पानीपत फ़िल्म एक सुन्दर प्रस्तुति।

*पानीपत- ए स्टोरी ऑफ बेटरएल* फ़िल्म यह तो दिखाने में सफल रही कि हिंदुस्तान में बादशाहों की जंग न तो किसी राष्ट्रवाद के लिये थी और न ही किसी धर्म के लिये । यह लड़ाई थी सिर्फ दो शासकों के बीच जो अपनी ताकत,सम्पदा व सम्पति को बढ़ाने के अभियान में जुटे थे। मराठो के साथ इब्राहिम गार्दी जैसे सुरमे थे वहीं अहमद शाह अब्दाली के साथ राजा अभिराम सिंह जैसे लोग । यह बात अलग है कि दोनों पक्ष अपने -२ पक्ष को विशुद्ध राष्ट्रसेवा में डुबोए थे ।
    कहानी का बहुत ही सजीव चित्रण इस फ़िल्म में किया है । फिर भी यह कथा है न कि इतिहास । इसे किसी भी प्रकार से अन्यथा नही लेना चाहिए । हर शासक यौद्धा के अपने निजि स्वार्थ थे जिसके आधार पर वह किसी एक पक्ष में शामिल हुए । इसे किसी भी राष्ट्रभक्ति के साथ जोड़ना बेमानी है ।
     1761 बहुत दूर का समय नही है । हरियाणा ,पंजाब अब उत्तराखंड में रहने वाले पंत, जोशी , पाटिल व रोड़ मराठा उन सैनिको के ही वंशज है जो यहां युद्ध लड़ने के लिये आये परन्तु हार कर यहीं बस गए । पानीपत के छाजपुर से सिवाह तक कि मिट्टी के एक -कण में इनका इतिहास है ।
    पानीपत के लोगों को इस युद्ध की जानकारी अपने इलाके के गांवों से लेनी होगी न कि फ़िल्म से । भाऊ पुर ,इसराना , नैन, अहर सभी तो गवाह रहे । हमें *भाऊ की लूट* कहावत का अर्थ भी ढूंढना होगा ।
   इस फ़िल्म की समीक्षा करने वालों को इतिहास का अध्येता भी बनना पड़ेगा ।
    प्रसिद्ध मराठी लेखक श्री विश्वास राव पाटिल की पुस्तक *पानीपत*  जो हिंदी में भी उपलब्ध है , इतिहास के विद्यार्थियों के लिये सहायक सिद्ध हो सकती है ।
  कुल मिला कर सभी कलाकारों का अभिनय सराहनीय है व कथावस्तु तो अतिउत्तम ।
राम मोहन राय,
पानीपत/ 09.12.2019

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