My trip to the land of Mahatma Martin Luther King Jr -USA

*MY TRIP TO THE LAND OF MAHATMA MARTIN LUTHER KING JR*

यह मेरी अमेरिका की चौथी यात्रा है.  सबसे पहले वर्ष 2014 में एक माह के लिए फिर 2016 में लगभग दो महीने के लिए, 2019 में चार माह के लिए और अब सन 2022 में लगभग  साढ़े चार महीने के लिए.  पहली बार की तीन यात्राएं लगभग पारिवारिक ही रहीं परंतु उस दौरान भी हरदम कोशिश रहीं की यहां के बारे मे ज्यादा से ज्यादा समझा जाए, यहां के लोगों से मिला जाए ताकि अपनी समझ को विकसित किया जा सके . पिछली बार की यात्रा में भारत की एक युवा शांति कर्मी देविका मित्तल के माध्यम से एक पाकिस्तानी मूल के युवा जहान चौधरी, जो कि फिलाडेल्फिया में रह कर Saturday Free School  में काम करते हैं, से परिचय प्राप्त करने का अवसर मिला.  उनसे बातचीत शुरू हुई और फिर उनके संगठन तथा उसके कार्यो के बारे मे जानकारी मिली.  बातचीत के दौरान पाया कि वे अपने स्कूल के माध्यम से महात्मा गांधी-150 के विषय पर काम कर रहें हैं. वे मार्टिन लूथर किंग जूनियर के विचारों को गांधी विचार से जोड़ कर कार्य कर रहे हैं.  मैंने किंग जूनियर का नाम तो सुना था परंतु उनके वैचारिक पक्ष से सर्वथा अनभिज्ञ था.  पर बातचीत ने ही मुझे आर्चशिमान  राजू और मेघना चंद्र का भी परिचय मिला.  ये सभी युवा अमेरीका मे या तो उच्च शिक्षा ग्रहण कर रहे थे अथवा कार्यरत थे.  ये सभी युवा विचारों से न केवल परिपक्व थे अपितु कार्यो के प्रति भी प्रतिबद्ध थे.  मेरे अमेरीका प्रवास के दौरान ही  राजू तथा मेघना अपने देश भारत गये तथा मेरे संदर्भ से  गांधी संस्थाओ में पद प्रतिष्ठा पर आरूढ़ गांधीवादियों से मिले. मैं इन सभी की गांधी विचार, विश्व शांति के प्रति समर्पण तथा शोषित वर्गों के प्रति न्याय दिलवाने के संघर्ष के जज़्बे से प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाया.  गांधी-150 वर्ष में यदि कोई सघन कार्य कर रहे थे तो वे इनके संगठन के ही साथी थे. मेरे सिएटल प्रवास के दौरान मुझसे मिलने जहां प्रसिद्ध गांधीवादी डॉ ऐस एन सुब्बाराव जी, जो एक युवा शिविर में अमेरिका में आए हुए थे, वे पधारे वहीं Saturday Free School की सदस्य आर दिव्या नायर भी आई.  दिव्या मेरे लिए काले  रंग  की दो टी शर्ट लायी थीं जिस पर महात्मा गाँधी और किंग  जूनियर के चित्र छपे थे.  मिलने आए इन दो व्यक्तियों में एक अत्यंत वृद्ध 93 वर्ष के थे वहीं दूसरी और एक अत्यंत आकर्षक युवती थी पर दोनों का अद्भुत तारतम्य था.  एक गांधी-विनोबा विचार को जीवन समर्पित करने वाला एक चिरयुवा व्यक्ति, दूसरी इसी विचार की एक जिज्ञासु.
 पर इस बार की इस तीसरी यात्रा ने दिमाग के तन्तु खोल दिए थे और एक रास्ता भी प्रशस्त किया था कि अमेरिका में आ तो गए हों पर इसे समझने के लिए इस रास्ते के दरवाजे में घुसकर ही मकसद हल हो पाएगा.  इस पूरे समय काल में अमेरिका में रह  रहे कुछ दूसरे साथियो से भी संपर्क करने का अवसर मिला.
 दीदी निर्मला देशपांडे जी मेरे जीवन मे एक नई दृष्टि देने की स्रोत रहीं हैं.  उनके माध्यम से ही विश्व शांति, राष्ट्रीय एकता, सर्वधर्म समभाव तथा पड़ोसी देशों के लोगों से अमन-दोस्ती मुहिम चला कर जोड़ने की प्रेरणा मिली थी.  उनकी मृत्यु के पश्चात उनके कार्यो को आगे बढ़ाने की जिम्मेवारी उनके तमाम साथियों पर थी.  मुझे उन्होंने न केवल अपने कार्यो से जोड़ा था वहीं उसके प्रचार-प्रसार के माध्यम अपनी पत्रिका नित्यनूतन पत्रिका से भी जोड़ा था. उनके पास संगठन भी बहुत थे और संस्थाएँ भी.  ऐसे सभी कार्यों में तिकड़म बाज़ी का अहम स्थान है परंतु मेरे लिए ये सब बिल्ली के लिए अंगूर खट्टे वाली कहावत सही साबित हुई यानी कि मैंने प्रयास किए परंतु सफ़लता नहीं प्राप्त हो सकीं.  अंततः गांधी ग्लोबल फैमिली में काम करने का फैसला किया और इसे ही साधन बनाया निर्मला दीदी की आकांक्षाओं के अनुरूप कार्य करने का.
