Switzerland to Kashmir (घुमक्कड़ की डायरी - 13)
श्री महामति अभिनव गुप्त न केवल कश्मीर में अपितु पूरे विश्व में शैव और तंत्र विद्या के एक महान शिल्पी हैं. आज बीरबह में उनकी गुफाएं, जहां उन्हें अपने 500 संत अनुयायियों के साथ रहे थे उसके दर्शन करने का सुअवसर मिला. इस गुफा पर पहुंचने के लिए सड़क से लगभग 350 सीढ़ियां चढ़नी पड़ती है और तब जाकर उसे गुफा के दर्शन होते हैं. यह जानकर बहुत आश्चर्य होता है कि इस छोटे से मुहाने की गुफा में किस तरह से आचार्यवर्य एवं उनके शिष्य अपना जीवन व्यतीत करते हुए कठोर साधना और तपश्चार्य से रहते थे. गुफा बहुत ही सुंदर, अलौकिक और प्राकृतिक है जिसे देखकर ऐसे लगता है कि मानो कि किसी कुशल शिल्पकारों ने इसे गढ़ा है. ऐसी गुफा में आकर न केवल आध्यात्मिक शांति मिलती है वहीं अनेक पुण्य का लाभ भी होता है. श्रीमान अभिनव गुप्त के बारे में जानकारी के लिए अनेक ग्रंथ उपलब्ध हैं परंतु साथ-साथ विकिपीडिया पर भी इसका वर्णन है जिनके जीवन वृतांत के लघु अंश को में वहीं से साभार प्रस्तुत कर रहा हूं
अभिनवगुप्त (975-1025) दार्शनिक, रहस्यवादी एवं साहित्यशास्त्र के मूर्धन्य आचार्य। कश्मीरी[1] शैव और तन्त्र के पण्डित। वे संगीतज्ञ, कवि, नाटककार, धर्मशास्त्री एवं तर्कशास्त्री भी थे।
अभिनवगुप्त का व्यक्तित्व बड़ा ही रहस्यमय है। महाभाष्य के रचयिता पतंजलि को व्याकरण के इतिहास में तथा भामतीकार वाचस्पति मिश्र को अद्वैत वेदांत के इतिहास में जो गौरव तथा आदरणीय उत्कर्ष प्राप्त हुआ है वही गौरव अभिनव को भी तंत्र तथा अलंकारशास्त्र के इतिहास में प्राप्त है। इन्होंने रस सिद्धांत की मनोवैज्ञानिक व्याख्या (अभिव्यंजनावाद) कर अलंकारशास्त्र को दर्शन के उच्च स्तर पर प्रतिष्ठित किया तथा प्रत्यभिज्ञा और त्रिक दर्शनों को प्रौढ़ भाष्य प्रदान कर इन्हें तर्क की कसौटी पर व्यवस्थित किया। ये कोरे शुष्क तार्किक ही नहीं थे, प्रत्युत साधनाजगत् के गुह्य रहस्यों के मर्मज्ञ साधक भी थे।
अभिनवगुप्त के आविर्भावकाल का पता उन्हीं के ग्रंथों के समयनिर्देश से भली भाँति लगता है। इनके आरंभिक ग्रंथों में क्रमस्तोत्र की रचना 66 लौकिक संवत् (991 ई.) में और भैरवस्तोत्र की 68 संवत (993 ई.) में हुई। इनकी ईश्वर-प्रत्यभिज्ञा-विमर्षिणी का रचनाकाल 90 लौकिक संवत् (1015 ई.) है। फलत: इनकी साहित्यिक रचनाओं का काल 990 ई. से लेकर 1020 ई. तक माना जा सकता है। इस प्रकार इनका समय दशम शती का उत्तरार्ध तथा एकादश शती का आरंभिक काल स्वीकार किया जा सकता है।
