Udaipur Diary -3 (Kesariya ji-Rishabh Dev)
उदयपुर से डूंगरपुर लगभग 140 किलोमीटर दूर है परंतु सड़क बहुत अच्छी है। इसलिए मात्र 2 घंटे में अपनी गाड़ी से डूंगरपुर पहुँचा जा सकता है। हमने चलने से पहले इस तरह का कार्यक्रम बनाया कि किसी भी तरह दोपहर के भोजन तक वहाँ पहुँच जाएं। रास्ते में चलते-चलते लगभग 1 घंटे बाद हम केसरिया जी पहुंचे। यह वह स्थान है जिसे ऋषभदेव के नाम से भी जाना जाता है । कस्बे के बिल्कुल मध्य में केसरिया जी का मंदिर है । इस मंदिर को यहाँ के लोग अलग-अलग नाम से पुकारते हैं। ऐसा माना जाता है कि लगभग 1200 वर्ष पूर्व एक व्यक्ति धुलिया ने प्रतिमा की खोज की थी। इसलिए लोग इसे धुलिया जी के नाम से भी जानते हैं। पौराणिक लोग इन्हें विष्णु भगवान के 24 अवतारों में से एक मानते हैं और जैन धर्म के लोग मंदिर में स्थापित लगभग डेढ़ मीटर ऊंची यानी साढ़े तीन फीट ऊंची काले पत्थर की प्राण प्रतिष्ठित मूर्ति को जैन धर्म के पहले तीर्थंकर ऋषभ नाथ की मानते हैं। इसी मंदिर को अन्य लोग भोमिया जी कहते हैं और आदिवासी लोग इसे कालाजी का मंदिर मानते हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि विग्रह काले पाषाण से बना है।
इतिहासवेता बताते हैं कि भारत में मूर्ति पूजा जैनियों के द्वारा ही लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व प्रारंभ हुई थी। यदि आर्यवर्त के सभी धर्मों का अवलोकन किया जाए तो वैदिक धर्म के समकक्ष जैन मत है जिनका मानना है कि यह आदि धर्म है। जिनके पहले तीर्थंकर भगवान आदिनाथ अर्थात भगवान ऋषभ नाथ है। भगवान की इस प्रतिमा पर केसर और चंदन का तिलक ही चढ़ता है इसलिए इसे केसरिया जी के नाम से भी पुकारते हैं। इसी प्रांगण में जैन धर्म के चौबीस तीर्थंकरों के भी अलग अलग मंदिर है और मुख्य मंदिर के सामने ही हाथी पर बैठी एक देवी की मूर्ति है. श्रद्धालु जन हाथी के पैरों के बीच से कठिनाई पूर्वक निकलने को शुभ मानते है।
आदिधर्म, आदिनाथ, आदिवासी बेशक ये शब्द अलग-अलग है परंतु यह एक दूसरे से
स्पष्टता से जुड़े हुए हैं। बेशक आज जैन धर्म के अनुयायी संभ्रांत अथवा उच्च कुल के हों परंतु यदि यह आदिधर्म है तो इनके प्रारंभिक अनुयायी भी आदिवासी ही रहे होंगे। प्रकृति के अनुसार जीवन, व्यवहार, कार्यशैली पर चलकर त्याग ,तपस्या और वैराग्य का जीवन जीते हुए सत्य- प्रेम- करुणा का पाठ वे ही बता सकते हैं जिनका ऐसा आचरण हो। जैन संत की जीवनचर्या से हम इसे समझ सकते हैं। 'अहिंसा परमो धर्म' अर्थात मन- वचन- कर्म से किसी के प्रति भी वैर भाव, बदले की भावना और हिंसा न करना जैन मत का एक अद्भुत संदेश है। जंगल में शेर और बकरी एक घाट पर पानी पिएं, ऐसा संदेश तभी प्राप्त किया जा सकता है जब उस प्राकृतिक वातावरण में सब निर्भय हो और मैत्रीपूर्ण जीवन व्यतीत कर रहे हो।
ऋषभ नाथ मंदिर के इस प्रांगण में आकर मन की तमाम
कलुषिता दूर सी हो गई और मन ही मन मैं और मेरी पत्नी णमोकार मंत्र का पाठ कर रहे थे। मंदिर से बाहर निकलकर हमने एक ग्रुप फोटो लिया। बेशक मैं मूर्ति पूजक नहीं हूँ फिर भी स्थान को स्मरण रखने के लिए कुछ न कुछ जरूर लेता हूँ,तत्पश्चात आदिदेव ऋषभनाथ जी का एक शीशे के फ्रेम में जड़ा हुआ चित्र खरीदा और उसके साथ-साथ कुछ ऐसा सामान जो मिलता तो बहुत जगह है परंतु यहाँ खरीदने से उसकी महता बढ़ जाती है।
लगभग डेढ़ घंटा एक छोटे से कस्बे में व्यतीत कर हमने डूंगरपुर के लिए अपनी यात्रा पुन प्रारंभ की और लंच के समय वहाँ पहुंच गए। मेरे सांढू भाई श्री देवीलाल जी माली का मकान डूंगरपुर के सलावट बाड़े में है यानि कि जहाँ पत्थर की मूर्तियां बनाने वाले लोगों की बस्ती है। भोजन के पश्चात हम इन कारीगरों की कार्यशाला में गए और वहाँ देखा कि ये बहादुर श्रमिक पत्थरों को तराश कर अपनी कला को प्रदर्शित कर रहे हैं। मेरा मन भी एक मूर्ति खरीदने को किया। मैं सोचता था कि संभवत: भगवान श्री कृष्ण अथवा श्री नाथ जी की कोई मूर्ति मिल जाएगी। परंतु यह क्या! उनके पास केवल एक ही मूर्ति तैयार थी वह भी काले पत्थर से बनी हुई ऋषभ नाथ जी की। उसे मूर्ति की कीमत का बिना कोई मोलभाव किए हुए उन कुशल मूर्तिकारों से उसकी कीमत देकर प्राप्त किया और आज के दिन के आनंद को जय करते हुए वापस उदयपुर लौट आए।
Ram Mohan Rai.
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