    मेरा जन्म एक ऐसे माता- पिता के घर हुआ जिनका साम्प्रदायिक सद्भाव में यकीन था.  वे समन्वय वादी थे.  पिता एक निकट के गांव के एक अशिक्षित पौराणिक परिवार से थे जबकि माता एक शहरी शिक्षित प्रगतिशील आर्य समाजी परिवार से. परंतु दोनों की राजनीतिक विचारधारा एक थी -गांधी-नेहरू वादी कॉंग्रेस के साथ.  मेरी माँ अपने जीवनकाल में दो बार जेल भी गयी थी. एक बार सन 1942 में गांधी जी के भारत छोड़ो आंदोलन में तथा दूसरी बार 1978 में इंदिरा गांधी जी की गिरफ्तारी के विरोध में.  यह वह दौर था जब कॉंग्रेस और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का आपसी सहयोग था और वे मिल कर एक न्यूनतम कार्यक्रम के अन्तर्गत काम कर रहीं थीं.  मेरे शिक्षक दीप चन्द्र निर्मोही 
कम्युनिस्ट पार्टी की विचारधारा से प्रभावित थे और मैं उनसे.  और यह उनकी ही प्रेरणा थी कि मैं अपने परिवार की विचारधारा से न जुड़ कर ऑल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन के माध्यम से कम्युनिस्ट पार्टी में आया.  यहीं मेरे नज़रिया में वैज्ञानिक चिंतन की शुरुआत हुई.  एक भारतीय परिपेक्ष्य में ढले एक युवा मार्क्सवादी बनने की जद्दोजहद.  कम्युनिस्ट पार्टी में आकर मुझे खुद को समझने और सीखने का मौका मिला.  मैंने न केवल देश में विद्यार्थियों के वैचारिक कक्षाओं में पढ़ने का अवसर मिला वहीं सोवियत संघ में जाकर उसे व्यवहारिक रूप से जानने का अवसर भी मिला.  बेशक वहां समाजवादी प्रयोग असफल हुआ है परंतु मेरा मानना है कि प्रयोग असफल हुआ है न कि समाजवाद.  यह वह भी समय था कि जब सीपीआई में कामरेड ऐस ए डांगे की के नेतृत्व में चल रहीं पार्टी लाइन कमजोर पड़ गयी थी .इसी दौरान वह दिन भी आया जब पार्टी संस्थापक को ही पार्टी से निष्कासित कर दिया गया और इस नियति के शिकार हम भी हुए. पहले भगत सिंह सभा बना कर और फिर अन्य संगठनों में काम करते हुए हम वापिस अपनी मातृ संस्था आर्य समाज मे वापिस आए और उन्होंने भी अपने इस खोए हुए सदस्य को खुले हृदय से ग्रहण किया और इस तरह मैं भारत के सबसे पुरानी आर्य समाज, पानीपत का लगातार 6 वर्षो तक मंत्री पद पर रहा और वहीं उससे सम्बन्धित आर्य शिक्षण संस्थानों को लगातार 12 वर्षों तक प्रबन्धक रहा. मेरा यह  भी सौभाग्य है कि इसी दौरान मुझे अरुणा आसिफ़ अली, सुभद्रा जोशी,  शहीद भगत सिंह की माता, भाई व अन्य सदस्यों, दुर्गा भाभी और अंत में निर्मला देशपांडे तथा स्वामी अग्निवेश के साथ काम करने का भी सौभाग्य मिला.
     घूमने-फिरने का मैं शौकीन रहा हूं.  खुद अपने तौर पर और दीदी निर्मला देशपांडे जी के साथ मुझे पूरे भारत तथा दक्षिण एशिया के देशों में घूमने का भरपूर मौका मिला है.  मैं अपनी आठ बार की पाकिस्तान  यात्रा में से उनके साथ पांच बार पाकिस्तान गया हूं.
     अमेरिका आने का मुझे उतना ही आकर्षण और उत्साह रहा है जितना कि किसी अन्य भारतीय का.  वह इसके बावजूद भी कि हम अपनी जवानी से उसे गालियां देते रहे परंतु अपने आकर्षण को न रोक सके.  हर भारतीय की तरह हम उसे एक अत्यंत सम्पन्न देश मानते हैं अर्थात जिसके पास वह हर सुख सुविधा है जिसकी कल्पना हम अपने विचारों और सपनों में स्वर्ग की करते हैं.  कोई भी भारतीय जब अमेरिका से लौट कर आता है तो हमारा भाव ऐसा रहता है कि वह किसी परीलोक से आया हो जब कि उसका भाव भी किसी भी भारतीय से अलग ही होता है.  उसके किस्से- कहानियाँ अजूबे ही होते हैं.  वह तो डॉलर में कमाता है यानी हमारे 80₹ का एक डॉलर. उस हिसाब से तो कोई अगर 500 डॉलर भी एक महीने में कमाता हैं तो 40 हज़ार रुपये प्रतिमाह.
     अमेरिका आए भारतीयों का भी इसके अनुसार ही आचरण है.  ज्यादातर वे भारतीय हैं जो आई टी कम्पनियों में उच्च पदों पर हैं तथा महिने के हजारों डॉलर कमाते है.  अनेक तो लाखों.  अमेरीकन तथा अन्य यूरोपीय देशों के लोगों के मुकाबले एशियन लोगों ज्यादा हुनरमन्द तथा कुशाग्र बुद्धी है इसलिए पूरी अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर इन्हीं लोगों का वर्चस्व है.  पूरी मार्केट भी एशियन समान से ही पट हुई है खासकर चीनी और कोरियन समान से. कयी मामलों मे ये अमेरिकियों से भी आगे हैं,पर ऐसा नहीं है कि इन देशों से मजदूर और अन्य ऐसे ही पेशे वाले लोग नहीं आए. बिल्कुल ये है जो या तो बेहतर रोजगार की तलाश में आए अथवा कथित कबूतर बाजों के अड्डे चढ़ कर आ गए और अब चाह कर भी वापसी का कोई रास्ता नहीं है. मैं यहां भारतीय लोगों की ही चर्चा करूंगा.  उनके अपने देश के मुकाबले में आमदनी ज्यादा है इसलिए रहन-सहन भी अच्छा है. अनेक को नागरिकता भी मिल गयी है और कुछ को ग्रीन कार्ड और बाकी लाइन में हैं.  यहां के प्रत्येक रहवासी को मुफ्त 12 वीं तक कि शिक्षा है अतः वे इस न्यूनतम शिक्षा के भी अधिकारी हैं परंतु उच्च शिक्षा न केवल प्राइवेट हाथों में हैं बल्कि अत्याधिक महंगी और दुर्लभ है. पर सम्पन्न भारतीय लोग स्वयं को किसी भी अमेरीकी से कमतर नहीं मानते जबकि अमेरीकी लोगों की सोच इससे भिन्न है.  अमेरीका फर्स्ट का मतलब यह भी है कि गैर अमेरिकी लोग इस देश मे उनके मुकाबले दोयम हैं.
 अब ऐक दूसरा पक्ष भी रखना चाहूँगा कि अफ्रीकन-अमेरिकन अश्वेत लोगों की स्थिति के बारे में.  आपको स्थान-स्थान पर *Black lives matter* के बोर्ड और बैनर लगे मिलेंगे परंतु क्या सचमुच उनके प्रति समानता एवं सम्मान का व्यवहार है, यह शोचनीय विषय है.  बेरोजगारी में इनकी संख्या सबसे ज्यादा है.  अस्पृश्यता का आलम यह है कि श्वेत और अश्वेत बस्तियां एक साथ न है मात्र कुछ अपवाद छोड़ कर. बेरोजगारी और गरीबी की वज़ह से अपराध दर भी इन लोगों में ज्यादा है और यदि पूर्ण आकलन करें तो जेलों में इनकी संख्या अधिक है.