भारतीय ज्ञान-दर्शन में यदि कहीं कोई ग्रंथि है, कोई पूर्व पक्ष और सिद्धांत पक्ष का निष्कर्षविहीन वाद चला आ रहा है और यदि किसी ऐसे विषय पर आचार्य अभिनवगुप्त ने अपना मत प्रस्तुत किया हो तो वह ‘वाद’ स्वीकार करने योग्य निर्णय को प्राप्त कर लेता है। उदाहरण के लिए साहित्य में उनकी भरतमुनिकृत रस-सूत्र की व्याख्या देखी जा सकती है जिसे ‘अभिव्यक्तिवाद’ के नाम से जाना जाता है। भारतीय ज्ञान एवं साधना की अनेक धाराएँ अभिनवगुप्तपादाचार्य के विराट् व्यक्तित्व में आ मिलती हैं और एक सशक्त धारा के रूप में आगे चल पड़ती है।
आचार्य अभिनवगुप्त के पूर्वज अत्रिगुप्त (8वीं शताब्दी) कन्नौज प्रांत के निवासी थे। यह समय राजा यशोवर्मन का था। अत्रिगुप्त कई शास्त्रों के विद्वान थे और शैवशासन पर उनका विशेष अधिकार था। कश्मीर नरेश ललितादित्य ने 740 ई. जब कान्यकुब्ज प्रदेश को जीतकर कश्मीर के अंतर्गत मिला लिया तो उन्होंने अत्रिगुप्त से कश्मीर में चलकर निवास की प्रार्थना की। वितस्ता (झेलम) के तट पर भगवान शीतांशुमौलि (शिव) के मंदिर के सम्मुख एक विशाल भवन अत्रिगुप्त के लिये निर्मित कराया गया। इसी यशस्वी कुल में अभिनवगुप्त का जन्म लगभग 200 वर्ष बाद (950 ई.) हुआ। उनके पिता का नाम नरसिंहगुप्त तथा माता का नाम विमला था जिन्हें अपने ग्रंथों में वे आदर और श्रद्धा से स्मरण करते हुए ‘विमलकला’ कहते हैं।
भगवान् पतंजलि की तरह आचार्य अभिनवगुप्त भी शेषावतार कहे जाते हैं। शेषनाग ज्ञान-संस्कृति के रक्षक हैं। अभिनवगुप्त के ग्रंथ तंत्रालोक के टीकाकार आचार्य जयरथ ने उन्हें ‘योगिनीभू’ कहा है। इस रूप में तो वे स्वयं ही शिव के अवतार के रूप में प्रतिष्ठित हैं। आचार्य अभिनवगुप्त के ज्ञान की प्रामाणिकता इस संदर्भ में है कि उन्होंने अपने काल के मूर्धन्य आचार्यों-गुरुओं से ज्ञान की कई विधाओं में शिक्षा-दीक्षा ली थी। उनके पितृवर श्री नरसिंहगुप्त उनके व्याकरण के गुरु थे। इसी प्रकार लक्ष्मणगुप्त प्रत्यभिज्ञाशास्त्र के तथा शंभुनाथ (जालंधर पीठ) उनके कौल-संप्रदाय के साधना के गुरु थे। उन्होंने अपने ग्रंथों में अपने नौ गुरुओं का सादर उल्लेख किया है। भारतवर्ष के किसी एक आचार्य में विविध ज्ञान विधाओं का समाहार मिलना दुर्लभ है। यही स्थिति शारदा क्षेत्र कश्मीर की भी है। इस अकेले क्षेत्र से जितने आचार्य हुए हैं उतने देश के किसी अन्य क्षेत्र से नहीं हुए।
जैसी गौरवशाली आचार्य अभिनवगुप्त की गुरु परम्परा रही है वैसी ही उनकी शिष्य परंपरा भी है। उनके प्रमुख शिष्यों में क्षेमराज , क्षेमेन्द्र एवं मधुराजयोगी हैं। यही परंपरा सुभटदत्त (12वीं शताब्दी) जयरथ, शोभाकर-गुप्त, महेश्वरानन्द (12वीं शताब्दी), भास्कर कंठ (18वीं शताब्दी) प्रभृति आचार्यों से होती हुई स्वामी लक्ष्मण जू तक आती है। दुर्भाग्यवश यह विशद एवं अमूल्य ज्ञान राशि इतिहास के घटनाक्रमों में धीरे-धीरे हाशिये पर चली गई। यह केवल काश्मीर के घटनाक्रमों के कारण नहीं हुआ।
