पानीपत की गलियां 11 (Rajputana Bazar)
आज सुबह-सुबह, जब शहर अभी पूरी तरह जागा भी नहीं था, हम निकल पड़े पानीपत की उन संकरी, इतिहास से लबरेज गलियों की सैर पर। शुरूआत हुई रामधारी चौक से – वो चौक जहां कभी घोड़ों की टापें और बाजार की हलचल एक साथ गूंजती थीं। यहां से दक्षिण की ओर मुड़ते ही हम राजपूताना बाजार में दाखिल हो गए। ये बाजार कोई बड़ा मॉल नहीं, बल्कि एक जीवंत पट्टी है जो सीधे अमर भवन चौक की ओर निकलती है। पानीपत को राजस्व सर्कल में चार हिस्सों में बांटा गया है – तरफ राजपूतान, तरफ अफगानान, तरफ अंसार और तरफ मखदूम जादगान। और इसी तरफ राजपूतान की वजह से इस बाजार का नाम पड़ा राजपूताना बाजार, क्योंकि यहां मुस्लिम राजपूत बस्ते थे।
   बाजार की शुरुआत हुक्के की दुकानों से होती है जहां चिलम से लेकर नाल और हर दूसरा समान वाजिब दाम पर मिलता है. हुक्के के शौकिन हर शहरी-देहाती के लिए यह आकर्षण का केंद्र है. और फिर इसके आगे कदम रखते ही हवा में एक पुरानी खुशबू घुली हुई थी – घी की महक, ऊनी कपड़ों की गर्माहट और कहीं दूर से आती पकौड़ों की चटनी की तीखी सुगंध। विभाजन से पहले पानीपत की कुल 26 हजार आबादी में 70 प्रतिशत मुस्लिम और 30 प्रतिशत हिंदू थे। हिंदुओं में 72 ब्राह्मण परिवार, जैन, अग्रवाल, मोहल्ला पूर्बियन में पूर्वी उत्तर प्रदेश से आए कुछ क्षत्रिय, कश्यप (झीमर), बढ़ई, कुम्हार, माली (सैनी), बाल्मीकि, रविदासी और अन्य लोग अपने-अपने मोहल्लों में रहते थे। उन मोहल्लों के बाहर लोहे के दरवाजे लगे होते थे, जैसे कोई छोटा-सा किला। लेकिन पिछले 1000 वर्षों के इतिहास में यहां कभी छिटपुट तनाव भी नहीं हुआ। उल्टे, सब लोग प्यार से एक-दूसरे के त्योहारों में शरीक होते – होली में मुस्लिम पड़ोसी रंग खेलते, ईद पर हिंदू मिठाई बांटते। ये सद्भावना ही पानीपत की असली पहचान थी।
रामधारी चौक से थोड़ा आगे बढ़े तो दाहिनी ओर मोहल्ला राजपूतान आया। यहां चार भव्य हवेलियां थीं, जिनकी दीवारें अब भी पुरानी शान की गवाही देती हैं। एक हवेली में तत्कालीन जैलदार का परिवार रहता था, जो घोड़े पर सवार होकर शान से आता-जाता। अन्य हवेलियों में बड़े-बड़े जमींदार। विभाजन के बाद इनमें बदलाव आया – जैलदार की हवेली में वकील ओम प्रकाश विज का परिवार बस गया, दूसरी में पुरुषार्थी श्री दौलत राम मेहंदीरत्ता और उनके भाइयों के परिवार और उनमें मेरा दोस्त सिंधी भी. इसी गली में प्रसिद्ध ऊनी व्यापारी तेजभान हुकुमचंद रहते थे, और कांग्रेस नेता डॉ. रामजी लाल भी। गली आगे चलकर दो हिस्सों में बंट जाती है, जो छीते वाली गली से होती हुई खैल बाजार में जा मिलती है। चलते-चलते पैरों तले पुरानी ईंटें खड़कतीं, और दीवारों पर चढ़ी बेलें जैसे पुरानी कहानियां सुना रही हों।
राजपूताना बाजार की रौनक तो देखते ही बनती! दाहिनी ओर गौर ब्राह्मण धर्मशाला है, जहां कभी यात्री रुकते, पूजा-पाठ होती और इसी में एक स्कूल भी चलता था. उसके ठीक सामने  बद्री मल बुद्ध सेन की पुश्तैनी शुद्ध देसी घी की दुकान। घी की वो महक! पीतल के बड़े-बड़े डिब्बों में चमकता हुआ घी, जो मुंह में घुलते ही बचपन की यादें ताजा कर देता। ये परिवार हमारी पुरानी गली कैस्थान में रहता था, और इसी बुद्ध सेन की सुपुत्री आज स्वामी मुक्तानंद जी के नाम से विख्यात हैं – आध्यात्म की दुनिया में एक चमकता सितारा।