अमेरिकी आजादी के 365 साल के इतिहास इन अश्वेत लोगों की उपस्थिति जरूर बदली है परंतु उपस्थिति में कोई खास बदलाव नहीं आया है. राष्ट्रपति बराक ओबामा अथवा कमला हैरिस के उपराष्ट्रपति बनने से यह मानने लगे कि समूचा ब्लैक समुदाय प्रगति कर गया है तो यह सच नहीं है.  ऐसे मामले में हम भारतीयों की स्थिति बड़ी ही विचित्र बन जाती है.  हम अश्वेत लोगों के साथ नहीं खड़े होते क्योंकि हम ऐसे मामलों मे रंग  के हिसाब  से खुद को गोरों के निकट मानते है .दूसरी ओर गोरे हमें रंग मे अपने निकट न मान कर अश्वेत लोगों  जैसा मानते है और हम काले-पीले के चक्कर में  न इधर के हैं और न ही उधर के. अपनी संस्कृति, सभ्यता, इतिहास और संघर्ष से अनभिज्ञ होते हुए ही हमारी यह स्थिति हैं. महात्मा गाँधी हमें भारतीय मुद्रा रुपये पर तो छपे अच्छे लगते है और अपनी राष्ट्रीय पहचान उनके रूप मे भी, इसके इलावा हमे न तो उनसे कोई मतलब है और न ही कोई सरोकार.  नेहरू, इंदिरा, पटेल,सुभाष आदि के बारे मे हमसे ज्यादा शायद ये काले-गोरे जानते है.
    ऐसा  नहीं  कि भारतीय अपने देश से प्यार नहीं करते.  स्वतंत्रता दिवस आदि राष्ट्रीय पर्व खूब उत्साहपूर्ण मनाते हैं.  धार्मिक त्यौहार भी खूब मनाते हैं.  न केवल भारतीय मन्दिरों को भरपूर चंदा देते हैं वहीं इस देश मे भी कयी बड़े-छोटे मन्दिर और देवालय भी बनाये हैं.  अपने बच्चों को भारतीय चिंतन से जोड़ने के लिए समय-समय पर शिविर भी लगते हैं.  भारतीय नेताओं तथा राजनीति में भी दिलचस्पी हैं परंतु वापिस भारत आने का सवाल आते ही एक अज़ीब तरह की नकारात्मक चुप्पी छा जाती हैं.  भारतीयता तो चाहिए परंतु भारत नहीं.  इस बार की यात्रा ने इस पहलू को भी सीखने-समझने का अवसर मिला.
    मैंने जैसे पहले कहा कि हाई स्कूल तक की शिक्षा बिल्कुल निशुल्क हैं परंतु उच्च शिक्षा में धनाढ्य लोगों का आरक्षण है. यह महँगी ही नहीं अपितु अनुपलब्ध भी है.  बड़े बड़े विश्वविद्यालय कॉर्पोरेट अथवा शिक्षा माफिया के कब्जे में है जिनके लिए इंडस्ट्रीज के बंद होने के बाद सबसे ज्यादा फायदे का सौदा ये शिक्षा संस्थान ही है इसके विपरित उद्योग बंद होने के बाद बेरोजगारी चरम सीमा पर है और इसका प्रभाव सबसे ज्यादा मजदूर वर्ग विशेषतः अश्वेत लोगों पर है.  हमें यह स्मरण रखना होगा कि अमेरिका खुद तो मात्र अस्त्र-शस्त्र,  बोइंग और दवाइयां ही बनाता है जबकि अन्य सभी जीवनोपयोगी वस्तुओं का आयात करता है. उद्योग और पूंजी पर निर्मित इसकी वैश्विक अर्थव्यवस्था आज चरमरा रही है और यह विश्व महाशक्ति अपने ही बोझ के तले दबी हुई है.  अमेरिकी इतिहास में मुद्रास्फीति सबसे निचले स्तर पर पहुंच गयी है.  इससे निपटने के लिए जरुरत से ज्यादा करेंसी छाप कर मार्केट में दी गई है.  आम जनता की जरुरत के समान की कीमतें आसमान पर पहुंच चुकी है और इसका सबसे बड़ा शिकार हैं आम नागरिक, मेहनतकश आवाम और अश्वेत लोग.
   मैंने फिलाडेल्फिया में पाया कि इस ऐक नगर में ही चार तरह के अमेरिका पल रहे हैं.  पहला-एक अति सम्पन्न लोगों का जिनकी बस्तियों में स्वर्ग का आभास है.  दूसरा- मध्यम वर्ग का जिनके रहन सहन से ही उनकी स्थिति का आभास होता है.  तीसरा- निम्न आय वर्ग का जिनमे अधिकांश अश्वेत लोग है और जीवन कुछ ऐसा ही है जैसा भारत में रहने वाले स्लम आबादी का होता है. यह संख्या बहुतायत में है जबकि दूसरे स्तर की संख्या यानी मिडल क्लास अमेरीका में दुनियाभर के मुकाबले में सबसे कम है. चौथे- वे युवा हैं जो जीवन से हताश होकर नशे में डूबे हुए हैं.     नाम का एक पूरा इलाका ही ऐसे लोगों ने हथिया हुआ है.  यहां पुलिस भी है परंतु नशे को रोकने के लिए नहीं अपितु नशेड़ी लोगों को एक ही स्थान तक *महदूद*  रखने  का. यहां हर प्रकार की नशीली पदार्थ सुलभता से उपलब्ध हैं.
 और यहाँ की विडम्बना यह है कि इन नशेड़ीयो  में बड़ी तादाद गोरे लोगों की है जो इस बात का सूचक है कि व्यवस्था दरक  रहीं हैं.
    अमेरिका एक ईसाई बहुसंख्यक राज्य है और वह भी कैथोलिक के मुकाबले प्रोटेस्टेंट ईसाई धर्म राज्य.  यहां जगह-जगह अलग-अलग समुदायों के गिरिजाघर है जैसे कि हमारे हर गली-मोहल्ले में अपना अपना मन्दिर और मस्जिद.  और हाँ हमारी पुरानी व्यवस्था के मुताबिक अस्पृश्य प्रवेश विहीन धर्म स्थल की स्थिति यहां आप देख सकते हैं.  ब्लैक चर्च एक आम बात है और क्योंकि वह ब्लैक है अतः इसकी स्थिति भी इसके नाम के अनुसार ही है. अत्यंत दीन-हीन और निकृष्ट.  हमें भी दो दिन एक चर्च ऑफ एडवोकेटस में एक कार्यक्रम में शामिल होने का अवसर मिला.  बिल्कुल धूल धूसरित और उपेक्षित स्थान जबकि अन्य चर्चों में भी जाने का मौका मिला जहां व्यवस्था इसके बिल्कुल विपरित थी.
    वहीं देखने में यह भी आया कि इसकी व्यवस्था में उपेक्षा भी रियल एस्टेट और भूमि माफ़िया के ही कुकृत्य का ही षडयंत्र है कि वे चाहते हैं कि इसे किसी भी तरह से अपने कब्जे में ले लिया जाए और फिर कोई व्यवसायिक संस्थान अथवा विदेशी विद्यार्थियों के लिए आवास केंद्र बना कर खूब मुनाफा कमाया जा सके.
