My trip to the USA -4
My trip to the USA -3.
सुहाना सफर
अमेरिका की इस बार की यात्रा में सन 1980 में हुई अपनी सोवियत संघ की यात्रा का जिक्र किए बिना इसका कोई मायना नही है ।
उस दौरान मुझे और अन्य साथियों को संयुक्त सोवियत संघ के मध्य एशिया के प्रमुख नगरों ताशकंद, बुखारा और समरकंद के अतिरिक्त राजधानी मॉस्को में लगभग आठ माह रहने का अवसर मिला था । उसी समय वहां के विभिन्न गांवों में जाने का खूब अवसर मिला । कपास चुगाई के दिनों में वहां के सभी विद्यार्थी आस पास के गांवों में जाकर कपास चुगाई के लिए जाते थे । इसके बदले उन्हें पैसे मिलते और इससे वे अपने साल भर का जेब खर्च इकठ्ठा करते ,क्योंकि पढ़ाई तो प्राइमरी लेवल से यूनिवर्सिटी लेवल की सभी को मुफ्त ही थी । हम भी इन्हीं के साथ जाते और एक दो दिन रह कर कमाई करते । हमारे रहने और खाने की पूरी व्यवस्था ग्राम पंचायत ही करती थी ।
उस समय भारत से हजारों विद्यार्थी उच्च शिक्षा के लिए सोवियत संघ जाते थे ,जिन्हे भेजने का काम भारत सरकार तथा अन्य मैत्री संस्थाओं की ओर से किया जाता था । ये सभी देश के मजदूर ,किसानों और ऐसे वर्गों के बच्चे होते थे, जिनके लिए ऐसी शिक्षा एक दिवास्वपन थी । सोवियत संघ की लगभग हर यूनिवर्सिटी में भारतीय छात्रों की संख्या मौजूद थी जो यहां की व्यवस्था के अनुसार फ्री एजुकेशन प्राप्त कर अपने देश वापिस आते । मास्को में एक पैट्रिस लुलुम्बा फ्रेंडशिप यूनिवर्सिटी अलग से थी जिसमे दुनियां भर के अनेक देशों से छात्र पढ़ने के लिए आते थे । इसी तर्ज़ पर भारत की राजधानी दिल्ली में भी जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय की स्थापना की गई थी जहां गांव देहात के लोग सरकारी मदद से उच्च शिक्षा प्राप्त करते । इन सभी विश्वविद्यालयों का अंतर्राष्ट्रीय स्तर और ख्याति थी।
मुझे याद है कि अक्सर लोग हमें सड़क पर आते जाते मिलते और जब उन्हें पता चलता कि हम इंडियन है तो तपाक से बोलते "दुरूजबा" यानी दोस्ती । फिर हमसे पूछते "कागजीला इंदिरा गांधी, कागजिला राज कपूर" अर्थात इंदिरा गांधी और राज कपूर (एक्टर) कैसे है ? हमारा सीना गर्व से यह जवाब देते फूल जाता कि "ओचिन ख्राशो" बहुत अच्छे हैं। हमें अहसास होता कि हम भारतीय उन के सबसे मजबूत और प्रिय दोस्त देश के वासी हैं।
उन दिनों में विभिन्न संगठनों और राजनीतिक दलों के हजारों प्रतिनिधि उनके देश में जाते और वहां से भी अनेक प्रतिनिधि मंडल हमारे देश में आते । भारत रूसी भाई - भाई के नारे हर जुबान पर होते और ऐसा कोई औपचारिकता मात्र नही , अपितु जन मानस की अभिव्यक्ति थी जो हमारे राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन ने हमें विरासत में दी थी ।
हम जानते है कि रूस में सन 1917 में महान अक्टूबर समाजवादी क्रांति ने हमारे देश में ब्रिटिश साम्राज्य शाही के खिलाफ़ आंदोलन को नई दिशा दी थी । वह पहला देश था जिसने मुखर होकर हमारा समर्थन किया था । रूसी क्रांति के नेता व्लादिमीर इलिच लेनिन ने हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलन का सबसे बड़ा नेता कहा था । पंडित जवाहरलाल नेहरु खुद सन 1927 में सोवियत रूस गए थे और उन्होंने अपनी इस यात्रा को ऐतिहासिक एवम प्रेरणादायक बताया था । विश्वकवि रबिंद्र