इसी क्रम में आगे खादी भंडार था, जो ऊन उत्पादन का केंद्र था। श्री रूपराम यादव 'भाई जी' इसे सेवा और निष्ठा से चलाते थे। उनकी रिहाइश भंडार के ऊपर ही थी, और हमारा वहां खूब आना-जाना होता। भाई जी मेरी मां सीता रानी सैनी को अपनी बहन मानते थे। मां आदतन खादी पहनतीं, और हर गांधी जयंती, 2 अक्टूबर को अपने हाथ से काते सूत को देकर धोती खरीदतीं। भाई जी का छोटा बेटा देवेंद्र आर्य प्राइमरी स्कूल, घेर अरायां में मेरा क्लासफेलो था। वो दिन याद आते हैं – स्कूल की छुट्टी के बाद खादी भंडार में बैठकर चाय पीना, भाई जी की कहानियां सुनना। इससे आगे ही पंजाब नैशनल बैंक था जहां हर समय लोगों की चहल पहल रहती. 
उससे आगे शर्मा इलेक्ट्रिक स्टोर। जिसे श्री जीवन राम शर्मा जी दुकान चलाते भी और मुनादी भी करते – "आओ जी, नई बल्ब, नई वायरिंग!" उनकी दुकान के ऊपर आरएसएस का कार्यालय था, जहां अक्सर प्रचारक रुकते। कहते हैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी बतौर प्रचारक इस छोटे से कमरे में ठहरे थे, और उनके भोजन की व्यवस्था लाला सुल्तान सिंह करते। समय बड़ा बलवान है – वो छोटा कमरा आज इतिहास का हिस्सा बन चुका है। इसी के अगल बगल मिठ्ठन स्वीट की दुकान होती थी और अब तो शहर के लगभग हर हिस्से में इसकी शाखाएं हैं और इसका प्रसार पूरे शहर में ही हो गया है. 
दुकान के सामने वाली छोटी बंद गली में कांग्रेस नेता लाला सुमेर चंद बिजली का घर था। गली में एक पुराना कुआं भी, जिसका पानी अब भी मीठा है। आगे वीर जी पतंग वाली गली – नुक्कड़ पर उनकी दुकान, जहां पूरे शहर के बालक पतंगबाज आते। रंग-बिरंगी पतंगें, मांझा की चमकदार डोरियां। बसंत पंचमी पर यहां की रौनक देखते बनती! इससे आगे एक छोटी, भूलभुलैया सी गली जो घूमती-फिरती दूसरी ओर निकलती। अंत में नाले पर फोटोग्राफर की दुकान – पुरानी ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीरें, जो समय को कैद कर लेतीं।
बाजार विविधता से भरा था – छोटे घरेलू सामान, लोहे की कड़ाहियां, मसाले, खिलौने। एक कोने पर तरह-तरह की चटनियों के साथ पकौड़ों की दुकान – गर्मागर्म पकौड़े, इमली की चटनी, पुदीने की चटनी। बाजार भले छोटा था, पर बड़ा अलबेला – हर दुकान एक कहानी, हर चेहरा एक दोस्त।
आखिर में ये बाजार अमर भवन चौक में जा मिलता, जहां से पांच रास्ते फूटते हैं: 1. खारी कुई की ओर, 2. एसडी कॉलेज की ओर, 3. जानवरों के अस्पताल से जीटी रोड पर, 4. संत नारायण सिंह गुरुद्वारे होते हुए इलाहाबादी टाइप कॉलेज से सनौली रोड, और 5. सेठी चौक की ओर।
चौक पर खड़े होकर पीछे मुड़कर देखा – राजपूताना बाजार जैसे मुस्कुरा रहा था। पुरानी हवेलियां, घी की महक, पतंगों की उड़ान, खादी की सादगी। पानीपत की ये गलियां सिर्फ रास्ते नहीं, जीती-जागती यादें हैं। अगली सैर में मिलेंगे किसी और तरफ में... जय हिंद!
Ram Mohan Rai, 
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