Suhana Safar USA- 15 अब्राहम लिंकन के शहर से
स्प्रिंगफील्ड का चप्पा चप्पा अब्राहम लिंकन की यादों से भरा है और ऐसा हो भी क्यों नही यह उनकी कर्मभूमि ही नही अपितु वैचारिक आधार का स्थान भी है जहां 17 वर्ष तक रह कर उन्होंने वकालत करते हुए राजनीतिक ऊंचाइयों को हासिल किया और अंतत: यहीं दफन हुए । मेरी मानों तो इस शहर का नाम ही उनके नाम पर अब्राहम लिंकन सिटी होना चाहिए । पर सम्भवत: ऐसा न करना ठीक ही होगा । हमारे देश में अनेक ऐसे उदाहरण है जब हमने सड़कों और नगरों के नाम बदले पर बाद में सरकार बदलने पर उनके पुराने नाम ही रख दिए गए । मैने वर्ष 1975 से 1977 तक एक ऐसी यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएशन की जहां पहले साल की मार्कशीट मुझे कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से प्राप्त हुई , दूसरे साल की बी एन चक्रवर्ती यूनिवर्सिटी से और फिर फाइनल ईयर की पुन: कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से । हर शासक अपने पसंदीदा लोगों के नाम से नाम तो बदल देते है परंतु लोगों के जहन में वही नाम रहता है । सोवियत यूनियन में भी पिटरसबर्ग का नाम लेनिनग्राद रख दिया था और फिर प्रति क्रांति के बाद पुराना नाम ही रख दिया गया ।
स्प्रिंगफील्ड में कोई भी तो ऐसा स्थान नही है जहां अब्राहम लिंकन का पोर्ट्रेट न लगा हो और थोड़ी थोड़ी दूर पर उनके कथन । रोमांचित करने वाली उनकी मूर्तियां तो लाज़वाब है ।
उनकी लॉ कंपनी के दफ्तर के बाहर लगी मूर्तियां जो उनके समूचे परिवार की है वह तो बिलकुल ही जीवंत है । लगभग 150 साल के बाद भी ऐसा महसूस होता है कि मानो वे और उनका परिवार यहीं कहीं रहता है।
अब्राहम लिंकन का सबसे लोकप्रिय कथन लोकतंत्र के बारे मे है कि "Democracy is the govt of the people, by the people for the people". उनके इस कथन को पूरी दुनियां में अमर वाक्य के रूप में दोहराया जाता है। विशेषकर हमारे देश भारत में ,जब हम कहते है कि जहां अमेरिका में सबसे पुराना लोकतंत्र है वहीं हम विश्व की सबसे बड़ी डेमोक्रेसी है । दोनों देशों के मधुर संबंधों की बुनियाद इसी महामंत्र को माना जाता है, पर क्या वास्तव में ऐसा ही है ।
हमने अपने देश में तो इसका अनुभव किया है कि इस नाम पर अनेकों बार हमें छला गया है । कल्पना कीजिए उस देश की जहां कि 74 प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा से नीचे रह कर जीवन व्यतीत कर रही हो ।
लोकतंत्र का अर्थ बहुमत का शासन है यानी 100 प्रतिशत में से 50 से ऊपर वालों की सत्ता। पर जब वोट ही 70 डलते हो तो शासन 35 वालों का । एक एक पार्टी करोड़ो रुपए चुनाव प्रचार में लगाती है ,इसमें खर्च की कोई सीमा नही है। और उम्मीदवार इनसे अलग । बेशक चुनाव आयोग ने उमोदवार के लिए खर्च सीमा तय की गई है जबकि वह प्रत्याशी खर्च करता है उससे कई गुना ज्यादा और वह भी दो नंबर में । लोकसभा चुनावों में बड़े राज्यों में एक प्रत्याशी 95 लाख रूपए तक खर्च कर सकता है और छोटे राज्यों में 75 लाख रुपए तक । इसी तरह विधान सभा चुनाव में एक उम्मीदवार बड़े राज्य में 40 लाख तथा छोटे राज्य में 28 लाख खर्च कर सकता है। भारत में प्रत्येक नागरिक की औसत वार्षिक आय 1,72000 रूपये है यानी प्रतिमाह 14,000 रूपये । जबकि आम व्यक्ति की वार्षिक आय इससे भी बहुत कम है। एक किसान की औसत वार्षिक आय 1.4 लाख, बैंकर की 3 लाख, इंजीनियर की 4 लाख और डॉक्टर की 5.5 लाख है । यदि इस कैटेगरी के लोग चुनाव लड़ना चाहे तो ईमानदारी से अपनी वार्षिक बचत करके एक किसान 14 साल में, बैंकर 4.5 साल में, इंजीनियर 3.5 साल में तथा डॉक्टर 2.5 साल में चुनाव लड़ सकेगा । क्या खर्च सीमा में ही कोई आम आदमी चुनाव लडने की हिम्मत कर सकता है ? क्या कोई भी सामान्य व्यक्ति जो चुनाव लड़ने का इच्छुक हो वह अपनी पॉकेट से प्रत्याशी के तौर पर जमानत राशि ही जमा करवा सकता है ? सम्भवत: बिल्कुल नहीं। आज़ादी के बाद शायद कोई चुनाव ऐसे रहे होंगे जब सामान्य व्यक्ति ने चुनाव लड़ा हो और फिर हमारे सामने आम आदमी पार्टी का पहला चुनाव है और उसके बाद तो उनकी भी वही डगर है । तो फिर इन चुनावों में कौन चुनाव लड़ सकते हैं और कौन सी ऐसी ताकते हैं जिनके नुमाइंदे चुनाव लड़ते है ? चुनाव तो पैसे वालों का ही तमाशा बन गया है जिसमे हर चीज़ खरीदी जाती है फिर चाहे वह धर्म, जाति और नस्ल के नाम पर । पहले चुनाव टाटा बिड़ला के थे अब अदानी अंबानी के । आज के संदर्भ में Democracy is the govt of the capitalist, by the capitalist and for the capitalist ही है।
इस कथित लोकतंत्र में जीने वाले लोग चीन के बहुत बड़े आलोचक है कि वहां लोकतांत्रिक चुनाव नही होते ,प्रेस को आज़ादी नहीं है ,न्यायपालिका स्वतंत्र नहीं है और अफ़सर शाही बेकाबू है- आदि आदि ।
हमारे अपने देश के हालात को भी देखना चाहिए । चुनाव एक पूंजी का खेल है, प्रेस अब माफिया के हाथों में है जो हर समय लोगों को नफरत की खुराक देने में मशगूल है , अदालतें पैसे और वकीलों का धंधा बनी हुई है जहां की उबाऊ तारीखें ,देरी और व्यवस्था वादकारी को परेशान ही करती है । अफसरशाही तो सत्ता की जुबान ही है और यह ही है हमारा लोकतंत्र ।
खुद अब्राहम लिंकन के अपने देश अमेरिका में भी लोकतंत्र वॉल स्ट्रीट, कॉर्पोरेट्स और धन पशुओं का गुलाम ही है । युवा पीढ़ी बेरोजगारी और निठलेपन के कारण नशे और अवसाद से ग्रस्त है । अमेरिकी चुनावों में अरबों डॉलर खर्च कर ही लोकतंत्र के मंदिर व्हाइट हाउस में प्रवेश किया जा सकता है । इस महान लोकतंत्र के हालात तो यह हैं कि कुल मीडिया पूंजी माफिया के पास है । और यह देश दुनियां के उन देशों का मित्र है जहां खुले आम लोकतंत्र की धज्जियां उड़ाई जाती है । विश्व में कहीं भी लोकतंत्र का चीर हरण हुआ है वहां के पीछे इन्हीं की शह है ,फिर किस बात का लोकतंत्र है ?
अब्राहम लिंकन का यह शहर हमें जगाने का काम करता है कि हमें कैसा लोकतंत्र चाहिए ? वास्तविक अथवा छद्म ।
राम मोहन राय,
अब्राहम लिंकन के शहर स्प्रिंग फील्ड से,
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