    बड़े शहरों में गगनचुंबी इमारतें, सड़के, उद्यान, प्राकृतिक झीलें बेशक विकास के सूचक है परंतु इन्हीं उद्यानों अथवा किसी भी खाली स्थानों पर बेघर लोगों की झुग्गियों के दर्शन एवं हर प्रमुख चौराहों पर भिखारियों की संख्या भी क्या इसी नगरीय विकास का बखान नहीं करती. भारत में तो ये आम बात है परंतु हम अपने को विकसित देश भी नहीं कहते पर यह तो अति विकासमान देश है फिर ऐसा क्यों ?
     Saturday Free School ने  दो काम हमारी आंख के जाले हटाने के किये.  एक तो यहां की सच्चाइयों को उजागर किया जिस अंधकार को अपने देश मे रखने का काम अब हमारा है और दूसरी उस रोशनी को भी ले जाने का जिसे यहां रह रहे विभिन्न देशों  के  नौजवानों  ने हमारे देश की आज़ादी की 75 वीं वर्षगांठ मना कर दी है कि दुनियाभर को रास्ता दिखाने हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने सत्य और अहिंसा का संदेश देकर किया.  जिनका मानना है कि महात्मा गांधी और मार्टिन लूथर किंग जूनियर का यह रास्ता ही सभी विश्व समस्याओं को हल करने का रास्ता है. 
  और यह ही है ,"My trip to the land of Martin Luther King Jr " का  संदेश. 
Ram Mohan Rai. 
Seattle, Washington-USA.
*MY TRIP TO THE LAND OF MAHATMA MARTIN LUTHER KING JR*

यह मेरी अमेरिका की चौथी यात्रा है.  सबसे पहले वर्ष 2014 में एक माह के लिए फिर 2016 में लगभग दो महीने के लिए, 2019 में चार माह के लिए और अब सन 2022 में लगभग  साढ़े चार महीने के लिए.  पहली बार की तीन यात्राएं लगभग पारिवारिक ही रहीं परंतु उस दौरान भी हरदम कोशिश रहीं की यहां के बारे मे ज्यादा से ज्यादा समझा जाए, यहां के लोगों से मिला जाए ताकि अपनी समझ को विकसित किया जा सके . पिछली बार की यात्रा में भारत की एक युवा शांति कर्मी देविका मित्तल के माध्यम से एक पाकिस्तानी मूल के युवा जहान चौधरी, जो कि फिलाडेल्फिया में रह कर Saturday Free School  में काम करते हैं, से परिचय प्राप्त करने का अवसर मिला.  उनसे बातचीत शुरू हुई और फिर उनके संगठन तथा उसके कार्यो के बारे मे जानकारी मिली.  बातचीत के दौरान पाया कि वे अपने स्कूल के माध्यम से महात्मा गांधी-150 के विषय पर काम कर रहें हैं. वे मार्टिन लूथर किंग जूनियर के विचारों को गांधी विचार से जोड़ कर कार्य कर रहे हैं.  मैंने किंग जूनियर का नाम तो सुना था परंतु उनके वैचारिक पक्ष से सर्वथा अनभिज्ञ था.  पर बातचीत ने ही मुझे आर्चशिमान  राजू और मेघना चंद्र का भी परिचय मिला.  ये सभी युवा अमेरीका मे या तो उच्च शिक्षा ग्रहण कर रहे थे अथवा कार्यरत थे.  ये सभी युवा विचारों से न केवल परिपक्व थे अपितु कार्यो के प्रति भी प्रतिबद्ध थे.  मेरे अमेरीका प्रवास के दौरान ही  राजू तथा मेघना अपने देश भारत गये तथा मेरे संदर्भ से  गांधी संस्थाओ में पद प्रतिष्ठा पर आरूढ़ गांधीवादियों से मिले. मैं इन सभी की गांधी विचार, विश्व शांति के प्रति समर्पण तथा शोषित वर्गों के प्रति न्याय दिलवाने के संघर्ष के जज़्बे से प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाया.  गांधी-150 वर्ष में यदि कोई सघन कार्य कर रहे थे तो वे इनके संगठन के ही साथी थे. मेरे सिएटल प्रवास के दौरान मुझसे मिलने जहां प्रसिद्ध गांधीवादी डॉ ऐस एन सुब्बाराव जी, जो एक युवा शिविर में अमेरिका में आए हुए थे, वे पधारे वहीं Saturday Free School की सदस्य आर दिव्या नायर भी आई.  दिव्या मेरे लिए काले  रंग  की दो टी शर्ट लायी थीं जिस पर महात्मा गाँधी और किंग  जूनियर के चित्र छपे थे.  मिलने आए इन दो व्यक्तियों में एक अत्यंत वृद्ध 93 वर्ष के थे वहीं दूसरी और एक अत्यंत आकर्षक युवती थी पर दोनों का अद्भुत तारतम्य था.  एक गांधी-विनोबा विचार को जीवन समर्पित करने वाला एक चिरयुवा व्यक्ति, दूसरी इसी विचार की एक जिज्ञासु.
 पर इस बार की इस तीसरी यात्रा ने दिमाग के तन्तु खोल दिए थे और एक रास्ता भी प्रशस्त किया था कि अमेरिका में आ तो गए हों पर इसे समझने के लिए इस रास्ते के दरवाजे में घुसकर ही मकसद हल हो पाएगा.  इस पूरे समय काल में अमेरिका में रह  रहे कुछ दूसरे साथियो से भी संपर्क करने का अवसर मिला.
 दीदी निर्मला देशपांडे जी मेरे जीवन मे एक नई दृष्टि देने की स्रोत रहीं हैं.  उनके माध्यम से ही विश्व शांति, राष्ट्रीय एकता, सर्वधर्म समभाव तथा पड़ोसी देशों के लोगों से अमन-दोस्ती मुहिम चला कर जोड़ने की प्रेरणा मिली थी.  उनकी मृत्यु के पश्चात उनके कार्यो को आगे बढ़ाने की जिम्मेवारी उनके तमाम साथियों पर थी.  मुझे उन्होंने न केवल अपने कार्यो से जोड़ा था वहीं उसके प्रचार-प्रसार के माध्यम अपनी पत्रिका नित्यनूतन पत्रिका से भी जोड़ा था. उनके पास संगठन भी बहुत थे और संस्थाएँ भी.  ऐसे सभी कार्यों में तिकड़म बाज़ी का अहम स्थान है परंतु मेरे लिए ये सब बिल्ली के लिए अंगूर खट्टे वाली कहावत सही साबित हुई यानी कि मैंने प्रयास किए परंतु सफ़लता नहीं प्राप्त हो सकीं.  अंततः गांधी ग्लोबल फैमिली में काम करने का फैसला किया और इसे ही साधन बनाया निर्मला दीदी की आकांक्षाओं के अनुरूप कार्य करने का.
