिये प्राप्त की जा सकती है परन्तु यदि जहर भर दिया गया तो उसके दूरगामी गम्भीर परिणाम होंगे ।
राम मोहन राय
Seattle, Washington,( USA)
09.06.2019
[3/11, 8:38 AM] Ram Mohan Rai: **Today inner voice*
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(Nityanootan broadcast service)
मेरे जैसे आदमी के लिये यह कभी भी फर्क नही रहा कि अब हम कहाँ रह रहे है । मैं हमेशा इन उदात्त पंक्तियां जो इस गीत की रही है जिसमे कहा है *हर देश मे तू ,हर वेश में तू ,तेरे नाम अनेक तू एक ही है* से आकर्षित रहा हूं । धर्म ,जाति ,क्षेत्र अथवा रंग भेद ने कभी भी प्रभावित नही किया । इसलिये अमेरिका में भी मेरी जीवनचर्या पर कोई खास फर्क नही है । गत दिवस ,सिएटल (वाशिंगटन) के साइंस म्यूजियम में एक पुणे निवासी भारतीय परिवार से अकस्मात मुलाकात हुई । पिता श्री ,यहाँ रह रहे अपने बेटे व उसके परिवार के पास रहने आये थे । उनकी पुत्रवधु ने एकदम उल्टा सवाल पूछा कि क्या यहाँ रह कर इंडिया वापिस जाने का मन करता है ? मैने उसके सवाल को अपने ढंग से समझा कि क्या यहाँ मन लग गया ? मैने उन्हें जवाब दिया कि अमेरिका तो अपनी ही धरती है । हमारे दादा गुरु जोतीबा फुले ने अपनी प्रसिद्ध वैचारिक पुस्तक *गुलामगिरी* को यहीं के पूर्व राष्ट्रपति अब्राहिम लिंकन को समर्पित किया था । जोतीबा का मानना था कि अमेरिका में गुलाम प्रथा के खिलाफ लड़ा गया संघर्ष के हिस्से के रूप में ही *भारत के दलित - पिछड़े की लड़ाई है* । वहीँ दूसरी तरफ हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के शिष्य मार्टिन लूथर किंग जूनियर इसी धरती के थे अतः हम दोनों देशों में प्रेरणा का आदान-प्रदान हमारे संघर्षों को एक मजबूत कड़ी देता है । इत्तिफाक की बात यह भी है कि इनमें से तीन नेताओं ने अपनी इन्हीं लड़ाइयों के यौद्धा के रूप में शहादत पाई और दुर्भाग्य यह है कि यहां इन्हें सफलता मिली है और सामाजिक समरसता के क्षेत्र में हमे अभी लम्बी लड़ाई लड़नी है ।बाबा साहब अंबेडकर ने इसी धरती के लोकतंत्र को अपने देश के लिये अनुरूप माना तथा *स्वतंत्रता ,समता व भ्रातृत्व को अपना आदर्श* ।
यहाँ भी अनेक कमियाँ है । भूख ,बीमारी व बेकारी का सर्वथा उन्मूलन नही है अर्थात खुले शब्दो मे वे सभी दुर्गुण व अभाव है जो एक पूंजीवादी व्यवस्था में हो सकते है परन्तु निचले स्तर पर लोकतांत्रिक संस्थाओं की जीवटता एक प्रमुख सकरात्मक गुण है । एक उदाहरण ,मकान जायदाद के दाम उस क्षेत्र में संचालित स्कूलों व हॉस्पिटल से तय होते है । दूसरे , काले -गोरे के भेद को नकारा गया है । अनेक ऐसे दम्पति देखने को मिले जिनके विपरीत रंग थे । पहनने - खानपान की पूरी आजादी है । सार्वजनिक स्थानों में भी किसी को भी यह लेना - देना नही कि आप कैसी वेशभूषा में हो ।लड़के-लड़की के जन्म ,परवरिश ,शिक्षा-दीक्षा ,रोजगार व अवसरों में कोई भेदभाव नही है । भारतीय समझ *खाओ मन भाता -पहनो जग भाता* पूरी तरह ध्वस्त है । यहां खाओ भी मन भाता और पहनो भी मन भाता है ।
Ram Mohan Rai
Seattle, Washington ( USA)
10.05.2019
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