Suhana Safar-23 (family get-together with family of Meraj Akhtar at Utrecht)
लॉ कॉलेज में मेरे सहपाठी, मित्र और साथी राशिद जमील और मेरी पिछले 45 वर्षो से दोस्ती है । वे सहारनपुर के एक सीनियर प्रतिष्ठित वकील है तथा सामाजिक सरोकार से जुड़े व्यक्ति है । वे ,अशोक शर्मा, संजय गर्ग और मैं हमेशा साथ रहते हुए ऑल इण्डिया स्टूडेंट्स फेडरेशन में सक्रिय रहते थे । एक बार लॉ फैकल्टी के चुनावों में वे उपाध्यक्ष पद पर तथा मैं सचिव पद पर ए आई एस एफ के उम्मीदवार के रूप में चुनाव भी लड़े। हमारे मुकाबले कथित जातिवादी ग्रुप के कैंडिडेट थे जिनके पास ताकत और पैसे की कमी भी नही थी और हम जेब खर्च से मुश्किल से 50-100 रूपये बचा कर लड़ने वाले ,दूसरी और किसी को मेरी जाति का पता नही था और वे एक मुस्लिम जिनकी अकेली चुनाव जीतने की स्थिति नही थी । पर हम शिक्षा और संघर्ष के मुद्दे को घोषणा पत्र बना कर लड़े और यह क्या हम दोनों ही भारी मतों से जीते। उस समय में मेरी जाति के काफी स्टूडेंट्स भी लॉ कॉलेज में थे परंतु उन्हें मेरी जाति का तब पता चला जब मेरे बहनोई श्री विजय पाल सैनी ,एडवोकेट कॉलेज में आए । यह स्टूडेंट्स फेडरेशन और हमारे साथियों संजय गर्ग और अशोक शर्मा का ही जलवा था कि हम चुनाव जीते ।
समय बदला ,मैं अपने शहर पानीपत आ गया ,राशिद भाई सहारनपुर में वकालत करने लगे ,अशोक सुप्रीम कोर्ट में चले गए और संजय राजनीति में पर खुशी यह रही कि सभी ने अपनी अपनी जगह कामयाबी और शोहरत हासिल की । 45 साल कोई कम नहीं होते पर इस दौरान भी हम अपने अपने कामों में व्यस्त रहते हुए भी कभी अलग नहीं रहे । एक दूसरे की खुशी-गमी में शामिल होना और लगातार बातचीत करते रहने से ऐसा अहसास ही नही हुआ कि अब हम भी सीनियर सिटीजन हो गए है । आज भी जब एक दूसरे से मिलते है तो लगता है की अभी भी स्टूडेंट ही हैं ।
राशिद भाई से एक दिन मोबाइल फोन पर बात करते हुए मैने उन्हे कहा कि मैं अपने बेटे के पास एमस्टेर्डम जा रहा हूं तो वे खुश होकर बोले कि उनकी बेटी फराह भी वहीं है,उससे जरूर मिल कर आना । विदेश में यदि अपने मिल जाए तो बहुत ही सकून मिलता है । उन्होंने मुझे फराह और उनके पति मेराज का नंबर भेजा और फिर उनसे बात हुई तो खुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा । हमारी उनसे मुलाकात की खबर जंगल की आग की तरह फैल गई थी । एक दिन संजय से बात हुई तो वह भी पूछ रहे थे कि राशिद की बेटी के घर हो आए ? मेरा जवाब था कि बस बुलावे का इंतजार है । इधर भी ईद मुबारक के मौके की इंतजार थी । और हमें आज मौका मिल गया कि हम बेटी के घर जाए।
बेटी -दामाद के घर जा रहे थे दिमाग में सोच थी कि इंडिया तो है नही कि हलवाई की दुकान पर गए और तुलवा कर मिठाई ले आए । पर हमने निश्चय किया कि घर की ही कोई मीठी चीज बना कर ले जाए और ईद मुबारक करें ।
घर में घुसते ही बेटी फराह और उनकी सासु मां नुसरत जिलानी ने बहुत ही आत्मीयता और स्नेह भाव से खैर मकदम किया । और फिर हो गया बातों का सिलसिला। हमारा दोहता दानिहाल तो अपनी खुशी काबू ही नही कर पा रहा था । फिल्म का एक गीत "बच्चे मन के सच्चे " सचमुच आज सार्थक हो रहा था ।