    मेरा जन्म एक ऐसे माता- पिता के घर हुआ जिनका साम्प्रदायिक सद्भाव में यकीन था.  वे समन्वय वादी थे.  पिता एक निकट के गांव के एक अशिक्षित पौराणिक परिवार से थे जबकि माता एक शहरी शिक्षित प्रगतिशील आर्य समाजी परिवार से. परंतु दोनों की राजनीतिक विचारधारा एक थी -गांधी-नेहरू वादी कॉंग्रेस के साथ.  मेरी माँ अपने जीवनकाल में दो बार जेल भी गयी थी. एक बार सन 1942 में गांधी जी के भारत छोड़ो आंदोलन में तथा दूसरी बार 1978 में इंदिरा गांधी जी की गिरफ्तारी के विरोध में.  यह वह दौर था जब कॉंग्रेस और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का आपसी सहयोग था और वे मिल कर एक न्यूनतम कार्यक्रम के अन्तर्गत काम कर रहीं थीं.  मेरे शिक्षक दीप चन्द्र निर्मोही 
कम्युनिस्ट पार्टी की विचारधारा से प्रभावित थे और मैं उनसे.  और यह उनकी ही प्रेरणा थी कि मैं अपने परिवार की विचारधारा से न जुड़ कर ऑल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन के माध्यम से कम्युनिस्ट पार्टी में आया.  यहीं मेरे नज़रिया में वैज्ञानिक चिंतन की शुरुआत हुई.  एक भारतीय परिपेक्ष्य में ढले एक युवा मार्क्सवादी बनने की जद्दोजहद.  कम्युनिस्ट पार्टी में आकर मुझे खुद को समझने और सीखने का मौका मिला.  मैंने न केवल देश में विद्यार्थियों के वैचारिक कक्षाओं में पढ़ने का अवसर मिला वहीं सोवियत संघ में जाकर उसे व्यवहारिक रूप से जानने का अवसर भी मिला.  बेशक वहां समाजवादी प्रयोग असफल हुआ है परंतु मेरा मानना है कि प्रयोग असफल हुआ है न कि समाजवाद.  यह वह भी समय था कि जब सीपीआई में कामरेड ऐस ए डांगे की के नेतृत्व में चल रहीं पार्टी लाइन कमजोर पड़ गयी थी .इसी दौरान वह दिन भी आया जब पार्टी संस्थापक को ही पार्टी से निष्कासित कर दिया गया और इस नियति के शिकार हम भी हुए. पहले भगत सिंह सभा बना कर और फिर अन्य संगठनों में काम करते हुए हम वापिस अपनी मातृ संस्था आर्य समाज मे वापिस आए और उन्होंने भी अपने इस खोए हुए सदस्य को खुले हृदय से ग्रहण किया और इस तरह मैं भारत के सबसे पुरानी आर्य समाज, पानीपत का लगातार 6 वर्षो तक मंत्री पद पर रहा और वहीं उससे सम्बन्धित आर्य शिक्षण संस्थानों को लगातार 12 वर्षों तक प्रबन्धक रहा. मेरा यह  भी सौभाग्य है कि इसी दौरान मुझे अरुणा आसिफ़ अली, सुभद्रा जोशी,  शहीद भगत सिंह की माता, भाई व अन्य सदस्यों, दुर्गा भाभी और अंत में निर्मला देशपांडे तथा स्वामी अग्निवेश के साथ काम करने का भी सौभाग्य मिला.
     घूमने-फिरने का मैं शौकीन रहा हूं.  खुद अपने तौर पर और दीदी निर्मला देशपांडे जी के साथ मुझे पूरे भारत तथा दक्षिण एशिया के देशों में घूमने का भरपूर मौका मिला है.  मैं अपनी आठ बार की पाकिस्तान  यात्रा में से उनके साथ पांच बार पाकिस्तान गया हूं.
     अमेरिका आने का मुझे उतना ही आकर्षण और उत्साह रहा है जितना कि किसी अन्य भारतीय का.  वह इसके बावजूद भी कि हम अपनी जवानी से उसे गालियां देते रहे परंतु अपने आकर्षण को न रोक सके.  हर भारतीय की तरह हम उसे एक अत्यंत सम्पन्न देश मानते हैं अर्थात जिसके पास वह हर सुख सुविधा है जिसकी कल्पना हम अपने विचारों और सपनों में स्वर्ग की करते हैं.  कोई भी भारतीय जब अमेरिका से लौट कर आता है तो हमारा भाव ऐसा रहता है कि वह किसी परीलोक से आया हो जब कि उसका भाव भी किसी भी भारतीय से अलग ही होता है.  उसके किस्से- कहानियाँ अजूबे ही होते हैं.  वह तो डॉलर में कमाता है यानी हमारे 80₹ का एक डॉलर. उस हिसाब से तो कोई अगर 500 डॉलर भी एक महीने में कमाता हैं तो 40 हज़ार रुपये प्रतिमाह.
     अमेरिका आए भारतीयों का भी इसके अनुसार ही आचरण है.  ज्यादातर वे भारतीय हैं जो आई टी कम्पनियों में उच्च पदों पर हैं तथा महिने के हजारों डॉलर कमाते है.  अनेक तो लाखों.  अमेरीकन तथा अन्य यूरोपीय देशों के लोगों के मुकाबले एशियन लोगों ज्यादा हुनरमन्द तथा कुशाग्र बुद्धी है इसलिए पूरी अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर इन्हीं लोगों का वर्चस्व है.  पूरी मार्केट भी एशियन समान से ही पट हुई है खासकर चीनी और कोरियन समान से. कयी मामलों मे ये अमेरिकियों से भी आगे हैं,पर ऐसा नहीं है कि इन देशों से मजदूर और अन्य ऐसे ही पेशे वाले लोग नहीं आए. बिल्कुल ये है जो या तो बेहतर रोजगार की तलाश में आए अथवा कथित कबूतर बाजों के अड्डे चढ़ कर आ गए और अब चाह कर भी वापसी का कोई रास्ता नहीं है. मैं यहां भारतीय लोगों की ही चर्चा करूंगा.  उनके अपने देश के मुकाबले में आमदनी ज्यादा है इसलिए रहन-सहन भी अच्छा है. अनेक को नागरिकता भी मिल गयी है और कुछ को ग्रीन कार्ड और बाकी लाइन में हैं.  यहां के प्रत्येक रहवासी को मुफ्त 12 वीं तक कि शिक्षा है अतः वे इस न्यूनतम शिक्षा के भी अधिकारी हैं परंतु उच्च शिक्षा न केवल प्राइवेट हाथों में हैं बल्कि अत्याधिक महंगी और दुर्लभ है. पर सम्पन्न भारतीय लोग स्वयं को किसी भी अमेरीकी से कमतर नहीं मानते जबकि अमेरीकी लोगों की सोच इससे भिन्न है.  अमेरीका फर्स्ट का मतलब यह भी है कि गैर अमेरिकी लोग इस देश मे उनके मुकाबले दोयम हैं.