चौदहवीं शताब्दी के अद्वैत वेदान्त के आचार्य सायण - मध्वाचार्य ने अपने सुप्रसिद्ध ग्रन्थ ‘सर्वदर्शनसंग्रह’ में सोलह दार्शनिक परम्पराओं का विवेचन शांकर-वेदान्त की दृष्टि से किया है। आधुनिक विश्वविद्यालयी पद्धति केवल षड्दर्शन तक ही भारतीय दर्शन का विस्तार मानती है और इन्हे ही आस्तिक दर्शन और नास्तिक दर्शन के द्वन्द्व-युद्ध के रूप में प्रस्तुत करती है। आगमोक्त दार्शनिक परम्पराएँ जिनमें शैव, शाक्त, पांचरात्र आदि हैं, वे कहीं विस्मृत होते चले गए।
आचार्य अभिनवगुप्त ने अपने सुदीर्घ जीवन को केवल तीन महत् लक्ष्यों के लिए समर्पित कर दिया- शिवभक्ति, ग्रंथ निर्माण एवं अध्यापन। उनके द्वारा रचित 42 ग्रंथ बताए जाते हैं, इनमें से केवल 20-22 ही उपलब्ध हो पाए हैं। शताधिक ऐसे आगम ग्रंथ हैं, जिनका उल्लेख-उद्धरण उनके ग्रंथों में तो है, लेकिन अब वे लुप्तप्राय हैं। अभिनवगुप्त के ग्रंथों की पांडुलिपियां दक्षिण में प्राप्त होती रही हैं, विशेषकर केरल राज्य में। उनके ग्रंथ संपूर्ण प्राचीन भारतवर्ष में आदर के साथ पढ़ाये जाते रहे थे। 70 वर्ष की अवस्था में जब उन्होंने महाप्रयाण किया तब उनके 10 हजार शिष्य कश्मीर में थे। श्रीनगर से गुलमर्ग जाने वाले मार्ग पर स्थित भैरव गुफा में प्रवेश कर उन्होंने सशरीर महाप्रयाण किया।
प्रत्यभिज्ञा का अर्थ है, स्वयं को विस्मृति के आवरणों से मुक्त कर स्वरूप को जानना।
ग्रंथरचना
अभिनवगुप्त तंत्रशास्त्र, साहित्य और दर्शन के प्रौढ़ आचार्य थे और इन तीनों विषयों पर इन्होंने 50 से ऊपर मौलिक ग्रंथों, टीकाओं तथा स्तोत्रों का निर्माण किया है। अभिरुचि के आधार पर इनका सुदीर्घ जीवन तीन कालविभागों में विभक्त किया जा सकता है:
(क) तान्त्रिक काल - जीवन के आरंभ में अभिनवगुप्त ने तंत्रशास्त्रों का गहन अनुशीलन किया तथा उपलब्ध प्राचीन तंत्रग्रंथों पर इन्होंने अद्धैतपरक व्याख्याएँ लिखकर लोगों में व्याप्त भ्रांत सिद्धांतों का सफल निराकरण किया। क्रम, त्रिक तथा कुल तंत्रों का अभिनव ने क्रमश: अध्ययन कर तद्विषयक ग्रंथों का निर्माण इसी क्रम से संपन्न किया। इस युग की प्रधान रचनाएँ ये हैं -- बोधपंचदशिका, मालिनीविजय कार्तिक, परात्रिंशिकाविवरण, तन्त्रालोक, तन्त्रसार, तंत्रोच्चय, तंत्रोवटधानिका। तंत्रालोकत्रिक तथा कुल तंत्रों का विशाल विश्वकोश ही है जिसमें तंत्रशास्त्र के सिद्धांतों, प्रक्रियाओं तथा तत्संबद्ध नाना मतों का पूर्ण, प्रामाणिक तथा प्रांजल विवेचन प्रस्तुत किया गया है। यह 37 परिच्छेदों में विभक्त विराट् ग्रंथराज है जिसमें बंध का कारण, मोक्षविषक नाना मत, प्रपंच का अभिव्यक्ति प्रकार तथा सत्ता, परमार्थ के साधक उपाय, मोक्ष के स्वरूप, शैवाचार की विविध प्रक्रिया आदि विषयों का सुंदर प्रामाणिक विवरण देकर अभिनव ने तंत्र के गंभीर तत्वों को वस्तुत: आलोकित कर दिया है। अंतिम तीनों ग्रंथ इसी के क्रमश: संक्षिप्त रूप हैं जिनमें संक्षेप पूर्वापेक्षया ह्रस्व होता गया है।