और हम पहुंच गए बेटी फराह के एमेस्ट्रेडम से 30 किलोमीटर दूर ऐतिहासिक नगर उतरेच्ट में । जहां हमारे जाने की चाहत के अतिरिक्त मेज़बान की भी उत्सुकता थी । घर से चलने से पहले सहारनपुर से राशिद साहब का भी फोन आया और उन्होंने अपनी खुशी जाहिर की । हमारे तीस मिनट के सफर के दौरान ही दामाद मेराज साहब के भी बार बार मैसेज आ रहे थे जिसमे वे हमे रास्ता बताते हुए कह रहे थे कि कोई दिक्कत हो तो इतिलाह करे । खैर यह इस बात का सूचक थी कि मेज़बान हमारा किस बेसब्री से इंतजार कर रहा है । हमारे पहुंचते ही वे अपने घर की गली में आ गए और फिर आदर पूर्वक अपने घर ले गए । उनकी गोद में उनका ढाई साल का प्यारा सा बेटा दानियाल भी था, जो मिलते ही खुशी का इजहार कर रहा था की आज उसके नानू,नानी और मामू आए है।
मेराज अख्तर साहब ने कहा कि क्यों न उनके घर के पास की नहर के किनारे घूम आया जाए । मुझे उनकी तजवीज अच्छी लगी फिर हम निकल पड़े । हमारे आगे आगे दानियाल अपनी बेबी साइकिल पर हमारा पथ प्रदर्शन कर रहा था । इस छोटी सी उम्र में भी वह अपनी चलने की परिधि ,रफ्तार और सुरक्षा से वाकिफ था ।
मेराज साहब हमे कुछ दूर पुल तक ले जाना चाहते थे और हम भी उनके साथ बौद्धिक चर्चा में इतने मशगूल थे कि दूरी का अंदाजा ही नही हो रहा है। बहुत ही संजीदा और खुशदिल नौजवान है । जिसके पास अनेक देशों में शिक्षा और काम का ही अनुभव नहीं अपितु ज्ञान का भी भंडार है । जिससे देश - विदेश की हर प्रकार से राजनीति,समाज और संस्कृति के संवाद को किया जा सकता है । मैं तो इस युवक की प्रतिभा का कायल हुआ ।
और हम पहुंच गए Rijnkanaal नदी के किनारे । यह नदी इस इलाके की यातायात और व्यापारिक दोनों दृष्टि से महत्वपूर्ण है। रॉटरडैम से लंदन तक इसी के माध्यम से सभी वायवसायिक वस्तुओं की आवाजाही होती है । इसके तट भी बहुत खूबसूरत और रमणीय है ।
कुछ दूर चलते ही मुझे एक जाने पहचाने शख्स की मूर्ति दिखाई दी और पास जाकर तो प्रसन्नता का ठिकाना नहीं रहा जब पाया कि यह तो हमारे राष्ट्रपिता बापू की प्रतिमा को है, जिसे सूरीनाम , भारत और स्थानीय लोगों ने बिना किसी सरकारी मदद के लगवाया है । इसे देख कर मेरे ज़हन में बार बार सिर्फ एक ही नारा उछल रहा था कि "हर घर से गांधी निकलेगा" ।
हमे उनके घर से निकले एक घंटा होने को था और वहां से मेराज साहब को बार बार फोन आ रहे थे की खाना लग चुका है अब आ जाए पर हम तो इस रमणीय स्थल पर और अधिक भ्रमण करना चाहते थे । पर वापिस एम्स्टर्डम भी लौटना था ।
घर पहुंच कर मेज़ पर खाना लगा दिया गया था । बहुत ही लज़ीज़ मेरे पसंदीदा दही भल्ले, छोले ,शाही पनीर सजाए गए थे । हम खाना खा रहे थे साथ साथ बेटी फराह और उनकी सासु मां इसके बनाने की विधि भी बता रही थी और साथ साथ नाती दानियाल की बाल लीला के दर्शन भी हों रहे थे । मैने फराह की दादी , मां और अब उनके यानी तीन पीढ़ी के बनाए गए खाने का लुफ्त उठाया है । तीनों ने अपने अंदाज में हमारे लिए ख़ास शाकाहारी भोजन बनाया है । जैसे जैसे पीढियां बढ़ी वैसे वैसे स्वाद भी बढ़े है और यही तो एक से दूसरे में पदार्पण ।रात के साढ़े दस बजे चुके थे । खाना खा कर पेट तो भरा था पर मन नहीं और इसी भाव से हमने उनसे भाव पूर्ण विदा ली ।
हम सभी को यह बिछड़ना कतई अच्छा नहीं लग रहा था और हमारी इस व्यथा का इज़हार दानियाल रो रो कर रहा था ।
और फिर उसे रोता छोड़ कर बेमन से हमने अल्लाह हाफिज कर विदाई ली ।
हाली साहब ने फरमाया है -
"यही है इबादत यही दीनों- ईमां , की काम आए इंसा के इंसा"।
बहुत बहुत शुक्रिया जिलानी आपा, दोहता दानियाल , बेटी फराह और कुंवर साहब मेराज अख्तर।
Ram Mohan Rai.
Utrecht, Netherlands.
01.07.2023
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