 अब ऐक दूसरा पक्ष भी रखना चाहूँगा कि अफ्रीकन-अमेरिकन अश्वेत लोगों की स्थिति के बारे में.  आपको स्थान-स्थान पर *Black lives matter* के बोर्ड और बैनर लगे मिलेंगे परंतु क्या सचमुच उनके प्रति समानता एवं सम्मान का व्यवहार है, यह शोचनीय विषय है.  बेरोजगारी में इनकी संख्या सबसे ज्यादा है.  अस्पृश्यता का आलम यह है कि श्वेत और अश्वेत बस्तियां एक साथ न है मात्र कुछ अपवाद छोड़ कर. बेरोजगारी और गरीबी की वज़ह से अपराध दर भी इन लोगों में ज्यादा है और यदि पूर्ण आकलन करें तो जेलों में इनकी संख्या अधिक है.
अमेरिकी आजादी के 365 साल के इतिहास इन अश्वेत लोगों की उपस्थिति जरूर बदली है परंतु उपस्थिति में कोई खास बदलाव नहीं आया है. राष्ट्रपति बराक ओबामा अथवा कमला हैरिस के उपराष्ट्रपति बनने से यह मानने लगे कि समूचा ब्लैक समुदाय प्रगति कर गया है तो यह सच नहीं है.  ऐसे मामले में हम भारतीयों की स्थिति बड़ी ही विचित्र बन जाती है.  हम अश्वेत लोगों के साथ नहीं खड़े होते क्योंकि हम ऐसे मामलों मे रंग  के हिसाब  से खुद को गोरों के निकट मानते है .दूसरी ओर गोरे हमें रंग मे अपने निकट न मान कर अश्वेत लोगों  जैसा मानते है और हम काले-पीले के चक्कर में  न इधर के हैं और न ही उधर के. अपनी संस्कृति, सभ्यता, इतिहास और संघर्ष से अनभिज्ञ होते हुए ही हमारी यह स्थिति हैं. महात्मा गाँधी हमें भारतीय मुद्रा रुपये पर तो छपे अच्छे लगते है और अपनी राष्ट्रीय पहचान उनके रूप मे भी, इसके इलावा हमे न तो उनसे कोई मतलब है और न ही कोई सरोकार.  नेहरू, इंदिरा, पटेल,सुभाष आदि के बारे मे हमसे ज्यादा शायद ये काले-गोरे जानते है.
    ऐसा  नहीं  कि भारतीय अपने देश से प्यार नहीं करते.  स्वतंत्रता दिवस आदि राष्ट्रीय पर्व खूब उत्साहपूर्ण मनाते हैं.  धार्मिक त्यौहार भी खूब मनाते हैं.  न केवल भारतीय मन्दिरों को भरपूर चंदा देते हैं वहीं इस देश मे भी कयी बड़े-छोटे मन्दिर और देवालय भी बनाये हैं.  अपने बच्चों को भारतीय चिंतन से जोड़ने के लिए समय-समय पर शिविर भी लगते हैं.  भारतीय नेताओं तथा राजनीति में भी दिलचस्पी हैं परंतु वापिस भारत आने का सवाल आते ही एक अज़ीब तरह की नकारात्मक चुप्पी छा जाती हैं.  भारतीयता तो चाहिए परंतु भारत नहीं.  इस बार की यात्रा ने इस पहलू को भी सीखने-समझने का अवसर मिला.
    मैंने जैसे पहले कहा कि हाई स्कूल तक की शिक्षा बिल्कुल निशुल्क हैं परंतु उच्च शिक्षा में धनाढ्य लोगों का आरक्षण है. यह महँगी ही नहीं अपितु अनुपलब्ध भी है.  बड़े बड़े विश्वविद्यालय कॉर्पोरेट अथवा शिक्षा माफिया के कब्जे में है जिनके लिए इंडस्ट्रीज के बंद होने के बाद सबसे ज्यादा फायदे का सौदा ये शिक्षा संस्थान ही है इसके विपरित उद्योग बंद होने के बाद बेरोजगारी चरम सीमा पर है और इसका प्रभाव सबसे ज्यादा मजदूर वर्ग विशेषतः अश्वेत लोगों पर है.  हमें यह स्मरण रखना होगा कि अमेरिका खुद तो मात्र अस्त्र-शस्त्र,  बोइंग और दवाइयां ही बनाता है जबकि अन्य सभी जीवनोपयोगी वस्तुओं का आयात करता है. उद्योग और पूंजी पर निर्मित इसकी वैश्विक अर्थव्यवस्था आज चरमरा रही है और यह विश्व महाशक्ति अपने ही बोझ के तले दबी हुई है.  अमेरिकी इतिहास में मुद्रास्फीति सबसे निचले स्तर पर पहुंच गयी है.  इससे निपटने के लिए जरुरत से ज्यादा करेंसी छाप कर मार्केट में दी गई है.  आम जनता की जरुरत के समान की कीमतें आसमान पर पहुंच चुकी है और इसका सबसे बड़ा शिकार हैं आम नागरिक, मेहनतकश आवाम और अश्वेत लोग.
   मैंने फिलाडेल्फिया में पाया कि इस ऐक नगर में ही चार तरह के अमेरिका पल रहे हैं.  पहला-एक अति सम्पन्न लोगों का जिनकी बस्तियों में स्वर्ग का आभास है.  दूसरा- मध्यम वर्ग का जिनके रहन सहन से ही उनकी स्थिति का आभास होता है.  तीसरा- निम्न आय वर्ग का जिनमे अधिकांश अश्वेत लोग है और जीवन कुछ ऐसा ही है जैसा भारत में रहने वाले स्लम आबादी का होता है. यह संख्या बहुतायत में है जबकि दूसरे स्तर की संख्या यानी मिडल क्लास अमेरीका में दुनियाभर के मुकाबले में सबसे कम है. चौथे- वे युवा हैं जो जीवन से हताश होकर नशे में डूबे हुए हैं.     नाम का एक पूरा इलाका ही ऐसे लोगों ने हथिया हुआ है.  यहां पुलिस भी है परंतु नशे को रोकने के लिए नहीं अपितु नशेड़ी लोगों को एक ही स्थान तक *महदूद*  रखने  का. यहां हर प्रकार की नशीली पदार्थ सुलभता से उपलब्ध हैं.
 और यहाँ की विडम्बना यह है कि इन नशेड़ीयो  में बड़ी तादाद गोरे लोगों की है जो इस बात का सूचक है कि व्यवस्था दरक  रहीं हैं.