नाथ टैगोर ने भी सन 1930 में मॉस्को यात्रा की थी। अमर शहीद सरदार भगत सिंह और उनके साथी जेल में ही रहते अक्टूबर क्रांति का अभिनंदन करते हुए अदालत से ही तार भेजने का आग्रह करते हैं। फांसी से पहले इंकलाब जिंदाबाद, साम्राज्यवाद मुर्दाबाद का नारा लगाते हुए वे अपनें प्राण न्योछावर करते हैं । इंडियन नेशनल कांग्रेस के ही भीतर समाजवादी कांग्रेस , क्रांतिकारियों द्वारा गठित हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन और भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी का गठन इस बात की आहट थी कि नया देश कैसा होगा ? नेता जी सुभाष चन्द्र बोस भी आज़ाद हिन्द फौज के गठन के बाद मॉस्को यात्रा पर जाना चाहते थे परंतु हालात अनुकूल न होने के कारण धोखेबाज हिटलर के चंगुल में फंस गए और फिर अंजाम हमारे सामने हैं। उनके द्वारा स्थापित फॉरवर्ड ब्लॉक भारत में समाजवादी गणतंत्र की बात करता है ।
प्रगति प्रकाशन, मॉस्को के द्वारा रूसी साहित्य का भारतीय भाषाओं में यहां की पुस्तकों एवम साहित्य का रूसी भाषा में अनुवाद प्रकाशन एक प्रशंसनीय प्रयास थे । सांस्कृतिक और कला के क्षेत्र में दोनों देशों की एकजुटता ने नए आयाम स्थापित किए थे । कृष्ण चन्दर और ख़्वाजा अहमद अब्बास इतने लोकप्रिय थे कि हर सोवियत उनसे वाकिफ था।
मैक्सिम गोर्की के उपन्यास "मां" और "मेरे विश्वविद्यालय" और लियो टॉलस्टाय की कहानियां हर वर्ग के लोग रुचि से पढ़ते रहे है । वहां लोग अपने बच्चों के नाम इंदिरा , जवाहर और राज कपूर अमूमन रखते और हमारे यहां स्टालिन, नताशा आदि नाम रखे जाते ।
सोवियत संघ और हमारे देशों के सांस्कृतिक संबंधों की एक लघु झलक यहां प्रस्तुत है । जबकि सोवियत संघ में समाजवाद के स्थानीय प्रयोग के असफल होने के बाद और देश के विघटन के बाद इस क्षेत्र में हमारे देश के युवाओं का रुझान अब अमेरिका की तरफ है ।
अब अकेले अमेरिका की विभिन्न शिक्षण संस्थाओं में लगभग दो लाख भारतीय विद्यार्थी उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहे है। अकेले पिछले वर्ष 1,25,000 छात्रों को भारत में अमेरिकन दूतावास ने शिक्षा वीज़ा प्रदान किया है जो पूरी दुनियां में पढ़ रहे भारतीयों का लगभग बीस प्रतिशत है।
ये वे विद्यार्थी है जो भारत के उच्च अथवा अपर मिडल क्लास के है जो प्रतिवर्ष औसतन बीस लाख अथवा इससे अधिक रुपया खर्च कर शिक्षा प्राप्त करते हैं। इन सब का व्यय इनके माता - पिता डॉलर में इस आशा और मकसद से करते है कि उनकी यह होनहार संतान को अमेरिका में ही कोई अच्छी नौकरी मिल जाए। इनमें से मात्र एक दो प्रतिशत ही वापिस भारत आते है।
हमारी तमाम उपलब्धियों के बावजूद भी हम अपने देश में ऐसे अवसर नही जुटा पाए जहां इनकी योग्यता के मुताबिक हम इन्हें काम दे सकें। इसके विपरीत सोवियत संघ तथा अन्य समाजवादी देशों में जो भी विद्यार्थी पढ़े उनकी न केवल स्वदेश वापिसी हुई अपितु पब्लिक सेक्टर में लगे उद्योगों तथा अन्य सरकारी संस्थानों में भी इन्होंने अपनी योग्यता का परिचय दिया ।
अमेरिका प्रवास हमें इन तमाम बातों को समझने का अवसर देगा और यह भी कि "Make in India" कैसे सफल होगा?
🙏
Ram Mohan Rai,
Chicago, USA .
02.08.2023
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