(ख) आलंकारिक काल - अलंकारग्रंथों का अनुशीलन तथा प्रणयन इस काल की विशिष्टता है। इस युग से संबद्ध तीन प्रौढ़ रचनाओं का परिचय प्राप्त है - काव्य-कौतुक-विवरण, ध्वन्यालोकलोचन तथा अभिनवभारती। काव्यकौतुक अभिनव के नाट्यशास्त्र के गुरु भट्टतौत की अनुपलब्ध प्रख्यात कृति है जिसपर इनका "विवरण" अन्यत्र संकेतित ही है, उपलब्ध नहीं। लोचन, आनन्दवर्धन के "ध्वन्यालोक" का प्रौढ़ व्याख्यानग्रंथ है तथा अभिनवभारती, भरत मुनि के नाट्यशास्त्र के पूर्ण ग्रंथ की पांडित्यपूर्ण प्रमेयबहुल व्याख्या है। यह नाट्यशास्त्र की एकमात्र टीका है।
(ग) दार्शनिक काल - अभिनवगुप्त के जीवन में यह काल उनके पांडित्य की प्रौढ़ि और उत्कर्ष का युग है। परमत का तर्कपद्धति से खंडन और स्वमत का प्रौढ़ प्रतिपादन इस काल की विशिष्टता है। इस काल की प्रौढ़ प्रतिपादन इस काल की विशिष्टता है। इस काल की प्रौढ़ रचनाओं में ये नितांत प्रसिद्ध हैं---भगवद्गीतार्थसंग्रह, परमार्थसार, ईश्वर-प्रत्यभिज्ञा-विमर्शिणी तथा ईश्वर-प्रत्यभिज्ञा-विवृति-विमर्शिणी। अंतिम दोनें ग्रंथ अभिनवगुप्त के प्रौढ़ पांडित्य के निकषग्रावा हैं। ये उत्पलाचार्य द्वारा रचित "ईश्वरप्रत्यभज्ञ" के व्याख्यान हैं। पहले में तो केवल कारिकाओं की व्याख्या और दूसरे उत्पल की ही स्वोपज्ञ वृत्ति (आजकल अनुपलब्ध) "विवृति" की प्रांजल टीका है। प्राचीन गणनानुसार चार सहस्र श्लोकों से संपन्न होने के कारण पहली टीका "चतु:सहस्री" (लघ्वी) तथा दूसरी "अष्टादशसहस्री" (अथवा बृहती) के नाम से भी प्रसिद्ध है जिनमें टीका अब तक अप्रकाशित ही है।
ईश्वरप्रत्यभिज्ञावृत्तिविमर्शिनी
ईश्वरप्रत्यभिज्ञाविमर्शिनी
पर्यन्तपञ्चाशिका
घटकर्परकुलकविवृति
क्रमस्तोत्र
देहस्थदेवताचक्रस्तोत्रb
भैरवस्तोत्र
परमार्थद्वादशिका
महोपदेशविंशतिक
अनुत्तराष्टक
अनुभवनिवेदन
रहस्यपञ्चदशिका
तन्त्रोच्चय
पुरूरबो-विचार
क्रमकेलि
शिवदृष्ट्यालोचन
पदार्थ-प्रवेश-निर्णयटीका
प्रकीर्ण-विवरण प्रकरण-विवरण
काव्यकौतुकविवरण
कथामुखतिलक
लघ्वीप्रक्रिया
भेदवादविदारण
देवीस्तोत्रविवरण
तत्त्वाध्वप्रकाशिका
शिवशक्त्यविनाभावस्तोत्र
विम्बप्रतिविम्बवाद
परमार्थसङ्ग्रह
अनुत्तरतत्त्वविमर्शिनीवृत्ति
नाट्यलोचन
Ram Mohan Rai,
Beerwah, Badgam, Jammu and Kashmir.
05.10.2024
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