    अमेरिका एक ईसाई बहुसंख्यक राज्य है और वह भी कैथोलिक के मुकाबले प्रोटेस्टेंट ईसाई धर्म राज्य.  यहां जगह-जगह अलग-अलग समुदायों के गिरिजाघर है जैसे कि हमारे हर गली-मोहल्ले में अपना अपना मन्दिर और मस्जिद.  और हाँ हमारी पुरानी व्यवस्था के मुताबिक अस्पृश्य प्रवेश विहीन धर्म स्थल की स्थिति यहां आप देख सकते हैं.  ब्लैक चर्च एक आम बात है और क्योंकि वह ब्लैक है अतः इसकी स्थिति भी इसके नाम के अनुसार ही है. अत्यंत दीन-हीन और निकृष्ट.  हमें भी दो दिन एक चर्च ऑफ एडवोकेटस में एक कार्यक्रम में शामिल होने का अवसर मिला.  बिल्कुल धूल धूसरित और उपेक्षित स्थान जबकि अन्य चर्चों में भी जाने का मौका मिला जहां व्यवस्था इसके बिल्कुल विपरित थी.
    वहीं देखने में यह भी आया कि इसकी व्यवस्था में उपेक्षा भी रियल एस्टेट और भूमि माफ़िया के ही कुकृत्य का ही षडयंत्र है कि वे चाहते हैं कि इसे किसी भी तरह से अपने कब्जे में ले लिया जाए और फिर कोई व्यवसायिक संस्थान अथवा विदेशी विद्यार्थियों के लिए आवास केंद्र बना कर खूब मुनाफा कमाया जा सके.
    बड़े शहरों में गगनचुंबी इमारतें, सड़के, उद्यान, प्राकृतिक झीलें बेशक विकास के सूचक है परंतु इन्हीं उद्यानों अथवा किसी भी खाली स्थानों पर बेघर लोगों की झुग्गियों के दर्शन एवं हर प्रमुख चौराहों पर भिखारियों की संख्या भी क्या इसी नगरीय विकास का बखान नहीं करती. भारत में तो ये आम बात है परंतु हम अपने को विकसित देश भी नहीं कहते पर यह तो अति विकासमान देश है फिर ऐसा क्यों ?
     Saturday Free School ने  दो काम हमारी आंख के जाले हटाने के किये.  एक तो यहां की सच्चाइयों को उजागर किया जिस अंधकार को अपने देश मे रखने का काम अब हमारा है और दूसरी उस रोशनी को भी ले जाने का जिसे यहां रह रहे विभिन्न देशों  के  नौजवानों  ने हमारे देश की आज़ादी की 75 वीं वर्षगांठ मना कर दी है कि दुनियाभर को रास्ता दिखाने हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने सत्य और अहिंसा का संदेश देकर किया.  जिनका मानना है कि महात्मा गांधी और मार्टिन लूथर किंग जूनियर का यह रास्ता ही सभी विश्व समस्याओं को हल करने का रास्ता है. 
  और यह ही है ,"My trip to the land of Martin Luther King Jr " का  संदेश. 
Ram Mohan Rai. 
Seattle, Washington-USA.
****"""*
*My trip to the land of Mahatma Martin Luther King Jr*
 
This is my fourth visit to America. First for one month in the year 2014, then for about two months in 2016, for four months in 2019 and now for about four and a half months in 2022. The first three trips were almost family, but even during that time every effort was made to understand more and more about here, to meet the people here so that their understanding could be developed. The last visit provided an opportunity to get acquainted with a Pakistani-origin youth, Jahan Choudhary, who lives in Philadelphia and works at Saturday Free School, through Devika Mittal, a young peacekeeper from India. Talks started with him and then information was received about his organization and its work. During the conversation, it was found that he is working on the subject of Mahatma Gandhi-150 through his school. They are working by linking the ideas of Martin Luther King Jr. to Gandhi's thought. I had heard the name of King Jr. but was completely ignorant of his ideological side. But the conversation also gave me the introduction of archishman Raju and Meghna Chandra. All these youth were either pursuing higher education or were working in America. All these youths were not only mature with thoughts but were also committed towards actions.
     I could not live without being impressed by the spirit of all of them in Gandhi's thoughts, devotion to world peace and struggle for justice for the oppressed classes. If Gandhi was doing any intensive work in 150 years, then he was a partner of his organization. During my stay in Seattle, Dr. ace N. Subbarao, a famous Gandhian who had come to America at a youth camp, also came to meet me, Saturday Free School member R. Divya Nair. Divya took me two black t-s. Shirt on which pictures of Mahatma Gandhi and King Jr were printed. Of these two people who came to meet, one was very old, 93 years old, while the other was a very attractive young woman, but both of them had a wonderful compatibility. One a young man who devoted his life to the Gandhi-Vinoba idea, the other a student of the same idea.
              I was born to parents who believed in communal harmony. He was a coordinator. Father was from an uneducated mythological family of a nearby village while mother from an urban educated progressive Arya Samaj family. But the political ideology of both was the same - with the Gandhi-Nehru wadi Congress. My mother also went to jail twice in her lifetime. Once in the Quit India Movement of Gandhiji in 1942 and again in 1978 against the arrest of Indira Gandhi. this was the period when
 The Congress and the Communist Party of India had mutual cooperation and they were working together under a minimum program. My teacher Deep Chandra Nirmohi
 I was influenced by the ideology of the Communist Party and I was inspired by him. And it was his inspiration that instead of joining the ideology of my family, I joined the Communist Party through the All India Students Federation. This is where scientific thought started in my view. Struggling to become a young Marxist adapted to an Indian perspective. Coming to the Communist Party, I got an opportunity to understand myself and learn. I not only got the opportunity to study in the conceptual classes of the students in the country, but I also got the opportunity to go to the Soviet Union and get to know it practically. Of course there the socialist experiment has failed, but I believe that the experiment has failed, not socialism. This was also the time when the party line in the CPI under the leadership of comrade ace dange ki weakened. Meanwhile, the day also came when the party founder was expelled from the party and we are also the victims of this destiny. Happened. First by forming the Bhagat Singh Sabha and then working in other organizations, we came back to our mother organization Arya Samaj and they also accepted this lost member with an open heart and thus I joined India's oldest Arya Samaj, Panipat. He remained in the post of minister for 6 consecutive years and was the manager of the Arya educational institutions related to it for 12 consecutive years. I am also fortunate to have had the privilege of working with Aruna Asif Ali, Subhadra Joshi, Shaheed Bhagat Singh's mother, brother and other members, Durga Bhabhi and finally Nirmala Deshpande and Swami Agnivesh.
      But this fourth visit this time had opened the brain and also paved a way that if you have come to America, but to understand it, the purpose will be solved only by entering the door of this path. During this entire time period, I also got an opportunity to contact some other friends living in America.
                Didi Nirmala Deshpande ji has been the source of giving a new perspective in my life. It was through him that the inspiration for world peace, national unity, universal harmony and peace and friendship with the people of neighboring countries was achieved. After his death, the responsibility of carrying forward his work was on all his companions. Not only did he connect me with his work, but through its promotion, he also connected his magazine Nityanutan Patrika. He had many organizations as well as institutions. In all such works, gimmickry has an important place, but for me all these proverbs like grapes sour for cats proved to be true, that is, I tried but could not get success. Finally decided to work in Gandhi Global Family and made it the only means to work according to the aspirations of Nirmala didi.
              I am fond of traveling. As myself and with Didi Nirmala Deshpande ji, I have got a lot of opportunity to travel all over India and countries of South Asia. I have accompanied him to Pakistan five times out of my eight visits to Pakistan.
     I have been as much fascinated and excited to come to America as any other Indian. Despite that we kept abusing him from our youth but could not stop our attraction. Like every Indian, we consider it to be a very prosperous country, that is, which has every comfort that we imagine in our thoughts and dreams of heaven. When any Indian comes back from America, then our feeling remains that he has come from some fairyland, while his feeling is also different from any Indian. His tales-stories are wonders. He earns in dollars i.e. one dollar of our 80 ₹. According to that, if someone earns even 500 dollars in a month, then 40 thousand rupees per month.
   Indians who came to America also behave accordingly. Most of them are Indians who are in high positions in IT companies and earn thousands of dollars a month. Many millions. Asian people are more intelligent and intelligent than the people of American and other European countries, so these people dominate the entire American economy. The entire market is also filled with Asian equities, especially Chinese and Korean. In many respects, they are even ahead of the Americans, but it is not that laborers and people with other similar professions did not come from these countries. Exactly it is those who either came in search of better employment or have climbed the so called pigeon hawks' base and now there is no way to return even if they want. I will only discuss the Indian people here. The income is more in comparison to their own country, so the living conditions are also good. Many have also got citizenship and some have green cards and others are in line. Every resident here has free education till 12th, so they are also entitled to this minimum education, but higher education is not only in private hands but is also very expensive and rare. But the rich Indian people do not consider themselves less than any American, while the thinking of the American people is different from this. America First also means that non-Americans are second to them in this country.
     Now I would also like to put another side that about the condition of African-American black people. You will find boards and banners of *Black lives matter* placed everywhere, but is there really equality and respect towards them, this is a deplorable matter. Their number is highest in unemployment. The condition of untouchability is that there are no white and black settlements together, except for a few exceptions. Due to unemployment and poverty, crime rate is also high among these people and if full assessment is done then their number is more in jails.
   In the history of 365 years of American independence, the appearance of these black people has definitely changed, but there has been no significant change in the appearance. This is not true if President Barack Obama or Kamala Harris became Vice President to believe that the entire Black community has progressed. In such a case, the position of us Indians becomes very strange. We do not stand with black people because we consider ourselves closer to whites according to color in such matters. On the other hand, whites consider us as black people by not considering us in color and we are not in the black-yellow affair. Not from here nor there. We have this condition only while being ignorant of our culture, civilization, history and struggle. We like Mahatma Gandhi printed on the Indian currency rupee and our national identity in his form also, apart from this we have neither any meaning nor any concern with him. These blacks and whites probably know more about Nehru, Indira, Patel, Subhash etc. than us.
   It is not that Indians do not love their country. National festivals like Independence Day etc. are celebrated with great enthusiasm. Religious festivals are also celebrated a lot. Not only do Indians give a lot of donations to temples, but in this country also many big and small temples and temples have been built. Camps are also organized from time to time to engage your children with Indian thought. Interested in Indian leaders and politics too, but when the question of coming back to India comes, a strange negative silence prevails. Indianness is needed but India is not. The visit this time gave an opportunity to learn and understand this aspect as well.
     It is not that Indians do not love their country. National festivals like Independence Day etc. are celebrated with great enthusiasm. Religious festivals are also celebrated a lot. Not only do Indians give a lot of donations to temples, but in this country also many big and small temples and temples have been built. Camps are also organized from time to time to engage your children with Indian thought. Interested in Indian leaders and politics too, but when the question of coming back to India comes, a strange negative silence prevails. Indianness is needed but India is not. The visit this time gave an opportunity to learn and understand this aspect as well.
     Like I said earlier that education up to high school is absolutely free but there is reservation of rich people in higher education. It is not only expensive but also unavailable. Big universities are in the possession of corporate or education mafia, for whom after the closure of the industries, it is the education institution that has the most profit, on the contrary, after the closure of the industry, unemployment is at its peak and its impact is the most for the working class, especially the blacks. is on the people. We have to remember that America itself only makes weapons, boeing and medicines while importing all other life-uses. Its global economy built on industry and capital is collapsing today and this world superpower is buried under its own burden. Inflation has reached the lowest level in US history. To deal with this, more currency than required has been printed and given in the market. The prices of the goods needed by the general public have reached the sky and the biggest victims of this are the common citizens, the working people and the black people.
                    I found in Philadelphia that there are four types of America growing up in this one city. First - one of the very rich people in whose settlements there is a feeling of heaven. Second- Those of the middle class whose living conditions give an impression of their condition. Third- The low-income group in which most of the black people are there and the life is similar to that of the slum population living in India. This number is plentiful, while the number of the second level, ie middle class, is the lowest in America compared to the world. Fourth- They are youths who are intoxicated by being frustrated with life. An entire area named after such people has been captured. There is a police here too, but not to stop the drugs, but to keep the drug addicts at one place . All types of intoxicants are easily available here.
 And the irony here is that these addicts. There is a large number of white people in it, which is an indicator that the system is breaking down.
                America is a Christian majority state and that too protestants Christianity as compared to catholics state. There are churches of different communities here, such as our own temple and mosque in every street and neighborhood. And yes, according to our old system, you can see the status of a religious place without untouchable entry here. The Black Church is a common practice, and because it is Black, it has the same status as its name. Very lowly and mean. We also had the opportunity to attend a program in a Church of Advocates for two days. Absolutely dusty and neglected place, while there was a chance to visit other churches also where the system was completely opposite.
 It was also seen that neglect in its system is also a conspiracy of the misdeeds of real estate and land mafia that they want it to be in their possession by any means. To be taken in and then by making a commercial institution or housing center for foreign students, a lot of profit can be made.
    Skyscrapers buildings, roads, gardens, natural lakes in big cities are certainly indicators of development, but in these gardens or any empty places, the sight of the slums of homeless people and every major square But the number of beggars also does not speak of this urban development. This is a common thing in India, but we do not even call ourselves a developed country, but it is a very developing country, then why?
  Saturday Free School did two things to remove the webs of our eyes. One is to expose the truths here, the task of keeping the darkness in our country is now ours and secondly to carry that light which the youth of different countries living here have celebrated the 75th anniversary of our country's independence. That our Father of the Nation Mahatma Gandhi did it by giving the message of truth and non-violence to show the way to the world. Those who believe that this path of Mahatma Gandhi and Martin Luther King Jr. is the way to solve all world problems.
   And that is the message of "My trip to the land of Martin Luther King Jr".
 Ram Mohan Rai.
 Seattle, Washington-USA.

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